10-05-2011, 09:06 PM | #61 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
आर्केस्ट्रा ने एक भरपूर साँस खींची...साज कराहे...ड्रम का दिल गूँज उठा...मिस्री रक्कासा की कमर ने आखिरी झकोले लिए और निढाल होकर मरमरीं फर्श पर फैलर् गई। हॉल तालियों से गूँज रहा था...शबनम की ऑंखें भैया की ढूँढ रही थी...बैरा तरो-ताजा रसभरी और क्रीम का जग ले आया। बेखयाली में शबनम ने प्याला रसभरियों से भर लिया। उसके हाथ लरज रहे थे। ऑंखें चोट खाई हुई हिरनियों की तरह परेशान चौकडियाँ भर रही थीं।
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काम्या
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10-05-2011, 09:10 PM | #62 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
भीड-भाड से दूर...हल्की ऍंधेरी बालकनी में भैया खडे मिस्री रक्कासा का सिगरेट सुलगा रहे थे। उनकी रसमयी निगाहें रक्कासा की नशीली ऑंखों से उलझ रही थीं। शबनम का रंग उडा हुआ था और वो एक ऊबड-खाबड पहाड की तरह गुमसुम बैठी थी। शबनम को अपनी तरफ तकता देखकर भैया रक्कासा का बाजू थामे अपनी मेज पर लौट आए और हमारा तआरुफ कराया।
'मेरी बहन, उन्होंने मेरी तरफ इशारा किया। रक्कासा ने लचककर मेरे वजूद को मान लिया। 'मेरी बेगम... उन्होंने ड्रामाई अंदाज में कहा। जैसे कोई मैदाने-जंग में खाया हुआ जख्म किसी को दिखा रहा हो। रक्कासा स्तब्ध रह गई। जैसे उनकी जीवन-संगिनी को नहीं खुद उनकी लाश को खून में लथपथ देख लिया हो, वो भयभीत होकर शबनम को घूरने लगी। फिर उसने अपने कलेजे की सारी ममता अपनी ऑंखों में समोकर भैया की तरफ देखा। उसकी एक नजर में लाखों फसाने पोशीदा थे। 'उफ ये हिन्दुस्तान जहाँ जहालत से कैसी-कैसी प्यारी हस्तियाँ रस्मों-रिवाज पर कुर्बान की जाती हैं। काबिले-परस्तिश हैं वो लोग और काबिले-रहम भी,जो ऐसी-ऐसी 'सजाएँ भुगतते हैं। ...मेरी शबनम भाभी ने रक्कासा की निगाहों में ये सब पढ लिया। उसके हाथ काँपने लगे। परेशानी छुपाने के लिए उसने क्रीम का जग उठाकर रसभरियों पर उंडेल दिया और जुट गई। प्यारे भैया! हैंडसम और मजलूम...सूरज-देवता की तरह हसीन और रोमांटिक, शहद भरी ऑंखों वाले भैया, चट्टान की तरह अटल...एक अमर शहीद का रूप सजाए बैठे मुस्करा रहे थे... ...एक लहर चूर-चूर उनके कदमों में पडी दम तोड रही थी... ...दूसरी नई-नवेली लचकती हुई लहर उनकी पथरीली बाँहों में समाने के लिए बेचैन और बेकरार थी। ----------------------xxxxxxxxxxxxxxxxxx----------------------------
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11-05-2011, 06:53 PM | #63 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
हिन्दुस्तान छोड़ दो
साहब मर गया जयंतराम ने बाजार से लाए हुए सौदे के साथ यह खबर लाकर दी। 'साहब- कौन साहब? 'वह कांटरिया साहब था न? 'वह काना साहब- जैक्सन। च-च-बेचारा। मैंने खिडकी में से झांक कर देखा। काई लगी पुरानी जगह- जगह से खोडी हैंसी की तरह गिरती हुई दीवार के इस पार उधडे हुए सीमेंट के चबूतरे पर सक्खू भाई पैर पसारे मराठी भाषा में बौन कर रही थी। उसके पास पीटू उकडू बैठा हिचकियों से रो रहा था। पीटू यानी पीटर, काले-गोरे मेल का नायाब नमूना था। उसकी आंखें जैक्सन साहब की तरह नीली और बाल भूरे थे। रंग गेहूंआ था, जो धूप में जलकर बिल्कुल तांबे जैसा हो गया था। इसी खिडकी में से मैं बरसों से इस अजीबोगरीब खान्दान को देखती आई थी। यहीं बैठकर मेरी जैक्सन से पहली मरतबा बातचीत शुरू हुई थी। 'सन बयालीस का 'हिन्दुस्तान छोड दो का हंगामा जोरों पर था। ग्रांट रोड से दादर तक का सफर मुल्क की बेचैनी का एक मुख्तसर मगर जान्दार नमूना साबित हुआ था। मैगन रोड के नाके पर एक बडा भारी-सा अलाव जल रहा था। जिसमें राह चलतों की टाइयां, हैट और कभी मूड आ जाता तो पतलूनें उतार कर जलाई जा रही थीं। सीन कुछ बचकाना सही, मगर दिलचस्प था। लच्छेदार टाइयां, नई तर्ज के हैट, इस्त्री की हुई पतलूनें, बडी बेदर्दी से आग में झोंकी जा रही थीं। फटे हुए चीथडे पहने आतिशबाज नए-नए कपडों को निहायत बेतकल्लुफी से आग में झोंक रहे थे। एक क्षण को भी तो किसी के दिल में यह खयाल नहीं आ रहा था कि नई गैरी डीन की पतलून को आग के मुंह में झोंकने के बजाय अपनी नंगी स्याह टांगों में ही चढा ले, इतने में मिलेट्री की ट्रक आ गई थी, जिसमें से लाल भभूका थूथनियों वाले गोरे, हाथों में मशीनगन संभाले धमाधम कूदने लगे। मजमा एकदम फुर से न जाने कहां उड गया था। मैंने यह तमाशा म्युनिस्पिल दफ्तर के सुरक्षित हाते से देखा था और मशीनगनें देखकर मैं जल्दी से अपने दफ्तर में घुस गई थी।
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11-05-2011, 06:58 PM | #64 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
रेल के डिब्बों में भी अफरा-तफरी मची हुई थी। बम्बई सेंट्रल से जब रेल चली थी तो डिब्बे की आठ सीटों में से सिर्फ तीन सलामत थीं। परेल आने तक वो तीनों भी उखेड कर खिडकियों से बाहर फेंक दी गईं, और मैं रास्ते भर खडे-खडे दादर तक आई। मुझे उन छोकरों पर कतई कोई गुस्सा नहीं आ रहा था। ऐसा मालूम हो रहा था, ये सारी रेलें, ये टाइयां पतलूनें, हमारी नहीं दुश्मन की हैं। इनके साथ हम दुश्मन को भी भून रहे हैं, उठाकर फेंक रहे हैं। मेरे घर के करीब ही सडक के बीचों-बीच ट्रेफिक रोकने के लिए एक पेड का लम्बा सा लट्ठा सडक पर बेडा डालकर उस पर कूडे करकट की अच्छी खासी दीवार खडी थी। मैं मुश्किलों से उसे फांद कर अपने फ्लैट तक पहुंची ही थी कि मिलेट्री की ट्रक रुक गई। उसमें से जो पहला गोरा मशीनगन लिए धम से कूदा था, जैक्सन साहब ही था। ट्राक की आमद की खबर सुनते ही सडक पर रोक बांधने वाला दस्ता इधर-उधर बिल्डिंगों में सटक गया था। मेरा फ्लैट क्योंकि सबसे निचली मंजिल पर था, लिहाजा बहुत से छोकरे एकदम रैला करके घुस आए। कुछ किचेन में घुस गए, कुछ बाथरूम और टायलेट में दुबक गए। चूंकि मेरा दरवाजा खुला हुआ था इसलिए जैक्सन दो शस्त्रधारी गोरों के साथ मुझसे जवाब-तलब करने आगे आया।
'तुम्हारे घर में बदमाश छिपे हैं, उन्हें हमारे हवाले कर दो। 'मेरे घर में तो कोई नहीं, सिर्फ मेरे नौकर हैं। मैंने बडी लापरवाही से कहा। 'कौन हैं तुम्हारे नौकर? 'ये तीनों मैंने तीन छोकरों की तरफ इशारा किया जो बर्तन खडबडर कर रहे थे। 'यह बाथरूम में कौन है? 'मेरी सास नहा रही है कहते हुए, खयाल आया मेरी सास इस वक्त न जाने कहां होंगी। 'और टायलेट में? उसके चेहरे पर शरारत की झपकी आई। 'मेरी मां होगी या शायद बहन हो मुझे क्या मालूम मैं तो अभी-अभी बाहर से आई हूँ। 'फिर तुम्हें कैसे मालूम हुआ की बाथरूम में तुम्हारी सास है। 'मेरे घर में दाखिल होते ही उन्होंने आवाज देकर मुझसे तौलिया मांगा था। 'हूँ - अपनी सास से कह दो, सडक रोकना जुर्म है। उसने दबी आवाज में कहा और अपने साथियों को, जिन्हें वह बाहर खडा कर आया था, वापस ट्रक में जाने को कहा 'हूँ -हूँ-हूँ वह गर्दन हिलाता हौले-हौले मुस्कराता हुआ चला गया। उसकी आंखों में अर्थपूर्ण जुगनू चमक रहे थे।
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11-05-2011, 07:00 PM | #65 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
जैक्सन का बंगला मेरे फ्लैट की चहारदीवारी से सटी जमीन पर था। पश्चिमी छोर पर समुद्र था। उसकी मेम साहब मां दोनों बच्चों के इन दिनों हिन्दुस्तान आई हुई थीं। बडी लडकी जवान थी और छोटी बारह-तेरह बरस की। मेम साहब सिर्फ छुट्टियों में थोडे दिनों के लिए हिन्दुस्तान आ जाती थीं। उसके आते ही बंगले का हुलिया ही बदल जाता था। नौकर चाक-चौबन्द हो जाते। अन्दर-बाहर पुताई होती। बाग में नए गमले मुहय्या किए जाते। मेम साहब के जाते ही जिन्हें पास पडोस के लोग चुराना शुरू कर देते। कुछ को माली बेच डालता। दोबारा जब मेम साहब के आने का गलगला मचता तो साहब फिर विक्ट्रोया गार्डन से गमले उठवा लाता।
जितने दिन मेम साहब रहतीं, नौकर बावर्दी नजर आते। साहब भी यूनीफार्म डाले रहता या निहायत उम्दा ड्रेसिंग गाऊन पहने- साफ-सुथरे कुत्तों के साथ लान और क्यारियों का बिल्कुल इस तरह मुआयना करता फिरता गोया वह सौ फीसद यानी सचमुच साहब लोगों में से है। मगर मेम साहब के जाते ही वह इत्मीनान की सांस लेकर दफ्तर जाता। डयूटी के बाद नेकर और बनियान पहने चबूतरे पर कुर्सी डाले बीयर पिया करता। उसका ड्रेसिंग गाऊन शायद उसका बैरा चुरा ले जाता। कुत्ते तो मेम साहब के साथ ही चले जाते। दो-चार देसी कुत्ते बंगले को यतीम समझ कर उसके लान में डेरा डाल देते। मेम साहब जितने दिन रहती डिनर पार्टियों का जोर रहता और वह सुबह ही सुबह पंच सुरों में अपनी आया को आवाज देतीं। 'आया ऊ ..... ऊ....। 'जी मेम साहब आया उसकी आवाज पर तडप कर दौडती। मगर जब मेमसाहब चली जातीं तो लोगों का कहना था कि आया बेगम बन बैठी थीं। वह उसकी गैरहाजिरी में एवजी भुगताया करती थी। फ्लोमीना और पीटू उर्फ पीटर इसी अस्थाई समर्पण के स्थाई प्रमाण थे। 'कुछ हिन्दुस्तान छोड दो। का हंगामा और कुछ मेम साहब उकता गई थीं, इस गंदे पिचपिचाते मुल्क और उसके वासियों से इसलिए जल्दी ही वह वतन सिधार गई। उन्हीं दिनों मेरी मुलाकात जैक्सन से इसी खिडकी के जरिए हुई। 'तुम्हारा सास नहा चुका? उसने बम्बई की जबान में कमीनपने से मुस्कुराते हुए पूछा। 'हां साहब नहा चुका था। खून का स्नान किया उसने मैंने तीखेपन से जवाब दिया, चौदह-चौदह बरस के चंद बच्चे कुछ ही दिन पहले, हरि निवास पर जब गोली चली थी, उसमें मारे गए थे। मुझे यकीन था कि उनमें से कुछ वहीं बच्चे होंगे, जो उस दिन मिलेट्री की ट्रक आने पर मेरे घर में छिप गए थे। मुझे साहब से घिन आने लगी थी। ब्रिटिश साम्राज्य का जीता जागता हथियार मेरे सामने खडा उन बेगुनाहों के खून का मजाक उडा रहा था, जो उसके हाथ से मारे गए थे। मेरा जी चाहा उसका मुंह नोच लूं! उसकी कौन-सी आंख शीशे की थी, यह अंदाज लगा पाना मेरे लिए मुश्किल था। क्योंकि वह शीशे वाली आंख विलायती थी, मक्कारी का आला नमूना थी। उसमें जैक्सन की सारी सफेद कौम की चालबाजी भरी हुई थी। उच्चता का दंभ दोनों ही आंखों में रचा हुआ था। मैंने धड से खिडकी के पट बन्द कर दिए।
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11-05-2011, 07:06 PM | #66 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
मुझे सक्खू बाई पर बहुत गुस्सा आता था। सूअर की बच्ची सफेद कौम के जलील कुत्ते का तर निवाला बनी हुई थी। क्या खुद उसके मुल्क में कोढियों और हरामजादों की कमी थी, जो वह मुल्क की गैरत के नीलाम पर तुल गई थी। जैक्सन रोज शराब पीकर उसकी ठुकाई करता। मुल्क में बडे-बडे मोर्चे फतह किए जा रहे थे। सफेद हाकिम बस कुछ दिनों के मेहमान थे।
'बस अब चल चलाओ है इनकी हुकूमत का कुछ लोग कहते। 'अजी ये शेख चिल्ली के ख्वाब हैं। इन्हें निकालना आसान नहीं कुछ दूसरे लोग राय देते। इधर मैं मुल्क के नेताओं की लम्बी-चौडी तकरीरें सुन कर सोचती, कोई जैक्सन काने साहब का जिक्र ही नहीं करता। वह मजे से सक्खू बाई को झोंटे पकड कर पीटता है। फ्लोमीना और पीट्टू को मारता है। आखिर जै हिन्द का नारा लगाने वाले उसका कुछ फैसला क्यों नहीं करते? मगर मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। पिछवाडे शराब बनती थी। मुझे सब कुछ मालूम था, मगर मैं क्या कर सकती थीं। सुना था अगर गुंडों की शिकायत कर दो तो ये जान को लागू हो जाते हैं। वैसे मुझे तो यह भी नहीं मालूम था कि किससे रिपोर्ट करूं। सारी बिल्डिंग के नल दिन-रात टपकते थे, नालियां सड रही थीं। मगर मुझे बिल्कुल नहीं मालूम था कि कहां किससे रिपोर्ट की जाती है। आसपास रहने वालों में भी किसी को नहीं मालूम था कि अगर कोई बदजात औरत ऊपर से किसी के सर पर कूडे का टिन उलट दे तो किससे शिकायत करें। ऐसे मौकों पर आम तौर पर जिसके सर पर कूडा गिरता वह मुंह ऊंचा करके खिडकियों को गालियां बकता, कपडें झाडता अपनी राह लेता। मैंने मौका पाकर एक दिन सक्खू बाई को पकडा 'क्यों कम्बख्त यह पाजी तुम्हें रोज पीटता है, तुझे शर्म भी नहीं आती? 'रोज कब्बी मारता बाई? वह बहस करने लगी। 'खैर वह महीने में चार-पांच बार तो मारता है न 'हां मारता है बाई, सो हम भी साले को मारता है वह हंसी। 'चल झूठी 'अरे पीट्टू की सौगंध, हम थोडा मार दिया साले को परसों 'मगर तुझे शर्म नहीं आती सफेद चमडी वाले की जूतियां सहती है? 'मैंने एक सच्चे वतन परस्त की तरह जोश में आकर उसे लेक्चर दे डाले। 'इन लुटेरों ने हमारे मुल्क तो कितना लूटा है वगैरा-वगैरा।
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11-05-2011, 07:08 PM | #67 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
'अरे बाई क्या बात करता तुम। साहब साला कोई नहीं लूटा ये जो मवाली लोग हैं न वो बेचारा को दिन-रात लूटता। मेम साब गया, पीछे सब कटलरी-फटलरी बैरा लोग पार कर दिया। अक्खा पटूलन-कोट, हैत, इतना फस्त क्लास जूता, सब खतम। देखो चल के बंगले में कुछ भी नहीं छोडा। तुम कहता चोर है साहब। हम बोलता हम नई होदे तो साल उसका बेटी काट के ले जादे ऐ लोग
'मगर तुम्हें उसका क्यों इतना दर्द है? 'काइको नई होवे दर्द, वो हमारा मरद है न बाई सक्खू बाई मुस्कराई! 'और मेम साहब? 'मेम साब पक्की छिनाल हो- लन्दन में उसका बौत यार है.... यहां सक्खू बाई ने मोटी सी गाली देकर कहा, '...वहीं मरी रहती है। आती बी नई। पन आती तो दन साहब से खिट-खिट, नौकर लोग से गिट-गिट। मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि अब अंग्रेज हिन्दुस्तान से जा रहे हैं। साहब भी चला जाएगा। मगर वह कतई नहीं समझी। बस यही कहती रही कि 'साहब चला जाएगा बाई मगर उसे विलायत बिलकुल पसंद नहीं कुछ सालों के लिए मुझे पूना रहना पडा। इस अर्सा में दुनिया बदल गई। फिर सचमुच अंग्रेज चले गए। मुल्क का बंटवारा हुआ। सफेद हाकिम पिटी हुई चाल चल गया और मुल्क खून की नहरों में नहा गया। जब बम्बई वापस आयी तो बंगले का हुलिया बदला हुआ था। साहब न जाने कहां चला गया था। बंगले में एक रिफ्यूजी खान्दान आ बसा था। बाहर नौकरों के क्वार्टरों में से एक में सक्खू बाई रहने लगी थी। फ्लोमीना खासी लम्बी हो गई थी। पीट्टू और वह माहम के एक यतीम खाने (अनाथालय) में पढने जाते थे। जैसे ही सक्खू बाई को मेरे आने की खबर लगी वह फौरन ही हाथ में मूंगने की दो चार फलियां लिए आ धमकी!
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11-05-2011, 07:13 PM | #68 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
'कैसा है बाई? उसने रसमन मेरे घुटने दबा कर पूछा।
'तुम कैसा है, साहब कहां है तुम्हारा? चला गया न लन्दन? 'नई बाई... सक्खू बाई का मुंह सूख गया, 'हम बोला भी जाने को पर नहीं गया। उसका नौकरी भी खलास हो गया था। आर्डर भी आया, पर नहीं गया। 'फिर कहां है? 'अस्पताल में 'क्यों क्या हो गया? 'डॉक्टर लोग बोलता कि दारू बोत पिया इस कारन मस्तक फिर गया। उधर पागल साहब लोग का हस्पताल है। उच्चा-एकदम फर्स्ट क्लास, उधर उसको डाला 'मगर वह तो वापस जाने वाला था? 'कितना सब लोग बोला, हम लोग बोला बाबा चले जाओ सक्खू बाई रो पडी। 'पन नहीं, हमको बोला सक्खू डार्लिंग तेरे को छोड कर नहीं जाएंगे। न जाने सक्खू बाई को रोते देखकर मुझको क्या हो गया, मैं भूल गई कि साहब एक लुटेरी साम्राजी कौम का फर्द है, जिसने फौज में भर्ती होकर मेरे मुल्क की गुलामी की जंजीरों को ज्यादा जकड बना दिया था। जिसने मेरे वतन के बच्चों पर गोलियां चलाई थीं, निहत्थे लोगों पर मशीनगनों से आग बरसायी थी। वह ब्रिटिश साम्राज्य के उन घिनौने कलपुर्जों में था जिसने मेरे देस के जांबाजों का खून सडकों पर बहाया था, सिर्फ इस कुसूर में कि वह अपने हक मांगते थे, इज्जत से जीना चाहते थे। मगर मुझे उस वक्त कुछ याद न रहा, सिवाए इसके कि सक्खू बाई का मर्द पागलखाने में भर्ती था। मुझे अपने इस तरह भावुक होने पर बहुत दुख था। क्योंकि एक कौमपरस्त को जाबिर कौम के एक फर्द से कतई किसी तरह की हमदर्दी या लगाव नहीं महसूस करना चाहिए। मैं ही नहीं सब ही भूल चुके थे। मोहल्ले के सारे लौंडे नीली आंखों वाली फीलोमीना पर बगैर यह सोचे-समझे फिदा थे कि वह कीडा जिससे उसकी हस्ती अस्तित्व में आई सफेद था या काला। जब वह स्कूल से लौटती तो कितनी ही ठण्डी सांसें उसके इंतजार में होतीं। कितनी ही निगाहें उसके पैरों तले बिछी थीं... किसी लौण्डे को उसके इश्क करते, सिर धुनते वक्त किंचित याद न रहता कि यह उसी सफेद दरिन्दे की लडकी है जिसने हरिनिवास के नाके पर चौदह बरस के बच्चे को खून में डिबो कर मारा था। जिसने माहम चर्च के सामने निहत्थी औरतों पर गोलियां चलाई थीं। क्योंकि वो नारे लगा रही थीं। जिसने चौपाटी की रेत में जवानों का खून निचोडा था और सिक्रेट्रियेट के सामने सूखे-मारे नंगे भूखे लडकों के जुलूस को मशीनगनों से दरहम-बरहम किया था। उन सारे मंजरों को सब भूल चुके थे। बस इतना याद था कि कुंदनी गालों और नीली आंखों वाली छोकरी की कमर में गजब की लचक है। मोटे-मोटे गदराए हुए होंठों के कम्पन में मोती खलते हैं।
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11-05-2011, 07:15 PM | #69 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
एक दिन सक्खू बाई झोली में प्रसाद लिए भागी-भागी आई।
'हमारा साहब आ गया उसकी आवाज लरज रही थी, आंखों में मोती चमक रहे थे। कितना प्यार था, इस लफ्ज हमारा में। जिन्दगी में एक बार किसी को पूरी जान का दम निचोड कर अपना कहने का मौका मिल जाए तो फिर जन्म लेने का मकसद पूरा हो जाता है। 'अच्छा हो गया? 'अरे बाई पागल कब्बी था वह? ऐसे इच साहब लोग पकड कर ले गया था, भाग आया। वह राज बताने जैसे लहजे में बोली। मैं डर गई, एक तो हारा हुआ अंग्रेज ऊपर से पागलखाने से भागा हुआ। किसको रिपोर्ट करूं। बम्बई की पुलिस के लफडे में कौन पडता फिरे। हुआ करे पागल मेरी बला से। कौन मुझे उससे मेल -जोल बढाना है। लेकिन मेरा खयाल गलत निकला। मुझे मेल-जोल बढाना पडा मेरे दिल में खुद-बुद हो रही थी कि किसी तरह पूछूं, 'जैक्सन इंगलिस्तान अपने बीवी बच्चों के पास क्यों नहीं जाता। भला ऐसा भी कोई इंसान होगा जो जन्नत को छोडकर यों एक खोली में पडा रहे। और एक दिन मुझे मौका मिल ही गया। कुछ दिन तक तो वह कोठरी से बाहर ही न निकला। फिर आहिस्ता-आहिस्ता निकलकर चौखट पर बैठने लगा। वह सूखकर कलफ चढे कपडें जैसा हो गया था। उसका रंग जो पहले बन्दर के चेहरे जैसा लाल चुकन्दर था झुलस कर कत्थई हो गया था। बाल सफेद हो गये थे। चारखाने की लुंगी बांधे मैली बनियान चढाए वह बिल्कुल हिन्दुस्तान की गलियों में घूमते पुराने गोरखों की मानिन्द लगता था। उसकी नकली और असली आंख में फर्क मालूम होने लगा था। शीशा तो अब भी वैसा ही चमकदार झिलमिल और 'अंग्रेज था मगर असली आंख गंदली बे रौनक होकर जरा दब गई थी। अब तो ज्यादातर वह शीशे वाली आंख के बगैर ही घूमा करता था। एक दिन मैंने खिडकी में से देखा तो वह जामुन के पेड के नीचे खडा खोए-खोए अंदाज में कभी जमीन से कोई कंकर उठाता, उसे बच्चों की तरह देखकर मुस्कुराता फिर पूरी ताकत से उसे दूर फेंक देता। मुझे देखकर वह मुस्कुराया और सिर हिलाने लगा।
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11-05-2011, 07:16 PM | #70 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
'कैसी तबीयत है साहब
उत्सुकता ने उक्साया तो मैंने पूछा। 'अच्छा है- अच्छा है। वह मुस्कुरा कर शुक्रिया अदा करने लगा। मैंने बाहर जाकर इधर-उधर की बातें शुरू कीं। जल्दी ही वह मुझसे बातें करने में बेतकल्लुफी महसूस करने लगा। फिर एक दिन मैंने मौका पाकर कुरेदना शुरू किया। कई दिन की कोशिशों के बाद मुझे मालूम हुआ कि वह एक शरीफजादी का नाजायज बेटा था। उसके नाना ने एक किसान को कुछ रुपए दे दिलाकर उसे पालने-पोसने को राजी कर लिया। मगर यह मामला इस सफाई से किया गया कि उस किसान को भी पता न चल सका कि वह किस खान्दान का है। किसान बडा कुटिल था। उसके कई बेटे थे, जो जैक्सन को तरह-तरह से सताया करते थे। रोज पिटाई होती थी, मगर खाने को अच्छा मिलता था। उसने बारह तेरह बरस की उम्र से भागने की कोशिशें आरंभ की। तीन-चार साल की लगातार कोशिशों के बाद वह लुढकता-पुढकता धक्के खाता लन्दन पहुंचा। वहां उसने कई पेशे बारी इख्तियार किए, मगर इस अर्से में वह इतना ढीट, मक्कार और स्वच्छंद हो गया था कि दो दिन से ज्यादा कोई नौकरी न रहती। वह शक्ल-सूरत से रोबीला और खूबसूरत था इस वजह से लडकियों में काफी लोकप्रिय था। डार्थी उसकी बीवी नकचढे खान्दान की लडकी थी। उलार और ओछी भी। उसका बाप ऊंची पहुंच वाला शख्स था। जैक्सन ने सोचा इस खानाबदोशी की जिन्दगी में बडे झंझट हैं। आए दिन पुलिस और कचहरी से वास्ता पडता है। क्यों न डार्थी से शादी करके जिन्दगी संवार ली जाए। डार्थी उसके बस के बाहर थी, उसकी पहुंच से दूर थी। वह ऊंची सोसाइटी में उठने-बैठने की आदी थी। उस वक्त जैक्सन की दोनों आंखें असली थीं। यह तो जब वह डार्थी से लडकर शराबखानों का हो रहा। वहां किसी से मारपीट में एक आंख जाती रही। तब तक उसकी सिर्फ बडी बेटी पैदा हुई थी। 'हां तो तुमने डार्थी को कैसे घेर का फांसा? मैंने और कुरेदा।
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