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Old 10-04-2011, 01:53 PM   #51
Sikandar_Khan
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शराब से वीर-बहूटी उसकी आँखें जैसे मेरे भीतर कुछ कंपा-सा गईं। बिखरे बाल और दम्भ से भरे चेहरे पर मस्तक उसने मेरी अभ्यर्थना में जरा-सा झुका भर दिया। प्रीतो ने कहा, 'यही दीदी है।' मैं स्नेह से दोनों को अंदर ले आई। कमरे में दोनों को बिठाकर थोड़ा-सा मुस्कुरायी भी। चाय का पानी चढ़ाने जैसे ही रसोईघर में गई, प्रीतो पीछे-पीछे आ गई।
हँसकर बोली, 'कैसा है?'
मैंने कहा, 'अच्छा।'
वो हँसी, फिर बोली, 'शराब तो रात को पीता है। आँखें हमेशा लाल रहती हैं।' होठों के कई बल सँवारकर वो हँसने लगी। हँसते-हँसते उसकी भरी आँखों को नज़रअंदाज़ करके मैंने कहा, 'मैडम को मिली?'
प्रीतो ने नीची नज़र करके कहा, 'गई थी। उसने निकाल दिया। और कहा दोबारा यहाँ मत आना। प्रकाश, यही आदमी बड़ा गुस्सा हुआ।' थोड़ा ठहरकर बोली, 'दीदी, मुझे पुरानी धोतियाँ देना। ये एक ही धोती है। मैडम की थी।'

मैंने उसे धोतियों के साथ शगुन के रुपए भी दिए और प्यार से कहा, 'प्रीतो, मैं हूँ, कभी उन्नीस-बीस हो तो याद रखना।' प्रीतो मेरे सीने से लगकर रो पड़ी। मुझे मालूम था वो गलती कर चुकी है। ये आदमी पति जैसा तो नहीं लग रहा। मैंने उसे भी जाते समय शगुन दिया। पता नहीं क्या हुआ उसने मेरे पाँव छुए। मुझे लगा बेटियाँ ऐसी ही विदा होती हैं।

फिर कुछ दिन बाद मैडम का फोन आया। बगैर भूमिका बाँधे उसने कहा, 'क्या दोस्ती निबाह रही हो मिसेज आदित्य वर्मा। कल तुम्हारी वही साड़ी पहने प्रीतो मिली थी जो हमने साथ-साथ कॉलेज के मेले से खरीदी थी। कमाल किया तुमने, साड़ी दी तो धुँआ तक न निकाला कि वो आई थी। देखना कहीं साड़ी से कभी आदित्य को भुलावा न हो।' ये कहकर उसने ठक्क से फोन बंद कर दिया।
आदित्य, मैं चौंकी। ये मैडम कितनी संगदिल है। उसके दूसरे ही दिन प्रीतो फिर आई, पर अकेली। आते ही मेरे पीछे-पीछे रसोईघर में आकर बोली, 'मुझे बैंगन की पकौडियाँ बना दोगी?' मैंने उसे भरपूर नज़र से देखा। वो शरमाई और कहने लगी, 'अभी तो तीन-चार महीने हैं। आज वो नासिक गया है तभी आ सकी हूँ। मुझे कुछ पैसे भी दोगी न। वो तो खाली राशन लाकर रख देता है। एक भी पैसा हाथ में नहीं देता। बाहर से ताला लगाकर दुकान पर जाता है। कभी भूने चने खाने को मन करता है। पैसे रात को उसकी पैंट से गिर जाते हैं तो ले लेती हूँ।' फिर अचानक खुश होकर बोली, 'वहाँ एक खिड़की है जिसमें से कूदकर मैं कभी-कभी निकल जाती हूँ। पर एक दिन पड़ोसिन ने उसे बता दिया था। उस रात उसने मुझे बहुत मारा।'
मैंने उसकी ओर देखे बिना पूछा, 'कोई शादी का काग़ज़ है तुम्हारे पास?'
बोली, 'नहीं, शादी तो मंदिर में हुई थी।'
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 10-04-2011, 02:03 PM   #52
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पैसे लेकर प्रीतो चली गई। तीन-चार बरस उसका कोई पता न चला। एक दिन मैडम ही कहीं से ख़बर लाई थी कि उसका पति उसे बहुत मारता है। एक दिन देवर ने छुड़ाने की कोशिश की थी सो उसे भी मारा और प्रीतो को घर से निकाल दिया। वो तो पड़ोसियों ने बीच-बचाव करके फिर मेल करा दिया। मैं थोड़ी दु:खी हुई, फिर सोचा बच्चे हैं, बच्चों के सहारे औरतें रावण के साथ भी रह लेती हैं। कल बड़े हो जाएँगे। उनके साथ प्रीतो भी बड़ी हो जाएगी।

वक्त बढ़ता रहा। रोज़ सुबह भी होती, शाम भी। बच्चे स्कूल जाते, घर आते। आदित्य भी और मैं भी ज़िन्दगी के ऐसे अभिन्न अंग बन चुके थे कि उसी रोज़ के ढर्रे में ज़रा भी व्यवधान आता तो बुरा लगता। अपनी छोटी-सी दुनिया में पूरी दुनिया दिखाई देती। न वहाँ कहीं प्रीतो होती न उसका वह मरघट पति।

इसी तरह एक शाम आई। साथ लाई कुछ मेहमान। आदित्य बाज़ार से कुछ सामान लाने गए थे। तभी दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो एक अजनबी औरत अपने फूल-से दो बच्चों को थामे खड़ी थी। मैंने सोचा किसी का पता पूछना चाहती है। मैंने उसे सवालिया निगाहों से देखा। वो मुस्कुराई। होंठ मुरझाए से थे तो भी मुस्कुराहट पहचान लेने में मुझे ज़्यादा देर न लगी। मैंने कहा, 'प्रीतो' - वो बच्चों की उँगलियाँ छुड़ाकर यों लिपटी जैसे इस भरी दुनिया में उसे पहिचानने वाली सिर्फ़ मैं अकेली थी।
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Old 10-04-2011, 02:09 PM   #53
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मैंने उसे छुड़ाते हुए कहा, 'प्रीतो, घर में मेहमान हैं। आओ, अंदर चलो।'
उसे बिठाकर मैंने बच्चों को दूध और बिस्कुट दिए। उन्हें खाता छोड़कर प्रीतो मेरे पीछे-पीछे आ गई। बगैर भूमिका बाँधे उसने कहा --
'दीदी, वो चला गया है। दुबई। घर भी किसी और को दे गया। सिर्फ़ आज रात मुझे रह लेने दो।'
मैंने कहा, 'प्रीतो, ये मेहमान आज भी आए हैं। तुम्हें कहाँ सुलाऊँगी। फिर बच्चे भी हैं।'
प्रीतो ने कहा, 'इन्हें लेकर मैं बरामदे में सो जाऊँगी। कल सवेरे यहीं मैंने किसी को मिलना है। वो मेरा कोई इन्तज़ाम करने वाले हैं। मैडम मुझे किसी आश्रम में भेजना चाहती है। बस कुछ दिन की बात है।'
मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, 'तुम मैडम के घर क्यों नहीं गईं?'
'वो कभी भी नहीं रखेगी दीदी। और फिर मैं आश्रम नहीं जाना चाहती।'
'पर क्यों?'
'अगर कभी इनका बाप आया तो?' मैंने कहा, 'अगर उसने आना होता तो जाता ही क्यों?'
उसने कहा, 'बस कुछ दिन इंतज़ार करूँगी। कुछ दिन की बात है।'

मेरी आँखों के आगे आदित्य का चेहरा घूम गया। मैडम की कही हुई बात भी याद आई। जो उन्होंने कहा था वो भी मुझे याद था। एक रात उनकी मर्ज़ी के बगैर भी रख सकती थी पर प्रीतो को ये पूछने का साहस उसमें न था कि कल कहाँ जाओगी? ये मैं जानती थी सिवाय मैडम के उसे कोई आश्रम जाने को राजी न कर सकेगा। यही एक लम्हा था, अगर मैं कमज़ोर पड़ जाती तो उसके जाने का कल ना जाने कब आता। मैंने अपने अंदर के इन्सान का गला दबाया और कहा, 'नहीं प्रीतो, यहाँ रहना मुमकिन नहीं हैं। ये लोग हमारे जेठ की लड़की देखने आए हैं। लड़की कल दिल्ली से आएगी। ऐसे नाजुक रिश्तों के दौरान मैं घर में कोई अनहोनी नहीं कर सकूँगी। तुम पैसे लो। अगर कल सवेरे यहाँ किसी को मिलना है तो टैक्सी में आ जाना। अब तुम जाओ।' मैंने उसके दोनों बच्चों को ऊँगली से लगाया। दरवाज़े के बाहर जाकर चौकीदार से टैक्सी मँगवाई और बच्चों के साथ प्रीतो को बैठते देखा। उसकी पसीने से तर हथेली में कुछ नोट खोंस दिए। टैक्सी को जाने का इंतज़ार किए बगैर घर आकर दरवाज़ा बन्द कर लिया।

ये दरवाज़ा मैंने प्रीतो के लिए बंद किया था या अपने लिए ये न जान पाई। रात-भर मुझे चौराहों के ख्वाब आते रहे। फिर कई दिन मैं दीवारों से पूछती रही, 'कल कहाँ जाओगी?'
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Old 24-09-2011, 11:24 AM   #54
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दोपहर का भोजन
सिध्देश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उंगलियां या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।
अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी लेकर गट-गट चढा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कहकर वहीं जमीन पर लेट गई।
आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पडी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आंखों को मल-मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लडक़े प्रमोद पर जम गई।
लडक़ा नंग-धडंग़ पडा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियां साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककडियों की तरह सूखे तथा बेजान पडे थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियां उड रही थीं।
वह उठी, बच्चे के मुंह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खडी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड क़ी आड से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।
दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खडी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कडी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड से काफी आगे बढाकर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बडा लडक़ा रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।
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Old 24-09-2011, 11:26 AM   #55
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उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहां पीढा रखकर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।
रामचंद्र आकर धम-से चौंकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुंह लाल तथा चढा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिध्देश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भांति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चार भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जाकर पुकारा - बडक़ू, बडक़ू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लडक़े की नाक के पास हाथ रख दिया। सांस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आंखें खोलीं। पहले उसने मां की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ गया।
सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, ''खाना तैयार है। यहीं लगाऊं क्या?''
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, ''बाबू जी खा चुके?''
सिध्देश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, ''आते ही होंगे।''

रामचंद्र पीढे पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बडी-बडी आंखें तथा होठों पर झुर्रियां।
वह एक स्थानीय दैनिक समचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
सिध्देश्वरी ने खाने की थाली सामने लाकर रख दी और पास ही बैठकर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भांति देखा। कुल दो रोटियां, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।
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Old 24-09-2011, 11:27 AM   #56
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सिध्देश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, ''वहां कुछ हुआ क्या?''
रामचंद्र ने अपनी बडी-बडी भावहीन आंखों से अपनी मां को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रूखाई से बोला, ''समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।''

सिध्देश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आंगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकडे पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खडख़डिया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की सांस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।
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Old 24-09-2011, 11:28 AM   #57
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रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, ''प्रमोद खा चुका?''
सिध्देश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, ''हां, खा चुका।''
''रोया तो नहीं था?''
सिध्देश्वरी फिर झूठ बोल गई, ''आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बडा ही होशियार हो गया है। कहता था, बडक़ा भैया के यहां जाऊंगा। ऐसा लडक़ा..''
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवडी ख़ाने की जिद पकड ली थी और उसके लिए डेढ घंटे तक रोने के बाद सोया था।
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Old 24-09-2011, 11:29 AM   #58
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रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी मां की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकडा शेष रह गया, तो सिध्देश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, ''एक रोटी और लाती हूं?''
रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबडाकर बोल पडा, ''नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूं। बस, अब नहीं।''
सिध्देश्वरी ने जिद की, ''अच्छा आधी ही सही।''
रामचंद्र बिगड उठा, ''अधिक खिलाकर बीमार डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?''
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