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Old 23-08-2014, 10:43 PM   #61
rajnish manga
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Default Re: मेरी कहानियाँ!!!

माँ को नींद न आ रही थी. लेटे हुये सोच रही थी अपनी बेटी के बारे में. नहीं ... बल्कि उस स्वप्न के बारे में जिसे पिछले कई दिनों से शशि लगभग रोज ही देख रही थी. उसने स्वप्न के विषय में बार बार विचार किया. इस स्वप्न का बार बार दिखाई देना ही इसे रहस्यमय बना रहा था. आम तौर पर हम सपनो को गंभीरता से नहीं लेते क्योंकि सोते हुये व्यक्ति के लिये यह एक सामान्य स्थिति है जिसमें सोचने लायक कुछ अधिक नहीं होता.

हर बार शशि को स्वप्न में जो गठरी दिखाई देती है, वह किस बात का संकेत हो सकता है. शशि ने अक्सर बताया है कि वह इस गठरी को बगल में दबा कर व छुपा कर चलती है जैसे इसमें कोई बहुमूल्य निधि छुपी हो. संभव है कि यह गठरी उसके होने वाले बच्चे की ओर संकेत कर रहा हो. अन्यथा और क्या मतलब हो सकता है, इस सब का? गठरी का यही अर्थ निकलता है. अपने होने वाले बच्चे की समुचित सुरक्षा के लिये हर माँ चिंतित होती है. अपने हालात के मद्दे-नज़र शशि का इस बारे में बहुत संवेदनशील होना किसी प्रकार से आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता.

बिजली गिरने का क्या अर्थ हो सकता है? माँ सोचने लगी कि शशि ने कभी ज़ाहिर नहीं होने दिया कि उसमे ज़र्रा भर भी कभी हीन भावना आयी हो. माँ अच्छी तरह जानती है कि शशि अपने बचपन से ही बहुत बोल्ड है और सदा चुनौतियों का सामना करने में उसे मजा आता है. माँ का हृदय इस स्वप्न के बारे में कोई निश्चित राय नहीं बना सका.

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Old 23-08-2014, 10:45 PM   #62
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Default Re: मेरी कहानियाँ!!!

भाग दो


धीर गंभीर स्वभाव वाले डॉ. चंचल कुमार दास बहुत दिनों से यहाँ रहते थे और नगर के सम्मानित साइकेट्रिस्ट थे. उन्होंने शशि से तन्मयतापूर्वक बातचीत की और इस सेशन के दौरान उसकी समस्या को समझने की कोशिश की. बातचीत का यह सिलसिला कोई एक सप्ताह तक चला होगा. डॉ दास सभी संभावित सूत्रों पर विचार कर रहे थे. प्रत्येक सेशन के बाद समस्या की पृष्ठभूमि स्पष्ट होती जा रही थी. डॉक्टर तथा क्लाइंट के बीच विश्वास बढ़ता जा रहा था. यही कारण था कि डॉक्टर अपनी सूचनाएं प्राप्त करने में सफल हो रहे थे.

ऐसी ही एक बैठक के दौरान डॉ दास ने शशि से पूछा, “बेटी, मुझे यह बताओ कि क्या तुम्हें दिन के समय यानी जागते हुये भी ऐसे खौफ़नाक विचार सताते हैं?”

“कतई नहीं ... डॉक्टर अंकल ... बल्कि मैं तो इस स्वप्न को कभी इतनी गंभीरतापूर्वक न लेती यदि यह मुझे बार बार न दिखाई देता.”

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Old 23-08-2014, 10:46 PM   #63
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Default Re: मेरी कहानियाँ!!!

“देखो, स्वप्न के आने पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है,” डॉ. दास बोले, “इससे भयभीत होने की जरूरत भी नहीं है. होता क्या है कि व्यक्ति के अवचेतन मन के भाव हमें कहीं न कहीं मथते रहते हैं. जागृत अवस्था में यह सभी भाव जैसे परदे के पीछे चले जाते हैं और हमें दिखाई नहीं पड़ते. जब हम सो जाते हैं तो यही भाव-संसार हमारे सम्मुख आ खड़ा होता है. इन्हीं मनोभावों की प्रकृति व तीव्रता के अनुसार हमारे स्वप्नों का संसार रचा जाता है. सपनों में दिखाई देने वाले तमाम घटनाक्रम, हमारी मानसिक अवस्था का ही अक्स होते हैं जहां वास्तविकता का संकेत रूप में या विकृत रूप में प्रतिरूपण होता है. तनावों से घिरे हुये व्यक्ति के स्वप्न भी कभी कभी उसे कष्ट देते हुये प्रतीत होते हैं. स्वप्न वास्तविकता नहीं होता लेकिन कई बार हमें वास्तविक लगने लगता है. तब यही स्वप्न हमारे चेतन मन पर हावी होने लगता है. ऐसी स्थिति में हमारे डरावने स्वप्न, जिन्हें हम नाईटमेयर (nightmares) के नाम से भी जानते हैं, हमारी चेतना को झकझोर डालते हैं. इनके प्रभाव से हमारा व्यवहार बुरी तरह प्रभावित होने लगता है.”

“अंकल, मैं यह पहले ही बता चुकी हूँ कि मैं कायर नहीं हूँ और न कायरता मेरे स्वभाव में कभी रही है. मैंने जीवन की हर चुनौती का दृढ़ता से मुकाबला किया है और आगे बढ़ी हूँ. लेकिन डॉक्टर, वह वातावरण, बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली का लपक कर मुझ पर गिरना और फिर सब स्वाहा .... मैं हड़बड़ा का नींद से उठ बैठती हूँ. सच में यह दृश्य बेहद सिहरनभरा होता है.”
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Old 23-08-2014, 10:47 PM   #64
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Default Re: मेरी कहानियाँ!!!

“ठीक है, ठीक है,” डॉक्टर दास शशि से पूछने लगे, “आज कोई खास बात तुम्हारे देखने में आयी हो?”

“हाँ, डॉक्टर अंकल, कल रात मुझे किसी विचार ने तंग नहीं किया. कोई सपना भी नहीं, कोई डरावना ख़याल मुझ तक नहीं पहुंचा!!”

“अर्थात कल रात तुम्हे कोई स्वप्न नहीं आया?” डॉक्टर दास ने पूछा.

“हाँ सर, मुझे अच्छी नींद भी आयी.”

“वैरी गुड, मैं देख रहा हूँ कि तुम सही दिशा में अग्रसर हो रही हो. हमारे इंटरव्यू सेशंस का असर पड़ रहा है. कुछ दिनों में मैं भी अपना ऑब्ज़रवेशन पूरा कर लूँगा. उसके बाद मैं तुम्हें कुछ और बता पाऊंगा. विश्वास करो कि उसके बाद तुम्हे ये डरावने स्वप्न कभी परेशान करने नहीं आयेंगे.”

“थैंक यू वैरी मच, सर ... थैंक यू वैरी मच ... डॉक्टर अंकल.”

इस प्रकार डॉक्टर दास ने परस्पर वार्ताओं के माध्यम से शशि के अंतर्मन में उतर कर वो सभी आवश्यक सूत्र ढूंढ निकाले थे जिनके आधार पर शशि को उसके कष्ट से मुक्ति दिलाई जा सकती थी.

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Old 23-08-2014, 10:48 PM   #65
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Default Re: मेरी कहानियाँ!!!

अगले दिन .....

“हेल्लो बेबी, तो आज मम्मी को साथ लेकर आई हो ... नोमोस्कार ... बहन जी,” डॉ. दास बंगला लहज़े में बोले, “बैठिये ... कृपया.”

“शशि आपकी बहुत प्रशंसा कर रही थी. अतः आपका धन्यवाद करने मुझे आना ही पड़ा.”

“धन्यवाद ... धन्यवाद ... आपकी बेटी तो डरपोक है ..”

डॉ. दास की इस बात पर सभी ने ठहाका लगाया.

“डॉक्टर अंकल, क्या आज यह नहीं पूछेंगे कि मैंने बीती रात क्या देखा?”

“अवश्य जानना चाहूँगा, बेटा. बताइये”

“आज भी स्वप्न में बिजली गिरी थी. लेकिन आज बिजली मुझ पर नहीं गिरी.”

“तो .... ?”

“एक सूखे हुये पेड़ पर ... “ यह कहते हुये शशि एक छोटी बच्ची की तरह हँसने लगी.
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Old 23-08-2014, 10:51 PM   #66
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डॉक्टर दास ने श्रीमती शशि आनंद की जो रिपोर्ट तैयार की उसका सारांश यह था कि वे किसी गंभीर मानसिक विकार, व्याधि अथवा ग्रंथि से पीड़ित नहीं हैं. वह आत्मविश्वास से भरी हुई है और किसी भी प्रकार की असुरक्षा की भावना से भी मुक्त हैं. वास्तव में वह अपने होने वाले बच्चे की तरफ से चिंतित हैं और इसी कारण से कभी कभी विचलित हो जाती हैं. मुझे लगता है कि वे अपनी भावी संतान के पालन पोषण के सवाल पर लाजवाब हो जाती हैं, अपनी असमर्थता का परिचय देती हैं. अपने तमाम आत्म-विश्वास के बावजूद शशि जी अपने पति से अलग रह कर अपने होने वाले बच्चे की स्वस्थ परवरिश कर पाने में खुद को अवश पाती हैं. यह भावना शायद उनकी इस सोच से उपजी है जिसके अनुसार बच्चे के पालन-पोषण में पिता की भी उतनी ही भूमिका और जरूरत है जितनी माता की. किसी एक के न होने का उसके शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. शशि अब एक खंडित परिवार का हिस्सा है. वह मानती है कि इस प्रकार का परिवेश बच्चे के लिये उचित नहीं हो सकता.

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Old 23-08-2014, 10:52 PM   #67
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एक अन्य बात की ओर भी इशारा किया गया था. वह यह कि शशि जी स्वस्थ तन मन की मालकिन हैं और युवती हैं. आत्मविश्वास भी रखती हैं. वह किसी भी आसन्न समस्या का या परिस्थिति का साना कर सकती हैं.किन्तु इस सब से अलग उस समाज का भी तो एक अंग हैं जिसमे वो रहती हैं. लोगों से मिलती-जुलती हैं. जिसके मूल्यों को वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकार करती हैं. ये वो संस्कार हैं जो जन्म से अब तक उनके चिंतन का विकास करते रहे हैं. हमारा समाज कई जगह दकियानूसी हो जाता है. यह इस बात को आश्चर्य और विलक्षणता से देखता है कि एक माँ अपने नन्हें बच्चे के साथ अकेली रहती है. ज़माना प्रश्न करता है- अकेले क्यों रहती है? क्या पत्नी में कोई दोष था? या पति ही बिगड़ा और बदचलन था?

क्या पत्नी का आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर होना ही ऐसे या इन जैसे ही अन्य प्रश्नों का मुंहतोड़ उत्तर देने के लिये काफी है? शशि आनंद भी काफी हद तक अपने समाज कि मान्यताओं में आस्था रखती हैं व उनको स्वीकार करती हैं. डॉक्टर दास का कहना था कि मिज़ शशि आनंद भी ऐसी ही समस्याओं से आक्रान्त हैं.

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Old 23-08-2014, 10:53 PM   #68
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अब तक की मुलाकातों का श्रीमती शशि आनंद के मन पर अपेक्षित प्रभाव पड़ा है. क्योंकि इन मुलाकातों में उन बातों पर विशेष ध्यान दिया गया था कि वे प्रश्नों का उत्तर देते समय अपने अवचेतन तथा अचेतन मन पर जोर दें. स्वतंत्र साहचर्य पद्धति द्वारा विचार बाहर लाये गये. अचेतन व अवचेतन मन की समस्या स्वतः लुप्त होती चली गयी. इन बैठकों का यह लाभ हुआ कि बार बार टटोले जाने से समस्याओं का अनोखापन समाप्त हो गया. मंद होते होते ये समस्याएं पूर्णतः समाप्त हो गयीं.

****
उधर दूसरी ओर, सिद्धांत को ठोकर लगी. मिश्रा जी की बड़ी लड़की नेहा का विवाह उनकी ही बिरादरी के एक बड़े परिवार में हो गया था. लड़का कॉलेज में लेक्चरर था. वह सुंदर, पढ़ा लिखा व सरल स्वभाव का युवक था. और सिद्धांत जिसे नेहा का प्यार समझ रहा था वह उसका सहज स्नेह था. अपना बेटा न होने के कारण नेहा के माता-पिता भी उसे अपना बेटा ही मानते थे, इससे अधिक कुछ नहीं.

वक़्त के थपेड़ों की मार खा कर और सगे सम्बन्धियों द्वारा मध्यस्थता किये जाने के बाद सिद्धांत बमुश्किल अपनी पत्नी शशि के सामने आने की हिम्मत बटोर सका. शशि ने पहले तो उससे मिलने से ही इनकार कर दिया किन्तु आखिर में उसके सब्र का बाँध भी टूट गया. अपने-अपने मन की कह लेने के बाद दोनों की आँखें सजल हो गईं. एक बार फिर उसने सिद्धांत को अपना लिया- अपने होने वाले बच्चे के लिये, अपने लिये, अपने परिवार के लिये और अपने समाज के लिये.

**** इति ****
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Old 26-08-2014, 11:46 AM   #69
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दृष्टिकोण



एक बार दो भाई, रोहित और मोहित थे। वे 9 वीं कक्षा के छात्र थे और एक ही स्कूल में पढ़ते थे। उनकी ही कक्षा में अमित नाम का भी एक छात्र था जो बहुत अमीर परीवार से था।
एक दिन अमित अपने जन्मदिन पर बहुत महंगी घड़ी पहन कर स्कूल आया, सभी उसे देख कर बहुत चकित थे। हर कोई उस घड़ी के बारे में बातें कर रहा था ,कि तभी किसी ने अमित से पुछा ,
“यार , ये घड़ी कहाँ से ली ? “
” मेरे भैया ने मुझे जन्मदिन पर ये घड़ी गिफ्ट की है । ” , अमित बोला।
यह सुनकर सभी उसके भैया की तारीफ़ करने लगे , हर कोइ यही सोच रहा था कि काश उनका भी ऐसा कोई भाई होता।
मोहित भी कुछ ऐसा ही सोच रहा था , उसने रोहित से कहा , ” काश हमारा भी कोई ऐसा भाई होता !”
पर रोहित की सोच अलग थी , उसने कहा , ” काश मैं भी ऐसा बड़ा भाई बन पाता !”
वर्ष गुजरने लगे। धीरे – धीरे, मोहित अपनी जरूरतों के लिए दूसरों पर निर्भर रहने लगा क्योंकि उसने खुद को इस प्रकार विकसित किया और रोहित ने मेहनत की और एक सफल आदमी बन गया , क्योंकि वह दूसरों से कभी कोई उम्मीद नहीं रखता था , बल्की ओरों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता था।
तो दोस्तों, अंतर कहाँ था? वे एक ही परिवार से थे। वे एक ही वातावरण में पले-बढे और एक ही प्रकार की शिक्षा प्राप्त की। अंतर उनके दृष्टिकोण में था। हमारी सफलता और विफलता हमारे दृष्टिकोण पर काफी हद तक निर्भर करती है। और इसका प्रमाण आस-पास देखने पर आपको दिख जाएगा। चूँकि ज्यादातर लोग मोहित की तरह ही सोचते हैं इसलिए दुनिया में ऐसे लोगों की ही अधिकता है जो एक एवरेज लाइफ जी रहे हैं। वहीँ , रोहित की तरह सोच रखने वाले लोग कम ही होते हैं इसलिए सामाज मे भी सक्सेसफुल लाइफ जीने वाले लोग सीमित हैं। अतः हमें हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए पूरी कोशिश करनी चाहिए और नकारात्मकता से बचना चाहिए। क्योंकि वो हमारा दृष्टिकोण ही है जो हमारे जीवन को परिभाषित करता है और हमारे भविष्य को निर्धारित करता है।


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Old 01-09-2014, 03:27 PM   #70
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द्रौपदी और भीष्मपितामह



महाभारत का युद्ध चल रहा था। भीष्मपितामह अर्जुन के बाणों से घायल हो बाणों से ही बनी हुई एक शय्या पर पड़े हुए थे। कौरव और पांडव दल के लोग प्रतिदिन उनसे मिलना जाया करते थे।
एक दिन का प्रसंग है कि पांचों भाई और द्रौपदी चारो तरफ बैठे थे और पितामह उन्हें उपदेश दे रहे थे। सभी श्रद्धापूर्वक उनके उपदेशों को सुन रहे थे कि अचानक द्रौपदी खिलखिलाकर कर हंस पड़ी। पितामह इस हरकत से बहुत आहात हो गए और उपदेश देना बंद कर दिया। पांचों पांडवों भी द्रौपदी के इस व्य्वहार से आश्चर्यचकित थे। सभी बिलकुल शांत हो गए। कुछ क्षणोपरांत पितामह बोले , ” पुत्री , तुम एक सभ्रांत कुल की बहु हो , क्या मैं तुम्हारी इस हंसी का कारण जान सकता हूँ ?”
द्रौपदी बोली-” पितामह, आज आप हमे अन्याय के विरुद्ध लड़ने का उपदेश दे रहे हैं , लेकिन जब भरी सभा में मुझे निर्वस्त्र करने की कुचेष्टा की जा रही थी तब कहाँ चला गया था आपका ये उपदेश , आखिर तब आपने भी मौन क्यों धारण कर लिया था ?
यह सुन पितामह की आँखों से आंसू आ गए। कातर स्वर में उन्होंने कहा – ” पुत्री , तुम तो जानती हो कि मैं उस समय दुर्योधन का अन्न खा रहा था। वह अन्न प्रजा को दुखी कर एकत्र किया गया था , ऐसे अन्न को भोगने से मेरे संस्कार भी क्षीण पड़ गए थे , फलतः उस समय मेरी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी। और अब जबकि उस अन्न से बना लहू बह चुका है, मेरे स्वाभाविक संस्कार वापस आ गए हैं और स्वतः ही मेरे मुख से उपदेश निकल रहे हैं। बेटी , जो जैसा अन्न खाता है उसका मन भी वैसा ही हो जाता है “
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