01-12-2012, 03:38 PM | #781 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 03:38 PM | #782 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जिसके आश्रय आभास फुरता है वही वस्तु अधिष्ठान होती है, इससे जगत् सब ब्रह्मरूप है और चिन्मात्रसत्ता अपने आप स्थित है, न उदय होती है और न अस्त होती है वह परिणाम से रहित सदा अद्वैतरूप स्थित है और उसमें न जाग्रत् है, न स्वप्ना है और न सुषुप्ति है, तीनों अवस्था आभासमात्र हैं पर चैतन्यसत्ता में इनसे द्वैत नहीं बना, यह तीनों इसी का स्वभाव प्रकाशरूप है-इससे भिन्न कुछ नहीं | जैसे आकाश और शून्यता, वायु और निस्स्पन्द, अग्नि और उष्णता और कर्पूर और सुगन्ध में भेद नहीं , तैसे ही जाग्रदादिक जगत् और ब्रह्म में भेद नहीं |
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01-12-2012, 03:38 PM | #783 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे रामजी! शुद्ध चिन्मात्र में जो चित्तभाव हुआ है उसमें चैतन्य आभास फुरा है और उसमें जैसा संकल्प फुरा है तैसे ही स्थित हुआ है कि यह इस प्रकार हो और इतने काल रहे, उसी संकल्प निश्चय का नाम नेति है | जैसे आदि संकल्प दृढ़ हुआ है, तैसे ही अबतक पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश अपने अपने भाव में स्थित हैं और अपने स्वभाव को नहीं त्यागते जबतक उनकी नेति है तब तक तैसे ही जगत् सत्ता में स्थित है | हे रामजी! इसका नाम नेति है | जैसे आदि संकल्प धारा है तैसे ही स्थित है और वास्तव में आभासरूप है |
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01-12-2012, 03:38 PM | #784 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
अकस्मात् से यह आभास फुरा है सो किसी सूक्ष्म अणु में फुरा है | जैसे समुद्र के किसी स्थान में तरंग बुद्बुदे फुरते हैं, सम्पूर्ण समुद्र में नहीं फुरते, तैसे ही जहाँ संवेदन रूप जैसा फुरना होता है तैसे ही स्थित होता है सो नेति है | जैसे तरंग और बुद्बुदे समुद्र से भिन्न नहीं, तैसे ही नेति आत्मा से भिन्न नहीं | जैसे द्रवता से समुद्र में तरंग फुरते हैं , तैसे ही आत्मा में संवेदन करके नेति और जगत् जो फुरते हैं सो वही रूप है-आत्मा से भिन्न कुछ नहीं | जैसे किसी ने कहा कि चन्द्रमा का प्रकाश है सो चन्द्रमा और प्रकाश में भेद नहीं, तैसे ही आत्मा और जगत् में भेद नहीं |
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01-12-2012, 03:38 PM | #785 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
यह विश्व आत्मा का स्वभाव है जैसे एक ही काल का दिन, पक्ष, बार, मास, वर्ष, युग, कल्प इत्यादिक बहुत संज्ञा हैं परन्तु काल एक ही है, तैसे ही भिन्न भिन्न जगत् के नाम हैं सो सब ब्रह्म ही है | हे रामजी! जब संवेदन चित्तरूप होती है तब प्रथम शब्द तन्मात्रा फुरती है और उससे आकाश उपजता है जिसका स्वभाव शून्यता है, फिर जब उसने स्पर्शतन्मात्रा को चेता तब उससे इसमें वायु फुरा और वायु का स्पन्दस्वभाव है | फिर रूप तन्मात्रा को चेता तब उससे अग्नि प्रकट हुई जिसका उष्ण स्वभाव है |
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01-12-2012, 03:38 PM | #786 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
फिर रसतन्मात्रा को चेता तब उससे जल प्रकट हुआ जिसका द्रव स्वभाव है | फिर गन्ध तन्मात्रा को चेता तब उससे पृथ्वी प्रकट हुई जिसका स्थिर स्वभाव है | इस प्रकार पञ्चभूत फुर आये | हे रामजी! आदि जो शब्द तन्मात्रा फुरी है सो जितने कुछ शब्दसमूह हैं उनका बीज है सब उसी से उत्पन्न हुए हैं | पदार्थ, वाक्य, वेद, शास्त्र, पुराण सब उसी से फुरे हैं इसी प्रकार पृथ्वी, अपू, तेज, वायु, आकाश इनका जो कार्य हे सो उन सबका बीज तन्मात्रा है और उस तन्मात्रा का बीज वह संवित्् सत्ता है | हे रामजी! अब इन तत्त्वों की खानि सुनो |
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01-12-2012, 03:39 PM | #787 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
पृथ्वी सो अणु भी होती है और एक और एकदला भी होती हैं सो पृथ्वी तो एक है और अणु भी वही है, तैसे ही सर्व तत्त्वों को समझ देखना | पृथ्वी की खानि भू पीठ है जो सम्पूर्ण भूतजात को धारती हैं जल की खानि समुद्र है जो सर्वपदार्थों में रसरूप होकर स्थित है, अग्नि का तेज जो प्रकाश है उसकी समष्टिता सूर्य है, सर्वस्पन्द की समष्टिता पवन है और सम्पूर्ण शून्य पदार्थों की खानि आकाश है | इस प्रकार ये पाँचो तत्त्व संकल्प से उपजे हैं | जैसे बीज से अंकुर उपजता है तैसे ही यह भूतसंकल्प से उपजे हैं | संकल्प संवेदन से फुरा है और संवेदन आत्मा का अभ्यास है जो अद्वैत, अच्युत, निर्विकल्प और सर्वदा अपने आपमें स्थित है |
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01-12-2012, 03:39 PM | #788 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
उसी के आश्रय संवेदन आभास फुरा है, फिर संवेदन से संकल्प फुरा है और संकल्प से जगत् बन गया है | जैसे समुद्र में तरंग फुरते हैं और लीन होते हैं, तैसे ही संकल्प से जगत् उपजा है और फिर संकल्प ही में लीन होता है | जैसे तरंग जलरूप है, तैसे ही पृथ्वी, जल, तेल, वायु, आकाश सब चैतन्यरूप हैं | सर्वपदार्थ जो देखने सुनने में आते हैं और नहीं आते सो सब चैतन्यरूप हैं, आत्मा से भिन्न कुछ नहीं, वही आत्मा इस प्रकार होता है | स्वप्ने में अपना अनुभव ही पदार्थ हो भासता है परन्तु कुछ बना नहीं| नाना प्रकार भासता है तो भी अनाना है तैसे ही जगत् नाना प्रकार भासता है तो भी कुछ बना नहीं |
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01-12-2012, 03:40 PM | #789 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे एक निद्रा के दो रूप है-एक स्वप्न और दूसरा सुषुप्ति-जब फुरना होता है तब स्वप्ने की सृष्टि भासती है और जब फुरना निवृत्त हो जाता है तब सुषुप्ति होती है और जैसे वायु के दो रूप हैं, जब स्पन्द होती है तब भासती है और जब निस्पन्द होती है तब नहीं भासती, तैसे ही जब संवेदन फुरती है तब जगत् भासता है और जब नहीं फुरती तब जगत् भी नहीं भासता -इसी का नाम महाप्रलय है-पर दोनों आत्मा के आभास हैं |
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01-12-2012, 03:41 PM | #790 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे रामजी! संकल्परूप ब्रह्मा ने आत्मा में आकाश; पृथ्वी, नक्षत्र चक्र इत्यादि क्रम से रचे हैं जैसे बालक अपने में संकल्प रचे, तैसे ही ब्रह्मा ने रचा है | उसने एक भूगोल रचा है जिस पर नक्षत्रचक्र रचा और उस चक्र के दो भाग किये हैं जो अन्योन्य सम्मुख स्थित हैं | जब सूर्य उसके सन्मुख होता है तब साठ घड़ी दिन और रात्रि का प्रमाण होता है | जब सूर्य उस नक्षत्रचक्र के ऊर्ध्व और उदय होता है तब दिन बड़े होते हैं और जब अधः की ओर उदय होता है तब दिन छोटे हो जाते हैं निदान ज्यों ज्यों सूर्य क्रम करके ऊर्ध्वः से अधः की ओर उदय होता है त्यों त्यों दिन छोटे होते जाते हैं और रात्रि बढ़ती जाती है और जब षट्मास के उपरान्त पौषत्रयोदशी से सूर्य क्रम करके ऊर्ध्व करके ऊर्ध्व को उदय होता है तब दिन बढ़ता जाता है
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