18-04-2014, 11:43 PM | #61 |
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Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
शायर: कैसर-उल-जाफ़री उदासियों के जज़ीरे में दिन गुज़ारे जा ख़ुद अपने आपको चारों तरफ पुकारे जा सफ़र की धूप में चलना है घर की बात नहीं तमाम रात के ख़्वाबों का बोझ उतारे जा ये ज़िन्दगी का सफ़र है पयम्बरी का नहीं असा नहीं है तो सहरा में बेसहारे जा मुझी को देख, कहाँ पर शिकस्त खायी है अब इसके बाद तुझे शौक़ है तो हारे जा बहुत से लोग किनारे पे मुंतज़िर होंगे मुझे नहीं तो मिरी लाश, पार उतारे जा समझ कि वक़्त भी उड़ता हुआ परिंदा है उठा कमान ! हवाओं में तीर मारे जा (जज़ीरे = टापू / असा = लाठी / शिकस्त = पराजय / मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)
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21-04-2014, 04:24 PM | #62 |
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Re: लौह-ओ-कलम (तख्ती और कलम)
जॉन एलिया
जॉन एलिया का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तरप्रदेश के अमरोहा में हुआ | आप अपने भाइयो में सबसे छोटे थे | आपके पिता अल्लामा शफीक हसन एलिया कला और साहित्य के क्षेत्र में काफी कार्य करते थे और वह एक शायर और ज्योतिष (Astrologer ) भी थे | विभाजन के समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया था. आपने 8 वर्ष की उम्र में ही अपना पहला शेर लिखा | इनका पहला शायरी संग्रहशायद 1991 में प्रकाशित हुआ जब आप 60 वर्ष के थे | आपका दूसरा शायरी संग्रह 2003 में प्रकाशित हो पाया जिसका नामयानीथा | इसके बाद आपके विश्वासपात्र खालिद अंसारी ने तीन संग्रह छपवाए जिनके नाम थेगुमान ( 2004), "लेकिन"(2006) और गोया (2008) | इन्होने उर्दू साहित्य पत्रिका "इंशा" का भी संपादन किया और वहा आपकी मुलाकात जाहिदा हिना से हुई जिससे आपने बाद में शादी की | जाहिदा जी आज भी दैनिक समाचार पत्रों जैसे जंग और एक्सप्रेस में लिख रही है | आपको दो पुत्रिया और एक पुत्र है |एलिया और जाहिदा के बीच सन 80 के दशक में तलाक़ हो गया | जिससे एलिया काफी टूट गये और आपने शराब का सहारा लिया | काफी लम्बी बीमारी के बाद आपका 8 नवम्बर, 2002 को कराची में इंतकाल हो गया |
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21-04-2014, 04:28 PM | #63 |
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Re: लौह-ओ-कलम (तख्ती और कलम)
ग़ज़ल
जॉन एलिया
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21-04-2014, 04:35 PM | #64 |
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Re: लौह-ओ-कलम (तख्ती और कलम)
ग़ज़ल
जॉन एलिया उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
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21-04-2014, 04:37 PM | #65 |
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Re: लौह-ओ-कलम (तख्ती और कलम)
ग़ज़ल
जॉन एलिया एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
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21-04-2014, 05:06 PM | #66 |
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Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
धन्यवाद,आपने हम फेज जी ,परवीन शाकिर से रूबरू कराया / बहूत अच्छा
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24-04-2014, 11:24 PM | #67 |
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Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
कैसर-उल-जाफ़री साहब की निम्नलिखित ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद है. मैं चाहता हूँ कि आप भी ग़ज़ल को पढ़ कर इसका मज़ा ले.
ग़ज़ल शायर: कैसर-उल-जाफ़री तू अपने फूल से होठों को रायगां मत कर अगर वफ़ा का इरादा नहीं तो हाँ मत कर तू मेरी शाम की पलकों से रोशनी मत छीन जहां चराग़ जलाये, वहां धुआं मत कर फिर उसके बाद तो आँखों को संग होना है मिली है फुरसते-गिरियाँ तो रायगां मत कर छलक रहा है तिरे दिल का दर्द चेहरे से छुपा छुपा के मुहब्बत को, दास्तां मत कर कसम की कोई ज़रुरत नहीं मुहब्बत को तुझे कसम है, खुदा को भी दरमियां रखना छलक उठे सरे-महफ़िल कभी, तो क्या होगा तू आंसुओं को भी खलवत का राज़दां मत कर ये ज़िन्दगी है, कोई मकबरा नहीं ‘कैसर’ सुकूने-दिल का तसव्वुर भी तू यहां मत कर (रायगां = व्यर्थ / संग = पत्थर / फुरसते-गिरिया = रोने की फुरसत / सरे-महफ़िल = सभा के बीच / खलवत = एकांत / राज़दां = राज़ का साथी / सुकूने-दिल = दिल का चैन / तसव्वुर = कल्पना)
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25-04-2014, 12:17 AM | #68 |
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Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
कुँवर अखलाक मुहम्मद खान ‘शहरयार’
(1936 – 2012) कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ उर्फ "शहरयार" का जन्म 6 जून 1936 को आंवला, जिला बरेली में हुआ। वैसे उनके पूर्वज चौढ़ेरा बन्नेशरीफ़, जिला बुलंदशहर के रहने वाले थे। वालिद पुलिस अफसर थे और जगह-जगह तबादलों पर रहते थे इसलिए आरम्भिक पढ़ाई हरदोई में पूरी करने के बाद इन्हें 1948 में अलीगढ़ भेज दिया गया. वे अपने कैरियर के अंतिम पड़ाव वे में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के चेयरमैन पद तक पहुंचे और वहीँ से रिटायर हुये। शहरयार ने अपनी शायरी के लिए एक नए निखरे और बिल्कुल अलग अन्दाज़ को चुना—और यह अन्दाज़ नतीजा था और उनके गहरे समाजी तजुर्बे का, जिसके तहत उन्होंने यह तय कर लिया था कि बिना वस्तुपरक वैज्ञानिक सोच के दुनिया में कोई कारगर-रचनात्मक सपना नहीं देखा जा सकता। उसके बाद वे अपनी तनहाइयों और वीरानियों के साथ-साथ दुनिया की खुशहाली और अमन का सपना पूरा करने में लगे रहे ! इसमें सबसे बड़ा योगदान उस गंगा-जमुनी तहज़ीब का है जिसने उन्हें पाला-पोसा और वक्त-वक्त पर उन्हें सजाया, सँभाला और सिखाया है।
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25-04-2014, 12:20 AM | #69 |
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Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
शहरयार * कमलेश्वर मानते थे कि शहरयार की शायरी चौकाने वाली आतिशबाजी और शिकायती तेवर से अलग बड़ी गहरी सांस्कृतिक सोच की शायरी है और वह दिलो दिमाग को बंजर बना दी गयी जमीन को सीचती है। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार और अकादमी पुरस्कार के अतिरिक्त विभिन्न स्तरों पर देश विदेश में सम्मान और ख्याती प्राप्त शहरयार के उर्दू में ‘इस्में आज़्म’, ‘सातवाँ दर’, ‘हिज्र की जमीन’ शीर्षकों से आए काव्य संग्रह काफी चर्चित और प्रशंसित हुए हैं। ‘ख्वाब का दर बंद है’ हिन्दी और अंग्रेजी मे भी प्रकाशित हो चुका है तथा ‘काफिले यादों के’, ‘धूप की दीवारे’, ‘मेरे हिस्से की ज़मीन’ और ‘कही कुछ कम है’ शीर्षकों से उनके काव्य संग्रह हिन्दी मे प्रकाशित हो चुके है। ‘सैरे जहाँ’ हिन्दी मे शीघ्र प्रकाश्य है। उन्होंने फिल्मों के लिये भी कुछ बेहद यादगार गीत लिखे. फिल्म ‘उमराव जाम’ के लिये उनके द्वारा लिखी ग़ज़लों को कौन भूल सकता है. 13 फरवरी 2012 को इस अज़ीम शायर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
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25-04-2014, 12:27 AM | #70 |
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Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
ग़ज़ल शहरयार हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
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