10-12-2010, 08:49 AM | #51 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
एक बार विजयनगर के राज दरबार में एक यात्री राजा कॄष्णदेव राय से मिलने के लिए आया। पहरेदारों ने राजा को उसके आने की सूचना दी। राजा ने यात्री को उनसे मिलने की आज्ञा दे दी। यात्री बहुत ही लम्बा व पतला था। उसका सारा शरीर नीला था। वह राजा के सामने सीधा खडा होकर बोला, “महाराज, मैं नीलदेश का नीलकेतु हूँ और इस समय मैं विश्व-भ्रमण पर निकला हुआ हूँ। अनेक देशों की यात्रा करते हुए मैं यहॉ पहुँचा हूँ। घूमते हुए मैंने अनेक देशों में विजय नगर और आपके न्यायपूर्ण शासन व उदार स्वाभाव के बारे मैं बहुत कुछ सुना। अतः मेरे मन मैं विजय नगर और आपको देखने व जानने की उत्सुकता और भी बढ गई। इसीलिए मैं आपसे मिलने व विजय नगर साम्राज्य को देखने की अभिलाषा से यहॉ आया हूँ।” राजा ने यात्री का स्वागत किया और उसे शाही अतिथि घोषित किया। राजा द्वारा मिले आदर व सत्कार से गदगद होकर यात्री बोला, “महाराज, मैं उस स्थान के विषय में जानता हूँ, जहॉ परियॉ रहती हैं। मैं आपके सामने अपनी जादुई शक्ति से उन्हें बुला सकता हूँ।” यह सुनकर राजा बहुत उत्सुक हो गए और बोले, “इसके लिए मुझे क्या करना होगा, नीलकेतु?” “महाराज, इसके लिए आपको नगर के बाहर स्थित तालाब के किनारे मध्यरात्री को अकेले आना होगा। तब मैं वहॉ परियों को नॄत्य के लिए बुला सकता हूँ।” नीलकेतु ने उत्तर दिया। राजा उसकी बात मान गए। उसी रात मध्यरात्रि में राजा अपने घोडे पर सवार होकर तालाब की ओर चल दिए। वहॉ पुराने किले से घिरा हुआ एक बहुत बडा तालाब था ।
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10-12-2010, 08:49 AM | #52 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
राजा के वहॉ पहुँचने पर नीलकेतु पुराने किले से बाहर निकला और बोला, “स्वागत है महाराज, आपका स्वागत है। मैंने सारी व्यवस्था कर दी है और पहले से ही परियों को यहॉ बुला लिया है। वे सभी किले के अन्दर हैं और शीघ्र ही आपके लिए नॄत्य करेंगी।”
यह सुनकर राजा चकित हो गए। उन्होंने कहा था कि मेरी उपस्थिति में परियों को बुलाओगे?” “यदि महाराज की यही इच्छा है तो मैं फिर से कुछ परियों को बुला दूँगा। अब अन्दर चला जाए ।” नीलकेतु बोला। राजा, नीलकेतु के साथ जाने के लिए घोडे से उतर गए। जैसे ही वह आगे बढे, उन्होने ताली की आवाज सुनी। शीघ्र ही उन्हे विजयनगर की सेना ने नीलकेतु को भी पकडकर बेडियों से बॉध दिया। “यह सब क्या है और यह हो क्या रहा है?” राजा ने आश्चर्य से पूछा। तभी तेनाली राम पेड के पीछे से निकला और बोला, “महाराज, मैं आपको बताता हूँ कि यह सब क्या हो रहा है? यह नीलकेतु हमारे पडोसी देश् का रक्षा मंत्री हैं । किले के अन्दर कोई परियॉ नहीं हैं। वास्तव में, इसके देश के सिपाही ही वहॉ परियों के रूप में छिपे हुए हैं अपने नकली परों में उन्होंने अपने हथियार छिपाए हुए हैं। यह सब आपको घेरकर मारने की योजना है।” “तेनाली राम, एक बार फिर मेरे प्राणो की रक्षा के लिए तुम्हें धन्यवाद। परन्तु, यह बतओ कि तुम्हें यह सब पता कैसे चला?” राजा बोले। \ तेनाली राम ने उत्तर दिया, “महाराज जब यह नीलकेतु दरबार में आया था, तो इसने अपने शरीर को नीले रंग से रंगा हुआ था । परन्तु यह जानकर कि विजयनगर का दरबार बुद्धिमान दरबारियों से भरा हुआ है, यह घबरा गया तथा पसीने-पसीने हो गया। पसीने के कारण इसके शरीर के कई अगो पर से नीला रंग हट गया तथा इसके शरीर का वास्तविक रंग दिखाई देने लगा। मैंने अपने सेवकों को इसका पीचा करने के लिए कहा । उन्होंने पाया कि ये सब यहॉ आपको मारने की योजना बना रहे हैं।” राजा तेनाली राम की सतर्कता से प्रभावित हुए और उसे पुनः धन्यवाद दिया ।
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10-12-2010, 08:50 AM | #53 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
पाप का प्रायश्चित
तेनाली राम ने जिस कुत्ते की दुम सीधी कर दी थी, वह बेचारा कमजोरी की वजह से एक-दो दिन में मर गया। उसके बाद अचानक तेनाली राम को जोरों का बुखार आ गया। एक पंडित ने घोषणा कर दी कि तेनाली राम को अपने पाप का प्रायश्चित करना पड़ेगा नहीं तो उन्हें इस रोग से छुटकारा नहीं मिल पाएगा। तेनाली राम ने पंडित से इस पूजा में आने वाले खर्च के बारे में पूछा। पंडित जी ने उन्हें सौ स्वर्ण मुद्राओं का खर्च बताया। “लेकिन इतनी स्वर्ण मुद्राएं मैं कहां से लाऊंगा?”, तेनाली राम ने पंडित जी से पूछा। पंडित जी ने कहा, “तुम्हारे पास जो घोड़ा है, उसे बेचने से जो रकम मिले वह तुम मुझे दे देना।” तेनाली राम ने शर्त स्वीकार कर ली। पंडित जी ने पूजा पाठ करके तेनाली राम के ठीक होने की प्रार्थना की। कुछ दिनों में तेनाली राम बिल्कुल स्वस्थ हो गए। लेकिन वह जानते था कि वह प्रार्थना के असर से ठीक नहीं हुए हैं, बल्कि दवा के असर से ठीक हुए हैं। तेनाली राम पंडित जी को साथ लेकर बाजार गए। उनके एक हाथ में घोड़े की लगाम थी और दूसरे में एक टोकरी। उन्होंने बाजार में घोड़े की कीमत एक आना बताई और कहा, “जो भी इस घोड़े को खरीदना चाहता है, उसे यह टोकरी भी लेनी पड़ेगी, जिसका मूल्य है एक सौ स्वर्ण मुद्राएं।” इस कीमत पर वे दोनों चीजें एक आदमी ने झट से खरीद लीं। तेनाली राम ने पंडित जी की हथेली पर एक आना रख दिया, जो घोड़े की कीमत के रूप में उसे मिला था। एक सौ स्वर्ण मुद्राएं उन्होंने अपनी जेब में डाल ली और चलते बने। पंडित जी कभी अपनी हथेली पर पड़े सिक्के को तो कभी जाते हुए तेनाली राम को देख रहे थे।
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10-12-2010, 08:50 AM | #54 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
बहुरूपिया राजगुरु
तेनालीराम के कारनामों से राजगुरु बहुत परेशान थे। हर दूसरे-तीसरे दिन उन्हें तेनालीराम के कारण नीचा देखना पड़ता था। वह सारे दरबार में हँसी का पात्र बनता था। उन्होंने सोचा कि यह दुष्ट कई बार महाराज के मृत्युदंड से भी बच निकला है। इससे छुटकारा पाने का केवल एक ही रास्ता है कि मैं स्वयं इसको किसी तरह मार दूँ। उन्होंने मन ही मन एक योजना बनाई। राजगुरु कुछ दिनों के लिए तीर्थयात्रा के बहाने नगर छोड़कर चले गए और एक जाने-माने बहुरुपिए के यहाँ जाकर उससे प्रशिक्षण लेने लगे। कुछ समय में वे बहुरुपिए के सारे करतब दिखाने में कुशल हो गए। वे बहुरुपिए के वेश में ही वापस नगर चले आए और दरबार में पहुँचे। उन्होंने राजा से कहा कि वे तरह-तरह के करतब दिखा सकते है। राजा बोले, ‘तुम्हारा सबसे अच्छा स्वांग कौन-सा है?’ बहुरुपिए ने कहा, ‘मैं शेर का स्वांग बहुत अच्छा करता हूँ, महाराज। लेकिन उसमें खतरा है। उसमें कोई घायल भी हो सकता है और मर भी सकता है। इस स्वांग के लिए आपको मुझे एक खून माफ करना पड़ेगा।’ महाराज ने उनकी शर्त मान ली। ‘एक शर्त और है महाराज। मेरे स्वांग के समय तेनालीराम भी दरबार में अवश्य उपस्थित रहे,’ बहुरुपिया बोला। ‘ठीक है, हमें यह शर्त भी स्वीकार है,’ महाराज ने सोचकर उत्तर दिया। इस शर्त को सुनकर तेनालीराम का माथा ठनका। उसे लगा कि यह अवश्य कोई शत्रु है, जो स्वांग के बहाने मेरी हत्या करना चाहता है। अगले दिन स्वांग होना था। तेनालीराम अपने कपड़ों के नीचे कवच पहनकर आया ताकि अगर कुछ गड़बड़ हो तो वह अपनी रक्षा कर सके। स्वांग शुरू हुआ। बहुरुपिए की कला का प्रदर्शन देखकर सभी दंग थे। कुछ देर तक उछलकूद करने के बाद अचानक बहुरुपिया तेनालीराम के पास पहुँचा और उस पर झपट पड़ा। तेनालीराम तो पहले से ही तैयार था। उसने धीरे से अपने हथनखे से उस पर वार किया। तिलमिलाता हुआ बहुरुपिया उछलकर जमीन पर गिर पड़ा।
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10-12-2010, 08:50 AM | #55 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
तेनालीराम पर हुए आक्रमण से राजा भी एकदम घबरा गए थे। कहीं तेनालीराम को कुछ हो जाता तो? उन्हें बहुरुपिए की शर्तों का ध्यान आया। एक खून की माफी और तेनालीराम के दरबार में उपस्थित रहने की शर्त। अवश्य दाल में कुछ काला है।
उन्होंने तेनालीराम को अपने पास बुलाकर पूछा, ‘तुम ठीक हो ना? घाव तो नहीं हुआ?’ तेनालीराम ने महाराज को कवच दिखा दिया। उसे एक खरोंच भी न आई थी। महाराज ने पूछा, ‘क्या तुम्हें इस व्यक्ति पर संदेह था, जो तुम कवच पहनकर आए हो?’ ‘महाराज, अगर इसकी नीयत साफ होती तो यह दरबार में मेरे उपस्थित रहने की शर्त न रखता,’ तेनालीराम ने कहा। महाराज बोले, ‘इस दुष्ट को मैं दंड देना चाहता हूँ। इसने तुम्हारे प्राण लेने का प्रयत्न किया है। मैं इसे अभी फाँसी का दंड दे सकता हूँ लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम स्वयं इससे बदला लो।’ ‘जी हाँ, मैं स्वयं ही इसको मजा चखाऊँगा।’ तेनालीराम गंभीरता से बोला।‘वह कैसे?’ महाराज ने पूछा। ‘बस आप देखते जाइए’, तेनालीराम ने उत्तर दिया। फिर तेनालीराम ने बहुरुपिए से कहा, ‘महाराज, तुम्हारी कला से बहुत प्रसन्न हैं। वह चाहते हैं कि कल तुम सती स्त्री का स्वांग दिखाओ। अगर उसमें तुम सफल हो गए तो महाराज की ओर से तुम्हें पुरस्कार के रूप में पाँच हजार स्वर्णमुद्राएँ भेंट की जाएँगी।’ बहुरुपिए के वेश में छिपे राजगुरु ने मन ही मन कहा कि इस बार तो बुरे फँसे, लेकिन अब स्वांग दिखाए बिना चारा भी क्या था? तेनालीराम ने एक कुंड बनवाया। उसमें बहुत-सी लकड़ियाँ जलवा दी गईं। वैद्य भी बुलवा लिए गए कि शायद तुरंत उपचार की आवश्यकता पड़े। बहुरुपिया सती का वेश बनाकर पहुँचा। उसका पहनावा इतना सुंदर था कि कोई कह नहीं सकता था कि वह असली स्त्री नहीं है। आखिर उसे जलते कुंड में बैठना ही पड़ा। कुछ पलों में ही लपटों में उसका सारा शरीर झुलसने लगा। तेनालीराम से यह देखा न गया। उसे दया आ गई। उसने बहुरुपिए को कुंड से बाहर निकलवाया। राजगुरु ने एकदम अपना असली रूप प्रकट कर दिया और तेनालीराम से क्षमा माँगने लगे। तेनालीराम ने हँसते हुए उसे क्षमा कर दिया और उपचार के लिए वैद्यों को सौंप दिया। कुछ ही दिनों में राजगुरु स्वस्थ हो गया। उसने तेनालीराम से कहा, ‘आज के बाद मैं कभी तुम्हारे लिए मन में शत्रुता नहीं लाऊँगा। तुम्हारी उदारता ने मुझे जीत लिया है। आज से हमें दोनों अच्छे मित्र की तरह रहेंगे।’ तेनालीराम ने राजगुरु को गले लगा लिया। उसके बाद तेनालीराम और राजगुरु में कभी मनमुटाव नहीं हुआ।
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10-12-2010, 08:51 AM | #56 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
बाबापुर की रामलीला
हर वर्ष दशहरे से पूर्व काशी की नाटक-मण्डली विजयनगर आती थी। सामान्यतः वे राजा कॄष्णदेव राय तथा विजयनगर की प्रजा के लिए रामलीला किया करते थे। परन्तु एक बार राजा को सूचना मिली कि नाटक-मण्डली विजयनगर नहीं आ रही है। इसका कारण यह था कि नाटक-मण्डली के कई सदस्य बीमार हो गए थे। यह सूचना पाकर राजा बहुत दुःखी हुए क्योंकि दशहरे में अब कुछ ही दिन बाकी थे। इतने कम दिनों में दूसरी नाटक-मण्डली की भी व्यवस्था नहीं की जा सकती थी। पास में दूसरी कोई नाटक-मण्डली नहीं होने के कारण इस वर्ष रामलीला होने के आसार दिखाई नहीं पड रहे थे। जबकी दशहरे से पूर्व रामलीला होना विजयनगर की पुरानी संस्कॄति थी। महाराज को इस तरह दुःखी देख कर राजगुरु बोले, “महाराज, यदि चाहें तो हम रामपुर के कलाकारों को संदेश भेज सकते हैं?” “परन्तु, इसमें तो कुछ सप्ताह का समय लगेगा।” राजा ने निराश स्वर में कहा। इस पर तेनाली राम बोले, ” महाराज,मैं पास ही की एक मण्डली को जानता हूँ, वे यहॉ दो दिन में आ जाएँगे और मुझे विश्वास है कि वे रामलीला का अच्छा प्रदशन करेंगे।” यह सुनकर राजा प्रसन्न हो गए और तेनाली राम को मण्डली को बुलाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई, साथ ही मण्डली के रहने व खाने-पीने की व्यवस्था का भार भी तेनाली के ही सुपुर्द कर दिया गया । शीघ्र ही रामलीला के लिए सारी व्यवस्था होनी शुरु हो गई। रामलीला मैदान को साफ किया गया। एक बडा-सा मंच बनाया गया। नवरात्र के लिए नगर को सजाया गया । रामलीला देखने के लिए लोग बहुत उत्सुक थे क्योंकि इसके पूर्व काशी की नाटक-मण्डली के न आने की सूचना से वे काफी दुःखी थे। परन्तु अब नई नाटक-मण्डली के आने की सूचना से उनका उत्साह् दोगुना हो गया था। महल के निकट एक मेला भी लगाया गया था। कुछ ही दिनों में मण्डली रामलीला के लिए तैयार हो गई। राजा, दरबारी, मंत्री व प्रजा प्रतिदिन रामलीला देखने आते। दशहरे के दिन की अन्तिम कडी तो बहुत ही सराहनीय थी। मण्डली में अधिकतर कलाकार बच्चे थे। उनकी कलाकारी देखकर लोगों की ऑखों में ऑसू तक आ गये। दशहरे के पश्चात राजा ने कुछ मंत्रियों तथा मण्डली के सदस्यों को महल में भोजन के लिए बुलाया। भोजन के पश्चातराजा ने मण्डली के सदस्यों को पुरस्कार दिया। फिर वे तेनाली राम से बोले, “तुम्हें इतनी अच्छी मण्डली कैसे मिली?” “बाबापुर से महाराज,” तेनाली राम ने उत्तर दिया “बाबापुर्! यह कहॉ है? मैने इसके विषय में कभी नहीं सुना।” राजा ने आश्चर्य से पूछा। “बाबापुर विजयनगर के पास ही है, महाराज।” तेनाली राम बोला। तेनाली राम की बात सुनकर मण्डली के कलाकार मण्डली के कलाकार मुस्करा दिए। राजा ने उनसे उनके इस प्रकार मुस्कराने का कारण पूछा तो मण्डली का एक छोटा बालक सदस्य बोला, “महाराज, वास्तव में हम लोग विजयनगर से ही आए हैं। तेनाली बाबा ने तीन दिन में हमें ये नाटक करना सिखाया था, इसलिए इसे हम बाबापुर की रामलीला कहते हैं।” यह सुनकर राजा भी खिलखिलाकर हँस पडे। अब उन्हें भी बाबापुर के रहस्य का पता चल गया था।
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10-12-2010, 08:52 AM | #57 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
मटके में मुंह
एक बार महाराज कॄष्णदेव राय किसी बात पर तेनालीराम से नाराज हो गए। गुस्से में आकर उन्होंने तेनालीराम से भरी राजसभा में कह दिया कि कल से मुझे दरबार में अपना मे अपना मुंह मत दिखाना। उसी समय तेनालीराम दरबार से चला गया। दूसरे दिन जब महाराज राजसभा की ओर आ रहे थे तभी एक चुगलखोर ने उन्हें ये कहकर भडका दिया कि तेनालीराम आपके आदेश के खिलाफ दरबार में उपस्थित हैं। बस यह सुनते ही महाराज आग-बगुला हो गए। चुगलखोर दरबारी आगे बोला आपने साफ कहा था कि दरबार में आने पर कोडे पडेंगे, इसकी भी उसने कोई परवाह नहीं की । अब तो तेनालीराम आपके हुक्म की भी अवहेलना करने में जुटा हैं। राजा दरबार में पहुंचे। उन्होंने देखा कि सिर पर मिट्टी का एक घडा ओढे तेनालीराम विचित्र प्रकार की हरकतें कर रहा हैं। घडे पर चारों ओर जानवरों के मुंह बने थे। तेनालीराम! ये क्या बेहुदगी हैं। तुमने हामारी आज्ञा का उल्लंघन किया हैं। महाराज ने कहा दण्डस्वरुप कोडे खाने के तैयार हो जाओ। मैंने कौन सी आपकी आज्ञा नहीं मानी महाराज? घडे में मुंह छिपाए हुए तेनालीराम बोला-आपने कहा था कि कल मैं दरबार में अपना मुंह न दिखाऊं क्या आपको मेरा मुंह दिख रहा हैं। हे भगवान! कहीं कुम्भार ने फुटा घडा तो नहीं दे दिया। यह सुनते ही महाराज की हंसी छूट गई। वे बोले तुम जैसे बुद्धिमान और हाजिरजवाब से कोई नाराज हो ही नहीं सकता। अब इस घडे को हटाओ और सीधी तरह अपना आसन ग्रहण करो।
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10-12-2010, 08:53 AM | #58 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
मनहूस रामैया
रामैया नाम के आदमी के विषय में नगर-भर में यह प्रसिद्ध था कि जो कोई प्रातः उसकी सूरत देख लेता था, उसे दिन-भर खाने को नहीं मिलता था। इसलिए सुबह-सुबह कोई उसके सामने आना पसंद नहीं करता था। किसी तरह यह बात राजा कृष्णदेव राय तक पहुँच गई। उन्होंने सोचा, ‘इस बात की परीक्षा करनी चाहिए।’ उन्होंने रामैया को बुलवाकर रात को अपने साथ के कक्ष में सुला दिया और दूसरे दिन प्रातः उठने पर सबसे पहले उसकी सूरत देखी। दरबार के आवश्यक काम निबटाने के बाद राजा जब भोजन के लिए अपने भोजन कक्ष में गए तो भोजन परोसा गया। अभी राजा ने पहला कौर ही उठाया था कि खाने में मक्खी दिखाई दी। देखते-ही-देखते उनका मन खराब होने लगा और वह भोजन छोड़कर उठ गए। दोबारा भोजन तैयार होते-होते इतना समय बीत गया कि राजा की भूख ही मिट गई। राजा ने सोचा-‘अवश्य यह रामैया मनहूस है, तभी तो आज सारा दिन भोजन नसीब नहीं हुआ।’ क्रोध में आकर राजा ने आज्ञा दी कि इस मनहूस को फाँसी दे दी जाए। राज्य के प्रहरी उसे फाँसी देने के लिए ले चले। रास्ते में उन्हें तेनालीराम मिला। उसने पूछा तो रामैया ने उसे सारी बात कह सुनाई। तेनालीराम ने उसे धीरज बँधाया और उसके कान में कहा, ‘तुम्हें फाँसी देने से पहले ये तुम्हारी अंतिम इच्छा पूछेंगे। तुम कहना, ‘मैं चाहता हूँ कि मैं जनता के सामने जाकर कहूँ कि मेरी सूरत देखकर तो खाना नहीं मिलता, पर जो सवेरे-सवेरे महाराज की सूरत देख लेता है, उसे तो अपने प्राण गँवाने पड़ते हैं।’ यह समझाकर तेनालीराम चला गया। फाँसी देने से पहले प्रहरियों ने रामैया से पूछा, ‘तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?’ रामैया ने वही कह दिया, जो तेनालीराम ने समझाया था। प्रहरी उसकी अनोखी इच्छा सुनकर चकित रह गए। उन्होंने रामैया की अंतिम इच्छा राजा को बताई। सुनकर राजा सन्न रह गए। अगर रामैया ने लोगों के बीच यह बात कह दी तो अनर्थ हो जाएगा। उन्होंने रामैया को बुलवाकर बहुत-सा पुरस्कार दिया और कहा-‘यह बात किसी से मत कहना।’
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10-12-2010, 08:53 AM | #59 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
महान पुस्तक
एक बार राजा कॄष्णदेव राय के दरबार में एक महान विद्वान आया। उसने वहॉ दरबार में उपस्थित सभी विद्वानो को चुनौती दी कि पूरे विश्व में उसके समान कोई बुध्दिमान व विद्वान नहीं है। उसने दरबार में उपस्थित सभी दरबारियों से कहा कि यदि उनमें से कोई चाहे तो उसके साथ किसी भी विषय पर वाद-विवाद कर सकता है। परन्तु कोई भी दरबारी उससे वाद-विवाद करने का साहस न कर सका। अन्त में सभी दरबारी सहायता के लिए तेनाली राम के पास गए । तेनाली राम ने उन्हें सहायता का आश्वासन दिया और दरबार में जाकर तेनाली ने विद्वान की चुनौती स्वीकार कर ली। दोनों के बीच वाद-विवाद का दिन भी निश्चित कर दिया गया। निश्चित दिन तेनाली राम एक विद्वान पण्डित के रुप में दरबार पँहुचा। उसने अपने एक हाथ में एक बडा सा गट्ठर ले रखा था, जो देखने में भारी पुस्तकों के गट्ठर के समान लग रहा था। शीघ्र ही वह महान विद्वान भी दरबार में आकर तेनाली राम के सामने बैठ गया। पण्डित रुपी तेनाली राम ने राजा को सिर झुकाकर प्रणाम किया और गट्ठर को अपने और विद्वान के बीच में रख दिया, तत्पश्चात दोनों वाद-विवाद के लिए बैठ गए। राजा जानते थे कि पण्डित का रुप धरे तेनाली राम के मस्तिष्क में अवश्य ही कोई योजना चल रही होगी इसलिए वह पूरी तरह आश्वस्त थे। अब राजा ने वाद-विवाद आरम्भ करने का आदेश दिया। पण्डित के रुप में तेनाली राम पहले अपने स्थान पर खडा होकर बोला, “विद्वान महाशय! मैंने आपके विषय मैं बहुत कुछ सुना है। आप जैसे महान विद्वान के लिए मैं एक महान तथा महत्वपूर्ण पुस्तक लाया हूँ, जिस पर हम लोग वाद-विवाद करेंगे।” “महाशय! कॄपया मुझे इस पुस्तक का नाम बताइए।” विद्वान ने कहा। तेनाली राम बोले, “विद्वान महाशय, पुस्तक का नाम है, ‘तिलक्षता महिषा बन्धन’
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10-12-2010, 08:53 AM | #60 |
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Re: तेनाली राम की कहानियॉ
विद्वान हैरान हो गया। अपने पूरे जीवन में उसने इस नाम की कोई पुस्तक न तो सुनी थी न ही पढी थी। वह घबरा गया कि बिना पढीव सुनी हुई पुस्तक के विषय में वह कैसे वाद्-विवाद करेगा। फिर भी वह बोला, “अरे, यह तो बहुत ही उच्च कोटि की पुस्तक है। इस पर वाद-विवाद करने में बहुत ही आनन्द आएगा । परन्तु आज यह वाद-विवाद रहने दिया जाए। मेरा मन भी कुछ उद्विनहै और इसके कुछ महत्वपूर्ण तथ्यूं को मैं भूल भी गया हूँ। कल प्रातः स्वस्थ व स्वच्छ मस्तिष्क के साथ हम वाद-विवाद करेगें।”
तेनाली राम के अनुसार, वह विद्वान तो आज के वाद-विवाद के लिए पिछले कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था परन्तु अतिथि की इच्छा का ध्यान रखना तेनाली का कर्तव्य था। इसलिए वह सरलता से मान गया। परन्तु वाद-विवाद में हारने के भय से वह विद्वान नगर छोडकर भाग गया। अगले दिन प्रातः जब विद्वान शाही दरबार में उपस्थित नहीं हुआ, तो तेनाली राम बोला, “महाराज, वह विद्वान अब नहीं आएगा। वाद-विवाद में हार जाने के भय से लगता है, वह नगर छोडकर चला गया है।” “तेनाली, वाद-विवाद के लिय लाई गई उस अनोखी पुस्तक के विषय में कुछ बताओ जिससे कि डर कर वह विद्वान भाग गया ?” राजा ने पूछा । “महाराज, वास्तव में, ऐसी कोई भी पुस्तक नहीं है। मैंने ही उसका यह नाम रखा था। ‘तिलक्षता महिशा बन्धन ‘, इसमें ‘तिलक्षता का अर्थ है, ‘शीशम की सूखी लकडियॉ’ और ‘महिषा बन्धन का अर्थ है, ‘वह रस्सी जिससे भैसों को बॉधा जाता है।’ मेरे हाथ में वह गट्ठर वास्तव में शीशम की सूखी लकडिओं का था, जो कि भैंस को बॉधने वाली रस्सी से बन्धी थीं। उसे मैंने मलमल के कपडे में इस तरह लपेट दिया था ताकी वह देखने में पुस्तक जैसी लगे।” तेनाली राम की बुद्धिमता देखकर राजा व दरबारी अपनी हँसी नहीं रोक पाए। राजा ने प्रसन्न होकर तेनाली राम को ढेर सारे पुरस्कार दिया।
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