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Old 27-08-2013, 05:25 PM   #71
jai_bhardwaj
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ऊर्जा एवं प्रेरणादायी प्रविष्टि के लिए आभार बन्धु।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 04-09-2013, 06:27 PM   #72
jai_bhardwaj
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Default Re: कलियां और कांटे

बिसरे ज़ख्मों पर नमक जैसे मेरे प्रिय बेटे,

तुम्हारा पिछला खत पढकर यह संबोधन दिया है जिसमें तुमने घर की याद के बाबत बात पूछी है.

नितांत एकाकी क्षणों में घर की याद आ जाती है. जैसे सूप में आपने आँखें फटकते हुए, फटे हुए ढूध का खो़या खाने में नमकीन आंसू का जायका तलाशते हुए या चावल चढाने से पहले उसे चुनते हुए हुए आनाज और कंकड के फर्क पर शंकित होते हुए... फिर अपनी पत्थर होती आँखों को कोसते हुए...

अबकी साल भी आम के पेड़ में मंजर खूब आया है और सांझ ढाले उनसे कच्चे आम की खुशबु घर के याद के तरह आनी शुरू हो गयी है... अब यह कमबख्त रात भर परेशान करेगी.

तुम्हारे घरवालों ने मुझे कहाँ ब्याह दिया, हरामी ने जिंदगी खराब कर दी. ससुराल जेल की चाहरदीवारी लगती है और मैं सजायाफ्ता कैदी सी.

मैंने ना ही कोई विवादास्पद बयान दिया, कोई विद्रोही तेवर वाली किताब ही लिखी है. कोई सियासी मुजरिम हूँ जो मुझे ससुराल में नज़रबंद रखा गया है.

मैं क्यों अपने घर से निर्वासित जीवन जी रही हूँ ? कहीं यह तुम दोनों दोनों पक्षों की मिलीभगत तो नहीं ??? मर्द तो दोनों जगह कोमन ही होते हैं ना ???

टेशन से छूटने वाली गाडी में भी उतना ईंधन नहीं होगा जितना भावुक ज्वलनशील पदार्थ एक ब्याही औरत के पास होता है... फिर भी रेल है कि आगे बढ़ ही जाती है पर मैं ???

भैया अपनी जिंदगी में सो कैसा फंसा है जो बाईस साल में कभी खुशी से मिलने नहीं आया और बाबूजी ने कोई चिठ्ठी नहीं लिखी.

तुम्हारे बाप को मेरे बेटे की फिकर नहीं है; वो यह भी नहीं जानते कि इस जून में उसने इंटर पास कर लिया है पर मुझे तुम्हारी याद आती है. मेरे दुश्मन बेटे, मैं उम्मीद करूँ तुमसे कि तुम इस परम्परा को तोडेगे और बूढी होती अपनी दीदी से मिलने आओगे!

अंत में, सुना है तुम्हारे बहन की भी शादी होने वाली है, और तुम उससे बहुत प्यार करने का दंभ भी भरते हो ? तो क्या मुझे ‘जैसे को तैसा' वाली शाप देने की जरुरत है ???

लिखना

तुम्हारी अभागी दीदी
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Old 07-09-2013, 05:51 PM   #73
jai_bhardwaj
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With the first light of dawn, came the twittering of birds from the bamboo groves of a nearby village. That filled her with foreboding. She was not sure how she would relate now to the world of the living.

स्क्रिप्ट राइटर ने वर्ड पेज खोला और कुछ लिखने की कोशिश करने लगा.. स्क्रीन पर कर्सर ब्लिंक करता हुआ उसके उँगलियों की प्रतीक्षा करने लगा... कर्सर आधे सेकेण्ड प्रति मिनट की दर से गायब और प्रगट होता यों ऐसी हरकत कर रहा था जैसे उसे उकसा रहा हो कि - लिखो यार !

लेकिन ऊपर जो रवीन्द्रनाथ टैगोर का पैरा दिया है उसको आधार मानकर उसे वह आगे नहीं बढ़ा पा रहा था. घटनाओं से वो खुद को रिलेट नहीं कर पा रहा था. उसने पत्रकारिता कोर्स के दौरान टेड ह्वाईट की किताब में पढ़ रखा था कि कई बार दिमाग में खबर नहीं बनते. ऐसे में दिमाग में आते ही नहीं कि शुरुआत कैसे करें, क्या लिखना है. ऐसे में बिना कुछ सोचे-समझे कुछ लिखें और मिटा दें लय पकड़ में आ जाती है ...

स्क्रिप्ट राइटर ने भी यही किया. वह कुछ लिखता और सात से आठ शब्द टाइप करने के बाद बाद मुंह से चक्क मारकर, बैकस्पेस ले मिटने लगता... जिस की-बोर्ड पर उसकी उँगलियाँ सिध्हस्त पियानो वादक जैसी चलती, जो नुसरत फ़तेह अली खान के कव्वाली सुनकर और दुगनी रफ़्तार से भागने लगता, जिसके खट-खट से पूरा केबिन गूँज उठता और देखने वाले अगर अपने आँखों का लेंस जूम कर लें तो फर्क करना मुश्किल जाएगा कि यह उँगलियाँ स्क्रिप्ट राइटर की हैं या फुर्ती से पियानो पर भागते अदनान सामी की.

कुछ लिखना और उसे मिटा देना ऐसा कई बार होने पर लगा कि उसकी कलम कुंठित हो गयी है या फिर भाषा बड़ी दरिद्र होती है क्योंकि घटनाओं को वह वैसा शब्द नहीं दे पा रहा था जैसा उसने देखा था या लिखने का सोचा था.

स्टोरी -1
एक दब्बू लड़का एक लड़की को फूल दे रहा है और लड़के के चेहरे पर लाज भरी प्रसन्नता उसके रोम - रोम में घनीभूत होकर फैली हैं. लड़की के पैर काँप रहे हैं और वो थरथरा सी गयी है. उसने यह लिखा लेकिन पूरी तरह ऐसा नहीं हुआ था. राइटर वो लिखना चाहता था जो छूट रहा था. अतः उसने लिखा और फिर मिटा दिया.

स्टोरी -2
पार्क में एक अधेड़ उम्र का आदमी बुरी तरह थका हुआ है. वह जोर - जोर से हांफ रहा है. किसी एकांत जगह पा कर वह जोर जोर से साँस लेने लगता है. उसमें सुकून था, ऑक्सीजन तो था ही . उसकी छाती अब भी लगभग चार से पांच सेंटीमीटर तक फूल जाती है. वो पसीने में तरबतर है. - राइटर ने यह लिखा भी लेकिन फिर से एक बार उस लिखे को पढने पर लगा कि नहीं ऐसा नहीं हुआ था, यह पूरी तरह वैसा नहीं था जैसा मैंने देखा और लिखने का सोचा था.

स्टोरी -3
दरवाजे का सांकल लगा कर वो जैसे ही पलती एक और काम याद गया उसे, रात के एक बज आये थे और अब बाहर जाना निहायत बेवकूफी भरा फैसला था. फिर भी मन में काफी देर उधेड़बुन चलता रहा, एक मन कहता थक गयी है आराम कर ले, कल कर लेना. दूसरे ही पल लगता- नहीं, यह बहुत जरुरी है, करना ही होगा. उफ्फ्फ कुछ समझ नहीं आ रह क्या करें.. - राइटर ने यह लिखा लेकिन यह भी पूरी तरह वैसा नहीं था जैसा उसने देखा (कल्पना में) और लिखने का सोचा.

इससे पहले, राइटर को तब बड़ी कोफ़्त होती जब लोग या अच्छे-अच्छे लेखक भी कहते कि "मैं इतना आभारी हूँ कि इसे शब्दों में बयां नहीं कर सकता. मैं इतना भावुक हो गया की बता नहीं सकता, वो इतनी खूबसूरत है की कहा नहीं जा सकता. सोमालिया इतना गरीब देश है की बताया नहीं जा सकता.... इस पर खीझ होती कि बताओ यार, आम आदमी होते तो कोई बात नहीं थी एक लेखक होकर भी अगर शब्द नही दे पा रहे हो तो कैसी समर्थता ? योग्यता पर प्रश्न चिन्ह है यह तो ?

अब उसे लगने लगा कि वाकई हमारी भाषा ही गरीब है. हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं है. एक सीमा तक ही हमारा ज्ञान है. महज़ कुछ शब्द ज्यादा पा कर हम औरों से आगे हो लेते हैं.

इस तरह, किसी घटना, किसी स्क्रिप्ट, किसी स्टोरी से रिलेट ना करते हुए उसने इस कमी से खुद को रिलेट किया. और आज जब इस पर भी वह लिखने बैठा है तो वह यह सब मिटा देना चाहता है क्योंकि यह भी ऐसे नहीं लिखने का सोचा था. सोचा तो था कि पूरी बारीकी से लिखूंगा.. हर एक बात जो हुआ वो भी और जो ना हुआ वो भी. लेकिन असल काम के नाम पर यही शब्दों का पुलिंदा तैयार होता है हर बार.

.................................................. ....................
इधर, कर्सर अब भी ब्लिंक करता हुआ चिढ़ा रहा है.
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दिन और वक़्त तो याद नहीं लेकिन मैं बहुत छोटा था, एक बार जब पापा दाढ़ी बना रहे थे तो मेरा हाथ ब्लेड से कट गया था, पापा का वो परेशान चेहरा और माँ की वो नम आखें... जब तक मेरे चेहरे पर मुस्कराहट वापस नहीं आई थी तब तक उन्हें भी चैन नहीं आया था......

पापा के कन्धों की वो सवारी, जब मैं अपने आपको सबसे लम्बा समझने लगता था.. जैसे कोई राजसिंहासन मिल गया हो... वो ख़ुशी जो अब शायद दुनिया की सबसे महंगी कार में बैठने पर भी न मिले...

मैं कुछ ७-८ साल का रहा हूँगा, टीवी देख रहा था...मंझले भैया ने कहा टीवी क्या देख रहे हो चलो आज तुम्हें क्रिकेट खेलना सिखाता हूँ... उनका प्रयास मुझे टीवी से दूर करना था, टीवी से तो दूर हो गया लेकिन क्रिकेट का ऐसा चस्का लगा कि बस उन्ही का सिखाया हुआ खेलता आया हूँ...

बचपन में अपने बड़े भैया से काफी करीब था, उनके साथ खेले हुए वो सारे खेल याद हैं, चाहे उनके पैरों पर झूलना हो या उन्हें गुदगुदी लगाकर भाग जाना... उन्हें गुदगुदी भी तो खूब लगती थी, या ये भी हो सकता है कि मुझे खुश करने के लिए ऐसा दिखावा करते होंगे... पर जो भी था ये खेल बहुत मजेदार था....
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दुःख बड़ा ढीठ अतिथि है। यदि यह हमारे घर के लिए निकल पड़ा है तो आयेगा अवश्य। यदि हम इस अतिथि को आता हुआ देख कर घर का मुख्यद्वार बंद कर लेंगे तो यह घर के पिछले दरवाजे से आ जाएगा। यदि हमने पिछ्ला दरवाजा भी बंद कर दिया तो यह खिड़की से आ जाएगा। यदि खिड़की भी बंद कर लिया तो यह छत तोड़ कर या फिर आँगन के धरातल को फोड़ कर आ जाएगा। यह आयेगा अवश्य . . ढीठ है न। उचित यही है कि हम दुःख के स्वागत के लिए जीवन में सदैव तैयार रहें। ऐसे समय में हमें यही सोचना चाहिए कि यह कितना भी ढीठ क्यों न हो एक न एक दिन तो चला ही जाएगा।
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Old 13-11-2013, 01:09 PM   #76
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लक्ष्मी की पूजा अर्चना खूब कर लें किन्तु उस पर विश्वास कदापि न करें। ईश्वर (परम शक्ति) की पूजा अर्चना करें अथवा न करें किन्तु उस पर विश्वास अवश्य बनाये रखें। लक्ष्मी स्वभाव से चंचल है अतः आप पर उसकी कृपा अस्थिर ही रहेगी जबकि ईश्वर शांत चित्त और गम्भीर है इस लिए आप पर प्रभु की अछुण्ण कृपा बनी रहेगी।
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