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Old 28-12-2012, 11:46 AM   #61
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कारसेवकों के साथ अयोध्या में मार्च करते हुए बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी.
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Old 28-12-2012, 11:46 AM   #62
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विध्वंस के बाद भड़की हिंसा का एक दृश्य ये भी.
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Old 28-12-2012, 11:47 AM   #63
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कारसेवकों के साथ पुलिसकर्मी.

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Old 28-12-2012, 11:54 AM   #64
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कायनात में क़ुदरत की रहमत के गवाह

निदा फ़ाज़ली

शायर और लेखक


ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान के एक इलाक़े का नाम है. फिराक़ के गोरखपुर, जिगर के मुरादाबाद की तरह महमूद ग़ज़नवी भी अपने नाम के साथ ग़ज़नी जोड़ता था.

वह नस्ल से तुर्क था, जिसने जीसस के हज़ार साल बाद ग़जनी में अपनी हुकूमत स्थापित की थी. महमूद ने भारत पर कई बार हमले किए, लेकिन इन हमलों का संबंध धर्म से कम और लूटमार के अधर्म से ज़्यादा था.

वह नाम से मुसलमान ज़रूर था, लेकिन हक़ीक़त में पेशेवर लुटेरा था, जो बार-बार अपने सिपाहियों के साथ आता था और जो इस लूट में मिलता था उसे लेकर चला जाता था.

पंडित नेहरू ने अपनी पुस्तक 'भारत की खोज' में लिखा है, "महमूद एक लुटेरा था. धर्म को उसने लूटमार में एक शस्त्र की तरह इस्तेमाल किया था. आख़िरी बार वह हिंदुस्तानियों के हाथों ऐसा हारा कि उसे अपनी जान बचाकर भागने पर मजबूर होना पड़ा. उसके काफ़िले में जितनी औरते थीं, वे यहीं के सिपाहियों के घरों में बस गईं."

महमूद के साथ गुजरात के सोमनाथ मंदिर का जिक्र भी इतिहास में मिलता है.

इस आक्रमण को इतिहास में धार्मिक विवाद का रूप भले ही दे दिया जाए, लेकिन पर्दे के पीछे की हक़ीक़त दूसरी है. लुटेरों के लालच या लोभ को मूरत या क़ुदरत से ज़्यादा धन-दौलत से मुहब्बत होती है और इस मुहब्बत में धर्म को बदनाम किया जाता है.

नरेश सक्सेना ने फ़ैज़ाबाद में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने पर एक कविता लिखी थी. कविता में वर्तमान के धर्मांतरण की तुलना अतीत के जुनून से की गई है, कविता की पंक्तियां हैं:

इतिहास के बहुत से भ्रमों में से
एक यह भी है
कि महमूद ग़ज़नवी लौट गया था
लौटा नहीं था वह-यहीं था
सैंकड़ों बरस बाद अचानक
वह प्रकट हुआ अयोध्या में
सोमनाथ में किया था उसने
अल्लाह का काम तमाम
इस बार उसका नारा था-जयश्रीराम

महमूद ग़ज़नवी जिन औरतों और मर्दों को छोड़कर अपनी जान बचाकर भागा, उनकी औलादें कई-कई नस्लों के बाद कहाँ-कहाँ है, ईश्वर के किस रूप की पुजारी है, चर्च में उसकी स्तुति गाती है, मस्जिद में सर झुकाती हैं या मूरत के आगे दीप जलाती हैं. मैंने सैलाब नामक एक सीरियल के टाइटिल गीत में लिखा है.

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किस को मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं

कोई नगर हो या देश हो, उसमें बसने वाले या वहाँ से बाहर जाने वाले सब एक जैसे नहीं होते. गज़नी से महमूद भी भारत आया था और वे बुज़ुर्ग भी आए थे जो सारी दुनिया को एक ही ख़ुदा की ज़मीन मानते थे.

इन्हीं बुजुर्गों की नस्ल के एक मुहम्मद फ़तह खाँ के परिवार में, पंजाब के ज़िला होशियारपुर में साल 1928 में एक बेटे का जन्म हुआ. बाप ने उसका नाम मुहम्मद मुनीर ख़ान नियाज़ी रखा. अभी यह बच्चा मुश्किल से एक साल का ही था कि बाप अल्लाह को प्यारे हो गए.

बाप की मौत ने घर ख़ानदान के हालात ही नहीं बदले, बल्कि मुहम्मद मुनीर ख़ान नियाज़ी ने अपने चार लफ़्जों के नाम को दो लफ़्जी नाम में बदल दिया. अब इसमें न मुहम्मद था न ख़ान. सिर्फ़ दो लफ़्ज थे मुनीर नियाज़ी.

मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ और नूनकीम राशिद के बाद पाकिस्तान की आधुनिक उर्दू शायरी का सबसे बड़ा नाम है.

मुनीर अपने मिज़ाज, अंदाज़ और आवाज़ के लिहाज़ से अनोखे शायर थे. यह अनोखापन उनके शब्दों में भी नज़र आता है. शब्दों में पिरोए हुए विषयों में भी जगमगाता है और उस इमेजरी से भी नकाब उठाता है जो उनकी शायरी में एक भाषा की रिवायत में कई मुल्की और ग़ैरमुल्की भाषाओं की विरासत को दर्शाती है.

वह पैदायशी पंजाबी थे. पंजाब की अज़ीम लोक-विरासत में शामिल सूफियाना इंसानियत, जिनका शुरूआती रूप बाबा फ़रीद के दोहों में बिखरा हुआ है, मुनीर नियाज़ी की नज्मों और ग़ज़लों की ज़ीनत है.

उनकी शायरी का केंद्रीय किरदार, समय-समय पर बदलती रियासत से दूर होकर उन राहों में चलता-फिरता नज़र आता है जहाँ दरख़्त, इंसान, पहाड़, आसमान परिंदे, दरिंदे और नदियाँ एक ही ख़ानदान के सदस्य है और जो एक दूसरे के दुख-सुख में बराबर शरीक रहते हैं.

इस शायरी में ज़मीन और आसमान के बीच ज़िंदगी उन हैरतों में घिरी दिखाई देती है जो सदियों से सूफी-संतो की इबादतों का दायरा रही हैं.

इन हैरतों की झिलमिलाहटों में न ज़मीन की सीमाएँ हैं, न विज्ञान की लानतों से गंदी होती फज़ाएँ हैं. इनमें मानव जीवन प्रकृति का चमत्कार है, जो सीधा और आसान नहीं है. गहरा और पुरअसरार है.

महमूद ग़ज़नवी तलवार के सिपाही थे और मुनीर नियाज़ी कायनात में कुदरत की रहमत की गवाही थे. उनकी रचनाओं की कुछ मिसालें देखिए.

अभी चाँद निकला नहीं
वह ज़रा देर में उन दरख्तों के पीछे से उभरेगा.
और आसमाँ के बड़े तश्त को पार करने की एक और कोशिश करेगा (कोशिशे राख्गाँ)
गुम हो चले हो तुम तो बहुत ख़ुद में ए मुनीर
दुनिया को कुछ तो अपना पता देना चाहिए
आदत सी बना ली है तुमने तो मुनीर अपनी
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना

मुनीर नियाज़ी ने सोमनाथ मंदिर की दौलत की लालच में न अल्लाह का काम तमाम किया और न बाबरी मस्जिद को तोड़कर जय श्रीराम कहा.

उसने सिर्फ़ अपने लफ़्जों में प्रेम और अहिंसा के पैगंबरों-बाबा फ़रीद, वारिस शाह आदि का पैग़ाम आम किया.

मुनीर नियाज़ी (1928-2007) अपनी तबीयत की वजह से आबादी में तन्हाई का मर्सिया था.

इस तन्हाई को बहलाने के लिए उन्हीं के एक इंटरव्यू के मुताबिक उन्होंने 40 बार इश्क किया था, लेकिन यह गिनती भी उनकी बेक़रारी को सुकून नहीं दे पाई. इस मुसलसल बेक़रारी के बारे में उन्होंने लिखा है:

इतनी आसाँ ज़िंदगी को इतना मुश्किल कर लिया
जो उठा सकते न थे वह ग़म भी शामिल कर लिया

मुनीर नियाज़ी ने कई पाकिस्तानी फ़िल्मों में गीत भी लिखे थे, इनमें कुछ गीत अच्छे और नर्म लफ़्जों के कारण काफ़ी पसंद भी किए गए. कुछ गीतों के मुखड़े यूँ हैं:

उस बेवफ़ा का शहर है और हम हैं दोस्तो...

या फिर

कैसे-कैसे लोग हमारे दिल को जलाने आ जाते है

और एक यह भी,

जिसने मेरे दिल को दर्द दिया, उस शख़्स को मैंने भुला दिया

मुनीर नियाज़ी वक़्त और उसके ग़ैर-इंसानी बर्ताव से इतने उदास थे कि चालीस बार इश्क़ करने के बावजूद अपने माँ-बाप की इकलौती औलाद की तरह वह तमाम उम्र इकलौते ही रहे.

उन्हें अपना नाम अजीज़ था कि इसमें किसी और की शिरकत उन्हें गवारा नहीं हुई. उनके वारिसों में उनकी बेवा के अलावा कोई और नहीं.

शाम आई है शराबे तेज़ पीना चाहिए
हो चुकी है देर अब ज़ख्मों को सीना चाहिए.
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Old 28-12-2012, 11:58 AM   #65
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बाबरी-राम जन्मभूमि झगड़े पर एक सहमति भी

रामदत्त त्रिपाठी

बीबीसी संवाददाता, लखनऊ


अयोध्या के राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद धार्मिक स्थल के मालिकाना हक का विवाद पिछले करीब डेढ़ साल से सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर है, मगर हाईकोर्ट से पुराने रिकार्ड न पहुँच पाने के कारण अभी सुनवाई शुरू नही हो पायी है.

निकट भविष्य में भी सुनवाई शुरू होने के कोई आसार नही हैं. इसलिए फैसला कब आएगा, भगवान जाने.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट के सितम्बर 2010 के फैसले को स्थगित कर दिया है.

हाईकोर्ट ने विवादित बाबरी मस्जिद के बीच के गुम्बद को राम जन्म भूमि मानते हुए विवादित डेढ़ हजार वर्ग मीटर जमीन का तीन पक्षों में बंटवारा कर दिया था.

ये तीन पक्ष हैं- मस्जिद के अंदर विराजमान भगवान राम, जिनके पैरोकार विश्व हिंदू परिषद के नेता हैं.

दूसरा हिस्सेदार है सनातन हिंदुओं की संस्था निर्मोही अखाड़ा जो लगभग सवा सौ साल से इस स्थान पर मंदिर बनाने की कानूनी लड़ाई लड़ रहा है.

तीसरा पक्ष है सुन्नी वक्फ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमान. सुन्नी वक्फ बोर्ड एवं स्थानीय मुसलमान 22-23 दिसंबर 1949 को बाबरी मस्जिद के अंदर भगवान राम की मूर्तियां रखने के बाद मस्जिद की बहाली के लिए अदालत में लड़ रहे हैं.

सितम्बर 2010 में विवादित स्थल के तीन हिस्सों में बंटवारे के हाईकोर्ट के आदेश का आम तौर पर देश भर में स्वागत हुआ था. लोगों ने इसे एक तरह से पंचायती फैसला माना. मगर मुकदमा लड़ने वाले सभी पक्षकार उससे असंतुष्ट होकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं.

सभी अपील के कानूनी अधिकार का इस्तेमाल करना चाहते हैं. वकीलों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने से पहले हाईकोर्ट से मुक़दमे का सारा रिकार्ड पहुँचना ज़रुरी है. यह लगभग पचास हज़ार पेज होगा. इनमें से जो रिकॉर्ड हिंदी, उर्दू या पंजाबी में हैं, सुनवाई से पहले उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद भी होना है.

इस विवाद में कुल चार दीवानी मामले हैं. पहला गोपाल सिंह विशारद का जिनकी मृत्यु हो चुकी है. अब उनके बेटे राजेन्द्र सिंह वादी हैं. दूसरा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड का, तीसरा निर्मोही अखाड़े का और चौथा राम लला विराजमान का. जस्टिस देवकी नंदन अग्रवाल की मृत्यु के बाद विश्व हिंदू परिषद के त्रिलोकी नाथ पाण्डेय राम लला के मित्र के तौर पर पैरोकार हैं.

इन मुकदमों में वादी-प्रतिवादी मिलाकर अनेक पक्षकार हैं. इनमें हिंदुओं की ओर से जिन अन्य लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की है, उनमें हिंदू महासभा, श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति और रामजन्म भूमि सेवा समिति प्रमुख हैं.

मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के अलावा जमीयते उलेमा ए हिंद, हाशिम अंसारी, मोहम्मद फारुख़, मोहम्मद महफ़ूज़ुर रहमान और मिस्बाउद्दीन प्रमुख हैं.

हाईकोर्ट के तीनों जजों का फ़ैसला लगभग दस हज़ार पेज का था. वादियों को प्रमाणित प्रतिलिपि मिलने में ही कई महीने लग गए, इसलिए पिछले साल जुलाई तक अपीलें दाख़िल हुईं.

एडवोकेट जफरयाब जिलानी के अनुसार मुस्लिम समुदाय की अपीलों में मुख्य रूप से यह आपत्ति कि गयी है कि हाईकोर्ट का फैसला कानूनी सबूतों के बजाय आस्था की बुनियाद पर है.

मुस्लिम पक्षकारों के कहना है कि विवादित स्थान पर बाबर द्वारा बाबरी मस्जिद के निर्माण के दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं, जिसे न मानकर हाईकोर्ट ने आस्था की बुनियाद पर उसे राम जन्म भूमि करार दिया है.

मुस्लिम समुदाय ने अपील में यह मुद्दा भी उठाया है कि पुरातत्त्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट में यह निष्कर्ष नहीं निकाला गया था कि वहाँ पहले कोई मंदिर था जिसे तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी. हाईकोर्ट ने अपने फैसले में इस रिपोर्ट को भी आधार बनाया है.

दूसरी तरफ निर्मोही अखाड़े ने सुन्नी वक्फ बोर्ड और विश्व हिंदू परिषद के दावे को नकारते हुए सम्पूर्ण विवादित स्थान पर अपना अधिकार माँगा है.

अखाड़े के पैरोकार स्वामी राम दास कहते हैं, ''जिस जगह पर स्वयं भगवान प्रगट हुए हैं और हाईकोर्ट ने भी मान लिया है कि राम की जन्मभूमि वही है, इसलिए जहाँ राम की जन्म भूमि है, राम लला विराजमान रहेंगे. ऐसी स्थिति में निर्मोही अखाड़े ने कहा कि सम्पूर्ण भाग निर्मोही अखाड़े को चाहिए.''

निर्मोही अखाड़े का कहना है कि विवादित मस्जिद के तीनों तरफ पहले से उसका कब्जा है और दिसंबर 1949 में जो मूर्ति मस्जिद के बीच वाले गुम्बद के अंदर प्रकट हुई, वह भी उनके अधीन राम चबूतरे से उठकर वहाँ गयी थी.

निर्मोही अखाड़े के स्वामी राम दास का कहना है कि अगर मुस्लिम समुदाय चाहे तो वह उन्हें बदले में मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या में दूसरी भूमि उपलब्ध करा सकता है.

कानून में भगवान की प्रतिमा स्वयं में एक व्यक्ति की तरह संपत्ति की मालिक होती है. इस नाते भगवान राम विराजमान की ओर से विश्व हिंदू परिषद इस स्थान पर स्वामित्व का दावा कर रही है. विश्व हिंदू परिषद ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी अपील में विवादित स्थल के तीन हिस्सों में बंटवारे का विरोध किया है.

विश्व हिंदू परिषद की ओर से भगवान राम विराजमान के पैरोकार त्रिलोकी नाथ पांडेय का कहना है, ''हाईकोर्ट ने विवादित स्थान को राम जन्म भूमि मान लिया है. जन्म भूमि स्थान को अपने आप में देवत्व का दर्जा प्राप्त है. ऐसी स्थिति में देवत्व प्राप्त पवित्र स्थान का बंटवारा कैसे हो सकता है. बंटवारा संपत्ति का तो हो सकता है, भगवान का नही.''

वे कहते हैं, ''न्यायपालिका में सुनवाई में जो देर हो रही है, उससे तो अदालत पर लोगों का भरोसा ही उठ जाएगा. सवा दो साल में भी हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट रिकार्ड न पहुंचना शर्मनाक है.''

कह सकते हैं कि निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद, सुन्नी वक्फ बोर्ड के साथ- साथ एक-दूसरे के अधिकार को भी चुनौती दे रहे हैं.

फिलहाल कोई भी पक्ष विवादित स्थान पर छह दिसंबर की तरह जबरन कब्जे का अभियान नही चला रहा है. देश में लगभग आम सहमति है कि अदालत ही इसके स्वामित्व का फैसला करे. लेकिन अदालत का फैसला कब आएगा, यह बात शायद अदालत को भी मालूम नही.

इस बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पलोक बसु पिछले दो सालों से अयोध्या-फैजाबाद के हिंदू और मुसलमानों से बातचीत करके मामले को स्थानीय स्तर पर आपसी सहमति से सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन इस प्रयास में कोई खास सफलता मिलती दिखाई नही दे रही है.
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Old 28-12-2012, 12:00 PM   #66
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अयोध्या: कैसे बचा हिंदुस्तान हिंदू कट्टरपंथ से

पैट्रिक फ़्रेंच

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Old 28-12-2012, 12:03 PM   #67
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1992 के छह दिसंबर को अयोध्या में हाथों में भगवा झंडा लिए हुए बाबरी मस्जिद के टूटे हुए गुंबद पर खडे कुछ हिंदू युवा बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे लेकिन इस एक तस्वीर ने भारतीय राजनीति को बदल दिया.

ऐसे बुद्धिजीवियों को खोजना मुश्किल नहीं था जो उस समय कह रहे थे कि कट्टरपंथी हिंदुत्व विचारधारा ही भविष्य की राजनीति की दिशा तय करेगी.

हिंदूओं की एक बड़ी संख्या ये कह रही थी कि अगर कट्टरपंथी हिंदू चाहें तो वे स्वतंत्रता के समय जिस विविध और बहुभाषी देश की कल्पना की गई थी उससे बिल्कुल अलग एक नया राष्ट्र बना सकते हैं.

भारत में करोड़ों स्कूली बच्चे हर सुबह गाते हुए सुने जा सकते हैं, ''मैं अपने देश से प्यार करता हूं और इसकी शानदार और विविध परंपरा पर मुझे गर्व है.''

लेकिन उस घटना के कुछ महीनों बाद भारतीय इतिहासकार सर्वपल्ली गोपाल ने आशंका जताते हुए लिखा था, ''भारत में धर्मनिरपेक्षता का गला घोंट दिया जाएगा और ये देश फ़ासीवाद की तरफ़ बढ़ रहा होगा. जिन मूल्यों के आधार पर आज़ाद भारत की नींव रखी गई थी उनको कमज़ोर करने की कोशिश की जा रही है.''

बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद इस तरह के डर के कई कारण थे. पूरे भारत में अलग-अलग जगह हुए सांप्रदायिक दंगों में हज़ारों लोग मारे गए जिनमें ज़्यादातर मुसलमान थे.

दुंबई में बैठे माफ़िया सरग़ना भारत के दाऊद इब्राहिम ने मुंबई में बम धमाके करवाए और पाकिस्तान के शहर कराची में अल्पसंख्यक हिंदूओं को निशाना बनाया गया.

उसी समय अंग्रेज़ी के जाने माने लेखक और नोबेल विजेता वीएस नायपॉल ने कहा था कि जिन लोगों ने मस्जिद को तोड़ा था उनके लिए वो भारत की अस्मिता को दोबारा हासिल करने जैसा था.

नायपॉल ने उस समय कहा था, ''आने वाले वर्षों में मस्जिद के तोड़े जाने को एक महान पल की तरह याद किया जाएगा और संभव है कि इस दिन को राष्ट्रीय अवकाश भी घोषित कर दिया जाए.''

लेकिन सच्चाई तो ये है कि समय बीतने के साथ ही भारतीय राजनीति ने इस तरह की विध्वंसक कार्रवाई को पूरी तरह नकार दिया.

1992 में भारत में दो राजनीतिक विचारधारा उभर रही थीं. एक तरफ़ हिंदूओं में पिछड़ी जाति के लोग अपने अधिकारों के लिए मुखर हो रहे थे और दूसरी तरफ़ हिंदुत्व के नाम पर हिंदू वोटरों को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की कोशिश की जा रही थी.

पिछड़ी जाति के आंदोलन ने तो भारतीय राजनीति में एक क्रांति पैदा कर दी लेकिन चुनावी राजनीति में हिंदुत्व के नाम पर ज़्यादा लाभ नहीं उठाया जा सका.

शायद यही वजह है कि हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करने वाले भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मौजूदा मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अब अपनी ऐसी छवि पेश करना चाहतें हैं कि वो कट्टरपंथी नहीं हैं.

2005 में पाकिस्तान दौरे पर गए आडवाणी ने तो पाकिस्तान के राष्ट्रपिता मोहम्मद अली जिन्ना की ख़ूब तारीफ़ भी की थी जबकि मोदी अपनी छवि को सुधारने के लिए गुजरात के मुसलमानों सें संपर्क साधने की कोशिश कर रहें हैं.

चुनावी मैदान में हिंदुत्व की राजनीति हमेशा विफल रही है. साल 2012 के शुरू में उत्तर प्रदेश में हुए विधान सभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने कट्टरपंथी छवि रखने वाली उमा भारती को मैदान में उतारा लेकिन भाजपा की ये चाल बुरी तरह नाकाम रही. यहां तक की अयोध्या की सीट भी भाजपा हार गई.

वहां से जीते समाजवादी पार्टी के युवा नेता पवन पांडेय कहते हैं, ''आम आदमी मंदिर-मस्जिद की राजनीति में नहीं पड़ना चाहता. हर आदमी विकास और अच्छी सरकार चाहता है.''

भारत के राजनीतिक मानचित्र पर नज़र दौडाएं तो पता चलता है कि चुनावी मैदान में यहां जाति, क्षेत्र, भाषा जैसे मुद्दे धर्म के मुद्दे पर भारी पड़ते हैं.

भारत की आर्थिक स्थिति में भी काफ़ी बदलाव हुआ है और युवा वर्ग मंदिर-मस्जिद की राजनीति के बजाए पैसे कमाने में ज़्यादा विश्वास रखता है.

जिस तरह की आशंका 1992 में जताई जा रही थी उसके विपरीत आज ऐसे कोई संकेत नहीं मिलते कि कोई इसे धार्मिक या फ़ासीवादी देश बनाना चाहता है.

पिछले 20 वर्षों में सउदी अरब के मक्का और मदीना की कई ऐतिहासिक इमारतों को तोड़ दिया गया है.

इस्लाम के आख़िरी पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद की पत्नी ख़दीजा के घर को तोड़कर वहां पर शौचालय बनवा दिया गया है. पैग़ंबर मोहम्मद के पोते की मस्जिद को तोड़ दिया गया, मदीना शहर से थोड़े बाहर बनी पांच ऐतिहासिक मस्जिदों को तोड़ दिया गया है.

सउदी अधिकारियों ने कई मज़ारों और दरगाहों को नष्ट कर दिया है. उनका मानना है कि इस्लाम में इसकी इजाज़त नहीं और फिर इससे मूर्ति पूजा की संभावना बढ़ जाती है.

बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने के 20 वर्षों बाद हिंदू और मुसलमानों के आपसी रिश्ते न तो ख़राब हुए हैं और न अच्छे हुए हैं.

मुसलमान आज भी भेद-भाव के शिकार हैं और सरकारी क्षेत्र में उनकी उपस्थिति बहुत कम है.

सिविल सेवा जैसे क्षेत्रो में तो वे बहुत कम हैं. लेकिन दोनों के बीच के रिश्ते और एक दूसरे पर निर्भरता पहले की तरह बने हुए हैं जिस पर दर असल भारत का निर्माण टिका हुआ है.

हैरत की बात तो ये है कि इस्लाम के पुरातात्विक इतिहास को भारत के बजाए सउदी अरब में ज़्यादा ख़तरा है.
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