01-12-2012, 02:50 PM | #621 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 02:50 PM | #622 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
उसका स्वरूप क्या है और क्या आचार है संक्षेप से कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! स्नान, दान, तपस्या और ध्यान ये चारों उसके बेटे हैं स्नान तो यह है कि वह सदा पवित्र रहता है और यथायोग्य और यथाशक्ति दान करता है | बाहर की वृत्ति को भीतर स्थित करने का नाम तप है और आत्मा में चित्तवृत्ति लगाने का नाम ध्यान है | ये चारों उसके बेटे हैं जो आत्मदर्शी हैं परन्तु वृत्ति को सदा स्वाभाविक अन्तर्मुख करके व्यवहार करते हैं | मुदिता उसकी स्त्री है-सदा प्रसन्न रहने का नाम मुदिता है-जो नमस्कार के योग्य है |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 02:50 PM | #623 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे द्वितीया के चन्द्रमा की रेखा को देखकर सब कोई प्रसन्न होता है और नमस्कार करता है तैसे ही उसको देखकर सब कोई प्रसन्न होता है और नमस्कार करता है | मुदितारूपी स्त्री के साथ करुणा और दया नामा एक सहेली रहती है और समतारूपी द्वारपालनी सम्मुख खड़ी रहती है | जब विवेक राजा अन्तःपुर में आता है तब वह सम्मुख होकर सब स्थान दिखाती है और सदा संगी रहती है | जिस ओर राजा देखता है उस ओर समता ही दृष्टि आती है जो आनन्द के उपजानेवाली है | वह दो पुत्र साथ लेकर पुरी में विचरती है और जिस ओर राजा भेजता है उस ओर धैर्य और धर्म लिये फिरती है |
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01-12-2012, 02:50 PM | #624 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जब राजा सवार होकर चलता है तब वह भी समतारूपी वाहन पर आरुढ़ होकर राजा के साथ जाती है और जब राजा विषयरूपी पाँचों शत्रुओं से लड़ाई करता है तब धैर्य और संतोष मन्त्री मन्त्र देता है और विचाररूपी बाण से उनको नष्ट करता है | हे रामजी! विचार सदा उसके संग रहता है और सब कार्य को करता है | यह चेष्टा उससे स्वाभाविक होती है, आप सदा अमान रहता है और कर्तृत्व-भोक्तृत्व का अभिमान उसको कोई नहीं फुरता जैसे कागज पर मूर्त्ति लिखी होती है जो अभिमान से रहित है, तैसे ही वह भी अभिमान से रहित है और परमार्थ निरूपण से रहित निरर्थक वचन नहीं बोलता जैसे पाषाण नहीं सुनता-और जो क्रिया शास्त्रों और लोगों से निषेध की गई है वह नहीं करता जैसे शव से कुछ क्रिया नहीं होती, तैसे ही उसको क्रिया का उत्थान नहीं होता | जहाँ ज्ञानवान् और जिज्ञासुओं की सभा होती है वहाँ वह परमार्थ के निरूपण को शेषनाग और वृहस्पति की नाईं होता है और सावधानता इत्यादिक जो शुद्ध क्रिया है सो उसमें स्वाभाविक होती है | जैसे सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि में प्रकाश स्वाभाविक होता है, तैसे ही उसमें शुभ क्रिया स्वाभाविक होती हैं |
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01-12-2012, 02:51 PM | #625 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जगत् वास्तव में ज्ञानस्वरूप है और आत्मसत्ता का चमत्कार है, और कुछ बना नहीं ब्रह्मसत्ता ही फुरने से इस प्रकार हो भासती है | इसका कारण भी कोई नहीं | जब महाप्रलय थी तब शब्द अर्थ द्वैत कुछ न था उस अद्वैत सत्ता से जगत् फुर आया है | जैसे बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है सो बीज भी जगत् का कोई न था तो किस कारण से उत्पन्न हुआ और तो कोई कारण न था इससे अब भी जगत् को महाप्रलय रूप जानो | हे रामजी! न कोई पृथ्वी आदिक तत्त्व है, न जगत् है, न आभास है और न फुरना है | जैसे आकाश के फूलों में सुगन्ध नहीं होती तैसे ही इनका होना भी नहीं है केवल स्वच्छ ब्रह्मसत्ता अपने आपमें स्थित है |
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01-12-2012, 02:51 PM | #626 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
रूप, इन्द्रियाँ और मन भी ब्रह्मस्वरूप है | जैसे स्वप्न में अपना अनुभव है और मन ही नाना प्रकार का जगत् आकार और इन्द्रियाँ होकर भासता है और तो कुछ नहीं , तैसे ही यह जगत् भी वही रूप है | हे रामजी! सर्व जगत् आत्मरूप है | जैसे कारण बिना आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासि आता है सो कुछ हुआ नहीं, तैसे ही यह जगत् आत्मा का आभास है और जिसमें यह आभास फुरा है सो अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है | ये सर्व पदार्थ जो तुमको भासते हैं उन्हें ब्रह्मस्वरूप जानो |
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01-12-2012, 02:51 PM | #627 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे मनोराज की सृष्टि होती है सो अपने अनुभव में होती है और उसका स्वरूप अनुभव से भिन्न नहीं होता, तैसे ही सृष्टि के आदि जो अनुभव होता है सो अनुभवरूप है और कुछ उपजा नहीं-वही अनुभवसत्ता इस प्रकार भासती है | हे रामजी! देश से देशान्तर को जो संवित् प्राप्त होती है उसके मध्य में जो अनुभव है सो ही तुम्हारा स्वरूप है और सब आभासमात्र हैं | जाग्रत् देश को त्यागकर जो स्वप्नशरीर के साथ नहीं मिली और जाग्रत् स्वप्नदेश के मध्य में ब्रह्मसत्ता है वही तुम्हारा स्वरूप है | वह प्रकाशरूप और अपने आपमें स्थित और जाग्रत् जगत् जो भासता है सो भी उसी का स्वभाव है | जैसे रत्नों का स्वभाव चमत्कार है, अग्नि का स्वभाव उष्ण है, जल का स्वभाव द्रव है और पवन का स्वभाव फुरना है, तैसे ही ब्रह्म का स्वभाव जगत् है |
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01-12-2012, 02:51 PM | #628 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे सूर्य की किरणों में जल भासता है, तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है | हे रामजी! यह आश्चर्य है कि अज्ञानी सत्य को असत्य और असत्य को सत्य जानते हैं, जो अनुभवसत्ता है उसको छिपाते हैं और शशे के सींगवत् जगत् को प्रत्यक्ष जानते हैं | वे मूर्ख हैं, सबका प्रकाशक आत्मसत्ता है जिसको तुम सूर्य देखते हो सो वही परमदेव सूर्य होकर भासता है और चन्द्रमा और अग्नि उसी के प्रकाश से प्रकाशते हैं निदान सबका प्रकाश और तेजसत्ता वही है | जैसे सूर्य की किरणों में सूक्ष्म अणु होते हैं, तैसे ही आत्मसत्ता में सूर्यादिक भासते हैं | जिसको साकार और निराकार कहते हो वह सब शशे के सींगवत् हैं |
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01-12-2012, 02:52 PM | #629 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
ज्ञानवान् को ऐसे ही भासता है कि जगत् कुछ उपजा नहीं तो मैं क्या कहूँ? जहाँ सर्व शब्दों का अभाव हो जाता है और उसके पीछे चिन्मात्रसत्ता शेष रहती है वहाँ शून्य का भी अभाव हो जाता है | हे रामजी! जिनको तुम जीता कहते हो सो जीता भी कोई नहीं और जो जीता नहीं तो मुआ कैसे हो? जो कहिये जीता है तो जैसे जीता है तैसे ही मृतक है मृतक और जीते में कुछ भेद नहीं, इसलिये सर्व शब्दों से रहित और सबका अधिष्ठान वही सत्ता है | उसमें नानात्व भासता भी है परन्तु हुआ कुछ नहीं | पर्वत जो स्थूल दृष्टि आते हैं सो अणुमात्र भी नहीं-जैसे स्वप्ने में पृथ्वी आदिक तत्त्व भासते हैं परन्तु कुछ हुए नहीं, केवल आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है और उसी में जगत् भासता है |
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01-12-2012, 02:52 PM | #630 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे रामजी! जो परमार्थसत्ता से जगत् भास आया सो तो और कुछ न हुआ, इससे वही सत्ता जगत््रूप हो भासती है | कोई कहते हैं कि आत्मा में है और कोई कहते हैं कि आत्मा में कुछ नहीं है पर आत्मा में दोनों शब्दों का अभाव है और अभाव का भी अभाव है | यह भी तुम्हारे जानने के निमित्त कहता हूँ, वह तो स्वस्थ और परम शांतरूप है और उसमें और तुम्हारे में कुछ भेद नहीं | वह परिपूर्ण अच्युत अनन्त और अद्वैत है और वही जगद्रूप होकर भासता है जैसे कोई पुरुष शयन करता है तो सुषुप्ति में अद्वैतरूप हो जाता है, फिर सुषुप्ति से स्वप्ना फुर आता है और फिर सुषुप्ति में लीन हो जाता है, तो उपजा क्या और लीन क्या हुआ? स्वप्ने के आदि भी अद्वैतसत्ता थी
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