21-12-2011, 07:53 PM | #61 |
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Re: कतरनें
हार्डी ने पहचानी थी सबसे पहले रामानुजन की प्रतिभा गौस, यूलर, जैकोबी जैसे सर्वकालीन महानतम गणितज्ञों की पंक्ति में शामिल श्रीनिवास रामानुजन की प्रतिभा को सबसे पहले अंग्रेज गणितज्ञ जी एच हार्डी ने पहचाना था। हार्डी ही रामानुजन को त्रिनिटी कॉलेज ले गए जहां से उनकी गणितीय प्रतिभा को पूरी दुनिया ने मानना शुरू किया। 22 दिसंबर, 1887 को तमिलनाडु के इरोड में जन्मे महान गणितज्ञ रामानुजम ने गणित को रचनात्मक बनाते हुए कई प्रयोग किए। उन्होंने बीजगणित, ज्यामिति, संख्या सिद्धांत और कलन जैसी अलग अलग गणितीय विधाओं में बहुत सारे सिद्धांत सूत्र दिए। हाइपर ज्योमेट्रिक सिरीज, इलीप्टीकल फंक्शनरीज, डाइवरजेंट सिरीज, बरनौलीज नंबर जैसे गणित के क्षेत्रों में दिए असाधारण योगदान के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। रामानुजन के योगदान को याद करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के केशव महाविद्यालय में गणित के प्रोफेसर हेमन्त सिंह ने कहा, ‘‘रामानुजन का भारतीय गणित के विकास में बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने अंक सूत्रों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए। उनके दिए सूत्र आज भी गणित के छात्रों के काम आ रहे हैं। रामानुजन न केवल भारतीय गणित बल्कि विश्व के गणितीय इतिहास में विद्वानों की पहले पंक्ति में आते हैं।’’ गणित और अंकों के प्रति रामानुजन के प्रेम को देखकर उन्हें ‘अंकों का मित्र’ भी कहा जाता था। रामानुजन उच्च गणित के पुरोधाओं में से एक थे। 1906 में चेन्नई विश्वविद्यालय में फाईन आर्ट्स विषय में दाखिला न मिलने पर रामानुजन ने खुद से ही पढना और गणित के सूत्रों को हल करना शुरू कर दिया। उन्होने प्रसिद्ध गणितज्ञ जी एस कार की लिखी गणित की किताब से पढना शुरू किया और गणित के सूत्रों से प्रयोग करने लगे। इस दौरान रामानुजन ने कई विदेशी गणितज्ञों को अपने हल किए गए सूत्र और अनसुलझे प्रमेयों की लंबी सूची भेजी, लेकिन किसी ने भी उनके पत्र और प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया। इसी बीच 1909 में उनकी शादी हो गयी। 1910 में उन्होंने जी एच हार्डी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने हार्डी से मदद मांगी और हार्डी ने उनका उत्साहवर्धन करते उचित जवाब भी दिया। रामानुजन की विद्वता से प्रभावित होकर हार्डी उन्हें त्रिनिटी ले गए जहां रामानुजन की पढाई और शोध दोबारा शुरू हुई। यहां से रामानुजन ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और दुनिया भर में उनकी ख्याति फैलती गयी। रामानुजन की जीवनी ‘द मैन हू न्यू इन्फिनिटी’ में लेखक रॉबर्ट कनिगेल ने लिखा है कि रामानुजन का जीवन संघर्षमय रहा। ब्रिटेन के त्रिनिटी कॉलेज तक की उनकी यात्रा उतार चढाव से भरी रही। उन्हें ब्रिटेन में नस्लभेद का भी शिकार होना पड़ा। 1918 में वह त्रिनिटी कॉलेज में फैलोशिप के लिए निर्वाचित होने वाले पहले भारतीय बने। कार्नगिल के अनुसार रामानुजन ताउम्र स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित रहे। ब्रिटेन में उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। उन्हें विटामिन की कमी और तपेदिक बीमारी के चलते अस्पताल में भर्ती कराया गया। इसी बीच वह 1919 में भारत लौट आये। बीमार चल रहे रामानुजन की सेवा में उनकी पत्नी जानकीअम्मल लगी रहीं लेकिन इतने सालों तक एक दूसरे से दूर रहे इस दंपति का मिलना शायद विधि को मंजूर नहीं था। एक वर्ष बाद ही 1920 में इस महान गणितज्ञ की मौत हो गयी। 32 साल की अल्पायु में ही दुनिया छोड़कर जाने वाली इस महान प्रतिभा की आभा से गणित की दुनिया आज भी चमक रही है, जिसे देखकर लगता है कि वर्तमान पीढी की तरह ही आने वाली पीढियां भी इस नायक के जीवन और गणितीय विद्वता के प्रति उत्सुकता और रूचि दिखाएंगी।
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21-12-2011, 10:13 PM | #62 | |
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Re: कतरनें
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ये दिल तो किसी और ही देश का परिंदा है दोस्तों ...सीने में रहता है , मगर बस में नहीं ...
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22-12-2011, 03:21 AM | #63 |
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Re: कतरनें
भिखारी ठाकुर : भोजपुरी लोक का सिरमौर
भिखारी ठाकुर को मैं तब से जानता हूं – जब मेरी उम्र सात साल की थी। संभवतः 1944 का साल रहा होगा। मेरे गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर ओझवलिया नाम का एक गांव है। उस गांव में गृहस्थ जीवन में रहकर साधुवृत्ति वाले एक आचारी थे। उनसे गांव वालों का बांस की कोठी को लेकर झगड़ा था। आचारी पर बांस नहीं काटने की बंदिश थी। इस संकट में आचारी को एक चतुराई सुझी कि क्यों न भिखारी ठाकुर का नाच गांव में कराया जाये। नाच सुनकर लोगों की भीड़ उमड़ेगी। गांव और ज्वार के लोग नाच देखने में विभोर रहेंगे। ऐसे में आचारी का मकसद आसानी से पूरा हो जायेगा। भिखारी ठाकुर उस दौरान कोलकाता में रहते थे। आचारी कोलकाता गये और भिखारी ठाकुर के नाम का अनुबन्ध कर आये। निश्चित तिथि पर भिखारी ठाकुर की मंडली ओझवलिया पहुंच गयी। हजारों की भीड़ नाच देखने उमड़ पड़ी। दस कोस पैदल चलकर लोग नाच देखने आये थे। लोगों का ध्यान जब नाच देखने में लगा था-आचारी ने बांस काटने की अपनी कार्रवाई शुरू करा दी। लोगों को बांस काटने की भनक जैसे ही लगी-मारपीट शुरू हो गयी। नाच बन्द हो गया। दूसरे दिन उस इलाके के लोगों को जब इस बात का अहसास हुआ कि यह भिखारी के प्रति इस इलाके की जनता का बहुत बड़ा अपमान है। अतः लोगों ने मेरे गांव में भिखारी का नाच कराने का निर्णय लिया और नाच हुआ भी। मैं बच्चा था इसलिए मुझे याद नहीं है कि नाच में क्या-क्या हुआ लेकिन मेरे इलाके में यह घटना किवदंती की तरह आज भी लोगों की जेहन में है। नाच की शुरूआत में भिखारी ठाकुर ने आचारी वाली घटना पर एक कविता लिखी थी जिसे उन्होंने गाकर सुनाया था। कविता की शुरू की पंक्तियां बहुत दिनों तक लोगों को याद थी जिसकी पहली पंक्ति थी-‘सबके ठगले भिखारी, भिखारी के ठगले आचारी।’ इस तरह भिखारी ठाकुर से मेरी पहली मुलाकात मेरे अपने गांव में हुई थी। भिखारी ठाकुर को मैंने दूसरी बार पटना के गांधी मैदान में महीनों पहले सरकारी प्रदर्शनों के दौरान देखा था और प्रदर्शनी के सांस्कृतिक मंच पर उनके गीत और कविताएं सुनी थी। वह 1958 का साल था और मैं बी.ए. का विद्यार्थी था। मेरी तीसरी और अंतिम मुलाकात 1965 में हुई। हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार नई कविता पर बहस कर रहे थे। अचानक किसी का ध्यान भिखारी ठाकुर पर पड़ा। वे श्रोताओं के बीच अंतिम पंक्ति में बैठे थे। लोगों ने आग्रह करके उनको मंच पर बुलाया और उनसे कविताएं पढ़वायी। केदारनाथ सिंह ने हाल ही में इस प्रसंग को ‘हिन्दुस्तान’ में लिखा है और उसका शीर्षक दिया है-नयी कविता के मंच पर भिखारी ठाकुर। उस मंच पर केदारनाथ सिंह, विजय मोहन सिंह, चन्द्रभूषण तिवारी, बद्रीनाथ तिवारी, मधुकर सिंह आदि मौजूद थे। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को ‘अनगढ़ हीरा’ कहा था तो प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपीयर’ कहा। डा॰ केदारनाथ सिंह लिखते हैं-‘भिखारी ठाकुर मौखिक परम्परा के भीतर से उभरकर आये थे, पर इनके नाटक और गीत हमें लिखित रूप में उपलब्ध हैं। कोरा मनोरंजन उनका उद्देश्य नहीं था। उनकी हर कृति किसी न किसी सामाजिक विकृति या कुरीति पर चोट करती है और ऐसा करते हुए उसका सबसे धारदार हथियार होता है-व्यंग्य।’ डा. उदयनारायण तिवारी लिखते हैं-‘भिखारी ठाकुर वास्तव में भोजपुरी के जनकवि हैं। इनकी कविता में भोजपुरी जनता अपने सुख-दुख एवं भलाई-बुराई को प्रतयक्ष रूप से देखती है।’ इस तरह बहुत सारे हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने भिखारी ठाकुर की प्रशंसा की है। संजीव ने ‘सूत्रधार’ नाम से एक उपन्यास उनके जीवन को आधार बनाकर लिखा है। कुछ लोगों ने पी.एचडी., डि.लिट्. और डिजरटेशन इनके नाटकों, गीतों और भजनों पर लिखे हैं। इनमें से कुछ का प्रकाशन भी हुआ है। भिखारी ठाकुर की स्मृति को संजोने के लिए उनके गांव कुतुबपुर (सारण) में भिखारी ठाकुर आश्रम भी निर्मित है जहां नियमित उन पर कार्यक्रम और गोष्ठियां आयोजित होती रहती है। भिखारी ठाकुर ने अपना जीवन चरित लिखा है। यह जीवन चरित भोजपुरी कविता में है। इन्होंने स्वयं लिखा है कि उनका जन्म 1887 ई. पौष मास शुक्ल पक्ष पंचमी सोमवार के 12 बजे दिन में हुआ था। उनका देहावसान 1971 ई. में हुआ था। उनकी कोई विधिवत शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई थी। उन्होंने अपने साधना से अक्षर ज्ञान प्राप्त किया था और स्वाध्याय से कुछ धार्मिक ग्रंथों का परायण किया था-जिसमें रामचरित मानस प्रमुख था। भिखारी ठाकुर एक अत्यंत पिछड़ी नाई जाति में जन्में थे। उनके घर में एक गाय थी और तीन-चार बछिया थी जिसे वे अपने सगे-साथियों के साथ बचपन में चराया करते थे। इन्हीं साथियों के साथ मिलकर वे रामलीला और दूसरे नाटकों के अभिनय की नकल करते थे। उनका कंठ सुमधुर था। उनकी सुरीली आवाज में जादू था। एक ओर वे परिवार के जीवन-यापन के सहयोग में पशुओं की देखभाल किया करते थे तो दूसरी ओर गृहस्थों और जजमानों के दाढ़ी-बाल बनाते थे। कुछ लेखकों ने भिखारी ठाकुर पर बचपन में सवर्णों द्वारा शोषण-उत्पीड़न का सवाल बिना किसी जांच-पड़ताल के उठाया है और उनके द्वारा नाच मंडली स्थापित करने की वजह भी इसे ही बतला दिया है। लेकिन ऐसे लेखकों का इलजाम गलत है। अगड़ी जातियों द्वारा दलितों और पिछड़ी जातियों पर शोषण-उत्पीड़न उस काल में होता था लेकिन ये जातियां उस अवधि में प्रतिकार या प्रोटेस्ट की स्थिति में नहीं थी। इसलिए भिखारी ठाकुर ने किसी प्रतिकार में अपना पेशा छोड़ा था और नाच मंडली खड़ी की थी- ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। भिखारी ठाकुर को बचपन से ही रामलीला, रासलीला, सत्संग, प्रवचन, भजन-कीर्तन आदि से बेहद लगाव था। परिणामतः काम से फुर्सत पाकर रात में वे ऐसे अनुष्ठानों में भाग लेते थे और उन पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा था। उनके बचपन के दिनों में बंगाल और बिहार में जितने प्रकार के नाच, नाटक, गीत-संगीत प्रचलित थे-उनको वे बड़ी तन्मयता से देखते थे और उन सबों का प्रयोग उन्होंने अपने द्वारा गठित बिदेशिया नाच में किया था। उनके द्वारा तैयार बिदेशिया नाच बाद में चलकर एक शैली बन गया जो पचास-साठ वर्षों तक बिहार, उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों और कोलकाता में रहनेवाली हिन्दी भाषी जनता विशेष रूप से भोजपुरी भाषी किसान-मजदूर जनता के लिए मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन बना रहा। मुस्लिम और अंग्रेजी शासनकाल में औरतों पर हो रहे अत्याचारों ने उन्हें घरों की चहारदीवारी में कैद कर दिया था। उनका कोई सार्वजनिक चेहरा नहीं रह गया था। उनकी पर्दादारी और अशिक्षा एक तरह से उनके लिए काल बन गयी थी। ऐसी स्थिति में नाटकों में स्त्री पात्रों का मिलना असंभव था। इसके साथ ही अभिजात वर्ग के लोगों में यह धारणा विकसित हुई थी कि नचनिया-बजनिया का का निम्न जातियों का है। सवर्ण इसमें भागीदारी करें-ऐसी बात वे सोच भी नहीं सकते थे। भिखारी ठाकुर के नाचों में स्त्री पात्रों की भूमिका कम उम्र के लड़के किया करते थे। उनकी नाच मंडली में अधिसंख्य सदस्य दलित और पिछड़ी जातियों से ही आते थे। भिखारी ठाकुर के नाटकों में पात्रों के नाम भी वही होते थे जो दलित और पिछड़ी जातियों में प्रचलित थे। उन्होंने अपने नाटकों में दलित, शोषित, अशिक्षित और उपेक्षित तबकों के साथ घटित होनेवाली घटनाओं का विशेष उल्लेख किया है। बाल-विवाह, अनमेल विवाह, धन के लिए बेटियों को बेचने का अपराध, सम्पत्ति के लोभ में संयुक्त परिवार का विघटन, बहुविवाह, चरित्रहीनता, अपराध, नशाखोरी, चोरी, जुआ खेलना आदि कुछ ऐसी प्रचलित कुप्रवृत्तियां ऐसे वर्गों में व्याप्त थीं, जिससे उनका सामाजिक और आर्थिक जीवन दुखमय हो जाता था। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों के माध्यम से इन कुरीतियों पर प्रहार करने का प्रयास किया। गांव-देहात के लोगों पर इन नाटकों का बड़ा प्रभाव पड़ा और लोगों ने इन कुरीतियों से निजात पाने की दिशा में पहल भी की। विगत शताब्दी का पचास वर्ष विशेषकर 1915 से 1965 का कालखण्ड उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले और बिहार के भोजपुरी भाषा-भाषी जिलों में आम लोगों के मनोरंजन के साधन, रामलीला, जात्रा, भांड, धोबी, नेटुआ, गोई आदि नाच होते थे। चैती फसल कटने और आषाढ़ में फसल लगने के बीच के समय में किसानी से जीवन-यापन करनेवाली जनता के मनोरंजन का एकमात्र साधन ये नाच होते थे जिसे लोग शादी-विवाह और उत्सव के अवसर पर मंगवाते थे। (इन क्षेत्रों में शादी-विवाह गर्मी के महीने में ही होते थे।) एक व्यक्ति के खर्च से हजारों लोगों का बिना अधेली खर्च किये मनोरंजन होता था। इन नाचों में गाये गीत गांव के चरवाहा, हलवाहा, बनिहारा सालों भर गुनगुनाता था और खेतों में किये गये श्रम से अपनी थकान मिटाता था। भिखारी ठाकुर के बिदेशिया नाच ने इस विधा में नया आयाम जोड़ा। भोजपुरी क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर इस क्षेत्र की जनता की भाषा में उन्होंने अपने नाटक और गीत लिखे और उनका स्वयं मंचन किया। जनता अपनी समस्याओं को अपनी भाषा में सुनकर ज्यादा प्रभावित होती थी। इस तरह भिखारी ठाकुर के नाटकों के प्रभाव अन्य नाटकों की तुलना में ज्यादा प्रभावी होते थे। (बिहार खोज खबर)
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22-12-2011, 03:03 PM | #64 |
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Re: कतरनें
23 दिसंबर किसान दिवस पर विशेष
अपनी आजीविका के अपहरण से परेशान आज का किसान किसानों की आत्महत्या, न्यूनतम समर्थन मूल्य और भूमि अधिग्रहण पर विवाद के बीच किसानों के मुद्दे पर सरकार की चुनौतियां कम नहीं होने वाली हैं। देश की तरक्की के दावे करने वाले ‘समृद्ध’ लोगों के लिये ‘किसान दिवस’ पर ऐसे अनेक अन्नदाताओं के पास शिकायतों की फेहरिस्त है। एक तरफ जहां किसानों की आत्महत्या को लेकर विपक्षी दलों ने कल ही संसद परिसर में धरना देकर मांग की है कि किसानों के मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति या स्थायी समिति का तुरंत गठन किया जाए, दूसरी तरफ सड़कों पर अपना आलू फेंक रहे पंजाब के किसान मंजीत सिंह कहते हैं कि एक किलो आलू की लागत तीन से चार रुपये की आती है, जिसका दाम अब सिर्फ तीस पैसे प्रति किलो रह गया है। वहीं खाद सब्सिडी को लेकर सरकार और खाद उत्पादकों की सांठगांठ से किसान त्रस्त हो रहा है। ऐसे हालात में कल ही आंध्रप्रदेश में किसानों ने ‘कृषि छुट्टी’ का ऐलान किया है, वह आमदनी नहीं होने के कारण खेती नहीं करना चाहते हैं। देश के अन्य हिस्सों में भी किसान खेती से विमुख हो रहे हैं। वरिष्ठ अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा का कहना है कि आने वाला साल भी किसानों के लिये चुनौती पूर्ण रहेगा। उनका मानना है कि सरकार पूंजी की ताकत के सामने घुटने टेककर किसानों की आजीविका का अपहरण कर रही है और किसानों के हितों के नाम पर विदेशी निवेश को आमंत्रित कर रही है। काबरा का कहना है ‘‘ खुद को किसानों का हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों के लिये मंत्री पद अहम हो जाते हैं और वे सरकार के ही साथ हो लेते हैं।’’ खेती और कृषि मामलों पर विशेष राय रखने वाली शिक्षाविद् जया मेहता कहती हैं कि सरकार सिर्फ ‘कॉस्मेटिक नीतियों’ को ही बढावा देती है जिनसे किसानों के हित सुरक्षित नहीं होते। महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में कर्ज से दबे किसान आत्महत्या का रास्ता पकड़ रहे हैं, तो उत्तर भारत में अपने हक के लिए लड़ने वाले किसानों को कभी पुलिसिया लाठी तो कभी बंदूक की गोली का सामना करना पड़ा। औद्योगिक उन्नति के नाम पर किसानों से उनकी जमीन छीनकर उद्योगपति मॉल, इंडस्ट्री और रेसिंग ट्रैक बना रहे हैं। अलीगढ के टप्पल निवासी किसान भोलाराम बताते हैं कि ऐक्सपे्रसवे परियोजना के लिये निजी कंपनी और प्रशासनिक अधिकारियों ने जमीन अधिग्रहण के लिये करार पर उनके हस्ताक्षर कराने के लिये कई हथकंडे अपनाए। उनसे लुभावने वायदे किये गये। परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी, जमीन के हिसाब से प्रति महीने निश्चित राशि के वायदे जब झूठे निकले तो छलावे के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा। भारतीय किसान यूनियन के प्रमुख राकेश टिकैत की मांग है कि सरकार को ‘कृषि कैबिनेट’ का गठन करना चाहिये। उनका कहना है कि बुग्गी में सफर करने वाले किसान नेताआेंं के लिये हवाई जहाज की सवारी प्यारी हो जाती है और वे किसानों को छोड़ कुर्सी का ध्यान रखते हैं। किसान नेता गोविंद सिंह तेवतिया ने मांग की कि सरकार को किसानों की समस्याओं के निपटारे के लिये एक आयोग का गठन करना चाहिये। उनका कहना है कि जमीन के बदले सरकार किसानों को मुआवजा तो देती है पर उस भूमि पर आश्रित अनेक वर्ग के लोगों की कोई सुध नहीं लेता। प्रमुख किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन 23 दिसंबर पर देश में किसान दिवस मनाया जाता है। इस एक दिन को समारोह की तरह मनाने की बजाय किसानों के हालात पर भी विचार किया जाना चाहिए।
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24-12-2011, 04:19 PM | #65 |
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Re: कतरनें
25 दिसंबर को जयंती पर
स्वतंत्रता आंदोलन, समाजसेवा में अहम भूमिका निभाई मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय ने स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाने के साथ ही सामाजिक सुधार में भी बढचढकर हिस्सा लिया। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के इतिहास के प्राध्यापक रिजवान कैसर ने भाषा से कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में मालवीयजी का महती योगदान है। स्वतंत्रता आंदोलन और बीएचयू जैसी बड़ी शिक्षण संस्था की स्थापना में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में 25 दिसंबर, 1861 को एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे पंडित मदन मोहन मालवीय ने पांच साल की उम्र में पंडित हरदेव की धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में संस्कृत की शिक्षा ली। इलाहाबाद जिला स्कूल से स्कूली शिक्षा ग्रहण के बाद उन्होंने मुईर सेंट्रल कॉलेज से मैट्रीकुलेशन किया। उन्होंने कलकता विश्वविद्यालय से स्नातक की पढाई की। उन्होंने जुलाई, 1884 में इलाहाबाद जिला स्कूल में बतौर शिक्षक अपना करियर शुरू किया, लेकिन राजनीति में भी लगातार सक्रिय रहे। जुलाई, 1887 में वह राष्ट्रवादी साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक बने। इस दौरान कानून की पढाई करने के बाद वह पहले इलाहाबाद जिला न्यायालय और बाद में दिसंबर, 1893 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने लगे। शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करने के लिए मालवीय ने 1911 में प्रैक्टिस छोड़ दी, हालांकि चौरा चौरी कांड में 177 स्वतंत्रता सेनानियों को मृत्युदंड दिए जाने के खिलाफ वह फिर अदालत में उतरे और अपनी दलीलों से 156 को बरी करवाने में सफल रहे। नरमपंथी नेता मालवीय को 1909 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। चार बार-1909, 1918, 1930 तथा 1932 में वह पार्टी अध्यक्ष बने। । जब चौरा चौरी कांड में 177 स्वतंत्रता सेनानी मृत्युदंड के लिए दोषी ठहराए गए तब मालवीय उनकी ओर से अदालत में पेश हुए और 156 को बरी करवाया। मालवीय इंपेरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल और बाद में इसके परिवर्तित रूप सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली के सदस्य भी रहे। उन्नीस सौ बीस के दशक के प्रारंभ में वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में प्रमुख नेता के रूप में उभरकर सामने आए। सन् 1928 में उन्होंने लाला लाजपत राय, जवाहरलाल नेहरू आदि के साथ मिलकर साइमन आयोग का जबर्दस्त विरोध किया। तुष्टीकरण के विरोधी मालवीय ने 1916 के लखनउ पूना पैक्ट में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन मंडल का विरोध किया। वह खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस के शामिल होने के खिलाफ थे। उन्होंने गांधीजी को देश विभाजन की कीमत पर आजादी के खिलाफ चेताया था। उन्होंने भी 1931 में पहले गोलमेज सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। ‘सत्यमेव जयते’ को उन्होंने ही लोकवाक्य बनाया। वह कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। मालवीयजी ने जाति का बंधन तोड़ने के लिए काफी काम किया। इतिहास के प्राध्यापक प्रदीप कुमार कहते हैं कि मालवीय जी ने गांधीजी और अंबेडकर के बीच 1930 के पूना पैक्ट में अहम भूमिका निभाई। जीवनपर्यन्त आजादी का सपना देखने वाले मालवीय 12 नवंबर 1946 को चल बसे।
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24-12-2011, 09:50 PM | #66 |
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Re: कतरनें
बहुत अच्छी जानकारी .....
अलैक जी को हार्दिक धन्यवाद ||
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25-12-2011, 05:12 PM | #67 |
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Re: कतरनें
सरकार की सस्ती डीजल नीति का फायदा उठा रही कार कंपनियां
भले ही सरकार किसानों और जनहित को ध्यान में रखते हुये डीजल पर भारी सबिसडी देती है लेकिन इसका असली फायदा कार कंपनियों को हो रहा है। डीजल कारों की बढती मांग से कार कंपनियां नित नये डीजल संस्करण बाजार में उतार रही हैं। हालांकि, पर्यावरणविदें की चिंता कुछ और है। उनका कहना है कि इससे डीजल की खपत बढने के साथ साथ प्रदूषण का खतरा भी बढ रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की निदेशक सुनीता नारायण का मानना है कि डीजल गाड़ियों की बढती बिक्री से वायु प्रदूषण का खतरा बढेगा। डीजल खपत बढने से तेल कंपनियों का सब्सिडी बोझ भी बढ रहा है। दरअसल, कृषि, सार्वजनिक परिवहन और माल परिवहन में डीजल का इस्तेमाल होने की वजह से इस पर भारी सब्सिडी वहन करती है। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि कृषि क्षेत्र में डीजल का इस्तेमाल घटकर मात्र 12 प्रतिशत ही इस्तेमाल होता है। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश डीजल कारों की कड़ी आलोचना कर चुके हैं। पर्यावरण मंत्री रहते हुये रमेश ने खासकर डीजल की भारी खपत करने वाले एसयूवी जैसे लक्जरी वाहनों का विरोध किया था और कहा था कि ऐसे वाहन मालिकों से डीजल का बाजार मूल्य वसूला जाना चाहिए। पेट्रोलियम मंत्रालय भी डीजल की लक्जरी कारों पर अतिरिक्त शुल्क लगाये जाने के पक्ष में है। पेट्रोलियम मंत्रालय इस संबंध में वित्त मंत्रालय को पत्र लिखकर ऐसे वाहनों पर 15 प्रतिशत अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाने का सुझाव भी दे चुका है। सुनीता नारायण कहती हैं कि पेट्रोल कारों के मुकाबले, डीजल गाड़ियों से सात गुना ज्यादा प्रदूषण तत्वों का उत्सर्जन होता है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि इन कारों द्वारा पांच गुना ज्यादा नाइट्रो आॅक्साइड का उत्सर्जन होता है जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। वहीं, कार कंपनियों का दावा है कि डीजल कारों में अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुये इन्हें पर्यावरण मानकों के अनुरुप बनाया जा रहा है। मारूति उद्योग लिमिटेड में सहायक प्रबंधक शशांक अग्रवाल ने बताया कि कंपनी की डीजल गाड़ियां भारत-4 (यूरो-4) जैसे पर्यावरण मानकों पर खरी उतरती हैं। भारी उद्योग और सार्वजनिक उपक्रम मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने डीजल कारों को महंगा करने के प्रस्ताव का विरोध किया है। उन्होंने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को पत्र लिखकर कहा है कि डीजल कारों पर अधिक कर नहीं लगाया जाना चाहिये। पटेल ने बड़ी कारों पर लगाए गए 15,000 रुपये के अतिरिक्त शुल्क को भी वापस लिए जाने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि बजाय इसके सरकार डीजल मूल्यों को तर्कसंगत बनाने का रास्ता तलाशे। सुनीता नारायण कहती हैं, ‘‘कार निर्माता कंपनियां सस्ते डीजल की वजह से डीजल कारों की बढती मांग का फायदा उठाकर मोटा मुनाफा कमा रहीं हैं। ज्यादा से ज्यादा गाड़ियों के डीजल संस्करण बाजार में उतरे जा रहे हैं। इनके प्रदूषण मुक्त होने का कोरा दावा किया जा रहा है।’’ गरीब, किसान और जन सुविधा को फायदा पहुंचाने के लिये बनाई गई नीति का इस तरह बेजा इस्तेमाल चिंताजनक है। सोसाइटी फॉर इंडियन आटोमोबाइल मैनुफैक्चरर्स (सियाम) के आकंड़ों के अनुसार पिछले कुछ दिनों में डीजल गाड़ियों की बिक्री में इजाफा हुआ है। डीजल की कुल खपत में डीजल कारों में 15 प्रतिशत खपत हो रही है। वहीं पांच साल पहले यह आंकड़ा 11 प्रतिशत ही था। उपलब्ध आंकडों के अनुसार जिन क्षेत्रों की वजह से डीजल के दाम सस्ते रखे गये हैं, उनमें इसका प्रयोग कम ही होता है। डीजल की कुल खपत में ट्रक जैसे वाहनों में 37 प्रतिशत और सार्वजनिक परिवहन में महज 12 प्रतिशत ही डीजल का उपभोग होता है। सेंटर फार एनवायरमेंट का सवाल है कि आखिर क्यों सरकारी नीतियों के कारण इस तरह के प्रदूषण को बढावा मिल रहा है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 25-12-2011 at 05:15 PM. |
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Re: कतरनें
जन्मदिवस पर
सबसे कम उम्र में नोबेल साहित्य पुरस्कार जीता था रूडयार्ड किप्लिंग ने एंग्लो इंडियन लेखक, कवि, कहानीकार और उपन्यासकार रूडयार्ड किप्लिंग ने सबसे कम उम्र में साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीता था। 1907 में 42 साल की उम्र में वह यह सम्मान हासिल करने वाले सबसे युवा साहित्यकार बने थे। साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह पहले अंग्रेज साहित्यकार भी थे। 30 दिसंबर, 1865 को जन्मे किप्लिंग ने कई बालकथाएं लिखीं, उनका लिखा ‘जंगल बुक’ आज भी बच्चों के पसंदीदा साहित्य में से एक बना हुआ है। किप्लिंग की कहानियां, कविताएं आज भी अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। किप्लिंग की जीवनी ‘द स्ट्रेंज राइड आफ रूडयार्ड किप्लिंग’ में लेखक अंगस विल्सन ने लिखा है, ‘‘किप्लिंग एक बुद्धिमान और बहुत ही प्रतिभाशाली लेखक थे। उनकी रचनाएं ना केवल इस दौर में बल्कि आने वाले कल में भी प्रासंगिक होंगी। उनकी लिखी किताब ‘जंगल बुक’ की कहानी ‘मोगली ब्रदर्स’ ने बाल साहित्य और सिनेमा को बहुत प्रभावित किया। जंगल बुक से प्रभावित होकर बहुत सारी फिल्में बनीं। हॉलीवुड में बनी टारजन श्रृंखला की फिल्में जंगल बुक और इसे नायक मोगली से ही प्रभावित है।’’ किप्लिंग का जन्म भारत में हुआ था और भारतीय संस्कृति का उन पर गहरा प्रभाव था। उन्होंने अपनी किताब ‘जंगल बुक’ भारतीय जंगलों को ध्यान में रखकर लिखी थी। उनके माता पिता ने उनका नाम ब्रिटेन के स्टेफोर्डशायर काउंटी में स्थित रूडयार्ड झील के नाम पर रूडयार्ड रखा था। जब वह पांच साल के हुए तो उन्हें ब्रिटेन ले जाया गया। उनकी शिक्षा-दीक्षा ब्रिटेन में ही हुई। उन्होने कम उम्र से ही साहित्यिक रचनाएं करनी शुरू कर दीं। 19 वीं सदी के अंत में और बीसवीं सदी की शुरूआत में वो अंग्रेजी में गद्य और पद्य दोनों शैलियों के लोकप्रिय लेखक बन गये थे। उन्होंने पत्रकार के रूप में भी काम किया था। उन्होंने ‘गजट’ और ‘द पायनियर’ जैसे समाचार पत्रों में काम किया। उनकी लेखनी में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रभाव नजर आता है, जिसके कारण प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज आॅरवेल ने उन्हें ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रवर्तक’ भी कहा था। आर्सन विल्सन के अनुसार स्काउटिंग के संस्थापक वैडन पॉवेल ने भी अपने स्काउटिंग कार्यक्रम को लोकप्रिय करने के लिए जंगल बुक के किरदारों का सहारा लिया था। इस तरह किप्लिंग की रचनाओं में एक सार्वभौमिक अपील थी। किप्लिंग की अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में ‘किम’, ‘गंगादीन’, ‘मांडले’, ‘द व्हाइट मैंस बर्डेन’, ‘इफ’ और ‘रिसेशनल’ जैसी किताबें शामिल हैं। किप्लिंग के प्रशंसकों में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। किप्लिंग का लिखा उपन्यास ‘किम’ नेहरू की पसंदीदा किताबों में से एक था।
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Re: कतरनें
पुण्यतिथि छह जनवरी पर
साहित्य में ‘सोच की नींव’ रखने वाले युगचिंतक थे भारतेंदु साहित्य में ‘सोच की नींव’ रखने वाले अग्रणी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र असाधारण प्रतिभा के धनी व दूरदर्शी युगचिंतक थे और उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज में सार्थक हस्तक्षेप किया और इसकी शक्ति का उपयोग करते हुए आम जनमानस में जागृति लाने की कोशिश की तथा दरबारों में कैद विधा को आम लोगों से जोड़ते हुए इसे सामाजिक बदलाव का माध्यम बना दिया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस दौर में हिंदी साहित्य के आयाम को नयी दिशा दी जब अंग्र्रेजों का शासन था और अपनी बात कह पाना कठिन था। उन्होंने एक ओर खड़ी बोली के विकास में मदद की वहीं अपनी भावना व्यक्त करने के लिए नाटकों और व्यंग्यों को बेहतरीन इस्तेमाल किया। इस क्रम में भारत दुर्दशा या अंधेर नगरी जैसी उनकी कृतियों को देखा जा सकता है। अंधेर नगरी विशेष रूप से चर्चित हुई। साहित्यिक पत्रिका बया के संपादक और कथाकार गौरीनाथ के अनुसार भारतेंदु के दौर में अपनी बात कहना बेहद कठिन था। विदेशी शासन के प्रति अपने प्रतिरोध को जताने के लिए उन्होंने साहित्य का सहारा लिया और 34 साल के अपने जीवनकाल में ही उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध कर दिया। गौरीनाथ के अनुसार भारतेंदु ने साहित्य में सोच की नींव रखी और उस दौर की राजनीति में भी प्रतिरोध को दिशा दी। उनके लेखन से बाद की पीढी को बल मिला। गौरीनाथ के अनुसार खडी बोली के विकास में भारतेंदु की भूमिका उल्लेखनीय थी और वह सही मायनों में खड़ी बोली के सबसे बड़े निर्माता थे। उनकी रचनाओं में बनावटी संस्थागत कार्य के बदले प्रतिरोध का स्वर उभर कर सामने आता है। उनकी कृतियों में उस दौर की स्थिति, समस्याएं उभर कर सामने आती हैं और वह परोक्ष रूप से उसके प्रति लोगों को आगाह करते दिखते हैं। भारतेंदु के लेखन में परोक्ष रूप से आजादी का स्वप्न और भविष्य के भारत की रूपरेरखा की झलक मिलती है। वह धार्मिक एकता व प्रांतीय एकता के भी पक्षधर थे। धार्मिक एकता की जरूरत का जिक्र करते हुए भारतेंदु ने अपने एक भाषण में कहा था कि घर में जब आग लग जाए तो देवरानी और जेठानी को आपसी डाह छोड़कर एक साथ मिलकर घर की आग बुझाने का प्रयास करना चाहिए। उनकी नजर में अंग्रेजी राज घर की आग के समान था और देवरानी जेठानी का संबंध जिस प्रकार पारिवारिक एकता के लिए अहम है, उसी प्रकार हिंदू मुस्लिम एकता की भावना राष्ट्रीय आवश्यकता है। असाधारण प्रतिभा के धनी भारतेंदु युगचिंतक, दूरदर्शी व विभिन्न विधाओं के प्रणेता साहित्यकार थे। उनके प्रयासों से साहित्य सिर्फ संवेदना का क्षेत्र नहीं होकर वैचारिकता का उत्प्रेरक साबित हुआ। उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज में सार्थक हस्तक्षेप किया और साहित्य की शक्ति का उपयोग करते हुए आम जनमानस में जागृति लाने की कोशिश की। उन्होंने दरबारों में कैद साहित्य को आम लोगों से जोड़ते हुए इसे सामाजिक बदलाव का माध्यम बना दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु के बारे में लिखा है कि उनकी भाषा में न तो लल्लूलाल का ब्रजभाषापन आया, न मुंशी सदासुख का पंडिताउपन, न सदल मिश्र का पूरबीपन। उन पर न राजा शिव प्रसाद सिंह की शैली का असर दिखा और न ही राजा लक्ष्मण सिंह के खालिसपन और आगरापन का। इतने पनों से एक साथ पीछा छुड़ाना भाषा के संबंध में बहुत ही परिष्कृत रूचि का परिचय देता है।
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05-01-2012, 07:04 PM | #70 |
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Re: कतरनें
6 जनवरी जन्मदिन पर
कई विधाओं को साधिकार साधने वाला चितेरा : कमलेश्वर स्वाधीन भारत के सर्वाधिक क्रियाशील और मेधावी हिंदी साहित्यकार कमलेश्वर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी भाषा को समृद्ध एवं रोचक बनाने तथा इससे युवाओं एवं नए लेखकों को जोड़ने में कमलेश्वर की भूमिका अहम है। नई कहानी के अगुआ और विलक्षण कथाकार कमलेश्वर के बारे में प्रसिद्ध साहित्यकार और उनके मित्र राजेंद्र यादव ने कहा, ‘‘हालांकि मुझे, मोहन राकेश और कमलेश्वर तीनों को नई कहानी आंदोलन का नेतृत्व करने वालों के तौर पर देखा-जाना जाता है, पर नई कहानी आंदोलन को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में कमलेश्वर की भूमिका अहम थी। वह 1950 के दशक में शुरू हुए इस आंदोलन के प्रारंभिक पैरोकारों में सबसे अधिक जुझारू थे।’’ उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कमलेश्वर का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ था। उनका मूल नाम कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना था। हमेशा नए नए प्रयोगों के लिए प्रयत्नशील रहने वाले पद्मभूषण कमलेश्वर के बारे में वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने कहा, ‘‘ वह एक बहुआयामी व्यक्ति थे। वह कथाकार, उपन्यासकार, पटकथा लेखक, संपादक सभी थे। साहित्य और मीडिया क्षेत्र के प्रमुख हस्ताक्षर कमलेश्वर ने युवा लेखकों को आगे बढाने में अहम योगदान दिया।’’ प्रूफ रीडर के तौर अपने कैरियर की शुरूआत करने वाले कमलेश्वर ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’, ‘दैनिक जागरण’ और ‘दैनिक भास्कर’ जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। अशोक वाजपेयी ने कहा, ‘‘वह विख्यात कहानीकार थे। कहानी संग्रह ‘राजा राजबंसिया’ से उन्हें खूब ख्याति मिली। उनकी कहानियों में कस्बाई गंध है।’’ मर्मस्पर्शी लेखक कमलेश्वर ने तीन सौ से उपर कहानियां लिखी हैं। उनकी कहानियों में ‘मांस का दरिया, नागमणि, जार्ज पंचम की नाक, कस्बे का आदमी’ आदि उल्लेखनीय हैं। उन्होंने दर्जन भर उपन्यास भी लिखे हंै। इनमें ‘डाक बंगला, तीसरा आदमी, काली आंधी प्रमुख हैं। गुलजार की चर्चित फिल्म ‘आंधी’ जिसे आपातकाल के दौरान प्रदर्शित करने पर रोक लगा दी गई थी, उपन्यास ‘काली आंधी’ पर आधारित है। फिल्म और टेलीविजन लेखन के क्षेत्र में भी कमलेश्वर को काफी सफलता मिली । उन्होंने ‘सारा आकाश’, ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘मिस्टर नटवरलाल’ जैसी फिल्मों सहित करीब 100 हिंदी फिल्मों की पटकथा लिखी। लोकप्रिय टीवी सीरियल ‘चंद्रकांता’ के अलावा ‘दर्पण’ और ‘एक कहानी’ जैसे धारावाहिकों की पटकथा लिखने वाले भी कमलेश्वर ही थे। उन्होंने कई वृत्तचित्रों और कार्यक्रमों का निर्देशन भी किया। अपने जीवन के अंत तक क्रियाशील रहे कमलेश्वर 75 वर्ष की आयु में 27 जनवरी 2007 को इस दुनिया से चल बसे।
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