24-12-2012, 05:02 PM | #61 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
हरियाली से लदा हुआ ढालुवाँ तट था, बीच में बहता हुआ वही कलनादी स्रोत यहाँ कुछ गम्भीर हो गया था।उस रमणीय प्रदेश के छोटे-से आकाश में मदिरा से भरी हुई घटा छा रही थी। लडख़ड़ाते,हाथ-से-हाथ मिलाये, बहार और गुल ऊपर चढ़ रहे थे। गुल अपने आपे में नहीं है, बहार फिर भी सावधान है; वह सहारा देकर उसे ऊपर लेआ रही है। एक शिला-खण्ड पर बैठे हुए गुल ने कहा-प्यास लगी है। बहार पास के विश्राम-गृह में गई, पान-पात्र भर लाई। गुलपीकर मस्त हो रहा था। बोला-''बहार, तुम बड़े वेग से मुझे खींच रही हो; सम्भाल सकोगी? देखो, मैं गिरा?'' गुल बहार की गोद में सिर रखकर आँखें बन्द किये पड़ा रहा। उसने बहार के यौवन की सुगन्ध से घबराकर आँखें खोल दीं। उसके गले में हाथ डालकर बोला-''ले चलो, मुझे कहाँ ले चलती हो?'' बहार उस स्वर्ग की अप्सरा थी। विलासिनी बहार एक तीव्र मदिरा प्याली थी, मकरन्द-भरीवायु का झकोर आकर उसमें लहर उठा देता है। वह रूप का उर्मिल सरोवर गुल उन्मत्त था। बहार ने हँसकर पूछा-''यह स्वर्ग छोड़कर कहाँ चलोगे?'' ''कहीं दूसरी जगह, जहाँ हम हों और तुम।'' ''क्यों, यहाँ कोई बाधा है?'' सरल गुल ने कहा-''बाधा! यदि कोई हो? कौन जाने!'' ''कौन? मीना?'' ''जिसे समझ लो।'' ''तो तुम सबकी उपेक्षा करके मुझे-केवल मुझे ही-नहीं....'' ''ऐसा न कहो''-बहार के मुँह पर हाथ रखते हुए गुल ने कहा। ठीक इसी समय नवागत युवक ने वहाँ आकर उन्हें सचेत कर दिया। बहार ने उठकर उसका स्वागत किया। गुल ने अपनी लाल-लाल आँखों सेउसको देखा। वह उठ न सका, केवल मद-भरी अँगड़ाई ले रहा था। बहार ने युवक से आज्ञालेकर प्रस्थान किया। युवक गुल के समीप आकर बैठ गया, और उसे गम्भीर दृष्टि से देखने लगा। गुल ने अभ्यास के अनुसार कहा-''स्वागत, अतिथि!'' ''तुम देवकुमार! आह! तुमको कितना खोजा मैंने!'' ''देवकुमार? कौन देवकुमार? हाँ, हाँ, स्मरण होता है, पर वह विषैली पृथ्वी की बात क्यों स्मरण दिलाते हो? तुम मत्र्यलोक के प्राणी! भूल जाओ उस निराशा और अभावों की सृष्टि को; देखो आनन्द-निकेतन स्वर्ग का सौन्दर्य!'' ''देवकुमार! तुमको भूल गया, तुम भीमपाल के वंशधर हो? तुम यहाँ बन्दी हो! मूर्ख हो तुम; जिसे तुमने स्वर्ग समझ रक्खा है, वह तुम्हारे आत्मविस्तार की सीमा है। मैं केवल तुम्हारे ही लिए आया हूँ।'' ''तो तुमने भूल की। मैं यहाँ बड़े सुख से हूँ। बहार को बुलाऊँ, कुछ खाओ-पीओ....कंगाल! स्वर्ग में भी आकर व्यर्थ समय नष्ट करना!संगीत सुनोगे?'' युवक हताश हो गया। गुल ने मन में कहा-''मैं क्या करूँ? सब मुझसे रूठ जाते हैं। कहीं सहृदयता नहीं, मुझसे सब अपने मन की कराना चाहते हैं, जैसे मेरे मन नहीं है, हृदय नहीं है! प्रेम-आकर्षण! यह स्वर्गीय प्रेम में भी जलन! बहार तिनककर चली गई; मीना? यह पहले ही हट रही थी; तो फिर क्या जलन ही स्वर्ग है?'' गुल को उस युवक के हताश होने पर दया आ गई। यह भी स्मरण हुआ कि वह अतिथि है। उसने कहा-''कहिये, आपकी क्या सेवा करूँ? मीना का गान सुनियेगा? वह स्वर्ग की रानी है!'' युवक ने कहा-''चलो।'' द्राक्षा-मण्डप में दोनों पहुँचे। मीना वहाँ बैठी हुई थी। गुल ने कहा-''अतिथि को अपना गान सुनाओ।'' एक नि:श्वास लेकर वही बुलबुल का संगीत सुनाने लगी। युवक की आँखें सजल हो गईं, उसने कहा-''सचमुच तुम स्वर्ग की देवी हो!'' ''नहीं अतिथि, मैं उस पृथ्वी की प्राणी हूँ-जहाँ कष्टों की पाठशाला है, जहाँ का दु:ख इस स्वर्ग-सुख से भी मनोरम था, जिसका अब कोई समाचार नहीं मिलता''-मीना ने कहा। ''तुम उसकी एक करुण-कथा सुनना चाहो, तो मैं तुम्हें सुनाऊँ!''-युवक ने कहा। ''सुनाइये''-मीना ने कहा। 2 युवक कहने लगा- ''वाह्लीक, गान्धार, कपिशा और उद्यान, मुसलमानों के भयानक आतंक में काँप रहे थे। गान्धार के अन्तिम आर्य-नरपति भीमपाल के साथ ही, शाहीवंश का सौभाग्य अस्त हो गया। फिर भी उनके बचे हुए वंशधर उद्यान के मंगली दुर्ग में, सुवास्तु की घाटियों में, पर्वत-माला, हिम और जंगलों के आवरण में अपने दिन काट रहे थे। वे स्वतन्त्र थे।
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24-12-2012, 05:03 PM | #62 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
''देवपाल एक साहसी राजकुमार था। वह कभी-कभी पूर्व गौरव कास्वप्न देखता हुआ, सिन्धु तट तक घूमा करता। एक दिन अभिसार प्रदेश का सिन्धु तट वासना के फूलवाले प्रभात में सौरभ की लहरों में झोंके खा रहा था। कुमारी लज्जा स्नान कर रही थी। उसकाकलसा तीर पर पड़ा था। देवपाल भी कई बार पहलेकी तरह आज फिर साहस भरे नेत्रों से उसे देख रहा था। उसकी चञ्चलता इतने से ही न रुकी, वह बोल उठा-
''ऊषा के इस शान्त आलोक में किसी मधुर कामना से यह भिखारी हृदय हँस रहा था। और मानस-नन्दिनी! तुम इठलाती हुई बह चली हो।वाह रे तुम्हारा इतराना! इसीलिए तो जब कोई स्नान करके तुम्हारी लहर की तरह तरल और आद्र्र वस्त्र ओढक़र, तुम्हारे पथरीले पुलिन में फिसलता हुआ ऊपर चढऩे लगता है, तब तुम्हारी लहरों में आँसुओं की झालरें लटकने लगती हैं। परन्तु मुझ पर दया नहीं; यह भी कोई बात है! ''तो फिर मैं क्या करूँ? उस क्षण की, उस कणकी, सिन्धु से, बादलों से, अन्तरिक्ष और हिमालय से टहलकर लौट आने की प्रतिज्ञा करूँ? और इतना भी न कहोगी कि कब तक? बलिहारी! ''कुमारी लज्जा भीरु थी। वह हृदय के स्पन्दनों से अभिभूत हो रही थी। क्षुद्र बीचियों के सदृश काँपने लगी। वह अपना कलसा भी न भर सकी और चल पड़ी। हृदय में गुदगुदी के धक्के लग रहे थे। उसके भी यौवन-काल के स्वर्गीय दिवस थे-फिसल पड़ी। धृष्ट युवक ने उसे सम्भाल कर अंक में ले लिया। ''कुछ दिन स्वर्गीयस्वप्न चला। जलते हुए प्रभात के समान तारा देवी ने वह स्वप्न भंगकर दिया। तारा अधिक रूप-शालिनी, कश्मीर कीरूप-माधुरी थी। देवपाल को कश्मीर से सहायता की भी आशा थी। हतभागिनी लज्जा ने कुमार सुदान की तपोभूमि में अशोक-निर्मित विहार में शरण ली। वह उपासिका, भिक्षुणी, जोकहो, बन गई। ''गौतम की गम्भीर प्रतिमा के चरण-तल मेंबैठकर उसने निश्चय किया, सब दु:ख है, सब क्षणिक है, सब अनित्य है।'' ''सुवास्तु का पुण्य-सलिल उस व्यथित हृदय की मलिनता को धोने लगा। वह एक प्रकार से रोग-मुक्त हो रही थी।'' ''एक सुनसान रात्रिथी, स्थविर धर्म-भिक्षु थे नहीं। सहसा कपाट पर आघात होने लगा। और 'खोलो! खोलो!' का शब्द सुनाई पड़ा। विहार में अकेली लज्जा ही थी। साहस करके बोली- ''कौन है?'' ''पथिक हूँ, आश्रय चाहिये''-उत्तर मिला। ''तुषारावृत अँधेरा पथ था। हिम गिररहा था। तारों का पता नहीं, भयानक शीत और निर्जन निशीथ। भला ऐसे समय में कौन पथ पर चलेगा? वातायन का परदाहटाने पर भी उपासिका लज्जा झाँककर न देख सकी कि कौन है। उसने अपनी कुभावनाओं से डरकर पूछा-''आप लोग कौन हैं?'' ''आहा, तुम उपासिका हो! तुम्हारे हृदय मेंतो अधिक दया होनी चाहिये। भगवान् की प्रतिमा की छाया में दो अनाथों को आश्रय मिलने का पुण्य दें।'' लज्जा ने अर्गला खोल दी। उसने आश्चर्य से देखा, एक पुरुष अपने बड़े लबादे में आठ-नौ बरस के बालक और बालिका को लिये भीतर आकर गिर पड़ा। तीनों मुमूर्ष हो रहे थे। भूख और शीत से तीनों विकल थे। लज्जा ने कपाट बन्द करते हुए अग्नि धधकाकर उसमें कुछ गन्ध-द्रव्य डाल दिया। एक बार द्वार खुलने पर जो शीतल पवन का झोंका घुस आया था, वह निर्बल हो चला। ''अतिथि-सत्कार हो जाने पर लज्जा ने उसकापरिचय पूछा। आगन्तुक ने कहा-'मंगली-दुर्ग के अधिपति देवपाल का मैं भृत्य हूँ। जगद्दाहक चंगेज खाँ ने समस्त गान्धार प्रदेश को जलाकर, लूट-पाटकर उजाड़ दिया और कल ही इस उद्यान के मंगली दुर्ग पर भी उन लोगों का अधिकार हो गया। देवपाल बन्दी हुए, उनकी पत्नी तारादेवी ने आत्महत्या की। दुर्गपति ने पहले ही मुझसे कहा था कि इस बालक को अशोक-विहार में ले जाना, वहाँ की एक उपासिका लज्जा इसके प्राण बचा ले तो कोई आश्चर्य नहीं। ''यह सुनते ही लज्जा की धमनियों में रक्त का तीव्र सञ्चार होने लगा। शीताधिक्य में भी उसे स्वेद आने लगा। उसने बात बदलने के लिए बालिका की ओर देखा। आगन्तुक ने कहा-'यह मेरी बालिका है, इसकी माता नहीं है, लज्जा ने देखा, बालिकाका शुभ्र शरीर मलिन वस्त्र में दमक रहा था। नासिका मूल से कानों के समीप तक भ्रू, युगल की प्रभव-शालिनी रेखा और उसकी छाया में दो उनींदे कमल संसार से अपने को छिपा लेना चाहते थे। उसका विरागी सौन्दर्य, शरद के शुभ्र घन के आवरण में पूर्णिमा के चन्द्र-सा आप ही लज्जित था। चेष्टा करके भी लज्जा अपनी मानसिक स्थिति को चञ्चल होने से न सम्भाल सकी। वह-'अच्छा, आप लोग सो रहिये, थके होंगे'-कहती हुई दूसरे प्रकोष्ठ में चली गई।
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24-12-2012, 05:17 PM | #63 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
''लज्जा ने वातायन खोलकर देखा, आकाश स्वच्छ हो रहा था, पार्वत्य प्रदेश के निस्तब्ध गगन में तारों की झिलमिलाहट थी। उन प्रकाश की लहरों में अशोक निर्मित स्तूप की चूड़ा पर लगा हुआ स्वर्ण का धर्मचक्र जैसे हिल रहा था।
''दूसरे दिन जब धर्म-भिक्षु आये, तो उन्होंने इन आगन्तुकों को आश्चर्य से देखा, और जब पूरे समाचार सुने, तो और भी उबल पड़े। उन्होंने कहा-'राज-कुटुम्ब को यहाँ रखकर क्या इस विहार और स्तूप को भी तुम ध्वस्त कराना चाहती हो? लज्जा, तुमने यह किस प्रलोभन से किया? चंगेज़ खाँ बौद्ध है, संघ उसका विरोध क्यों करे?' ''स्थविर! किसी को आश्रय देना क्या गौतम के धर्म के विरुद्ध है? मैं स्पष्ट कह देना चाहती हँू कि देवपाल ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया, फिरभी मुझ पर उसका विश्वास था, क्यों था, मैं स्वयं नहीं जान सकी। इसे चाहे मेरी दुर्बलता ही समझ लें, परन्तु मैं अपने प्रति विश्वास का किसी को भी दुरुपयोग नहीं करने देना चाहती। देवपाल को मैं अधिक-से-अधिक प्यार करती थी, और भी अब बिल्कुल निश्शेष समझ कर उस प्रणय का तिरस्कार कर सकूँगी, इसमें सन्देह है।''-लज्जा ने कहा। ''तो तुम संघ के सिद्धान्त से च्युत हो रही हो, इसलिये तुम्हें भी विहार का त्याग करना पड़ेगा।''-धर्म-भिक्षु ने कहा। लज्जा व्यथित हो उठी थी। बालक के मुख पर देवपाल की स्पष्ट छाया उसे बार-बार उत्तेजित करती, और वह बालिका तो उसे छोडऩा ही न चाहती थी। ''उसने साहस करके कहा-'तब यही अच्छा होगा कि मैं भिक्षुणी होने का ढोंग छोड़कर अनाथों के सुख-दु:ख में सम्मिलित होऊँ।' ''उसी रात को वह दोनों बालक-बालिका और विक्रमभृत्य को लेकर, निस्सहाय अवस्था में चल पड़ी। छद्मवेष में यह दल यात्रा कर रहा था। इसे भिक्षा का अवलम्ब था। वाह्लीक के गिरिव्रज नगर के भग्न पांथ-निवास के टूटे कोने में इन लोगों को आश्रय लेना पड़ा। उस दिन आहार नहीं जुट सका, दोनों बालकों के सन्तोष के लिए कुछ बचा था, उसी को खिलाकर वे सुला दिये गये। लज्जा और विक्रम,अनाहार से म्रियमाण, अचेत हो गये। ''दूसरे दिन आँखे खुलते ही उन्होंने देखा, तो वह राजकुमार और बालिका, दोनों ही नहीं! उन दोनों की खोज में ये लोग भी भिन्न-भिन्न दिशा को चल पड़े। एक दिन पता चला कि केकय के पहाड़ी दुर्ग के समीप कहीं स्वर्ग है, वहाँ रूपवान बालकों और बालिकाओं की अत्यन्त आवश्यकता रहती है.... ''और भी सुनोगी पृथ्वी की दु:ख-गाथा? क्या करोगी सुनकर, तुमयह जानकर क्या करोगी कि उस उपासिका या विक्रम का फिर क्या हुआ?'' अब मीना से न रहा गया। उसने युवक के गलेसे लिपटकर कहा-''तो....तुम्हीं वह उपासिका हो? आहा, सच कह दो।'' गुल की आँखों में अभी नशे का उतार था। उसने अँगड़ाई लेकर एक जँभाई ली, और कहा-''बड़ेआश्चर्य की बात है। क्यों मीना, अब क्या किया जाय?'' अकस्मात् स्वर्ग के भयानक रक्षियों ने आकर उस युवक को बन्दी कर लिया। मीना रोने लगी, गुल चुपचाप खड़ा था, बहार खड़ी हँस रही थी। सहसा पीछे से आते हुए प्रहरियों के प्रधान ने ललकारा-''मीना और गुल को भी।'' अब उस युवक ने घूमकर देखा; घनी दाढ़ी-मूछों वाले प्रधान की आँखों से आँखें मिलीं। युवक चिल्ला उठा-''देवपाल।'' ''कौन! लज्जा? अरे!'' ''हाँ, तो देवपाल, इसअपने पुत्र गुल को भी बन्दी करो, विधर्मी काकर्तव्य यही आज्ञा देता है।''-लज्जा ने कहा। ''ओह!''-कहता हुआ प्रधान देवपाल सिर पकड़कर बैठ गया। क्षण भर में वह उन्मत्त हो उठा और दौड़कर गुल के गले से लिपट गया। सावधान होने पर देवपाल ने लज्जा को बन्दी करने वाले प्रहरी से कहा-''उसे छोड़ दो।'' प्रहरी ने बहार की ओर देखा। उसका गूढ़ संकेत समझकर वह बोल उठा-''मुक्त करने का अधिकार केवल शेख को है।'' देवपाल का क्रोध सीमा का अतिक्रम कर चुका था, उसने खड्ग चला दिया। प्रहरी गिरा। उधर बहार 'हत्या! हत्या! चिल्लाती हुई भागी। 3 संसार की विभूति जिस समय चरणों में लोटने लगती है, वही समय पहाड़ी दुर्ग के सिंहासन का था। शेख क्षमता की ऐश्वर्य-मण्डित मूर्ति था। लज्जा, मीना, गुल और देवपाल बन्दी-वेश में खड़े थे। भयानक प्रहरी दूर-दूर खड़े, पवन की भी गति जाँच रहे थे। जितना भीषण प्रभाव सम्भव है, वह शेख के उस सभागृह में था। शेख ने पूछा-''देवपाल तुझे इस धर्म पर विश्वास है किनहीं?'' ''नहीं!''- देवपाल ने उत्तर दिया। ''तब तुमने हमको धोखा दिया?''
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24-12-2012, 05:19 PM | #64 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
''नहीं, चंगेज़ के बन्दी-गृह से छुड़ाने में जब समर-खण्ड में तुम्हारे अनुचरों ने मेरी सहायता की और मैंतुम्हारे उत्कोच या मूल्य से क्रीत हुआ, तब मुझे तुम्हारी आज्ञा पूरी करने की स्वभावत: इच्छा हुई। अपने शत्रु चंगेज़ का ईश्वरीय कोप, चंगेज़ का नाश करने की एक विकट लालसा मन में खेलने लगी, और मैंने उसकी हत्या की भी। मैंधर्म मानकर कुछ करने गया था, वह समझना भ्रम है।''
''यहाँ तक तो मेरी आज्ञा के अनुसार ही हुआ, परन्तु उस अलाउद्दीन की हत्या क्यों की?''-दाँत पीसकरशेख ने कहा। ''यह मेरा उससे प्रतिशोध था!'' अविचल भाव से देवपाल ने कहा। ''तुम जानते हो कि इस पहाड़ के शेख केवल स्वर्ग के ही अधिपति नहीं, प्रत्युत हत्या के दूत भी हैं!'' क्रोध से शेख ने कहा। ''इसके जानने की मुझे उत्कण्ठा नहीं है, शेख। प्राणी-धर्म में मेरा अखण्ड विश्वास है। अपनी रक्षा करने के लिए, अपने प्रतिशोध के लिए,जो स्वाभाविक जीवन-तत्व के सिद्धान्त की अवहेलना करके चुप बैठता है, उसे मृतक, कायर, सजीवता विहीन, हड्डी-मांस के टुकड़े के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं समझता। मनुष्य परिस्थितियों का अन्ध-भक्त है, इसलिए मुझे जो करना था, वह मैंने किया, अब तुम अपना कर्तव्य कर सकते हो।''-देवपाल का स्वर दृढ़ था। भयानक शेख अपनी पूर्ण उत्तेजना से चिल्ला उठा। उसने कहा-''और, तू कौन है स्त्री? तेरा इतना साहस! मुझे ठगना!'' लज्जा अपना बाह्य आवरण फेंकती हुई बोली-''हाँ शेख, अब आवश्यकता नहीं कि मैं छिपाऊँ, मैं देवपाल कीप्रणयिनी हूँ?'' ''तो तुम इन सबको ले जाने या बहकाने आई थी, क्यों?'' ''आवश्यकता से प्रेरित होकर जैसे अत्यन्त कुत्सित मनुष्य धर्माचार्य बनने का ढोंग कर रहा है, ठीक उसी प्रकार मैं स्त्री होकर भी पुरुष बनी। यह दूसरी बात है कि संसार की सबसे पवित्र वस्तु धर्म की आड़ में आकांक्षा खेलती है। तुम्हारे पास साधन हैं, मेरे पास नहीं, अन्यथा मेरी आवश्यकता किसी से कम नथी।''-लज्जा हाँफ रही थी। शेख ने देखा, वह दृप्त सौन्दर्य! यौवन के ढलने में भी एक तीव्र प्रवाह था-जैसे चाँदनी रात में पहाड़ से झरना गिर रहा हो! एक क्षण के लिए उसकी समस्त उत्तेजना पालतू पशु के समान सौम्य हो गई। उसने कहा-''तुम ठीक मेरे स्वर्ग की रानी होने के योग्य हो। यदि मेरेमत में तुम्हारा विश्वास हो, तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ। बोलो!'' ''स्वर्ग! इस पृथ्वी को स्वर्ग की आवश्यकता क्या है, शेख? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाना होगा। पृथ्वी का गौरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जायेगा। इसकी स्वाभाविकता साधारण स्थिति में ही रह सकतीहै। पृथ्वी को केवल वसुन्धरा होकर मानव जाति के लिए जीने दो, अपनी आकांक्षा के कल्पित स्वर्ग के लिए,क्षुद्र स्वार्थ के लिए इस महती को, इस धरणी को नरक न बनाओ, जिसमें देवता बनने के प्रलोभन में पड़कर मनुष्य राक्षस न बन जाय, शेख।''-लज्जा ने कहा। शेख पत्थर-भरे बादलों के समान कड़कड़ा उठा। उसने कहा-''ले जाओ, इन दोनों को बन्दी करो। मैं फिरविचार करूँगा, और गुल, तुम लोगों का यह पहला अपराध है, क्षमा करता हूँ, सुनती हो मीना, जाओ अपने कुञ्ज में भागो। इन दोनों को भूलजाओ।'' बहार ने एक दिन गुलसे कहा-''चलो, द्राक्षा-मण्डप में संगीत का आनन्द लिया जाय।'' दोनों स्वर्गीय मदिरा में झूम रहे थे।मीना वहाँ अकेली बैठी उदासी में गा रही थी- ''वही स्वर्ग तो नरक है, जहाँ प्रियजन से विच्छेद है। वही रात प्रलय की है, जिसकी कालिमा में विरह का संयोग है। वह यौवन निष्फल है, जिसकाहृदयवान् उपासक नहीं। वह मदिरा हलाहल है, पाप है, जो उन मधुर अधरों को उच्छिष्ट नहीं। वह प्रणय विषाक्त छुरी है, जिसमें कपट है। इसलिये हे जीवन, तू स्वप्न न देख, विस्मृति की निद्रा में सो जा! सुषुप्ति यदि आनन्द नहीं, तो दु:खों का अभाव तो है। इस जागरण से-इस आकांक्षा और अभाव के जागरण से-वह निद्र्वंद्व सोना कहीं अच्छा है मेरे जीवन!'' बहार का साहस न हुआकि वह मण्डप में पैर धरे, पर गुल, वह तो जैसे मूक था! एक भूल, अपराध और मनोवेदना के निर्जन कानन में भटक रहा था, यद्यपि उसके चरण निश्चल थे। इतने में हलचल मच गई। चारोंओर दौड़-धूप होने लगी।मालूम हुआ, स्वर्ग पर तातार के खान की चढ़ाईहै।
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24-12-2012, 05:21 PM | #65 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
बरसों घिरे रहने से स्वर्ग की विभूति निश्शेष हो गई थी। स्वर्गीय जीव अनाहार से तड़प रहे थे। तब भी मीना को आहार मिलता। आज शेख सामने बैठा था।उसकी प्याली में मदिरा की कुछ अन्तिम बूँदें थीं। जलन की तीव्र पीड़ा से व्याकुल और आहत बहार उधर तड़प रही थी। आज बन्दी भी मुक्त कर दिये गये थे। स्वर्ग के विस्तृत प्रांगण में बन्दियों के दम तोड़ने की कातर ध्वनि गूँज रही थी। शेख ने एक बार उन्हें हँसकर देखा, फिर मीना की ओर देखकर उसने कहा-''मीना! आज अंतिम दिन है! इस प्याली में अन्तिम घूँटें है, मुझे अपने हाथ से पिला दोगी?''
''बन्दी हूँ शेख! चाहे जो कहो।'' शेख एक दीर्घ निश्वास लेकर उठ खड़ा हुआ। उसने अपनी तलवार सँभाली। इतने में द्वार टूट पड़ा, तातारी घुसते हुए दिखलाई पड़े, शेख के पाप-दुर्बल हाथों से तलवार गिर पड़ी। द्राक्षा के रूखे कुञ्ज में देवपाल, लज्जा और गुल के शव के पास मीना चुपचाप बैठी थी। उसकी आँखों में न आँसू थे, न ओठों पर क्रन्दन। वह सजीव अनुकम्पा, निष्ठुर हो रही थी। तातारों के सेनापति ने आकर देखा, उस दावाग्नि के अन्धड़ में तृण-कुसुम सुरक्षित है। वह अपनी प्रतिहिंसा से अन्धा हो रहा था। कड़ककर उसने पूछा-''तू शेख की बेटी है?'' मीना ने जैसे मूच्र्छा से आँखें खोलीं। उसने विश्वास-भरी वाणी से कहा-''पिता,मैं तुम्हारी लीला हूँ!'' सेनापति विक्रम को उस प्रान्त का शासनमिला; पर मीना उन्हीं स्वर्ग के खण्डहरों में उन्मुक्त घूमा करती। जब सेनापति बहुत स्मरण दिलाता, तोवह कह देती-मैं एक भटकी हुई बुलबुल हूँ। मुझे किसी टूटी डाल परअन्धकार बिता लेने दो!इस रजनी-विश्राम का मूल्य अन्तिम तान सुनाकर जाऊँगी।'' मालूम नहीं, उसकी अन्तिम तान किसी ने सुनी या नहीं।
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