14-07-2014, 12:47 AM | #61 |
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Re: मुहावरों की कहानी
(रजनीश मंगा / rajnish manga) घाट घाट का पानी पी आँखों में धूल मलो मेरी.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
14-07-2014, 11:46 AM | #62 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मूंछों का है जमाना
साभार: निर्मल निर्मल वैसे तो मूंछों की शान में अनगिनत कशीदे पढ़े गए हैं। तभी तो मूंछों कोआन, बान, शान और स्वाभिमान का प्रतीक माना जाता है। विशेषकर राजस्थान जैसेपरम्परावादी राज्य में तो मूंछों को लेकर काफी कुछ कहा गया है। देखा जाए तोमूंछेंप्राचीनकाल से ही लोगों को लुभाती रही हैं और वर्तमान में भी इनकीप्रासंगिकता बरकरार है। मूंछों को लेकर कई किस्से, कहानियां, लोकोक्तियांएवं मुहावरे भी प्रचलन में है। मैं भी कई दिनों से मूंछों पर कुछ लिखने कीसोच रहा था लेकिन न तो समय निकाल पाया और ना ही लिखने की कोई बड़ी वजहमिली। सैलून में मूंछें सेट करवाते हुए नाई जबबातों-बातों में अजय देवगन की एक तरफ की मूंछ साफ कर देता है, और फिर डर के मारे वह जोर-जोर से चिल्लाता है, उस्ताद तोते उड़ गए, उस्ताद तोते उड़ गए। हकीकत जानने पर अजय देवगन ने थोड़ा गुस्सा होने के बाद दूसरी तरफ की मूंछभी साफ करवा ली थी। मूंछों को लेकर दर्जनों मुहावरें हैं, जो अलग-अलगसंदर्भों में प्रयुक्त किए जाते हैं। मुहावरों की बानगी देखिए...। मूंछमरोडऩा, मूंछें फरकाना, मूंछों पर ताव देना। मूंछों को बल देना। मूंछेंऊंची होना। मूंछें नीची होना। मूंछ लम्बी होना।मूंछ का बाल।मूंछ ही लड़ाई।मूंछ का सवाल आदि आदि। इन मुहावरों का भावार्थ देखा जाए तो मूंछों को इज्जत से जोड़करदेखा गया है। मूंछे ऊंची होना जहां सम्मान की बात है, वहीं मूंछें नीचीहोने कामतलब बेइज्जत होना है। इसी तरह मूंछों को ताव देने से आशय चुनौतीदेना है तो मूंछ का सवाल का अर्थ प्रतिष्ठा का सवाल है। इन मुहावरों से साफ होता है कि मूंछों की दर्जा काफी ऊंचा हैं और मूंछों के साथ इज्जत कोजोड़कर देखा जाता रहा है। >>>
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14-07-2014, 11:52 AM | #63 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मूंछों का है जमाना
>>> खैर, मेरेविचारों से कोई यह ना समझ लेंकि मैं मूंछ ना रखने वालों का विरोधी हूं, ऐसा नहीं है। बस बात की बात हैऔर विषयवस्तु प्रासंगिक है, लिहाजा लिखने को मन कर गया। वैसे भी मैं तोपहले ही स्पष्ट कर चुका हूं कि मेरे पास भी बिना मूंछ रहने का तीन साल काअनुभव है। फिर भी फिल्मी नायकों को देखकर या उन जैसा बनने की हसरत रखनेवाले जरूर मूंछें साफ करवाने में विश्वास रखते हैं लेकिन पिछले दोतीनसालों में फिल्मवालों का मूंछ प्रेम भी यकायक बढ़ गया है। हाल ही में आधादर्जन से ज्यादा फिल्मी आई हैं, जिनमें नायक बाकायदा बड़ी-बड़ी मूंछों केसाथ अवतरित हुए हैं। उदाहरण के लिए राउडी राठौड़ में अक्षय कुमार, दबंग वदबंग-2 में सलमान खान, बोल बच्चन में अजय देवगन, तलाश में आमिर खान, मटरू की बिजली का मन डोला में इमरान खान, जिलागाजियाबाद में संजय दत्त को देखा जा सकता है। राजस्थान के मंडावा मेंफिल्माई गई फिल्म पीके में भी संजय दत्त ने मूंछों में किरदार निभाया है। **
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14-07-2014, 12:48 PM | #64 |
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Re: मुहावरों की कहानी
सुंदर एक से बढकर एक मुहावरे और उनकी कथाएँ.........
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*** Dr.Shri Vijay Ji *** ऑनलाईन या ऑफलाइन हिंदी में लिखने के लिए क्लिक करे: .........: सूत्र पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे :......... Disclaimer:All these my post have been collected from the internet and none is my own property. By chance,any of this is copyright, please feel free to contact me for its removal from the thread. |
18-07-2014, 06:01 PM | #65 |
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Re: मुहावरों की कहानी
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19-07-2014, 05:54 PM | #66 |
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Re: मुहावरों की कहानी
सूत्र की नई पोस्टों की प्रशंसा करने के लिये डॉ श्री विजय का और रफ़ीक जी का हार्दिक धन्यवाद.
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19-07-2014, 05:59 PM | #67 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरे v/s मुहावरे
(साभार: अनुराग शर्मा) लगभग दो दशक पहले दूरदर्शन परएक धारावाहिक आता था, "कच्ची धूप।" उसकी एक पात्र को मुहावरे समझ नहीं आते थे। एकदृश्य में वह बच्ची आर्श्चय से पूछती है, "कौन बनाता है यह गंदे-गंदे मुहावरे?" वहबच्ची उस धारावाहिक के निर्देशक अमोल पालेकर और लेखिका चित्रा पालेकर की बेटी "श्यामली पालेकर" थी। "कच्ची धूप" के बाद उसे कहीं देखा हो ऐसा याद नहीं पड़ता।मुहावरे तो मुझे भी ज़्यादा समझ नहीं आए मगर इतना ज़रूर था कि बचपन में सुने हरनॉन-वेज मुहावरे की टक्कर में एक अहिंसक मुहावरा भी आसपास ही उपस्थित था। जबलोग "कबाब में हड्डी" कहते थे तो हम उसे "दाल भात में मूसलचंद" सुनते थे। जब कहींपढने में आता था कि "घर की मुर्गी दाल बराबर" तो बरबस ही "घर का जोगी जोगड़ा, आनगाँव का सिद्ध" की याद आ जाती थी। इसी तरह "एक तीर से दो शिकार" करने के बजाय हमअहिंसक लोग "एक पंथ दो काज" कर लेते थे। इसी तरह स्कूल के दिनों में किसी को कहतेसुना, "सयाना कव्वा *** खाता है।" हमेशा की तरह यह गोल-मोल कथन भी पहली बार में समझनहीं आया। बाद में इसका अर्थ कुछ ऐसा लगा जैसे कि अपने को होशियार समझने वाले अंततःधोखा ही खाते हैं। कई वर्षों बाद किसी अन्य सन्दर्भ में एक और मुहावरा सुना जो इसकापूरक जैसा लगा। वह था, "भोला बछड़ा हमेशा दूध पीता है”। खैर, इन मुहावरों केमूल में जो भी हो, कच्ची-धूप की उस छोटी बच्ची का सवाल मुझे आज भी याद आता है और तबमें अपने आप से पूछता हूँ, "क्या आज भी नए मुहावरे जन्म ले रहे हैं?" आपको क्यालगता है?
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22-07-2014, 11:15 PM | #68 |
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Re: मुहावरों की कहानी
जैसा देवे वैसा पावे
एक औरत ने अपने घर खीर पकाई. अभी खीर चूल्हे से उतार कर रखी ही थी कि कहीं से आकर इसमें एक सांप गिर गया. सांप तो उसने निकाल कर फेंक दिया लेकिन उस खीर का वह अब क्या करे? औरत थी लालची. घरवालों को तो वह यह खीर खिला नहीं सकती थी. फेंकना उसके उसूल के खिलाफ था. हुआ यूँ कि उसी समय वहाँ कहीं से घूमता हुआ एक साधू आ निकला. उसने वह खीर साधू को दे दी और यह सोच कर खुश हुई कि खीर बेकार नहीं गई. औरत किसी काम से अपने पडौस में निकल गई और साधु भी गंगा जी की ओर स्नान करने निकल गया. इस बीच उस औरत के पति व बेटा खेत से काम कर के घर आ गये. दोनों को जोर की भूख लगी थी. घर में उन्होंने खीर पड़ी देखी तो उनसे रहा नहीं गया. दोनों ने एक एक कटोरा खीर खा ली. कुछ ही देर में बाप बेटा दोनों वहीँ ढेर हो गये. औरत घर आयी तो यह दृष्य देख कर दहाड़ें मार कर रोने लगी. गांव वालों के पूछने पर उसने सारा किस्सा कह सुनाया. गांव वालों में से एक बोल उठा: “जैसा देवे वैसा पावे, पूत भर्तार के आगे आवे”
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22-07-2014, 11:17 PM | #69 |
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Re: मुहावरों की कहानी
जिस कारण मूंड मुंडाया, वो ही दुःख सामने आया
एक लड़का जब बड़ा हुआ तो गांव भर में आवारागर्दी करने लगा. किसी नौकरी में जी लगा कर काम न करता और मेहनत से जी चुराता था. घरवाले, यार दोस्त और रिश्तेदार उसको समझा कर हार गये थे. उस पर किसी बात का असर न होता था. अंत में उसके एक दोस्त ने उसे सुझाव दिया कि ‘तेरे लिये एक काम ही ठीक रहेगा. तू अपना सिर मुंडा ले और किसी तीर्थ स्थान में कोई डेरा देख कर उसमें शामिल हो जा.’ उसने ऐसा ही किया. सिर मुंडा कर वह हरिद्वार पहुँच गया. वहाँ बहुत से धार्मिक तबकों के डेरे थे. ऐसे ही एक डेरे में वह दाखिल हुआ और महंत को प्रणाम कर के कहने लगा, ‘मैं अपना घर परिवार सब छोड़ छाड़ कर आपके यहाँ रहने आया हूँ.’ महंत ने उससे पूछा कि ‘तू क्या काम कर सकता है?’ यह सुनते ही उसके पेरों के नीचे से जैसे जमीन ही निकल गई. काम ही करना होता तो अपने गांव में रह सकता था. फिर मन ही मन में बोला कि ‘जिस कारण मूंड मुंडाया, वो ही दुःख सामने आया.’
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03-08-2014, 11:55 AM | #70 |
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Re: मुहावरों की कहानी
जो गरजते हैं वो बरसते नहीं
साभार: भंवरलाल मारवाल ^ ^ भज नाम का एक कुम्हार बहुत सुंदर घड़े, सुराही, गमले आदि बनाता था। उसके बनाए सामान की मांग दूर-दूर तक थी। वह अपना काम पूरी ईमानदारी और निष्ठा से करता था। उसके पास एक छोटा-सा कमरा था और बाहर बहुत बड़ा चौक। वह अपने सभी मिट्टी के बर्तनों को बनाकर उन्हें चौक में सुखाता था। उसके चौक में बहुत अच्छी धूप आती थी। कुम्हार भज अपने जीवन में दिन-रात मेहनत कर बेहद खुश रहता था। वह अभी अविवाहित था। उसने सोचा था कि जब मैं मेहनत से कुछ रुपए इकट्ठे कर एक बढिय़ा-सा घर बना लूंगा, तभी शादी करूंगा और फिर शादी के लिए रुपए भी तो चाहिए। सुबह उठते ही वह पूरा चौक साफ करता। उसके बाद व्यायाम करता। उसका बदन भी गठीला और रोबदार था। वह बच्चों से भी बहुत प्यार करता था। बच्चे जब-तब उसके चौक में आकर सुंदर-सुंदर मिट्टी के बनाए बर्तन देखते और कुंभज से उन्हें बनाने की कला सीखते। कुंभज को इन सब में बहुत खुशी मिलती थी। वह बहुत होशियार था। हर बात को गहराई से समझकर ही किसी काम में हाथ डालता था। कुंभज के बर्तन हमेशा चौक में ही रहते थे, इसलिए उसे उस समय खासी दिक्कत का सामना करना पड़ता, जब बारिश का मौसम शुरू हो जाता या बेमौसम बरसात आती थी। इसके लिए उसने एक बड़ा तिरपाल लाकर रखा हुआ था और जैसे ही मौसम के मिजाज को देखकर उसे लगता कि बारिश होने वाली है, तो वह तुरंत अपने तिरपाल को चौक पर टांग देता।
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