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Old 07-12-2013, 08:59 PM   #71
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

अट्ठारह पुराण

आइये! महर्षि वेदव्यास रचित 18 पुराणों की सूचि पर एक दृष्टि डालते हैं:

1. ब्रह्म पुराण
2. पद्म पुराण
3. विष्णु पुराण
4. शिव पुराण -- (कहीं-कहीं वायु पुराण)
5. भागवत पुराण -- (कहीं-कहीं देवीभागवत पुराण)
6. नारद पुराण
7. मार्कण्डेय पुराण
8. अग्नि पुराण
9. भविष्य पुराण
10. ब्रह्म वैवर्त पुराण
11. लिङ्ग पुराण
12. वाराह पुराण
13. स्कन्द पुराण
14. वामन पुराण
15. कूर्म पुराण
16. मत्स्य पुराण
17. गरुड़ पुराण
18. ब्रह्माण्ड पुराण

उपरोक्त सूचि में 11 नंबर पर दर्शाए गये पुराण 'लिंग पुराण' के बारे में हम कुछ जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करेंगे.
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Old 07-12-2013, 09:30 PM   #72
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लिंग पुराण

अट्ठारह पुराणों में भगवान महेश्वर की महान महिमा का बखान करनेवाला ‘लिंग पुराण’ विशिष्ट पुराण कहा गया है। भगवान शिव के ज्योर्ति लिंगों की कथा, ईशान कल्प के वृत्तान्त सर्वविसर्ग आदि दशा लक्षणों सहित वर्णित है। भगवान शिव की महिमा का बखान लिंग पुराण में 11000 श्लोकों में किया गया है। यह समस्त पुराणों में श्रेष्ठ है। वेदव्यास कृत इस पुराण में पहले योग फिर कल्प के विषय में बताया गया है।

लिंग शब्द के प्रति आधुनिक समाज में ब़ड़ी भ्रान्ति पाई जाती है। लिंग शब्द चिन्ह का प्रतीक है। भगवान् महेश्वर आदि पुरुष हैं। यह शिवलिंग उन्हीं भगवान शंकर की ज्योतिरूपा चिन्मय शक्ति का चिन्ह है। इसके उद्भव के विषय में सृष्टि के कल्याण के लिए ज्योर्तिलिंग द्वारा प्रकट होकर ब्रह्मा तथा विष्णु जैसों अनादि शक्तियों को भी आश्चर्य में डाल देने वाला घटना का वर्णन, इस पुराण के वर्ण्य विषय का एक प्रधान अंग है। फिर मुक्ति प्रदान करने वाले व्रत-योग शिवार्चन यज्ञ हवनादि का विस्तृत विवेचन प्राप्त है। यह शिव पुराण का पूरक ग्रन्थ है।

(स्रोत: विकीपीडिया)
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Old 07-12-2013, 09:33 PM   #73
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नैमिष में सूत जी की वार्ता

एक समय शिव के विविध क्षेत्रों का भ्रमण करते हुए देवर्षि नारद नैमिषारण्य में जा पहुँचे वहाँ पर ऋषियों ने उनका स्वागत अभिनन्दन करने के उपरान्त लिंगपुराण के विषय में जाननेहित जिज्ञासा व्यक्त की। नारद जी ने उन्हें अनेक अद्भुत कथायें सुनायी। उसी समय वहाँ पर सूत जी आ गये। उन्होंने नारद सहित समस्त ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने भी उनकी पूजा करके उनसे लिंग पुराण के विषय में चर्चा करने की जिज्ञासा की।

उनके विशेष आग्रह पर सूत जी बोले कि शब्द ही ब्रह्म का शरीर है और उसका प्रकाशन भी वही है। एकाध रूप में ओम् ही ब्रह्म का स्थूल, सूक्ष्म व परात्पर स्वरूप है। ऋग साम तथा यर्जुवेद तथा अर्थववेद उनमें क्रमशः मुख, जीभ, ग्रीवा तथा हृदय हैं। वही सत, रज, तम के आश्रय में आकर विष्णु, ब्रह्मा तथा महेश के रूप में व्यक्त हैं, महेश्वर उसका निर्गुण रूप है। ब्रह्मा जी ने ईशान कल्प में लिंग पुराण की रचना की। मूलतः सौ करोड़ श्लोकों के ग्रन्थ को व्यास जी ने संक्षिप्त कर के चार लाख श्लोकों में कहा। आगे चलकर उसे अट्ठारह पुराणों में बाँटा गया जिसमें लिंग पुराण का ग्यारहवाँ स्थान है।
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Old 07-12-2013, 09:36 PM   #74
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सृष्टि का आरम्भ

ब्रह्मा का एक दिन और एक रात प्राथमिक रचना का समय है दिन में सृष्टि करता है और रात में प्रलय। दिन में विश्वेदेवा, समस्त प्रजापति, ऋषिगण, स्थिर रहने और रात्रि में सभी प्रलय में समा जाते हैं। प्रातः पुनः उत्पन्न होते हैं। ब्रह्म का एक दिन कल्प है और उसी प्रकार रात्रि भी। हजार वार चर्तुयुग बीतने पर चौदह मनु होते हैं। उत्तरायण सूर्य के रहने पर देवताओं का दिन और दक्षिणायन सूर्य रहने तक उसकी रात होती है।

तीस वर्ष का एक दिव्य वर्ष कहा गया है। देवों के तीन माह मनुष्यों के सौ माह के बराबर होते हैं। इस प्रकार तीन सौ साठ मानव वर्षों का देवताओं का एक वर्ष होता है तीन हजार सौ मानव वर्षों का सप्तर्षियों का एक वर्ष होता है। सतयुग चालीस हजार दिव्य वर्षों का, त्रेता अस्सी हजार दिव्य वर्षों का, द्वापर बीस हजार दिव्य वर्षों का और कलियुग साठ हजार दिव्य वर्षों का कहा गया है। इस प्रकार हजार चतुर्युगों का एककल्प कहा जाता है। कल्पान्त में प्रलय के समय मर्हलोक के जन लोक में चले जाते हैं। ब्रह्मा के आठ हजार वर्ष का ब्रह्म युग होता है। सहस्त्र दिन का युग होता है जिसमें देवताओं की उत्पत्ति होती है। अन्त में समस्त विकार कारण में लीन हो जाते हैं। फिर शिव की आज्ञा से समस्त विकारों का संहार होता है। गुणों की समानता में प्रलय तथा विषमता में सृष्टि होती है। शिव एक ही रहता है। ब्रह्मा और विष्णु अनेक उत्पन्न हो जाते हैं। ब्रह्मा के द्वितीय परार्द्ध में दिन में सृष्टि रहती है और रात्रि में प्रलय होती है। भूः भुवः तथा महः ऊपर के लोक हैं। जड़ चेतन के लय होने पर ब्रह्मा नार (जल) में शयन करने के कारण नारायण कहते हैं। प्रातः उठने पर जल ही जल देखकर उस शून्य में सृष्टि की इच्छा करते हैं। वाराह रूप से पृथ्वी का उद्धार करके नदी नद सागर पूर्ववत स्थिर करते हैं। पृथ्वी को सम बनाकर पर्वतों को अवस्थित करते हैं। पुनः भूः आदि लोकों की सृष्टि की इच्छा उनमें जाग्रत होती है।
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Old 07-12-2013, 09:55 PM   #75
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ब्रह्मा जी के मानस पुत्र देवर्षि नारद

नारद मुनि,हिंदू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है।

देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान् का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भागवत गीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - देवर्षीणाम्चनारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र का, जिसे नारद-पाञ्चरात्र भी कहते हैं, का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।

वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात,गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य अर्थात् सिद्धियों के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृप देवर्षि कहे जाते हैं।

इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण,पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षिके रूप में केवल नारदजी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं।
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Old 07-12-2013, 11:59 PM   #76
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रोचक और ज्ञानवर्धक....!!
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Old 08-12-2013, 09:53 AM   #77
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रोचक और ज्ञानवर्धक....!!


उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आपका धन्यवाद, अरविंद शाह जी.
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Old 16-12-2013, 12:03 PM   #78
rajnish manga
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इन्द्र का घमण्ड
(प्रस्तुति: अशोक कौशिक)

इन्द्र के गर्व-मन्थन की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। उन्हीं में से एक कथा यह भी है कि इन्द्र ने एक बार अपना विशाल प्रासाद बनाने का आयोजन किया। इसके निर्माण के लिए विश्वकर्मा को नियुक्त किया गया, जिसमें पूरे सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी भवन पूर्ण न हुआ। इससे विश्वकर्मा बड़े श्रान्त रहने लगे। अन्य कोई उपाय न देख विश्वकर्मा ने ब्रह्मा जी की शरण पकड़ी।

ब्रह्मा जी को इन्द्र पर हँसी आयी और विश्वकर्मा पर दया। ब्रह्मा ने बटुक का रूप धारण किया और इन्द्र के पास जाकर पूछने लगे, ''देवेन्द्र! मैं आपके अद्भुत भवन के निर्माण की बात सुनकर यहाँ आया तो वास्तव में वैसा ही भवन देख रहा हूँ। इस भवन के निर्माण में कितने विश्वकर्माओं को आपने लगाया हुआ है?''

इन्द्र बोले, ''क्या अनर्गल बात पूछ रहे हैं आप? क्या विश्वकर्मा भी अनेक होते हैं?''

''बस देवेन्द्र! इतने प्रश्न से ही आप घबरा गये? सृष्टि कितने प्रकार की है, ब्रह्माण्ड कितने हैं, ब्रह्मा, विष्णु और महेश कितने हैं, उन-उन ब्रह्माण्डों में कितने इन्द्र और कितने विश्वकर्मा पड़े हैं, यह कौन जान सकता है? यदि कोई पृथ्वी के धूलिकणों को गिन भी सके, तो भी विश्वकर्मा अथवा इन्द्र की संख्या तो गिनी ही नहीं जा सकती। जिस प्रकार जल में नौकाएँ दीखती हैं, उसी प्रकार विष्णु के लोमकूप-रूपी सुनिर्मल जल में असंख्य ब्रह्माण्ड तैरते दीखते हैं।''

ब्राह्मण बटुक और इन्द्र में इस प्रकार का वार्तालाप चल ही रहा था कि तभी वहाँ पर दो सौ गज लम्बा-चौड़ा चींटियों का एक विशाल समुदाय दिखाई दिया। उन्हें देखते ही सहसा बटुक को हँसी आ गयी। इन्द्र को विस्मय हुआ तो उसने बटुक से पूछा, ''आपको हँसी क्यों आ गयी?''

''देवराज! मुझे हँसी इसलिए आयी कि यह जो आप चींटियों का समूह देख रहे हैं न, वे सब-की-सब कभी इन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित रह चुकी हैं। इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है, क्योंकि कर्मों की गति ही कुछ इस प्रकार की है। जो आज देवलोक में है, वह दूसरे ही क्षण कभी कीट, वृक्ष या अन्य स्थावर योनियों को प्राप्त हो सकता है।''
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Old 16-12-2013, 12:09 PM   #79
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

इन्द्र को बटुक इस प्रकार समझा ही रहे थे कि तभी काला मृग-चर्म लिये उज्ज्वल तिलक लगाये, चटाई ओढ़े, एक-ज्ञानी तथा वयोवृद्ध महात्मा वहाँ आ पहुँचे। इन्द्र ने यथासामर्थ्य उनका स्वागत-सत्कार किया। बटुक ने उनसे प्रश्न किया, ''महात्मन्! आप कहाँ से पधारे हैं? आपका शुभ नाम क्या है? आपका निवास-स्थान कहाँ है? आप किस दिशा में जा रहे हैं? आपके मस्तक पर चटाई क्यों है तथा आपके वक्षस्थल पर यह लोमचक्र कैसा है?''

आगन्तुक मुनि ने कहा, ''बटुकश्रेष्ठ! आयु का क्या ठिकाना, इसलिए मैंने कहीं घर नहीं बनाया, न विवाह ही किया और न कोई जीविका का साधन ही जुटाया। वक्षस्थल के लोमचक्रों के कारण लोग मुझे लोमश कहते हैं। वर्षा तथा धूप से बचने के लिए मैंने अपने सिर पर चटाई रख ली है। मेरे वक्षस्थल के रोम मेरी आयु-संख्या के प्रमाण हैं। जब एक इन्द्र का पतन होता है तो मेरा एक रोआँ गिर पड़ता है। यही मेरे उखड़े हुए कुछ रोमों का रहस्य भी है। ब्रह्मा के दो परार्ध बीतने पर मेरी मृत्यु कही जाती है। असंख्य ब्रह्मा मर गये और मरेंगे। ऐसी दशा में पुत्र, कलत्र या गृह लेकर मैं क्या करूँगा? भगवान की भक्ति ही सर्वोपरि, सर्व-सुखद और दुर्लभ है। यह मोक्ष से भी बढ़कर है। ऐश्वर्य तो भक्ति में रुकावट तथा स्वप्नवत् मिथ्या है।''

बटुक के प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर देकर महर्षि लोमश वहाँ से आगे चल दिये। ब्राह्मण बटुक भी वहाँ से अन्तर्धान हो गये।

यह सब देखकर इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ। उसके होश और जोश सब ठण्डे हो गये। इन्द्र ने महर्षि लोमश के कथन पर विचार किया कि जिनकी इतनी दीर्घ आयु है, वे तो घास की एक झोंपड़ी भी नहीं बनवाते, केवल चटाई से ही अपना काम चला लेते हैं। फिर मेरी ऐसी क्या आयु है, जो मैं इस विशाल भवन के चक्र में पड़ा हुआ हूँ?

फिर क्या था! इन्द्र ने विश्वकर्मा को बुलाकर उनका जितना देय था, वह सब देकर हाथ जोड़ दिये कि उनका भवन जितना और जैसा बनना था, वह बन गया है, अब उनको परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है।

न केवल इतना, अपितु इन्द्र ने वहीं से तत्काल वन के लिए प्रस्थान कर दिया, साथ में चटाई और कमण्डलु भी नहीं लिया।

इन्द्र के इस प्रकार सहसा देवलोक से विलुप्त हो जाने का समाचार गुरुदेव बृहस्पति को ज्ञात हुआ तो उन्होंने इन्द्र की खोज करवायी और उनसे कहा कि उनका इस प्रकार सहसा वन को चले जाना उचित नहीं है। उन्होंने समझाया कि सब कार्य अपने समय पर और अपने नियम के अनुसार ही होने चाहिए, भावुकता के आधार पर नहीं।

देवगुरु का उपदेश सुनकर इन्द्र को सद्बुद्धि आयी। उन्होंने लौटकर पुनः अपना राजपाट और इन्द्रासन सबकुछ सँभाल लिया और यथावसर उसको त्याग भी दिया।
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Old 16-12-2013, 01:39 PM   #80
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रावण के जन्म की कथा- 1
(प्रस्तुति: जे.के.अवधिया)

अगस्त्य मुनि ने कहना जारी रखा, "पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई और उन्हें अपने अभिप्राय से अवगत कराया। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुनकर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसे दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुनकर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।

"
इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव रखा गया। उसके पश्*चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुये। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और कुम्भकर्ण ने वर्षों तक सोते रहने का वरदान पाया।

"
फिर दशग्रीव ने लंका के राजा कुबेर को विवश किया कि वह लंका छोड़कर अपना राज्य उसे सौंप दे। अपने पिता विश्रवा के समझाने पर कुबेर ने लंका का परित्याग कर दिया और रावण अपनी सेना, भाइयों तथा सेवकों के साथ लंका में रहने लगा। लंका में जम जाने के बाद अपने बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज विद्युविह्वा के साथ कर दिया। उसने स्वयं दिति के पुत्र मय की कन्या मन्दोदरी से विवाह किया जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। विरोचनकुमार बलि की पुत्री वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ। कुछ समय पश्*चात् मन्दोदरी ने मेघनाद को जन्म दिया जो इन्द्र को परास्त कर संसार में इन्द्रजित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।


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