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Old 10-01-2011, 04:10 PM   #71
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आये, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊँ?

‘ उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया तू भला आदमी है। ‘ लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिरज़ाजी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा होकर बोला — मैं समझ गया मालिक, हज़ूर ने इसकी हलाली नहीं की। मिरज़ाजी ने हँसकर कहा — बस-बस, तूने ख़ूब समझा। अब उठा ले और घर चल। मिरज़ाजी धर्म के इतने पाबन्द न थे। दस साल से उन्होंने नमाज़ न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहार, निर्जल; मगर लकड़हारे को इस ख़याल से जो सन्तोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया हैं उसे फीका न करना चाहते थे। लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गरदन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक-तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते। कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है; लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आकर मिरज़ा से बोले — आप उधर कहाँ जा रहे हैं हज़रत! क्या रास्ता भूल गये? मिरज़ा ने अपराधी भाव से मुस्कराकर कहा — मैंने शिकार इस ग़रीब आदमी को दे दिया। अब ज़रा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न। तंखा ने मिरज़ा को कुतूहल की दृष्टि से देखा और बोले — आप अपने होश में हैं या नहीं। ‘ कह नहीं सकता। मुझे ख़ुद नहीं मालूम। ‘ ‘ शिकार इसे क्यों दे दिया? ‘ इसीलिए कि उसे पाकर इसे जितनी ख़ुशी होगी, मुझे या आपको न होगी। ‘ तंखा खिसियाकर बोले — जाइए! सोचा था, ख़ूब कबाब उड़ायेंगे, सो आपने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया। ख़ैर, राय साहब और मेहता कुछ न कुछ लायेंगे ही। कोई ग़म नहीं। मैं इस एलेक्शन के बारे में कुछ अरज़ करना चाहता हूँ। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मरज़ी; लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी क़ीमत वसूल की जाय। मैं आपसे सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ़ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ। ख़्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट सोलहों आने उनकी तरफ़ हैं ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पबलिक पर आपका जो असर हैं इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हज़ार रुपए महज़ यह ज़ाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी ख़ातिर बैठ जाते हैं । । । नहीं मुझे अरज़ कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफ़िक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफ़ से एक मेनिफ़ेस्टो निकाल दूँगा। और उसी शाम को आप मुझसे दस हज़ार नक़द वसूल कर लीजिए। मिरज़ा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देखकर कहा — मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ। मिस्टर तंखा ने ज़रा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया।

‘ मुझ पर आप जितनी लानत चाहें भेजें; मगर रुपए पर लानत भेजकर आप अपना ही नुक़सान कर रहे हैं। ‘

‘ मैं ऐसी रक़म को हराम समझता हूँ। ‘

‘ आप शरीयत के इतने पाबन्द तो नहीं हैं। ‘

‘ लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पाबन्द होने की ज़रूरत नहीं है। ‘

‘ तो इस मुआमले में क्या आप अपना फ़ैसला तब्दील नहीं कर सकते? ‘
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Old 10-01-2011, 04:10 PM   #72
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

जी नहीं। ‘

‘ अच्छी बात हैं इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कम्पनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज़ नहीं है? आपको कम्पनी का एक हिस्सा भी न ख़रीदना पड़ेगा। आप सिर्फ़ अपना नाम दे दीजिएगा। ‘

‘ जी नहीं, मुझे यह भी मंज़ूर नहीं है। मैं कई कम्पनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चूमती थी। मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ़ के कितने सामान जमा किये जा सकते हैं; मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना ख़ुद-ग़रज़ बना देती हैं कितना ऐश-पसन्द, कितना मक्कार, कितना बेग़ैरत। ‘

वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिरज़ाजी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था। लकड़हारा हिरन को कन्धे पर रखे लपका चला जा रहा था। मिरज़ा ने भी क़दम बढ़ाया; पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गये। उन्होंने पुकारा — ज़रा सुनिए, मिरज़ाजी, आप तो भागे जा रहे हैं। मिरज़ाजी ने बिना रुके हुए जवाब दिया — वह ग़रीब बोझ लिये इतनी तेज़ी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर नहीं चल सकते? लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतारकर रख दिया था और दम लेने लगा था। मिरज़ा साहब ने आकर पूछा — थक गये, क्यों? लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा — बहुत भारी है सरकार!

‘ तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूँ। ‘

लकड़हारा हँसा। मिरज़ा डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताज़े थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हँसा। मिरज़ाजी पर जैसे चाबुक पड़ गया।

‘ तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता? ‘

लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी — सरकार आप लोग बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों ही का काम है।

‘ मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ। ‘

‘ इससे क्या होता है मालिक! ‘

मिरज़ाजी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले; मगर मुश्किल से पचास क़दम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी; पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितिलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मज़बूत किया और एक बीस क़दम और चले। कम्बख़्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। ज़रा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मज़ा आये। मशक की तरह जो फूले चलते हैं, ज़रा उसका मज़ा भी देखें; लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास क़दम में चीं बोल गये। लकड़हारे ने चुटकी ली — कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं। बहुत हलका है न? मिरज़ाजी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले — उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाये हो।

‘ कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक! ‘

‘ तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ! ‘

‘ नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों; वह चट्टान हैं उस पर उतार दीजिए। ‘
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Old 10-01-2011, 04:11 PM   #73
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

‘ मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ। ‘

‘ मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें। ‘

मिरज़ा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतारकर रख दिया। वकील साहब भी आ पहुँचे। मिरज़ा ने दाना फेंका — अब आप को भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब! वकील साहब की नज़रों में अब मिरज़ाजी का कोई महत्व न था। बोले — मुआफ़ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है।

‘ बहुत भारी नहीं हैं सच। ‘

‘ अजी रहने भी दीजिए। ‘

‘ आप अगर इसे सौ क़दम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ आप मेरे सामने जो तजवीज़ रखेंगे, उसे मंज़ूर कर लूँगा। ‘

‘ मैं इन चकमों में नहीं आता। ‘

‘ मैं चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह। आप जिस हलके से कहेंगे खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा। जिस कम्पनी का डाइरेक्टर, मेम्बर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा। बस सौ क़दम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती हैं जो मौक़ा पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों। ‘

तंखा का मन चुलबुला उठा। मिरज़ा अपने क़ौल के पक्के हैं, इसमें कोई सन्देह न था। हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आख़िर मिरज़ा इतनी दूर ले ही आये। बहुत ज़्यादा थके तो नहीं जान पड़ते; अगर इनकार करते हैं तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आख़िर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पाँच पँसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है।

‘ सौ क़दम की रही। ‘

‘ हाँ, सौ क़दम। मैं गिनता चलूँगा। ‘

‘ देखिए, निकल न जाइएगा। ‘

‘ निकल जानेवाले पर लानत भेजता हूँ। ‘

तंखा ने जूते का फ़ीता फिर से बाँधा, कोट उतारकर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुँह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हों। फिर हिरन को उठाकर गर्दन पर रखने की चेष्ठा की। दो-तीन बार ज़ोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गयी; पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गयी, हाँफ उठे और लाश को ज़मीन पर पटकनेवाले थे कि मिरज़ा ने उन्हें सहारा देकर आगे बढ़ाया। तंखा ने एक डग इस तरह उठाया जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिरज़ा ने बढ़ावा दिया — शाबाश! मेरे शेर, वाह-वाह! तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ, गर्दन टूटी जाती है।

‘ मार लिया मैदान! जीते रहो पट्ठे! ‘ तंखा दो डग और बढ़े। आँखें निकली पड़ती थीं। ‘ बस, एक बार और ज़ोर मारो दोस्त। सौ क़दम की शर्त ग़लत। पचास क़दम की ही रही। ‘

वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए, उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ, किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हज़ार तक की गोटी थी। मगर अन्त में वह शहतीर भी जवाब दे गयी। लोभी की कमर भी टूट गयी। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिये पथरीली ज़मीन पर गिर पड़े। मिरज़ा ने तुरन्त उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी।

‘ ज़ोर तो यार तुमने ख़ूब मारा; लेकिन तक़दीर के खोटे हो। ‘ तंखा ने हाँफते हुए लम्बी साँस खींचकर कहा — आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर। मिरज़ा ने हँसते हुए कहा — लेकिन भाईजान मैं भी तो इतनी दूर उठाकर लाया ही था। वकील साहब ने ख़ुशामद करनी शुरू की — मुझै तो आपकी फ़रमाइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा।
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Old 10-01-2011, 04:12 PM   #74
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‘ आपने मुआहदा कब पूरा किया। ‘

‘ कोशिश तो जान तोड़कर की। ‘

‘ इसकी सनद नहीं। ‘

लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया था और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने काँख-काँखकर दस क़दम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो गये। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूँगा। हाँ, कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुक़दमे चाहे जितने बनाओ।

एक नाला मिला, जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा-सा पाँच-छः घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के पेड़ के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने — किसने मारा बापू? कैसे मारा, कहाँ मारा, कैसे गोली लगी, कहाँ लगी, इसी को क्यों लगी, और हिरनों को क्यों न लगी? लकड़हारा हूँ-हाँ करता इमली के नीचे पहुँचा और हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्ठा करने लगे। सबसे छोटे बालक ने कहा — यह हमारा है।

उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पन्द्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देखकर छोटे भाई को डाँटा — चुप, नहीं सिपाई पकड़ ले जायगा।

मिरज़ा ने लड़के को छेड़ा — तुम्हारा नहीं हमारा है।

बालक ने हिरन पर बैठकर अपना क़ब्ज़ा सिद्ध कर दिया और बोला — बापू तो लाये हैं। बहन ने सिखाया — कह दे भैया, तुम्हारा है।

इन बच्चों की माँ बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ रही थी। दो नये भले आदमियों को देखकर उसने ज़रा-सा घूँघट निकाल लिया और शर्मायी कि उसकी साड़ी कितनी मैली, कितनी फटी, कितनी उटंगी है। वह इस वेष में मेहमानों के सामने कैसे जाय? और गये बिना काम नहीं चलता। पानी-वानी देना है। अभी दोपहर होने में कुछ कसर थी; लेकिन मिरज़ा साहब ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का निश्चय किया। गाँव के आदमियों को जमा किया। शराब मँगवायी, शिकार पका, समीप के बाज़ार से घी और मैदा मँगाया और सारे गाँव को भोज दिया। छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ायी। मर्दों ने ख़ूब शराब पी और मस्त होकर शाम तक गाते रहे। और मिरज़ाजी बालकों के साथ बालक, शराबियों के साथ शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी देर में सारे गाँव से उनका इतना घनिष्ट परिचय हो गया था, मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उनपर लदे पड़ते थे। कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफ़ल कन्धे पर रखकर अकड़ता हुआ चलता था, कोई उनकी क़लाई की घड़ी खोलकर अपनी क़लाई पर बाँध लेता था। मिरज़ा ने ख़ुद ख़ूब देशी शराब पी और झूम-झूमकर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे। जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहाँ से बिदा हुए तो गाँव-भर के नर-नारी इन्हें बड़ी दूर तक पहुँचाने आये। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन ग़रीबों के जीवन में शायद पहली ही बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। ज़रूर यह कोई राजा हैं नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे! कुछ दूर चलने के बाद मिरज़ा ने पीछे फिरकर देखा और बोले — बेचारे कितने ख़ुश थे। काश मेरी ज़िन्दगी में ऐसे मौक़े रोज़ आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था।

तंखा ने बेरुखी के साथ कहा — आपके लिए मुबारक होगा, मेरे लिए तो मनहूस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन-भर जँगलों और पहाड़ों की ख़ाक छानने के बाद अपना-सा मुँह लिये लौट जाते हैं।

मिरज़ा ने निर्दयता से कहा — मुझे आपके साथ हमदर्दी नहीं है।

दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुँचे, तो दोनों टोलियाँ लौट चुकी थीं। मेहता मुँह लटकाये हुए थे। मालती विमन-सी अलग बैठी थी, जो नयी बात थी। राय साहब और खन्ना दोनों भूखे रह गये थे और किसी के मुँह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दुखी थे कि मिरज़ा ने उनके साथ बेवफ़ाई की। अकेले मिरज़ा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी।

जब से होरी के घर में गाय आ गयी है, घर की श्री ही कुछ और हो गयी है। धनिया का घमंड तो उसके सँभाल से बाहर हो-हो जाता है। जब देखो गाय की चर्चा। भूसा छिज गया था। ऊख में थोड़ी-सी चरी बो दी गयी थी। उसी की कुट्टी काटकर जानवरों को खिलाना पड़ता था। आँखें आकाश की ओर लगी रहती थीं कि कब पानी बरसे और घास निकले। आधा आसाढ़ बीत गया और वर्षा न हुई। सहसा एक दिन बादल उठे और आसाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा। किसान ख़रीफ़ बोने के लिए हल ले-लेकर निकले कि राय साहब के कारकुन ने कहला भेजा, जब तक बाक़ी न चुक जायगी किसी को खेत में हल न ले जाने दिया जायगा। किसानों पर जैसे वज्रापात हो गया। और कभी तो इतनी कड़ाई न होती थी, अबकी यह कैसा हुक्म। कोई गाँव छोड़कर भागा थोड़ा ही जाता है; अगर खेती में हल न चले, तो रुपए कहाँ से आ जायेंगे। निकालेंगे तो खेत ही से। सब मिलकर कारकुन के पास जाकर रोये। कारकुन का नाम था पण्डित नोखेराम। आदमी बुरे न थे; मगर मालिक का हुक्म था। उसे कैसे टालें। अभी उस दिन राय साहब ने होरी से कैसी दया और धर्म की बातें की थीं और आज आसामियों पर यह ज़ुल्म। होरी मालिक के पास जाने को तैयार हुआ; लेकिन फिर सोचा, उन्होंने कारकुन को एक बार जो हुक्म दे दिया, उसे क्यों टालने लगे। वह अगुवा बनकर क्यों बुरा बने। जब और कोई कुछ नहीं बोलता, तो यही आग में क्यों कूदे। जो सब के सिर पड़ेगी, वह भी झेल लेगा। किसानों में खलबली मची हुई थी। सभी गाँव के महाजनों के पास रुपए के लिए दौड़े। गाँव में मँगरू साह की आजकल चढ़ी हुई थी। इस साल सन में उसे अच्छा फ़ायदा हुआ था। गेहूँ और अलसी में भी उसने कुछ कम नहीं कमाया था। पण्डित दातादीन और दुलारी सहुआइन भी लेन-देन करती थीं। सबसे बड़े महाजन थे झिंगुरीसिंह। वह शहर के एक बड़े महाजन के एजेंट थे। उनके नीचे कई आदमी और थे, जो आस-पास के देहातों में घूम-घूमकर लेन-देन करते थे। इनके उपरान्त और भी कई
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छोटे-मोटे महाजन थे, जो दो आने रुपये ब्याज पर बिना लिखा-पढ़ी के रुपए देते थे। गाँववालों को लेन-देन का कुछ ऐसा शौक़ था कि जिसके पास दस-बीस रुपए जमा हो जाते, वही महाजन बन बैठता था। एक समय होरी ने भी महाजनी की थी। उसी का यह प्रभाव था कि लोग अभी तक यही समझते थे कि होरी के पास दबे हुए रुपए हैं। आख़िर वह धन गया कहाँ। बँटवारे में निकला नहीं, होरी ने कोई तीर्थ, व्रत, भोज किया नहीं; गया तो कहाँ गया। जूते जाने पर भी उनके घट्ठे बने रहते हैं। किसी ने किसी देवता को सीधा किया, किसी ने किसी को। किसी ने आना रुपया ब्याज देना स्वीकार किया, किसी ने दो आना। होरी में आत्म-सम्मान का सर्वथा लोप न हुआ था। जिन लोगों के रुपए उस पर बाक़ी थे उनके पास कौन मुँह लेकर जाय। झिंगुरीसिंह के सिवा उसे और कोई न सूझा। वह पक्का काग़ज़ लिखाते थे, नज़राना अलग लेते थे, दस्तूरी अलग, स्टाम्प की लिखाई अलग। उस पर एक साल का ब्याज पेशगी काटकर रुपया देते थे। पचीस रुपए का काग़ज़ लिखा, तो मुश्किल से सत्रह रुपए हाथ लगते थे; मगर इस गाढ़े समय में और क्या किया जाय? राय साहब की ज़बरदस्ती है, नहीं इस समय किसी के सामने क्यों हाथ फैलाना पड़ता। झिंगुरीसिंह बैठे दातून कर रहे थे। नाटे, मोटे, खल्वाट, काले, लम्बी नाक और बड़ी-बड़ी मूछोंवाले आदमी थे, बिलकुल विदूषक-जैसे। और थे भी बड़े हँसोड़। इस गाँव को अपनी ससुराल बनाकर मदों से साले या ससुर और औरतों से साली या सलहज का नाता जोड़ लिया था। रास्ते में लड़के उन्हें चिढ़ाते — पण्डितजी पाल्लगी! और झिंगुरीसिंह उन्हें चटपट आशीर्वाद देते — तुम्हारी आँखें फूटे, घुटना टूटे, मिरगी आये, घर में आग लग जाय आदि। लड़के इस आशीर्वाद से कभी न अघाते थे; मगर लेन-देन में बड़े कठोर थे। सूद की एक पाई न छोड़ते थे और वादे पर बिना रुपए लिये द्वार से न टलते थे। होरी ने सलाम करके अपनी विपत्ति-कथा सुनायी। झिंगुरीसिंह ने मुस्कराकर कहा — वह सब पुराना रुपया क्या कर डाला?

‘पुराने रुपए होते ठाकुर, तो महाजनी से अपना गला न छुड़ा लेता, कि सूद भरते किसी को अच्छा लगता है। ‘

‘गड़े रुपए न निकलें चाहे सूद कितना ही देना पड़े। तुम लोगों की यही नीति है। ‘

‘कहाँ के गड़े रुपए बाबू साहब, खाने को तो होता नहीं। लड़का जवान हो गया; ब्याह का कहीं ठिकाना नहीं। बड़ी लड़की भी ब्याहने जोग हो गयी। रुपए होते, तो किस दिन के लिए गाड़ रखते। ‘

झिंगुरीसिंह ने जब से उसके द्वार पर गाय देखी थी, उस पर दाँत लगाये हुए गाय का डील-डौल और गठन कह रहा था कि उसमें पाँच सेर से कम दूध नहीं है। मन में सोच लिया था, होरी को किसी अरदब में डालकर गाय को उड़ा लेना चाहिए। आज वह अवसर आ गया। बोले — अच्छा भाई, तुम्हारे पास कुछ नहीं है, अब राज़ी हुए। जितने रुपए चाहो, ले जाओ लेकिन तुम्हारे भले के लिए कहते हैं, कुछ गहने-गाठे हों, तो गिरो रखकर रुपए ले लो। इसटाम लिखोगे, तो सूद बढ़ेगा और झमेले में पड़ जाओगे। होरी ने क़सम खाई कि घर में गहने के नाम कच्चा सूत भी नहीं है। धनिया के हाथों में कड़े हैं, वह भी गिलट के। झिंगुरीसिंह ने सहानुभूति का रंग मुँह पर पोतकर कहा — तो एक बात करो, यह नयी गाय जो लाये हो, इसे हमारे हाथ बेच दो। सूद इसटाम सब झगड़ों से बच जाओ; चार आदमी जो दाम कहें, वह हमसे ले लो। हम जानते हैं, तुम उसे अपने शौक़ से लाये हो और बेचना नहीं चाहते; लेकिन यह संकट तो टालना ही पड़ेगा। होरी पहले तो इस प्रस्ताव पर हँसा, उस पर शान्त मनसे विचार भी न करना चाहता था; लेकिन ठाकुर ने ऊँच-नीच सुझाया, महाजनी के हथकंडों का ऐसा भीषण रूप दिखाया कि उसके मन में भी यह बात बैठ गयी। ठाकुर ठीक ही तो कहते हैं, जब हाथ में रुपए आ जायँ, गाय ले लेना। तीस रुपए का कागद लिखने पर कहीं पचीस रुपए मिलेंगे और तीन चार साल तक न दिये गये, तो पूरे सौ हो जायँगे। पहले का अनुभव यही बता रहा था कि क़रज़ वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता। बोला — मैं घर जाकर सबसे सलाह कर लूँ, तो बताऊँ।

‘सलाह नहीं करना है, उनसे कह देना है कि रुपए उधार लेने में अपनी बबार्दी के सिवा और कुछ नहीं। ‘

‘मैं समझ रहा हूँ ठाकुर, अभी आके जवाब देता हूँ। ‘
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लेकिन घर आकर उसने ज्योंही वह प्रस्ताव किया कि कुहराम मच गया। धनिया तो कम चिल्लाई, दोनों लड़कियों ने तो दुनिया सिर पर उठा ली। नहीं देते अपनी गाय, रुपए जहाँ से चाहो लाओ। सोना ने तो यहाँ तक कह डाला, इससे तो कहीं अच्छा है, मुझे बेच डालो। गाय से कुछ बेसी ही मिल जायगा, दोनों लड़कियाँ सचमुच गाय पर जान देती थीं। रूपा तो उसके गले से लिपट जाती थी और बिना उसे खिलाये कौर मुँह में न डालती थी। गाय कितने प्यार से उसका हाथ चाटती थी, कितनी स्नेहभरी आँखों से उसे देखती थी। उसका बछड़ा कितना सुन्दर होगा। अभी से उसका नाम-करण हो गया था — मटरू। वह उसे अपने साथ लेकर सोयेगी। इस गाय के पीछे दोनों बहनों में कई बार लड़ाइयाँ हो चुकी थीं। सोना कहती, मुझे ज़्यादा चाहती है, रूपा कहती, मुझे। इसका निर्णय अभी तक न हो सका था। और दोनों दावे क़ायम थे। मगर होरी ने आगा-पीछा सुझाकर आख़िर धनिया को किसी तरह राज़ी कर लिया। एक मित्र से गाय उधार लेकर बेच देना भी बहुत ही वैसी बात है; लेकिन बिपत में तो आदमी का धरम तक चला जाता है, यह कौन-सी बड़ी बात है। ऐसा न हो, तो लोग बिपत से इतना डरें क्यों। गोबर ने भी विशेष आपित्त न की। वह आजकल दूसरी ही धुन में मस्त था। यह तै किया गया कि जब दोनों लड़कियाँ रात को सो जायँ, तो गाय झिंगुरीसिंह के पास पहुँचा दी जाय। दिन किसी तरह कट गया। साँझ हुई। दोनों लड़कियाँ आठ बजते-बजते खा-पीकर सो गयीं। गोबर इस करुण दृश्य से भागकर कहीं चला गया था। वह गाय को जाते कैसे देख सकेगा? अपने आँसुओं को कैसे रोक सकेगा? होरी भी ऊपर ही से कठोर बना हुआ था। मन उसका चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल नहीं, जो इस वक़्त उसे पचीस रुपए उधार दे-दे, चाहे फिर पचास रुपए ही ले-ले। वह गाय के सामने जाकर खड़ा हुआ तो उसे ऐसा जान पड़ा कि उसकी काली-काली सजीव आँखों में आँसू भरे हुए हैं और वह कह रही है — क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी इसे न बेचूँगा। यही वचन था तुम्हारा! मैंने तो तुमसे कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दिया, वही खाकर सन्तुष्ट हो गयी। बोलो। धनिया ने कहा — लड़कियाँ तो सो गयीं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते। जब बेचना ही है, तो अभी बेच दो। होरी ने काँपते हुए स्वर में कहा — मेरा तो हाथ नहीं उठता धनिया! उसका मुँह नहीं देखती? रहने दो, रुपए सूद पर ले लूँगा। भगवान् ने चाहा तो सब अदा हो जायँगे। तीन-चार सौ होते ही क्या हैं। एक बार ऊख लग जाय। धनिया ने गर्व-भरे प्रेम से उसकी ओर देखा — और क्या! इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आयी। उसे भी बेच दो। ले लो कल रुपए। जैसे और सब चुकाये जायँगे वैसे इसे भी चुका देंगे। भीतर बड़ी उमस हो रही थी। हवा बन्द थी। एक पत्ती न हिलती थी। बादल छाये हुए थे; पर वर्षा के लक्षण न थे। होरी ने गाय को बाहर बाँध दिया। धनिया ने टोका भी, कहाँ लिये जाते हो? पर होरी ने सुना नहीं, बोला — बाहर हवा में बाँधे देता हूँ। आराम से रहेगी। उसके भी तो जान है। गाय बाँधकर वह अपने मँझले भाई शोभा को देखने गया। शोभा को इधर कई महीने से दमे का आरजा हो गया था। दवा-दारू की जुगत नहीं। खाने-पीने का प्रबन्ध नहीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर; इसलिए उसकी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। शोभा सहनशील आदमी था, लड़ाई-झगड़े से कोसों भागनेवाला। किसी से मतलब नहीं। अपने काम से काम। होरी उसे चाहता था। और वह भी होरी का अदब करता था। दोनों में रुपए-पैसे की बातें होने लगीं। राय साहब का यह नया फ़रमान आलोचनाओं का केन्द्र बना हुआ था। कोई ग्यारह बजते-बजते होरी लौटा और भीतर जा रहा था कि उसे भास हुआ, जैसे गाय के पास कोई आदमी खड़ा है। पूछा — कौन खड़ा है वहाँ? हीरा बोला — मैं हूँ दादा, तुम्हारे कौड़े में आग लेने आया था। हीरा उसके कौड़े में आग लेने आया है, इस ज़रा-सी बात में होरी को भाई की आत्मीयता का परिचय मिला। गाँव में और भी तो कौड़े हैं। कहीं से आग मिल सकती थी। हीरा उसके कौड़े में आग ले रहा है, तो अपना ही समझकर तो। सारा गाँव इस कौड़े में आग लेने आता था। गाँव से सबसे सम्पन्न यही कौड़ा था; मगर हीरा का आना दूसरी बात थी। और उस दिन की लड़ाई के बाद! हीरा के मन में कपट नहीं रहता। ग़ुस्सैल है; लेकिन दिल का साफ़। उसने स्नेह भरे स्वर में पूछा — तमाखू है कि ला दूँ?

‘ नहीं, तमाखू तो है दादा!

‘ सोभा तो आज बहुत बेहाल है। ‘

‘ कोई दवाई नहीं खाता, तो क्या किया जाय। उसके लेखे तो सारे बैद, डाक्टर, हकीम अनाड़ी हैं। भगवान् के पास जितनी अक्कल थी, वह उसके और उसकी घरवाली के हिस्से पड़ गयी। ‘

होरी ने चिन्ता से कहा — यही तो बुराई है उसमें। अपने सामने किसी को गिनता ही नहीं। और चिढ़ने तो बिमारी में सभी हो जाते हैं। तुम्हें याद है कि नहीं, जब तुम्हें इफ़िंजा हो गया था, तो दवाई उठाकर फेंक देते थे। मैं तुम्हारे दोनों हाथ पकड़ता था, तब तुम्हारी भाभी तुम्हारे मुँह में दवाई डालती थीं। उस पर तुम उसे हज़ारों गालियाँ देते थे।

‘ हाँ दादा, भला वह बात भूल सकता हूँ। तुमने इतना न किया होता, तो तुमसे लड़ने के लिए कैसे बचा रहता। ‘ होरी को ऐसा मालूम हुआ कि हीरा का स्वर भारी हो गया है। उसका गला भी भर आया।

‘ बेटा, लड़ाई-झगड़ा तो ज़िन्दगी का धरम है। इससे जो अपने हैं, वह पराये थोड़े ही हो जाते हैं। जब घर में चार आदमी रहते हैं, तभी तो लड़ाई-झगड़े भी होते हैं। जिसके कोई है ही नहीं, उसके कौन लड़ाई करेगा। ‘
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Old 10-01-2011, 04:14 PM   #77
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दोनों ने साथ चिलम पी। तब हीरा अपने घर गया, होरी अन्दर भोजन करने चला। धनिया रोष से बोली — देखी अपने सपूत की लीला? इतनी रात हो गयी और अभी उसे अपने सैल से छुट्टी नहीं मिली। मैं सब जानती हूँ। मुझको सारा पता मिल गया है। भोला की वह राँड़ लड़की नहीं है, झुनिया! उसी के फेर में पड़ा रहता है। होरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी, पर उसे विश्वास न आया था। गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने। बोला — किसने कहा तुमसे? धनिया प्रचंड हो गयी — तुमसे छिपी होगी, और तो सभी जगह चर्चा चल रही है। यह भुग्गा, वह बहत्तर घाट का पानी पिये हुए। इसे उँगलियों पर नचा रही है, और यह समझता है, वह इस पर जान देती है। तुम उसे समझा दो नहीं कोई ऐसी-वैसी बात हो गयी, तो कहीं के न रहोगे। होरी का दिल उमंग पर था। चुहल की सूझी — झुनिया देखने-सुनने में तो बुरी नहीं है। उसी से कर ले सगाई। ऐसी सस्ती मेहरिया और कहाँ मिली जाती है। धनिया को यह चुहल तीर-सा लगा — झुनिया इस घर में आये, तो मुँह झुलस दूँ राँड़ का। गोबर की चहेती है, तो उसे लेकर जहाँ चाहे रहे।

‘ और जो गोबर इसी घर में लाये? ‘ तो यह दोनों लड़कियाँ किसके गले बाँधोगे? फिर बिरादरी में तुम्हें कौन पूछेगा, कोई द्वार पर खड़ा तक तो होगा नहीं। ‘

‘ उसे इसकी क्या परवाह। ‘

‘ इस तरह नहीं छोड़ूँगी लाला को। मर-मर के पाला है और झुनिया आकर राज करेगी। मुँह में आग लगा दूँगी राँड़ के। ‘

सहसा गोबर आकर घबड़ाई हुई आवाज़ में बोला — दादा, सुन्दरिया को क्या हो गया? क्या काले नाग ने छू लिया? वह तो पड़ी तड़प रही है। होरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़कर बाहर निकल आया और बोला — क्या असगुन मुँह से निकालते हो। अभी तो मैं देखे आ रहा हूँ। लेटी थी। तीनों बाहर गये। चिराग़ लेकर देखा। सुन्दरिया के मुँह से फिचकुर निकल रहा था। आँखें पथरा गयी थीं, पेट फूल गया था और चारों पाँव फैल गये थे। धनिया सिर पीटने लगी। होरी पण्डित दातादीन के पास दौड़ा। गाँव में पशु-चिकित्सक के वही आचार्य थे। पण्डितजी सोने जा रहे थे। दौड़े हुए आये। दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो गया। गाय को किसी ने कुछ खिला दिया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ़ विष दिया गया है; लेकिन गाँव में कौन ऐसा मुद्दई है, जिसने विष दिया हो; ऐसी वारदात तो इस गाँव में कभी हुई नहीं; लेकिन बाहर का कौन आदमी गाँव में आया। होरी की किसी से दुश्मनी भी न थी कि उस पर सन्देह किया जाय। हीरा से कुछ कहा-सुनी हुई थी; मगर वह भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे जयादा दुखी तो हीरा ही था। धमकियाँ दे रहा था कि जिसने यह हत्यारों का काम किया है, उसे पाय तो ख़ून पी जाय। वह लाख ग़ुस्सैल हो; पर इतना नीच काम नहीं कर सकता। आधी रात तक जमघट रहा। सभी होरी के दुःख में दुखी थे और बधिक को गालियाँ देते थे। वह इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न थी। जब यह हाल है तो कोई जानवरों को बाहर कैसे बाँधेगा। अभी तक रात-बिरात सभी जानवर बाहर पड़े रहते थे। किसी तरह की चिन्ता न थी; लेकिन अब तो एक नयी विपित्त आ खड़ी हुई थी। क्या गाय थी कि बस देखता रहे। पूजने जोग। पाँच सेर से दूध कम न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा होता। आते देर न हुई और यह वज्रा गिर पड़ा। जब सब लोग अपने-अपने घर चले गये, तो धनिया होरी को कोसने लगी — तुम्हें कोई लाख समझाये, करोगे अपने मन की। तुम गाय खोलकर आँगन से चले, तब तक मैं जूझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं, न जाने कब क्या हो जाय; लेकिन नहीं, उसे गमीर् लग रही है। अब तो ख़ूब ठंडी हो गयी और तुम्हारा कलेजा भी ठंडा हो गया। ठाकुर माँगते थे; दे दिया होता, तो एक बोझ सिर से उतर जाता और निहोरा का निहोरा होता; मगर यह तमाचा कैसे पड़ता। कोई बुरी बात होनेवाली होती है तो मति पहले ही हर जाती है। इतने दिन मज़े से घर में बँधती रही; न गमीर् लगी, न जूड़ी आयी। इतनी जल्दी सबको पहचान गयी थी कि मालूम ही न होता था कि बाहर से आयी है। बच्चे उसके सींगों से खेलते रहते थे। सिर तक न हिलाती थी। जो कुछ नाद में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ़ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती। सोना और रूपा भी यह हलचल सुनकर जग गयी थीं और
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बिलख-बिलखकर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संगिनी हो गयी थी। दोनों खाकर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से खिलातीं। कैसा जीभ निकालकर खा लेती थी, और जब तक उनके हाथ का कौर न पा लेती, खड़ी ताकती रहती। भाग्य फूट गये! सोना और गोबर और दोनों लड़कियाँ रो-धोकर सो गयी थीं। होरी भी लेटा। धनिया उसके सिरहाने पानी का लोटा रखने आयी तो होरी ने धीरे से कहा — तेरे पेट में बात पचती नहीं; कुछ सुन पायेगी, तो गाँव भर में ढिंढोरा पीटती फिरेगी। धनिया ने आपत्ति की — भला सुनूँ; मैंने कौन-सी बात पीट दी कि यों नाम बदनाम कर दिया।

‘ अच्छा तेरा सन्देह किसी पर होता है। ‘

‘ मेरा सन्देह तो किसी पर नहीं है। कोई बाहरी आदमी था। ‘

‘ किसी से कहेगी तो नहीं? ‘

‘ कहूँगी नहीं, तो गाँववाले मुझे गहने कैसे गढ़वा देंगे। ‘

‘ अगर किसी से कहा, तो मार ही डालूँगा। ‘

‘ मुझे मारकर सुखी न रहोगे। अब दूसरी मेहरिया नहीं मिली जाती। जब तक हूँ, तुम्हारा घर सँभाले हुए हूँ। जिस दिन मर जाऊँगी, सिर पर हाथ धरकर रोओगे। अभी मुझमें सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं, तब आँखों से आँसू निकलेंगे। ‘

‘ मेरा सन्देह हीरा पर होता है। ‘

‘ झूठ, बिलकुल झूठ! हीरा इतना नीच नहीं है। वह मुँह का ही ख़राब है। ‘

‘ मैंने अपनी आँखों देखा। सच, तेरे सिर की सौंह। ‘

‘ तुमने अपनी आँखों देखा! कब? ‘

‘ वही, मैं सोभा को देखकर आया; तो वह सुन्दरिया की नाँद के पास खड़ा था। मैंने पूछा — कौन है, तो बोला, मैं हूँ हीरा, कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी देर मुझसे बातें करता रहा। मुझे चिलम पिलायी। वह उधर गया, मैं भीतर आया और वही गोबर ने पुकार मचायी। मालूम होता है, मैं गाय बाँधकर सोभा के घर गया हूँ, और इसने इधर आकर कुछ खिला दिया है। साइत फिर यह देखने आया था कि मरी या नहीं। धनिया ने लम्बी साँस लेकर कहा — इस तरह के होते हैं भाई, जिन्हें भाई का गला काटने में भी हिचक नहीं होती। उफ़्फ़ोह। हीरा मन का इतना काला है! और दाढ़ीजार को मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया।

‘ अच्छा जा सो रह, मगर किसी से भूलकर भी ज़िकर न करना। ‘

‘ कौन, सबेरा होते ही लाला को थाने न पहुँचाऊँ, तो अपने असल बाप की नहीं। यह हत्यारा भाई कहने जोग है! यही भाई का काम है! वह बैरी है, पक्का बैरी और बैरी को मारने में पाप नहीं, छोड़ने में पाप है। ‘

होरी ने धमकी दी — मैं कहे देता हूँ धनिया, अनर्थ हो जायगा। धनिया आवेश में बोली — अनर्थ नहीं, अनर्थ का बाप हो जाय। मैं बिना लाला को बड़े घर भिजवाये मानूँगी नहीं। तीन साल चक्की पिसवाऊँगी, तीन साल। वहाँ से छूटेंगे, तो हत्या लगेगी। तीरथ करना पड़ेगा। भोज देना पड़ेगा। इस धोखे में न रहें लाला! और गवाही दिलाऊँगी तुमसे, बेटे के सिर पर हाथ रखकर। उसने भीतर जाकर किवाड़ बन्द कर लिये और होरी बाहर अपने को कोसता पड़ा रहा। जब स्वयम् उसके पेट में बात न पची, तो धनिया के पेट में क्या पचेगी। अब यह चुड़ैल माननेवाली नहीं! ज़िद पर आ जाती है, तो किसी की सुनती ही नहीं। आज उसने अपने जीवन में सबसे बड़ी भूल की। चारों ओर नीरव अन्धकार छाया हुआ था। दोनों बैलों के गले की घण्टियाँ कभी-कभी बज उठती थीं। दस क़दम पर मृतक गाय पड़ी हुई थी और होरी घोर पश्चात्ताप में करवटें बदल रहा था। अन्धकार में प्रकाश की रेखा कहीं नज़र न आती थी।

प्रातःकाल होरी के घर में एक पूरा हंगामा हो गया। होरी धनिया को मार रहा था। धनिया उसे गालियाँ दे रही थी। दोनों लड़कियाँ बाप के पाँवों से लिपटी चिल्ला रही थीं और गोबर माँ को बचा रहा था। बार-बार होरी का हाथ पकड़कर पीछे ढकेल देता; पर ज्योंही धनिया के मुँह से कोई गाली निकल जाती, होरी अपने हाथ छुड़ाकर उसे दो-चार घूँसे और लात जमा देता। उसका बूढ़ा क्रोध जैसे किसी गुप्त संचित शक्ति को निकाल लाया हो। सारे गाँव में हलचल पड़ गयी। लोग समझाने के बहाने तमाशा देखने आ पहुँचे। शोभा लाठी टेकता खड़ा हुआ। दातादीन ने डाँटा — यह क्या है होरी, तुम बावले हो गये हो क्या? कोई इस तरह घर की लक्ष्मी पर हाथ छोड़ता है! तुम्हें यह रोग न था। क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग गयी।
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Old 10-01-2011, 04:15 PM   #79
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होरी ने पालागन करके कहा — महाराज, तुम इस बखत न बोलो। मैं आज इसकी बान छुड़ाकर तब दम लूँगा। मैं जितना ही तरह देता हूँ, उतना ही यह सिर चढ़ती जाती है।

धनिया सजल क्रोध में बोली — महाराज तुम गवाह रहना। मैं आज इसे और इसके हत्यारे भाई को जेहल भेजवाकर तब पानी पिऊँगी। इसके भाई ने गाय को माहुर खिलाकर मार डाला। अब जो मैं थाने में रपट लिखाने जा रही हूँ तो यह हत्यारा मुझे मारता है। इसके पीछे अपनी ज़िन्दगी चौपट कर दी, उसका यह इनाम दे रहा है।

होरी ने दाँत पीसकर और आँखें निकालकर कहा — फिर वही बात मुँह से निकाली। तूने देखा था हीरा को माहुर खिलाते?

‘ तू क़सम खा जा कि तूने हीरा को गाय की नाँद के पास खड़े नहीं देखा? ‘

‘ हाँ, मैंने नहीं देखा, क़सम खाता हूँ। ‘

‘ बेटे के माथे पर हाथ रख के क़सम खा! ‘

होरी ने गोबर के माथे पर काँपता हुआ हाथ रखकर काँपते हुए स्वर में कहा — मैं बेटे की क़सम खाता हूँ कि मैंने हीरा को नाँद के पास नहीं देखा। धनिया ने ज़मीन पर थूक कर कहा — थुड़ी है। तेरी झुठाई पर। तूने ख़ुद मुझसे कहा कि हीरा चोरों की तरह नाँद के पास खड़ा था। और अब भाई के पक्ष में झूठ बोलता है। थुड़ी है! अगर मेरे बेटे का बाल भी बाँका हुआ, तो घर में आग लगा दूँगी। सारी गृहस्थी में आग लगा दूँगी। भगवान्, आदमी मुँह से बात कहकर इतनी बेसरमी से मुकुर जाता है।

होरी पाँव पटककर बोला — धनिया, ग़ुस्सा मत दिखा, नहीं बुरा होगा।

‘ मार तो रहा है, और मार ले। जा, तू अपने बाप का बेटा होगा तो आज मुझे मारकर तब पानी पियेगा। पापी ने मारते-मारते मेरा भुरकस निकाल लिया, फिर भी इसका जी नहीं भरा। मुझे मारकर समझता है मैं बड़ा वीर हूँ। भाइयों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है, पापी कहीं का, हत्यारा! ‘

फिर वह बैन कहकर रोने लगी — इस घर में आकर उसने क्या नहीं झेला, किस किस तरह पेट-तन नहीं काटा, किस तरह एक-एक लत्ते को तरसी, किस तरह एक-एक पैसा प्राणों की तरह संचा, किस तरह घर-भर को खिलाकर आप पानी पीकर सो रही। और आज उन सारे बलिदानों का यह पुरस्कार! भगवान् बैठे यह अन्याय देख रहे हैं और उसकी रक्षा को नहीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की रक्षा करने बैकुंठ से दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोये हुए हैं।

जनमत धीरे-धीरे धनिया की ओर आने लगा। इसमें अब किसी को सन्देह नहीं रहा कि हीरा ने ही गाय को ज़हर दिया। होरी ने बिलकुल झूठी क़सम खाई है, इसका भी लोगों को विश्वास हो गया। गोबर को भी बाप की इस झूठी क़सम और उसके फलस्वरूप आनेवाली विपित्त की शंका ने होरी के विरुद्ध कर दिया। उस पर जो दातादीन ने डाँट बतायी, तो होरी परास्त हो गया। चुपके से बाहर चला गया, सत्य ने विजय पायी। दातादीन ने शोभा से पूछा — तुम कुछ जानते हो शोभा, क्या बात हुई?

शोभा ज़मीन पर लेटा हुआ बोला — मैं तो महाराज, आठ दिन से बाहर नहीं निकला। होरी दादा कभी-कभी जाकर कुछ दे आते हैं, उसी से काम चलता है। रात भी वह मेरे पास गये थे। किसने क्या किया, मैं कुछ नहीं जानता। हाँ, कल साँझ को हीरा मेरे घर खुरपी माँगने गया था। कहता था, एक जड़ी खोदना है। फिर तब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई।

धनिया इतनी शह पाकर बोली — पण्डित दादा, वह उसी का काम है। सोभा के घर से खुरपी माँगकर लाया और कोई जड़ी खोदकर गाय को खिला दी। उस रात को जो झगड़ा हुआ था, उसी दिन से वह खार खाये बैठा था।

दातादीन बोले — यह बात साबित हो गयी, तो उसे हत्या लगेगी। पुलिस कुछ करे या न करे, धरम तो बिना दंड दिये न रहेगा। चली तो जा रुपिया, हीरा को बुला ला। कहना, पण्डित दादा बुला रहे हैं। अगर उसने हत्या नहीं की है, तो गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़कर क़सम खाय।

धनिया बोली — महाराज, उसके क़सम का भरोसा नहीं। चटपट खा लेगा। जब इसने झूठी क़सम खा ली, जो बड़ा धर्मात्मा बनता है, तो हीरा का क्या विश्वास।
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अब गोबर बोला — खा ले झूठी क़सम। बंस का अन्त हो जाय। बूढ़े जीते रहें। जवान जीकर क्या करेंगे!

रूपा एक क्षण में आकर बोली — काका घर में नहीं है, पण्डित दादा! काकी कहती हैं, कहीं चले गये हैं। दातादीन ने लम्बी दाढ़ी फटकारकर कहा — तूने पूछा नहीं, कहाँ चले गये किया? घर में छिपा बैठा न हो। देख तो सोना, भीतर तो नहीं बैठा है।

धनिया ने टोका — उसे मत भेजो दादा! हीरा के सिर हत्या सवार है, न जाने क्या कर बैठे। दातादीन ने ख़ुद लकड़ी सँभाली और ख़बर लाये कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है। पुनिया कहती है लुटिया-डोर और डंडा सब लेकर गये हैं। पुनिया ने पूछा भी, कहाँ जाते हो; पर बताया नहीं। उसने पाँच रुपए आले में रखे थे। रुपए वहाँ नहीं हैं। साइत रुपए भी लेता गया। धनिया शीतल हृदय से बोली — मुँह में कालिख लगाकर कहीं भागा होगा।

शोभा बोला — भाग के कहाँ जायगा। गंगा नहाने न चला गया हो।

धनिया ने शंका की — गंगा जाता तो रुपए क्यों ले जाता, और आजकल कोई परब भी तो नहीं है?

इस शंका का कोई समाधान न मिला। धारणा दृढ़ हो गयी। आज होरी के घर भोजन नहीं पका। न किसी ने बैलों को सानी-पानी दिया। सारे गाँव में सनसनी फैली हुई थी। दो-दो चार-चार आदमी जगह-जगह जमा होकर इसी विषय की आलोचना कर रहे थे। हीरा अवश्य कहीं भाग गया। देखा होगा कि भेद खुल गया, अब जेहल जाना पड़ेगा, हत्या अलग लगेगी। बस, कहीं भाग गया। पुनिया अलग रो रही थी, कुछ कहा न सुना, न जाने कहाँ चल दिये। जो कुछ कसर रह गयी थी वह सन्ध्या-समय हलके के थानेदार ने आकर पूरी कर दी। गाँव के चौकीदार ने इस घटना की रपट की, जैसा उसका कर्तव्य था। और थानेदार साहब भला अपने कर्तव्य से कब चूकनेवाले थे। अब गाँववालों को भी उनकी सेवा-सत्कार करके अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। दातादीन, झिंगुरीसिंह, नोखेराम, उनके चारों प्यादे, मँगरू साह और लाला पटेश्वरी, सभी आ पहुँचे और दारोग़ाजी के सामने हाथ बाँधकर खड़े हो गये। होरी की तलबी हुई। जीवन में यह पहला अवसर था कि वह दारोग़ा के सामने आया। ऐसा डर रहा था, जैसे फाँसी हो जायेगी। धनिया को पीटते समय उसका एक-एक अंग फड़क रहा था। दारोग़ा के सामने कछुए की भाँति भीतर सिमटा जाता था। दारोग़ा ने उसे आलोचक नेत्रों से देखा और उसके हृदय तक पहुँच गये। आदमियों की नस पहचानने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। किताबी मनोविज्ञान में कोरे, पर व्यावहारिक मनोविज्ञान के मर्मज्न थे। यक़ीन हो गया, आज अच्छे का मुँह देखकर उठे हैं। और होरी का चेहरा कहे देता था, इसे केवल एक घुड़की काफ़ी है। दारोग़ा ने पूछा — तुझे किस पर शुबहा है?

होरी ने ज़मीन छुई और हाथ बाँधकर बोला — मेरा सुबहा किसी पर नहीं है सरकार, गाय अपनी मौत से मरी है। बुड्ढी हो गयी थी।

धनिया भी आकर पीछे खड़ी थी। तुरन्त बोली — गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने। सरकार ऐसे बौड़म नहीं हैं कि जो कुछ तुम कह दोगे, वह मान लेंगे। यहाँ जाँच-तहक़िक़ात करने आये हैं।

दारोग़ाजी ने पूछा — यह कौन औरत है?

कई आदमियों ने दारोग़ाजी से कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए चढ़ा-ऊपरी की। एक साथ बोले और अपने मन को इस कल्पना से सन्तोष दिया कि पहले मैं बोला — होरी की घरवाली है सरकार!

‘ तो इसे बुलाओ, मैं पहले इसी का बयान लिखूँगा। वह कहाँ है हीरा? ‘

विशिष्ट जनों ने एक स्वर से कहा — वह तो आज सबेरे से कहीं चला गया है सरकार!

‘ मैं उसके घर की तलाशी लूँगा। ‘

तलाशी! होरी की साँस तले-ऊपर होने लगी। उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी और हीरा घर में नहीं है। और फिर होरी के जीते-जी, उसके देखते यह तलाशी न होने पायेगी; और धनिया से अब उसका कोई सम्बन्ध नहीं। जहाँ चाहे जाय। जब वह उसकी इज़्ज़त बिगाड़ने पर आ गयी है, तो उसके घर में कैसे रह सकती है। जब गली-गली ठोकर खायेगी, तब पता चलेगा। गाँव के विशिष्ट जनों ने इस महान संकट को टालने के लिए काना-फूसी शुरू की।

दातादीन ने गंजा सिर हिलाकर कहा — यह सब कमाने के ढंग हैं। पूछो, हीरा के घर में क्या रखा है।

पटेश्वरीलाल बहुत लम्बे थे; पर लम्बे होकर भी बेवक़ूफ़ न थे। अपना लम्बा काला मुँह और लम्बा करके बोले — और यहाँ आया है किस लिए, और जब आया है बिना कुछ लिये-दिये गया कब है?

झिंगुरीसिंह ने होरी को बुलाकर कान में कहा — निकालो जो कुछ देना हो। यों गला न छूटेगा।
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