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#61 |
Special Member
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#62 |
Special Member
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सुनिये, यह दृश्य मन से उपजा है और इसका सद्भाव मन में ही हुआ है । जैसे कमल का उपजना कमल के बीज में है वैसे ही संसार का उपजना स्मृति से होता है । वह स्मृति अनुभव आकाश में होती है । हे रामजी! स्मृति पदार्थ की होती है जिसका अनुभव पहिले होता है । जितना कुछ जगत् तुमको भासता है सो संकल्प रूप है-कोई पदार्थ सत्*रूप नहीं । जो वस्तु असत्*रूप है उसकी स्थिरता नहीं होती और जो वस्तु सत्*रूप है उसका कदाचित् नहीं होता । जितना कुछ प्रपञ्च भासता है सो असत्*रूप है मन के चिन्तन से उत्पन्न हुआ है । जब फुरने से रहित हो तब जगत् भ्रम निवृत्त होता है । हे रामजी!
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#63 |
Special Member
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पृथ्वी, पर्वत आदिक जगत् असत् रूप न होते तो मुक्त भी कोई न होता । मुक्त तो दृश्यभ्रम से होता है, जो दृश्यभ्रम से नष्ट न होता तो मुक्त भी कोई न होता; पर ब्रह्मर्षि, राजर्षि देवता इत्यादिक बहुतेरे मुक्त हुए हैं, इस कारण कहता हूँ कि दृश्य असत्यरूप मन के संकल्प में स्थित है । हे रामजी! एक मन को स्थिरकर देखो, फिर अहं त्वं आदिक जगत् तुमको कुछ न भासेगा । चित्तरूपी आदर्श में संकल्परूपी दृश्य मलीनता है । जब मलीनता दूर होगी तब आत्मा का साक्षात्कार होगा । हे रामजी! यह दृश्यभ्रम मिथ्या से उदय हुआ है ।
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#64 |
Special Member
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जैसे गन्धर्वनगर और स्वप्नपुर वैसे ही यह जगत् भी है । जैसे शुद्ध आदर्श में पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है वैसे ही चित्तरूपी आदर्श में यह दृश्य प्रतिबिम्ब है । मुकुर में जो पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है सो आकाशरूप है उसमें कुछ पर्वत का सद्भाव नहीं वैसे ही आत्मा में जगत् का सद्भाव नहीं । जैसे बालक को भ्रम से परछाहीं में पिशाच बुद्धि होती है वैसे ही अज्ञानी को जगत् भासता है --वास्तव में जगत् कुछ नहीं है । हे रामजी! न कुछ मन उपजा है और न कुछ जगत् उपजा है- दोनों असत्*रूप हैं । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । जैसे आकाश अपनी शून्यता से और समुद्र जल से पूर्ण है वैसे ही ब्रह्मसत्ता अपने आप में स्थित और पूर्ण है और उसमें जगत् का अत्यन्त अभाव है इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह तुम्हारे वचन ऐसे हैं जैसे कहिये कि बन्ध्या के पुत्र ने पर्वत चूर्ण किया शशे के श्रृंग अति सुन्दर हैं, रेत में तेल निकलता है और पत्थर की शिला नृत्य करती वा मूर्ति का मेघ गर्जन और पत्थर की पुतलियाँ गान करती हैं ।
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#65 |
Special Member
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तुम कहते हो कि दृश्य कुछ उपजा ही नहीं और मुझको ये जरा, मृत्यु आदिक विकारों सहित प्रत्यक्ष भासते हैं इससे मेरे मन में तुम्हारे वचनों का सद्भाव नहीं स्थित होता । कदाचित् तुम्हारे निश्चय में इसी प्रकार है तो अपना निश्चय मुझको भी बतलाइए । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! हमारे वचन यथार्थ हैं । हमने असत् कदाचित् नहीं कहा! तुम विचार के देखो यह जगत् आडम्बर बिना कारण हुआ है । जब महाप्रलय होता है तब शुद्ध चैतन्य संवित् रह जाता है और उसमें कार्य कारण कोई कल्पना नहीं रहती उसमें फिर यह जगत् कारण बिना फुरता है । जैसे सुषुप्ति में स्वप्नसृष्टि फुर आती है और जैसे स्वप्नसृष्टि अकारण है वैसे ही यह सृष्टि भी अकारण है ।
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#66 |
Special Member
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हे रामजी! जिसका समवायकारण और निमित्तकारण न हो और प्रत्यक्ष भासे उसे जानिये कि भ्रान्तिरूप है । जैसे तुमको नित्य स्वप्न का अनुभव होता है और उसमें नाना प्रकार के पदार्थ कार्य कारण सहित भासते हैं पर कारण बिना हैं वैसे ही यह जगत् भी कारण बिना है । इससे आदि कारण बिना ही जगत् उपजा है । जैसे गन्धर्वनगर, संकल्पपुर और आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही यह जगत् भासता है-कोई पदार्थ सत् नहीं । जैसे स्वप्न में राजमहल और नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं सो किसी कारण से तो नहीं उपजे केवल आकाशरूप मन के संसरने से सब भासते हैं वैसे ही यह जगत् चित्त के संसरने से भासता है जैसे स्वप्न में और स्वप्ना भासता है और फिर उसमें और स्वप्न भासता है वैसे यह जगत् भासता है और वैसे ही जागत् जगज्जाल मन की कल्पना से भासता है । हे रामजी! चलना, दौड़ना, देना, बोलना, सुनना रूँधना इत्यादि विषय और रागद्वेषादिक विकार सब मन के फुरने से होते हैं- आत्मा में कोई विकार नहीं । जब मन उपशम होता है तब सब कल्पनाएँ निवृत्त हो जाती हैं इससे संसार का कारण मन ही है ।
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#67 |
Special Member
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रामजी बोले, हे भगवान्! मन का रूप क्या है? वह तो मायामय है इसका होना जिससे है सो कौन पद है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब महाप्रलय होता है तब सब जगत् का अभाव हो जाता है और पीछे जो शेष रहता है सो सत्*रूप है । सर्ग के आदि में भी सत्*रूप होता है उसका नाश कदाचित् नहीं होता, वह सदा प्रकाशरूप, परमदेव, शुद्ध, परमात्म तत्त्व, अज, अविनाशी और अद्वैत है । उसको वाणी नहीं कह सकती । वही पद जीवन्मुक्त पाता है । हे रामजी! आत्म आदिक शब्द कल्पित हैं, स्वाभाविक कोई शब्द नहीं प्रवर्तता । शिष्य को बताने के लिए शास्त्रकारों ने देव के बहुत नाम कल्पे हैं ।
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#68 |
Special Member
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मुख्य तो दॆव को पुरुष कहते हैं । वेदान्तवादी उसी को ब्रह्म कहते और विज्ञान वादी उसी को विज्ञान से बोध कहते हैं । कोई कहते हैं कि निर्मलरूप है । शून्य वादी कहते हैं शून्य ही शेष रहता है कोई कहते हैं प्रकाशरूप है जिसके प्रकाश से सूर्यादिक प्रकाशते हैं । एक उसको वक्ता कहते हैं आदिवेद का वक्ता वही है और स्मृतिकर्त्ता कहते है कि सब कुछ वह स्मृति से करनेवाला है और सब कुछ उसकी इच्छा से हुआ है, इससे सबका कर्ता सर्व आत्मा है । हे रामजी! इसी तरह अनेक नाम शास्त्रकारों ने कहे हैं । इन सबका अधिष्ठान परमदेव है और अस्ति आदि षड्विकारों से रहित शुद्ध, चैतन्य और सूर्यवत् प्रकाशरूप है । वही देव सब जगत् में पूर्ण हो रहा है । हे रामजी! आत्मारूपी सूर्य है और ब्रह्मा, विष्णु रुद्रादिक उसकी किरणें हैं ।
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#69 |
Special Member
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ब्रह्मरूपी समुद्र में जगत् रूपी तरंग बुद्बुदे उत्पन्न होकर लीन होते हैं और सब पदार्थ उस आत्मा के प्रकाश से प्रकाशते हैं । जैसे दीपक अपने आपसे प्रकाशता है और दूसरों को भी प्रकाश देता है वैसे ही आत्मा अपने प्रकाश से प्रकाशता है और सबको सत्ता देनेवाला है । हे रामजी! वृक्ष आत्मसत्ता से उपजता है, आकाश में शून्यता उसी की है और अग्नि में ऊष्णता, जल में द्रवता और पवन में स्पर्श उसी की है । निदान सब पदार्थों की सत्ता वही है । मोरों के पंखों में रंग आत्मसत्ता से ही हुआ है; पत्थर में मूँगा और पत्थरों में जड़ता उसी की है ।
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#70 |
Special Member
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और स्थावर-जंगम जगत् का अधिष्ठानरूप वही ब्रह्म है । हे रामजी! आत्मरूपी चन्द्रमा की किरणों से ब्रह्माण्डरूपी त्रसरेण उत्पन्न होती हैं । वह चन्द्रमा शीतलता और अमृत से पूर्ण है । ब्रह्मरूपी मेघ है उससे जीवरूपी बूँदें टपकती हैं । जैसे बिजली का प्रकाश होता है और छिप जाता है वैसे ही जगत् प्रकट होता है और छिप जाता है । सबका अधिष्ठान आत्मसत्ता और वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध और परमानन्द है । सब सत्य असत्यरूप पदार्थ उसी आत्मसत्ता से होते हैं । हे रामजी! उस देव की सत्ता से जड़पुर्यष्टक चैतन्य होकर चेष्टा करती है । जैसे चुम्बक पत्थर की सत्ता से लोहा चेष्टा करता है वैसे ही चैतन्यरूपी चुम्बक मणि से देह चेष्टा करती है ।
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