11-12-2010, 03:16 PM | #61 |
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Re: "यही सच है" by मन्नू भंडारी
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11-12-2010, 03:17 PM | #62 |
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Re: "यही सच है" by मन्नू भंडारी
सामने के फूलदान का सूनापन मेरे मन के सूनेपन को और अधिक बढ़ा देता है। मैं कसकर आँखें मूँद लेती हूँ। एक बार फिर मेरी आँखों के आगे लेक का स्वच्छ, नीला जल उभर आता है, जिसमें छोटी-छोटी लहरें उठ रही थीं। उस जल की ओर देखते हुए निशीथ की आकृति उभरकर आती है। वह लाख जल की ओर देखे, पर चेहरे पर अंकित उसके मन की हलचल को मैं आज भी, इतनी दूर रहकर भी महसूस करती हूँ। कुछ न कह पाने की मजबूरी, उसकी विवशता, उसकी घुटन आज भी मेरे सामने साकार हो उठती है। धीरे-धीरे लेक के पानी का विस्तार सिमटता जाता है, और एक छोटी-सी राइटिंग टेबल में बदल जाता है, और मैं देखती हूँ कि एक हाथ में पेन लिए और दूसरे हाथ की उँगलियों को बालों में उलझाए निशीथ बैठा है वही मजबूरी, वही विवशता, वही घुटन लिए। वह चाहता है, पर जैसे लिख नहीं पाता। वह कोशिश करता है, पर उसका हाथ बस काँपकर रह जाता है। ओह! लगता है, उसकी घुटन मेरा दम घोंटकर रख देगी। मैं एकाएक ही आँखें खोल देती हूँ। वही फूलदान, पर्दे, मेज़, घड़ी !
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11-12-2010, 03:17 PM | #63 |
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Re: "यही सच है" by मन्नू भंडारी
आखिर आज निशीथ का पत्र आ गया। धड़कते दिल से मैंने उसे खोला। इतना छोटा-सा पत्र!
प्रिय दीपा, तुम अच्छी तरह पहुँच गई, यह जानकर प्रसन्नता हुई। तुम्हें अपनी नियुक्ति का तार तो मिल ही गया होगा। मैंने कल ही इराजी को फोन करके सूचना दे दी थी, और उन्होंने बताया था कि तार दे देंगी। ऑफिस की ओर से भी सूचना मिल जाएगी। इस सफलता के लिए मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करना। सच, मैं बहुत खुश हूँ कि तुम्हें यह काम मिल गया! मेहनत सफल हो गई। शेष फिर। शुभेच्छु, निशीथ Last edited by teji; 11-12-2010 at 03:21 PM. |
11-12-2010, 03:19 PM | #64 |
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Re: "यही सच है" by मन्नू भंडारी
बस? धीरे-धीरे पत्र के सारे शब्द आँखों के आगे लुप्त हो जाते हैं, रह जाता है केवल, "शेष फिर!"
तो अभी उसके पास 'कुछ' लिखने को शेष है? क्यों नहीं लिख दिया उसने अभी? क्या लिखेगा वह? "दीप!" मैं मुड़कर दरवाज़े की ओर देखती हूँ। रजनीगन्धा के ढेर सारे फूल लिए मुस्कुराता-सा संजय खड़ा है। एक क्षण मैं संज्ञा-शून्य-सी उसे इस तरह देखती हूँ, मानो पहचानने की कोशिश कर रही हूँ। वह आगे बढ़ता है, तो मेरी खोई हुई चेतना लौटती है, और विक्षिप्त-सी दौड़कर उससे लिपट जाती हूँ। "क्या हो गया है तुम्हें, पागल हो गई हो क्या?" "तुम कहाँ चले गए थे संजय?" और मेरा स्वर टूट जाता है। अनायास ही आँखों से आँसू बह चलते हैं। "क्या हो गया? कलकत्ता का काम नहीं मिला क्या? मारो भी गोली काम को। तुम इतनी परेशान क्यों हो रही हो उसके लिए?" पर मुझसे कुछ नहीं बोला जाता। बस, मेरी बाँहों की जकड़ कसती जाती है, कसती जाती है। रजनीगन्धा की महक धीरे-धीरे मेरे तन-मन पर छा जाती है। तभी मैं अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श महसूस करती हूँ, और मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था, भ्रम था। और हम दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में बँधे रहते हैं- चुम्बित, प्रति-चुम्बित! The End
Last edited by teji; 11-12-2010 at 03:39 PM. |
12-12-2010, 01:04 PM | #65 |
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Re: "यही सच है" by मन्नू भंडारी
बहुत ही जबरदस्त कहानी है, स्त्री मन की उदेरबुन को इसमें बड़े ही अच्छे दंग से प्रस्तुत किया है मन्नू भंडारी ने.
वैसे मेरी यह फिल्म देखी हुई है लेकिन इसकी असली कहानी पढने में जायदा मज़ा आया. शेयर करने के लिए धन्यवाद.
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13-12-2010, 12:17 PM | #66 |
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Re: "यही सच है" by मन्नू भंडारी
बहुत अच्छी कहानी है
कहानी पढ़ने के बाद अब फिल्म देखने की इच्छा प्रबल हो गयी है
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
13-12-2010, 01:27 PM | #67 |
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Re: "यही सच है" by मन्नू भंडारी
बहुत अच्छी कहानी है ......पोस्ट करने के लिए धन्यवाद
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12-11-2013, 12:11 AM | #69 |
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Re: "यही सच है" by मन्नू भंडारी
धन्यवाद
अपना Kindle Reader पर इस कहानी को copy कर लिया हूँ। |
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