16-04-2012, 09:38 PM | #51 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
साकार-निराकार उपासना अर्जुन- कुछ जपें आपको सगुण मान कुछ जपें रूप-रंग-रहित जान हैं भक्त कौन से प्रिय प्रभो? निर्गुण या सगुण उपासक जो? भगवान- अपने मन को एकाग्र बना और एक जगह पर ध्यान टिका जो जपें रूप मेरा निर्गुण वे भक्त मुझे प्यारे हैं सुन जो भक्ति-भाव हृदय में भर निज तन-मन मुझको अर्पित कर मुझको फल-फूल और पत्र चढ़ा हैं भजते रूप सगुण मेरा वे भक्त नहीं कम प्यारे हैं वे भी आँखों के तारे हैं निर्गुण होता है निराधार वह अगम-अगोचर-निराकार मन वहाँ नहीं टिक पाता है पल में विचलित हो जाता है पर सरल पूजना रूप सगुण मन सहज वहाँ टिक जाए सुन तू सगुण रूप जप-भज मेरा अर्जुन, इसमें हीं हित तेरा उसमें भी ध्यान न टिके अगर अभ्यास से मन को वश में कर हो फ़िर भी अगर न वश में मन कर कर्म सभी मुझको अर्पण इतना भी अगर न तुझसे हो तो अर्जुन, तज फल-इच्छा को इससे होता है सुख ही सुख तन-मन को त्रास न पाता दुख हैं श्रेष्ठ भक्त के लक्षण जो अब ध्यान से जान-समझ उसको जो स्वार्थ-रहित, जो द्वेष-रहित जो करे किसी का नहीं अहित जो नर है सागर-सा उदार जो सबसे करता स्नेह-प्यार जो दयावान, जो क्षमावान जिस नर को लाभ-हानि समान जो वश में कर अपना तन-मन जो मति को कर मेरे अर्पण नित मेरा ध्यान लगाता है वह भक्त श्रेष्ठ कहलाता है जिससे न किसी को कोई भय जो स्वयं सदा रहता निर्भय जो हर्ष, शोक, भय से अजान वह भक्त श्रेष्ठ है, तू मुझसे जान जिसको छू पाया नहीं मान जो पावन है गंगा समान जिसको कोई भी नहीं गैर जो सबकी मांगे सदा खैर जिसमें फरेब का नहीं नाम निन्दा-चुगली से नहीं काम जिसके मन में है मन-शरीर जो थिर बुद्धि, संतुष्ट, धीर जो भक्तियुक्त, जो धर्मयुक्त जो काम-भावना से है मुक्त मेरा करता हर समय ध्यान वह भक्त श्रेष्ठ है, तू मुझसे जान *** *** *** |
16-04-2012, 09:39 PM | #52 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
तेरहवाँ अध्याय
परम ब्रह्म भगवान- अब कहता हूँ वह परम ज्ञान तू सुख पाएगा जिसे जान वह परम ब्रह्म अद्भुत अनूप उसके अनेक आकार-रूप उसके अनगिन हैं सिर, मुख, धड़ उसके अनगिन है दृग, पग, कर वह जग में सबको कर आवृत नित अपने में रखता है स्थित इस जग का है आधार वही इस जग का पालनहार वही जल, थल, नभ में वह करे वास सारा ब्रह्माण्ड उसका निवास वह ही मन है, वह ही उमंग वह ही जल, वह ही तरंग वह तिमिर-रहित ज्योति महान वह है प्रकाशमय परम ज्ञान वह बसा-समाया कण-कण में वह विद्यमान जड़-चेतन में कुछ ज्ञान से उस प्रभु को पाते कुछ प्रेम से उसको प्रकटाते कुछ पाते कर्म के पथ पर चल कुछ पाते हैं विश्वास के बल पर जो नर प्रभु को पाते हैं वे भव-सागर तर जाते हैं *** *** *** |
16-04-2012, 09:41 PM | #53 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
चौदहवाँ अध्याय
सत-रज-तम भगवान- है ज्ञानों में जो परम ज्ञान अब उसे समझ, अब उसे जान यह परम ज्ञान मुनिजन पाकर बिना यास गए भव-सागर तर यह परम ज्ञान जो ग्रहण करे वह जन्म-मृत्यु में नहीं पड़े इस परम ज्ञान को धारण कर मेरे स्वरूप को पाता नर मैंने अपनी माया द्वारा यह खेल रचाया है सारा क्या सतगुण, रजोगुण, और तमोगुण ये तीनों ही हैं माया-कृत, अर्जुन इनमें अद्भुत है आकर्षण मोहित कर लें नर का तन-मन सत, बाँधे धर्म के बंधन में रज, बाँधे कर्म के बंधन में तम, बन कर भ्रम का फ़ंदा नर को कर देता है अंधा सत, करता नर को धर्मलीन रज, करता नर को कर्मलीन तम, भ्रम को उत्पन्न कर नर का विवेक लेता है हर सत, रज-तम पर जाए यों छा ज्यों अंधकार पर सूर्य-प्रभा रज, सत-तम पर छाए ऐसे तन-मन पर मादकता जैसे ऐसे तम छाये सत-रज पर जैसे नभ में आंधी-अंधड़ जब कर्मों से हो दीप्त ज्ञान तब सत मन में है उदित जान जब लोभ-लालसा अधिक बढ़े तब राजस मन पर राज करे जब भ्रम-अज्ञान बढ़े, अर्जुन तब जानो तामस का शासन जिसमें सतगुण का है निवास वह स्वर्गलोक में करे वास जो नर होता रजगुण-धारी वह कर्म-लोक का अधिकारी जो तम प्रधान होता, अर्जुन वह नरकलोक को पाता है, सुन सतगुण का है फ़ल निर्मल रजगुण का दुखमय होता फ़ल तमगुण का फ़ल होता तममय जो नर का कर देता है क्षय सतगुण से उपजे परम ज्ञान जो नर को देता सुख महान रजगुण से लेता लोभ जन्म जो नर में भर देता उद्यम तमगुण से उत्पन्न हो प्रमाद जो नर में भर देता है विषाद जो नर हो जाता है गुणातीत वह तन-मन लेता सहज जीत वह हो जाता मेरे समान उसमें मुझमें मत भेद जान |
16-04-2012, 09:41 PM | #54 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
गुणातीत के लक्षण
अर्जुन- क्या गुणातीत नर के लक्षण? कृपा करें, बतलाएँ, हे भगवन! वह नर कैसे दिखते हैं? वह नर कैसे बोलते-चलते हैं? हे प्रभु! कहें वह परमरीत जिससे नर बनता गुणातीत |
16-04-2012, 09:42 PM | #55 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
भगवान-
जो करे किसी में नहीं भेद जो कर गए का न करे खेद जिसको छू पाया नहीं मान जो पावन है गंगा समान जो मोह-लोभ में नहीं पड़े जो काम-क्रोध से रहे परे वह नर होता है गुणातीत वह जन्म-मुक्त, वह मृत्यु-जीत जो गुणातीत बनना चाहे जो इस रंग में रंगना चाहे वह साफ़ करे मन का दर्पण सब कर्म करे मुझे अर्पण शुभ कर्म कमाता रहे सदा निज धर्म निभाता रहे सदा चलता मेरे अनुसार रहे करता मुझ-सा व्यवहार रहे वह नर बन जाता गुणातीत खुद ही लेता खुद को है जीत *** *** *** |
16-04-2012, 09:43 PM | #56 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
पंद्रहवाँ अध्याय
परमपद और पुरूषोत्तम भगवान- मिट गया पार्थ जिसका गुमान सुख-दुख है जिसके लिए समान जिसके वश में है क्रोध और काम पा लेता है वही परम धाम जिस परम धाम को पा कर नर तर जाता है यह भव सागर मैं रवि बन नित्य प्रकाशित हो देता हूँ जीवन जीवों को मैं निशि में चांद-चांदनी बन करता हूँ पौधों का पोषण अर्जुन, मैं ही हूँ वह धरती जो जीवों को धारण करती मैं ही बन कर के जठरानल हूँ रक्त बनाता, ले भोजन-जल जन-जन में मैं ही वर्तमान कण-कण में मैं ही विद्यमान मैं ही वेदों का परम सार मैं ही वेदों का जानकार अर्जुन, मैं ही सर्वोत्तम हूँ अर्जुन, मैं ही पुरूषोत्तम हूँ जो नर लेता है मुझे जान वह हो जाता मेरे समान *** *** *** |
16-04-2012, 09:44 PM | #57 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
सोलहवाँ अध्याय
सुर और असुर भगवान- सुर-असुर कौन अब जान जरा दोनों को ले पहचान जरा निर्धन को द्रव्य लुटाते जो निर्धन को सुख पहुँचाते जो जो दीनों का दुख हरते हैं पतितों को थामा करते हैं जो कभी नहीं होते अधीर जो कर्म-वीर, जो धर्म-वीर जिनके मन में है नहीं वैर जिनको कोई भी नहीं गैर जो क्षमावान, जो दयावान जो पापमुक्त, जो पुण्यवान अर्जुन, होते सुर ऐसे नर सुरधर्म कमाते धरती पर जिनके मन में है दुर्विचार है नहीं दया, है नहीं प्यार है पाप-मूल जिनमें गुमान अर्जुन, उनको तू असुर जान जग काम-वासना से उत्पन्न है काम-वासना ही जीवन जग का कोई न सृजनहार अर्जुन, जिनका ऐसा विचार जो क्रूर कर्म करने वाले जो हैं अधर्म करने वाले जिनके स्वभाव में है विकार जिनके दुषित तन-मन-विचार जो दम्भ-मान-मद में हैं चूर जिनसे विवेक और अज्ञान दूर जिनका मन विषयों का निवास जो काम-क्रोध के बने दास जिनकी तृष्णा का नहीं पार जो करते मन में यह विचार पाया है आज मुझे धन यह कल प्राप्त होगा मुझे धन वह इस अरि को मैंने मारा है वह अरि भी मुझसे हारा है मुझ-सा कोई धनवान नहीं मुझ-सा कोई बलवान नहीं मैं ही उत्तम, मैं ही महान हैं और नहीं मेरे समान हैं असुर कहाते ऐसे नर भू-भार बढ़ाते ऐसे नर सुर भार धरा का हरते हैं असुरों को मारा करते हैं अर्जुन, तू सुर बन असुर मार उठ धनुष धार, हर धरा भार *** *** *** |
16-04-2012, 09:44 PM | #58 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
सत्रहवाँ अध्याय
श्रद्धा, आहार, तप, यज्ञ, दान अर्जुन- देवों की पूजा करते जो देवों की सेवा करते जो उनकी जो गति हो बतलाएँ हे प्रभो! कृपा कर बतलाएँ |
16-04-2012, 09:45 PM | #59 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
भगवान-
जिसकी होती श्रद्धा जैसी उसकी गति भी होती वैसी सात्विक-जन पूजें देवों को राजस-जन पूजें यक्षों को तामस-जन पूजें भूतों को तामस-जन पूजें प्रेतों को जिसका जैसा होता भोजन वह उसी तरह का जाता बन सात्विक-जन खाते भोजन वो बल, बुद्धि, आयु बढ़ाता जो रसमय, स्वादिष्ट, प्रिय भोजन खाया करते हैं राजस-जन भोजन कच्चा, बासी, नीरस खाया करते हैं जन-तामस जो कर्म-धर्ममय हो, अर्जुन वह यज्ञ होता है सात्विक सुन जिसमें हो फ़ल का अहंकार उस यज्ञ को राजस यज्ञ विचार जिसमें कोई विधि मंत्र न हो, अर्जुन वह यज्ञ तामस होता है सुन गुरू, ज्ञानी, सुर, ब्राह्मण पूजा यह तप महान तप है तन का पढ़ना ग्रंथों को सुबह-शाम लेना ईश्वर का नित्य नाम बोलना मधुर-मीठा, अर्जुन है तप महान वाणी का सुन पावन चिंतन, पावन विचार मन पर रखना संयम अपार निज मन को रखना साफ़ सदा अर्जुन, महान तप है मन का जो तप होता फ़ल इच्छा बिन उस तप को तू सात्विक तप गिन जो तप होता पाने को यश अर्जुन, वह तप होता है राजस तप अनहित कारण होता जो अर्जुन, ऐसा तप तामस हो जन, देश, काल को देख जान कर्त्तव्य-भाव से दिया दान सात्विक सच्चा कहलाता है वह सात्विक फ़ल का दाता है मन में प्रतिफ़ल की कर आशा अर्जुन, जो दान दिया जाता वह दान, सर्वथा हो राजस उससे नर पाता वैभव-यश जो बिन सत्कार दिया जाता वह दान है तामस कहलाता उससे नर पाप कमाता है जीवन में अपयश पाता है *** *** *** |
16-04-2012, 09:46 PM | #60 |
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Re: श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)
अठारहवाँ अध्याय
त्याग हे दयावान कर तनिक दया दें मुझे त्याग का अर्थ बता भगवान- कर्मों को तजना त्याग जान हर त्याग नहीं होता समान जो त्याग करे हो मोह के वश हे पार्थ, त्याग उसका तामस जो त्याग करे पाने को यश हे पार्थ, त्याग उसका राजस जो करे त्याग फल-इच्छा का हे पार्थ, त्याग सात्विक उसका जो नर फल त्यागी, अर्जुन वह नहीं कर्म-फल भोगे सुन अर्जुन हैं पाँच कर्म-कारण कर्त्ता, साधन, थल, दैव, जतन फ़िर खुद को ही कहना कर्त्ता है नादानी और मुर्खता जिसमें कर्त्ता का नहीं मान हे अर्जुन, वह नर है महान |
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