13-08-2013, 12:44 AM | #61 |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 242 |
Re: कलियां और कांटे
|
13-08-2013, 07:55 PM | #62 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कलियां और कांटे
कथानक के लिए इससे बढ़िया उदगार तो इसे अपने मूल स्थान में भी नहीं मिले होंगे रजनीश जी। आपका हृदय से आभार बन्धु।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
13-08-2013, 09:27 PM | #63 |
Member
Join Date: Apr 2013
Location: Bihar , India.
Posts: 73
Rep Power: 15 |
Re: कलियां और कांटे
तारीफ़ किए बगैर नहीं रहा जा सकता !
|
18-08-2013, 07:57 PM | #64 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कलियां और कांटे
समय से न हारने वाला, अटल, सच्चा, परिश्रमी और कर्तव्यनिष्ठ राजेश ... आप ही बताएं मैं राजेश को प्रणाम क्यों न करूँ ....... (अंतरजाल से प्राप्त एक नायाब हीरा प्रस्तुत है किन्तु इसके पहले मूल प्रस्तोता को हार्दिक धन्यवाद एवं आभार) बीरेंदर एक दिन अपने बागान के अमरूद लेकर आया था। मैंने खाते हुए कहा - 'बीरेंदर, अमरूद तो मुझे बहुत पसंद है। इतना कि मैं रेजिस्ट नहीं कर पाता। पर ऐसे नहीं थोड़े कच्चे वाले'। बीरेंदर को ये बात याद रही और अगले दिन हमारे ऑफिस में उसने वैसे अमरूद भिजवाया भी। फिर एक दिन शाम को बोला 'चलिये भईया, आज आपको बर्हीया वाला अमडूद खिला के लाते हैं। टाइम है १०-१५ मिनट?' मैं कब मना करता! वैसे भी मूड थोड़ा डाउन था। एक स्कीम पर काम करते हुए मैंने उसी दिन लिखा था - "आज मैंने एक रिक्शे वाले से बात की। उसने बताया कि उनका बिजनेस पहले की तरह नहीं रहा। शाम तक उसने सात ट्रिप कर लगभग सौ रुपये कमाए थे। उसमें से चालीस रुपये एक दिन के रिक्शे का किराया । बीवी बच्चो और बाकी के खर्चे छोड़ भी दें तो साठ रुपये में भी क्या वो इतनी कैलोरी खरीद सकता है कि सात ट्रिप कर सके ?" मैंने ये बात बीरेंदर को बताई तो बोला 'भईया, ई सब भारी भरकम बात मत किया कीजिये। आपको लगता है उहे सबसे सबसे बरका गरीब था देस का त... छोरिए ई सब... चलिये'। हम एसपी वर्मा रोड तक चल कर गए। वहाँ बीरेंदर ने एक नौजवान भुट्टे वाले को दिखाया - 'जानते हैं भईया, ई राजेसवा इंजीनियर के सार है। अइसा काम कर देगा कि बरका बरका ओवरसियर, इंजीनियर नहीं कर पाएगा। मारिए गोली अमडूद के चलिये आज भुट्टे खा लेते हैं। अमडूद हम मांगा देंगे किसी को भेज के'। हम राजेश के ठेले के पास रुक गए। 'का हो इंजीनियर साहेब? कईसा धंधा चल रहा है? दुगो बर्हीया वाला तनी छांट के भूनिए त।' राजेश शर्मिला सा जवान था। लगभग नहीं बोलने वाला। बैरी ने आगे कहा - 'केतना बोले तुमको की मेरे लिए भी एक ठो पंखा बना दो लेकिन तुम नहीये बना पाये। ' 'अरे बीरेंदर भईया समनवे नहीं नू मिल पा रहा है त कइसे बना दे' 'कौंची नहीं मिल पा रहा है तुमको हम सब बुझ रहे हैं।' राजेश बस मुस्कुरा दिया। मेरे ध्यान राजेश के सेटअप पर गया। पूरी तरह से अस्थायी। ठेला नहीं था कुछ लकड़ी लोहे को जोड़कर बनाया गया एक बेस और उस पर पेंट के डब्बे को काट कर बनाया गया कोयले का चूल्हा। पर इससे कहीं अधिक रोचक था हरे प्लास्टिक के एक स्टूल पर रखा हुआ बैटरी से चल रहा प्लास्टिक की पत्तियों वाला पंखा। मैंने कहा - 'पंखा तो बड़ा शानदार है राजेश का? कहाँ से लिए?" 'अरे एही पंखवा का त बात हम तबसे कर रहे हैं... इंजीनियर साहेब अइसही थोरे न कहलाता है राजेस। अभी भुट्टा का सीजन है... नहीं त इंजीनियर साहेब कंप्यूटर ठीक करने का ही काम करते हैं' मुझे लगा बीरेंदर उसकी खिंचाई कर रहा है। पर वो आगे बोला.. 'प्लास्टिक के दो डब्बा जोड़कर फिल्टर भी बनाते हैं, हम कहे की भले सौ रुपया ले लो लेकिन एक ठो हमारे लिए भी बना दो। लेकिन अब इंजीनियर साहेब कह दिये हैं त हमरा काम काहे करेगा? सही बोले कि नहीं? राजेश मुसकुराते हुए बोला - 'बात पईसा के नहीं है। बना देंगे... पहिले डिब्बावा त जुगारिए" मैंने पूछा - 'कैसे बनाए हो ये पंखा? बहुत शानदार आइटम है। बताओ मुझे भी' राजेश बोला -- 'सब लपटोपे आ कम्पुटर का समान है इसमें। एक्को पईसा नहीं लगा है इसमें। कुछ इस दोकान से कुछ उस दोकान से पुरान-धुरान बेकार समान सब ज़ोर जार के वैल्डिंग-सोल्डिंग कर के बना लिए... बहुते सिंपल है।' मैंने पूछा - 'और बैटरी?' राजेश ने मुसकुराते हुए थोड़े गर्व से कहा - 'चारजर भी बनाए हैं एक ठो' राजेश ने मुझे समझाते हुए डायोड, यूपीएस और मदर बोर्ड जैसे शब्द बोले तो मुझे भरोसा हो गया कि सच में वो 'इंजीनियर साहेब' है। मैंने कहा "तुम तो सच में इंजीनियर हो !" राजेश ने भुट्टा सेंकते हुए कहा - 'हम त कामे इहे करते हैं। इंजीनियर सब त बेकार हो जाता है। इंजीनियरे बन गया त उ काम काहे करेगा?' बाद में पता चला राजेश पास की दुकानों में कंप्यूटर रिपेयरिंग का काम करता है। चलते चलते बीरेंदर ने कहा - 'हमसे भी छौ-छौ (६-६) रुपया के हिसाब से लोगे? लो धरो दस रुपया आ काम कर दो हमारा थोड़ा टाइम निकाल के....' लौटते हुए बीरेंदर ने कहा 'भईया, हर सीजन में अलग काम करता है ई। जिसमें कमाई दिखेगा कर लेगा। एक नंबर का जुगारु है। देखिये केतना सुंदर सिस्टम बना दिया है। शाम को चूल्हा इहे छोर देगा आ बाकी झाम एगो झोरा में भर के घरे लेले जाएगा। इसका भुट्टा से जादे तो हम इसका अलंजर-पलंजर देखने आते हैं। कुछ अइसा हो तो देखिये के मन हरियारा जाता है। जैसे आपका उ पानी का बोतल नहीं है बटन दबाने से 'पक' से खुलता है। उ टेबल पर रहे त नहियों प्यास लगे त दुई घूंट पी लेने का मन करेगा।' मैंने बैरी को पानी का बोतल देना चाहा तो उसने नहीं लिया बोला जाते समय दे दीजिएगा.... और जाते आते समय... ध्यान न रहा। अब भी जब 'पक' से खुलता है... हम दुई घूंट पानी पी लेते हैं ।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
23-08-2013, 08:27 PM | #65 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कलियां और कांटे
रात बरसी है, नहीं पता कि दुख में या सुख में लेकिन काशी धुली है। शैल संग हरी चाय का अरोमा और मानसूनी देश की प्रातकी गातीं सुवहन हवायें, तुम्हारा मनु बकुल छाँव की ओर खिंच चला है। सब धुला धुला मन भीगा सा है। टप टप बूँदें गिर रही हैं, उद्यान का चबूतरा भी भीगा है। बैठने से घुटन्ना पीछे गीला होगा, परवा नहीं। बनारस में वैसे भी किसी को देख कोई हँसने जैसा नहीं हँसता।
ऐसे बगीचे एक जैसे होते हैं – कॉलेज के पीछे महुवों वाला, विश्वविद्यालय के मुख्य भवन के आगे सीढ़ियों से बँधी झुकती धरा को निहारती वाटिका या यहाँ यह उद्यान! कोरे मन पर मसि चढ़ने लगी है – रुड़की वाली आंटी। उर्मी! तुम्हारी वही उँसास है – कैसे कैसे लोग आये तुम्हारे जीवन में, मनु! तुम भी न ... ऐसे क्यों? न और ऐसे के विराम में जो होना चाहिये वह तुम्हारे मन में कभी आ ही नहीं सकता, कहना तो दूर की बात है लेकिन मैं कहता हूँ, वही उपयुक्त है – ‘अभिशप्त हो’... ...रात है। बाहर घनघोर झड़ी है और मुझे प्रोजेक्ट की पड़ी है। हॉस्टल से मेन फ्रेम सेंटर दूर है। सॉफ्टवेयर रन हो तो कल के लिये डाटा मिले। पुरी सर को कल ही विदेश के लिये निकल जाना है, चूक गया तो पन्द्रह दिन व्यर्थ, एक्सटेंशन कौन दिलायेगा? जाऊँ भी तो कैसे? न छाता, न रेनकोट और न साइकिल – कुछ भी नहीं। इनके लिये जो धन चाहिये था वह बचता ही नहीं! आवारगी महँगी पड़ती है, सबके वश की नहीं। स्नातक होने के बाद मनु प्रताप सिंह ने पुरुषोत्तम सिंह के सामने हाथ फैलाना छोड़ दिया था। आज भी यही लिख रहा हूँ – पुरुषोत्तम सिंह कह कर जो संतोष मिलता है वह पापा कहने से कहाँ मिलने वाला? प्रतिहिंसा है, अहंकार है, नकार है और सामने तुम्हारे वही प्रस्तर नेत्र हैं जिनमें मुझे यूँ व्यवहार करते देख युगों घना दुख जम जाया करता था। मैं कहता, कहो कि मैं ... और तुम्हारी हथेली में बस उठने की भंगिमा सी होती, शब्द घुट जाते, आँखें छलक उठतीं, सारा कलुष बह जाता लेकिन मेरी मुक्तमना! मैं मुक्त क्यों नहीं हो पाया? खोने से डरता था, इतना डरा कि स्वयं खो गया! एक लड़ी ही बची जो लिखा रही है और वह तुम हो। ... उस रात मैंने बरसाती में शर्ट पैंट, फ्लॉपी और प्रिंट आउट लपेटे और कुर्ता पाजामा पहने भीगते ही मेन फ्रेम सेंटर की ओर बढ़ लिया। सुनसान अन्धेरे में पाँवों में आँखें थीं लेकिन वे तो दूर कल्पित कैम्ब्रिज देखने की अभ्यस्त थीं – पुरी सर! मुझे कुछ नया करना है और यहाँ के लिये करना है। उनकी वत्सल आँखों में कृपायें मचल उठतीं और फिर वही रटा रटाया सा वाक्य – ऊपर वाला बड़ा वाला गोल्फबाज है। उसे पता है कि किस गेंद को कहाँ डालना है, हम तुम होते कौन हैं निर्णय लेने वाले? पहले प्रोजेक्ट तो पूरा करो। जी करता कि चीख कर कहूँ वह दिल्ली से मेसाचुसेट जाने की राह में है और आप दर्शन बघार रहे हैं! उर्मी! उस समय तुमसे डाह नहीं, पापा चुनौती से होते – देखना, यह लड़की तुम्हारे लाल से बहुत आगे जायेगी। मैं आगे नहीं बस तुम्हारे साथ होना चाहता था। एक छत के नीचे एक से एक ही – इतनी बड़ी चाहना संसार में कोई नहीं कर सकता, न मुझसे पहले किसी ने किया और न मेरे बाद करेगा। ...चढ़ते गिरते लैंडस्केप को बिना छेड़े विकसित किये कैम्पस की जलधारायें किनारे की ओर थीं और मैं बीच सड़क भागता भीगता। सामने लो बीम में आती कार जैसे अन्धाई हो, सेंट्रल लाइब्रेरी के आगे ब्रेक के अनुशासन को नकारते फिसलते टायरों की चीख सुनाई दी और उसके बाद सन्नाटा ... उसे मैं सुन सकता था, मैं सब सुन सकता था – स्त्री स्वर है। “तिवारी, गाड़ी ऐसे चलाते हैं! स्टूडेंट है। इस बारिश में, हॉस्पिटल...” मैंने हाथ खींच उन्हें वहीं बिठा लिया है – कुछ नहीं हुआ मुझे, मुझे कुछ नहीं हो सकता... आँख क्यों नहीं खुल रही? मुझे हॉस्पिटल या हॉस्टल नहीं मेन फ्रेम सेंटर ले चलिये। मेन फ्रेम चलो अनजाने तिवारी! ललाट पर वही स्पर्श – माँ! आँखें खुल गईं। गाड़ी की तेज हेडलाइट में देखा और भीतर आश्वस्ति भरती गई। “आंटी! मुझे चोट नहीं लगी है। आप चिंता न करें। मेन फ्रेम तक ड्रॉप दे दें... आप कितना भीग गई हैं!” “Are you sure?” “हाँ ... जाना जरूरी है वरना इस बारिश में कौन निकलता?”... सेंटर के बाथरूम में मैंने कपड़े बदले। भीतर जाने तक तो आंटी देखती रहीं लेकिन बफर ज़ोन से भीतर हो ही रहा था कि उन्हों ने आवाज दी – क्या नाम है तुम्हारा? “मनु, मनु प्रताप सिंह।“ ”नाम से तो यहाँ के नहीं लगते ... कहाँ के हो?” अटेंडेंट की बरजन को नकारती परिचय की गाँठें खुलती चली गयीं – तो बच्चे! तुम तो हमारे रिश्ते में निकले। भीतर की एयरकंडीशनिंग से आती शीतल बयार सी वाणी – कल सी बी आर आई आ जाना। मेरे हसबेंड डिप्टी डायरेक्टर हैं। ...सिगरा उद्यान की टप टप को सुखाती उजास भर गई है। लक्स और उजला हो गया है। सुख इसे कहते हैं उर्मी! उसके लिये कोई समय स्थान नहीं होता, बस हो जाता है। रुड़की में एक माँ मिल गई। ... कल उनसे मिलने जाना है। अंकल गये और आंटी को कर्करोग है। लेकिन उन्हें ले कर दुखी नहीं हुआ जा सकता, वह आज तक कभी दुखी नहीं दिखीं और मैं जानता हूँ कि हुई भी नहीं होंगी। “कैसे कैसे लोग आये तुम्हारे जीवन में मनु! तुमने सब ...” “तुम फालतू बहुत सोचती हो!” मैं गिन रहा हूँ कि जीवन में कितनी बार इस तरह चोटिल हुआ कि आँखें बन्द हुईं और खुलीं तो आशीर्वादों के नील नभ उनमें भर गये!
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
23-08-2013, 08:32 PM | #66 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कलियां और कांटे
.. ध्वंस के बाद मैंने प्रार्थनायें पढ़ीं।
धरती उमगी, लोहा तेज सान हुआ, सीतायें(धार) खिंची, सरकंडे उपजे, कलम बनी। ध्वंस रेणु(मिट्टी), आँसू घोल सूखे भोजपत्रों पर मैने लोरियाँ लिखीं, ठूँठों पर फुनगियाँ उगीं, फुदकियों(छोटी चिड़िया) ने उन्हें स्वर दिया, मैं पुन: माता हुई। मैंने आँचल में किलकारियों को जतन से सहेजा कि कल को जब पुन: बादल गड़गड़ायेंगे, तड़ित झंझा मचलेगी, परिवेश का पुरुष मर्यादा भूल ध्वंस करेगा तो मैं प्रार्थनायें पढ़ने को बच सकूँ ... मेरा तो बस यही है, अपनी कहो! तुम तो पुरुष हो। तुममें कहानियाँ गढ़ने की अनंत क्षमता है। ... मैं सुन रही हूँ। सच में तुम्हें सुनना अच्छा लगता है। कुछ कहो न, इतने दिनों बाद तो मिले हो!
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
24-08-2013, 07:49 PM | #67 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कलियां और कांटे
तुम्हारे प्यार से भेजे हुए पहले फूल जो अब सूख गये हैं, उनकी भीनी भीनी खुश्बू में डूबकर ये सोचती हूँ की क्या करूँ इनका..?
हमारे नये घर की बैठक में सज़ा दूँ.. या अपनी प्याज़ी रंग वाली उस साड़ी की किसी तह में दबा दूँ जो तुम्हे पसंद आई थी या फिर इनको घोल कर इत्र बना लूँ, अपने दुपट्टे में लगा लूँ! या पीसकर उबटन बना लूँ और गालों पे लगा लूँ! या फिर तुम जब अबकी बार आओगे तो तुम्हारे लिए सुबह की पहली, फ्लोरल चाय बना दूँ, थोड़ी कम चीनी और ज़्यादा पत्ती वाली..!! या इनको ढाल दूँ चन्द महकती मोमबत्तियों में, और करूँ इंतज़ार तुम्हारे ऑफिस से वापस आने का, अपने प्यारे से घर में साथ-साथ कंडिल लाइट डिनर खाने का, या कि बगीचे की गीली मिट्टी वाले उस किनारे पर जहाँ धूप हल्की-हल्की आती है, इनको दबा दूँ और करूँ इंतज़ार नयी कोपलें फूटने का और उस पौधे में खिलने वाले पहले फूल का भी..जिसे चढ़ाएँगे उस पूजा में, जो हम सुबह उठकर साथ-साथ करेंगे, अपने नये घर में बनाए इक छोटे से मंदिर में.. और फिर सोचती हूँ की रखूं ऐसे ही इसे ज़िंदगी भर अपने पास, तुम्हारे प्यार की सौगात की तरह और महकने दूँ अपने कमरे और इस ज़िंदगी को इसी भीनी-भीनी खुश्बू से…..............................…ताउम्र !
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
25-08-2013, 06:36 PM | #68 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कलियां और कांटे
'एक बात बतलाइए बड़े पापा, दुआ की उम्र कितनी होती है?'
छोटी सी सिम्मी अपने बड़े पापा की ऊँगली पकड़े कच्ची पगडण्डी पर चल रही थी. घर से पार्क जाने का शोर्टकट था जिसमें लंबे लंबे पेड़ थे और बच्चों को ये एक बहुत बड़ा जंगल लगता था. शाम को घर के सब बच्चे पार्क जाते थे हमेशा कोई एक बड़ा सदस्य उनके साथ रहता था. सिम्मी अपनी चाल में फुदकती हुयी रुक गयी थी. कल उसका एक्जाम था और वो थोड़ी परेशान थी...पहला एक्जाम था उसका. बड़े भैय्या ने कहा था भगवान से मांगो पेपर अच्छा जायेगा...वैसे भी तुम कितनी तो तेज हो पढ़ने में. छोटी सी सिम्मी के छोटे से कपार पर चिंता की रेखाएं पड़ रही थीं...कभी कभी वो अपनी उम्र से बड़ा सवाल पूछ जाती थी. अभी उसने नया नया शब्द सीखा था 'दुआ'. बड़े पापा उसको दोनों हाथों से उठा कर गोल घुमा दिए...और फिर एकदम गंभीरता से गोद में लेकर समझाने लगे जैसे कि उसको सब बात अच्छे से समझ आएगी. 'बेटा दुआ की उम्र उतनी होती है जितनी आप मांगो...कभी कभी एक लम्हा और कभी कभी तो पूरी जिंदगी'. सिम्मी को बड़ा अच्छा लगता था जब बड़े पापा उससे 'आप' करके बात करते थे...उसे लगता था वो एकदम जल्दी जल्दी बड़ी हो गयी है. 'तो बड़े पापा आप हमेशा इस जंगल में मेरे साथ आयेंगे...हमको अकेले आने में डर लगता है. पर आप नहीं आयेंगे तो हम पार्क भी नहीं जा पायेंगे.' 'हाँ बेटा हम हमेशा आपके साथ आयेंगे' 'हर शाम!' 'हाँ, हर शाम' उसके बाद उनका रोज का वादा था...शाम को सिम्मी के साथ पार्क जाना...उसको कहानियां सुनाना...बाकी बच्चों के साथ फुटबाल खेलने के लिए भेजना. सिम्मी के शब्दों में बड़े पापा उसके बेस्ट फ्रेंड थे. ----- उस दुआ की उम्र कितनी थी? नन्ही सिम्मी को कहाँ पता था कि दुआओं की उम्र सारी जिंदगी थोड़े होती है...वो बस एक लम्हा ही मांग कर आती हैं. प्रदेश के उस छोटे से गाँव में उसकी जिंदगी, उसकी दुनिया बस थोड़े से लोग थे...पर सिम्मी की आँखों से देखा जाता तो उसकी दुनिया बहुत बड़ी थी...और ढेर सारी खुशियों से भरी भी. जैसे पार्क का वो झूला...ससरुआ...कुछ लोहे के ऊँचे खम्बे और सीढियां जिनसे सब कुछ बेहद छोटा दिखता था. घर से सौ मीटर पर का चापाकल...जिसमें सब बच्चे लाइन लगा कर सुबह नहाते थे. घर का बड़ा सा हौज...काली वाली बिल्ली जिसे सिम्मी अपने हिस्से का दूध पिला देती थी. बाहर के दरवाजे का हुड़का- जिसे कोई भी बंद नहीं करता था...बड़े दादा का स्कूटर...गाय सब...पुआल और चारों तरफ बहुत सारे पेड़. छुटकी सी सिम्मी...खूब गोरी, लाल सेब से गाल और बड़े बड़ी आँखें, काली बरौनियाँ...एकदम गोलमटोल गुड़िया सी लगती थी. उसपर मम्मी उसको जब शाम को तैयार करती थी रिबन और रंग बिरंगी क्लिप लगा कर सब उसे घुमाने के लिए मारा-मारी करते थे. मगर वो शैतान थी एकदम...सिर्फ बड़े पापा के गोदी जाती थी...बाकी सब के साथ बस हाथ पकड़ के चलती थी...अब बच्ची थोड़े है वो...पूरे ३ साल की हो गयी है. अभी बर्थडे पर कितनी सुन्दर परी वाला ड्रेस पहना था उसने. बड़े पापा उसको ले जा के स्टूडियो में फोटो भी खिंचवाए थे. ------ छोटे गाँव से शहर से प्रदेश की राजधानी और फिर दिल्ली शहर और फिर शिकागो...एकदम होशियार सिम्मी खूब पढ़ लिख कर डॉक्टर बन गयी...रिसर्च के लिए विदेश आये उसे कुछ डेढ़ साल हुआ है. सोचती है अब डिग्री लेकर घर जायेगी एक बार अपने गाँव का भी जरुर प्रोग्राम बनाएगी. हर बार वक्त इतना कम मिलता है कि बड़े पापा से मिलना बस खास शादी त्यौहार पर भी हो पाया है. घर से पार्क के रास्ते में अब भी जंगल है...उसने पूछा है. बड़े पापा अब रिटायर हो गए हैं और शाम को टहलने जाते हैं अपने पोते के साथ. इस बार अपने गाँव जायेगी तो शाम को पक्का बड़े पापा के साथ पार्क जायेगी और इत्मीनान से बहुत सारी बातें करेगी. कितनी सारी कहानियां इकठ्ठी हो गयी हैं इस बार वो कहानियां सुनाएगी और कुछ और कहानियां सुनेगी भी. इस बार जब इण्डिया आना होगा तो बड़े पापा के लिए एक अच्छा सा सिल्क का कुरता ले जायेगी...मक्खन रंग का. उन्हें हल्का पीला बहुत पसंद है और उनपर कितना अच्छा लगेगा. ------ उसने सुना था कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं...पर जिंदगी ऐसे दगा दे जायेगी उसने कहाँ सोचा था...जब भाई का फोन आया तो ऐसा अचानक था कि रो भी नहीं पायी...घर से दूर...एकदम अकेले. एक एक साँस गिनते हुए उसे यकीं नहीं हो रहा था कि बड़े पापा जा सकते हैं...ऐसे अचानक. ------ याद के गाँव में एक पुराने घर का सांकल खटखटाती है...बड़े पापा उसे गोद में उठा कर एक चक्कर घुमा देते हैं और कहते हैं...दुआ की उम्र उतनी जितनी तुम मांगो बेटा...है न? आँखें भर आती हैं तो सवाल भी बदल जाता है... 'याद की उम्र कितनी बड़े पापा?'
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
26-08-2013, 07:09 PM | #69 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कलियां और कांटे
उस लम्हें में,
रात का स्याह रंग बदल रहा था तुम्हें याद तो होगा न चांदनी मेरा हाथ थामे सो रही थी गहरी नींद में, और रौशन कर रही थी मेरे दिल का हर एक कोना... ********** वो दिन भी याद है मुझे, जब कभी चुपके से तुम मुझे टुकुर-टुकुर ताक लिया करती थी, जैसे मेरे वजूद की चादर हटाकर ढूंढ रही हो कोई जाना-पहचाना सा चेहरा, तुम लाख मना करो पर तुम्हें था तो इंतज़ार जरूर किसी का क्यूंकि वो दिन याद है मुझे जब चुपके से तुम मुझे टुकुर-टुकुर ताक लिया करती थी... ********** कभी-कभी खो जाता हूँ , मैं अपने स्वयं से बाहर निकलकर और देखता रहता हूँ तुम्हें, चुपचाप...
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
26-08-2013, 11:04 PM | #70 | |
Super Moderator
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 242 |
Re: कलियां और कांटे
Quote:
|
|
Bookmarks |
|
|