14-04-2011, 01:36 PM | #71 |
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14-04-2011, 02:09 PM | #72 | |
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( वैचारिक मतभेद संभव है ) ''म्रत्युशैया पर आप यही कहेंगे की वास्तव में जीवन जीने के कोई एक नियम नहीं है'' |
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14-04-2011, 05:04 PM | #73 | |
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14-04-2011, 08:43 PM | #74 | |
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स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नवम समुल्लास में आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘‘पूर्व जन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।’’ इस विषय में लोगों ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न भी किए हैं, जो निम्नवत् हैं - 1. जन्म एक है या अनेक ? 2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता? 3. मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का? 4. मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है या नहीं? 5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ? स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं : 1. जन्म अनेक हैं। 2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता। 3. मनुष्य व पश्वादि में जीव एक सा है। 4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य शरीर में आता जाता है। 5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है। मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है :- ‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83) भावार्थ : ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’ वेदों के पुरोधा और शोधक महर्षि दयानंद ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका के पुनर्जन्म अध्याय में पुनर्जन्म के समर्थन में ऋग्वेद मंडल-10 के दो मंत्रों के साथ अथर्ववेद व यजुर्वेद के मंत्र भी प्रस्तुत किए हैं : 1. ‘‘आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि। धास्युर्योनि प्रथमः आ विवेशां यो वाचमनुदितां चिकेत’’।। (अथर्व0 कां0-5, अनु0-1, मं0-2) भाषार्थ : ‘‘जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों का धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता। जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करके स्वभावयुक्त जीवात्मा है वह पूर्व शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल, औषधि व प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर योनि अर्थात गर्भाशय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनूदित वाणी अर्थात जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जान के बोलता है, और धर्म ही में यथावत स्थित रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है और जो अधर्माचरण करता है वह अनेक नीच शरीर अथवा कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।’’ 2. ‘‘द्वे सतीऽ अशृणावं पितृणामहं देवानामुत मत्र्यानाम्। ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च।।’’ (यजु0 अ0-19, मं0-47) भाषार्थ : ‘‘इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का होना। इनमें मनुष्य शरीर के तीन भेद हैं, एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विधाओं को पढ़कर विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्य का शरीर धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्य शरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिए है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने-अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्म धारण करना, पुनः शरीर का छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, बारंबार होता है।’’ यहाँ एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि कभी सृष्टि का प्रारम्भ तो अवश्य हुआ होगा, चाहेे वह करोड़ों साल पहले हुआ हो, सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य के जन्म का सैद्धान्तिक आधार क्या था ? जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि ‘‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। (7-86) आगे क्रम संख्*या 88 में लिखा है कि वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे, अन्य कोई उनके सदृश नहीं था। यहाँ सवाल यह है कि सृष्टि के आदि में पूर्व पुण्य कहाँ से आया? इस सवाल का कोई तर्कपूर्ण और न्यायसंगत जवाब स्वामी जी ने अपने ग्रंथों में कहीं नहीं लिखा। स्वामी जी ने स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, परलोक चार शब्दों की गलत और भ्रामक व्याख्या की है। नवम समुल्लास के क्रम सं0 79 में लिखा है कि सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फंसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहलाता है। जो सांसारिक सुख है वह स्वर्ग और जो सांसारिक दुःख है वह नरक है। जबकि वैदिक धारणा और शब्दकोष के अनुसार स्वर्ग और नरक स्थान विशेष का नाम है। इसी प्रकार पुनः का अर्थ दोबारा है न कि बार-बार। जैसे पुनर्विवाह, पुनर्निर्माण वैसे ही पुनर्जन्म। चतुर्थ समुल्लास में स्वामी दयानंद ने मनुस्मृति के कुछ ‘लोकों द्वारा परलोक के सुख हेतु उपाय बताए हैं। यहाँ स्वामी जी ने परलोक और परजन्म दोनों को एक ही अर्थ में लिया है। (4-106) मनुस्मृति के जो ‘लोक उन्होंने उद्धरित किए हैं वे परलोक की सफलता पर केन्द्रित हैं न कि आवागमनीय पुनर्जन्म पर। स्वामी जी की धारणाओं और तथ्यों में प्रचुर विरोधाभास पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वेद विषयों पर स्वामी जी की जानकारी संदिग्ध थी। मनुष्य चाहे जन्मना हिंदू हो, यहूदी हो, ईसाई हो या मुसलमान या अन्य किसी धर्म, मत व पंथ को मानने वाला हो, सबके जीवन का मूल स्रोत एक ही है। सब एक माँ-बाप की संतान हैं, सब परस्पर भाई-भाई हैं। यह तथ्य न केवल वेद और कुरआन सम्मत है बल्कि विज्ञान सम्मत भी है। इसके साथ एक सर्वमान्य तथ्य यह भी है कि मनुष्य चाहे एक हजार साल जिन्दा रहे, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। मृत्यु जीवन की अनिवार्य नियति है। इस नियति से जुड़ा है मानव जीवन का एक बड़ा अहम सवाल कि हमें मृत्युपरांत कहाँ जाना है ? मृत्युपरांत हमारा क्या होगा ? इस एक अहम सवाल से जुड़ी है हमारे जीवन की सारी आध्यात्मिकता ()Spirituality) और सर्वांग सम्पूर्णता। आइए इस अहम विषय पर एक तथ्यपरक दृष्टि डालते हैं। जड़वादियों (Materialists) का मानना है कि यहीं आदि है और यही अंत है। (Death is end of life) ‘‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।’’ देह भस्म हो गया फिर आना-जाना कहाँ ? अनीश्वरवादी (Atheist) महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा, ‘‘भला करो, भले बनो, मृत्युपरांत क्या होगा यह प्रश्न असंगत है, अव्याकृत है।’’ हिंदूवादियों (Polytheist) का मानना है कि वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्यादि में जीव (Soul) एक सा है और कर्मानुसार यह जीव (Soul) वनस्पति योनि, पशु योनि और मनुष्य योनि में विचरण करता रहता है। जीवन-मरण की यह अनवरत श्रंखला है। रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार कुल चैरासी लाख योनियों में 27 लाख स्थावर, 9 लाख जलचर, 11 लाख पक्षी, 4 लाख जानवर और 23 लाख मानव योनियाँ हैं। हिंदू धर्मदर्शन के मनीषियों ने इस अवधारणा को आवागमनीय पुनर्जन्म का नाम दिया है। इस अवधारणा (Cycle of Birth & Death) के संदर्भ में हिंदू धर्मदर्शन के चिंतकों का एक मजबूत तीर व तर्क है कि संसार में कोई प्राणी अंधा जन्मता है, कोई गूंगा और लंगड़ा जन्मता है। कोई प्रतिभाशाली तो कोई निपट मूर्ख जन्मता है। यहाँ कोई खूबसूरत है, कोई बदसूरत है। कोई निर्धन है तो कोई धनवान है। कोई हिंदू जन्मता है तो कोई मुसलमान जन्मता है। कोई ऊँची जात है तो कोई नीची जात है। जन्म के प्रारम्भ में ही उक्त विषमताएं पिछले जन्म का फल नहीं तो और क्या हैं ? इसी धारणा के साथ हिंदू मनीषियों की यह भी मान्यता है कि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों से मिलती है। ‘‘बड़े भाग मानुष तनु पाया’’। यहाँ हिंदू चिंतकों के उक्त दोनों तथ्यों में असंगति स्पष्ट प्रतीत होती है। अगर यह मान लिया जाए कि यहाँ की सभी विषमताएं पूर्वकृत कर्मों का लेखा है। एक मनुष्य दूसरे को इसलिए मार रहा है कि उसने पिछले जन्म में उसे मारा है। एक मनुष्य यहाँ इसलिए जुल्म कर रहा है कि पिछले जन्म में उस पर जुल्म किया गया है। फिर तो यह एक युक्तियुक्त स्थिति है। अगर यह मान्यता सत्य है फिर तो मामला सस्ते में ही निपट जाता है। फिर तो इस विषमता को दूर करने के सारे प्रयास न केवल बेकार हैं बल्कि प्रयास करना ही बेवकूफी है। यहाँ जो हो रहा है सब कुछ तर्कसंगत और न्यायसंगत है। लूटमार, मारकाट, अनाचार, अत्याचार यदि सभी कुछ पूर्व कर्मों का फल है तो फिर न कोई पाप-पुण्य का आधार बनता है न ही सही-गलत बाकी रहता है। यहाँ यह विचारणीय है कि यदि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों से मिलती है तो फिर कोई जन्म से अंधा, बहरा, लंगड़ा और जड़बुद्धि क्यों ? दूसरा विचारणीय तथ्य है कि यदि इस जन्म की अपंगता पिछली योनि के कर्मों का फल है तो न्याय की मांग है कि दण्डित व्यक्ति को यह जानकारी होनी चाहिए कि उसने पूर्वजन्म में किस योनि में क्या पाप व दुष्कर्म किया है जिसके कारण उसे यह सजा मिली है ताकि सुधार की सम्भावना बनी रहे। अगर अपंग व्यक्ति को पूर्व योनि में किए दुष्कर्म और पापकर्म का पता नहीं है और सत्य भी यही है कि उसे कुछ पता नहीं है तो क्या आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा पूर्णतया भ्रामक और कतई मिथ्या नहीं हो जाती ? आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का तीन तत्वः जीवन तत्व (Life), चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) के आधार पर वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि वनस्पतियों में केवल जीवन तत्व (Life) होता है, चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) नहीं होता। यदि वनस्पतियों में भी वही चेतन तत्व (Consciousness) होता जो पशु-पक्षियों में होता है, तो फिर वनस्पतियों का भक्षण भी उसी प्रकार पाप व अपराध होता जिस प्रकार तथाकथित पुनर्जन्मवादी पशु-पक्षियों का मांस खाने में मानते हैं। अब यदि जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों में भी वही चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) होता जो मनुष्य में है तो पशु-पक्षियों को मारना भी उतना ही पाप व अपराध होता जितना मनुष्यों को मारने में होता है। पेड़-पौधों और पशुओं में वह चेतन तत्व व आत्म तत्व नहीं होता जो कर्म कराता है और कर्मफल भोगने का कारण बनता है। वृक्ष-वनस्पति और पशुओं में केवल इनकमिंग सुविधा है जबकि मनुष्यों में इनकमिंग के साथ-साथ आउट गोइंग सुविधा भी है जिससे कर्म लेखा (Account of Deeds) तैयार होता है। मनुष्य इसलिए तो सर्वश्रेष्ठ प्राणी है कि परम तत्व (ळवकद्ध ने उसे विवेक (Wisdom) और विचार (Thinking) प्रदान किया है जो किसी अन्य को नहीं किया है। जहाँ जीवन है वहाँ चेतना और आत्मा का होना अनिवार्य नहीं। आत्मा (Soul), चेतना (Consciousness) और प्रज्ञा (Knowledge) वहीं है जहाँ कर्म (Right and Wrong Deeds) है। पशुओं में नींद, भूख, भय और मैथुन आदि दैहिक क्रियाएं (Physical Process)तो है मगर विवेक संबंधी क्रियाएं (Ethical Process) नहीं है। मनुष्य आत्मा (Soul) में ही ज्ञानत्व, कर्तृत्व और भौक्तृत्व ये तीनों निहित हैं। इसलिए वेद और कुरआन मनुष्य जाति के लिए है न कि पशु और वनस्पति जगत के लिए। कीट-पतंगे और पशु पक्षी नैसर्गिक जीवन व्यतीत करते हैं। एक वृक्ष और एक पशु को यह विवेक नहीं दिया गया है कि वे इस विशाल ब्रह्मांड में अपने अस्तित्व का कारण तलाश करें। पशुओं के सामने न कोई अतीत होता है न कोई भविष्य। भय, भूख, नींद, मैथुन आदि क्रियाओं के होते हुए भी पशु एक बेफिक्र रचना (Careless Creature) है, चेतनाहीन (In a State of Stupid) कृति है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी तो मनुष्य जीवन की सामग्री मात्र है। इनकी रचना को मनुष्य योनि के पाप-पुण्य से जोड़ना नादानी की बात है। देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक बकरी कसाई और चरवाहे में फ़र्क नहीं करती। देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक गाय मालिक और दुश्मन के खेत में अंतर नहीं करती। इससे सुस्पष्ट है कि पश्वादि में आत्मचेतना (Moral Mind) नहीं होती। विवेक (Wisdom) और विचार (Thinking) नहीं होता। जब पश्वादि में न विवेक है, न विचार है, न कोई आचार संहिता (Code of Conduct) है तो फिर कर्म और कर्मफल कैसा ? विचित्र विडंबना है कि हिंदू धर्म दर्शन ने पेड़-पौधों, पशुओं और मनुष्य को एक ही श्रेणी में रखा है। क्या यह अवधारणा तर्कसंगत और न्यायसंगत हो सकती है कि एक योनि चिंतन (Thinking Power) और चेतना (Moral Sense) रखने के बावजूद चिंतनहीन (Thoughtless)और चेतना विहीन (Unconsciousness) योनि में अपने कर्मों का फल भोगे ? कैसी अजीब धारणा है कि पाप कर्म करें मनुष्य और फल भोगे गधा और विवेकहीन वृक्ष? यहाँ यह भी विचारणीय है कि दण्ड और पुरस्कार का सीधा संबंध विवेक, विचार और कर्म से है। दूसरी बात बिना पेशी, बिना गवाह, बिना सबूत, बिना प्रतिवादी कैसी अदालत, कैसा न्याय ? एक व्यक्ति को बिना किसी चार्जशीट के अंधा, लंगड़ा, जड़बुद्धि बना दिया जाए या कीट, कृमि, कुत्ता बना दिया जाए या पशु को मनुष्य बना दिया जाए, यह कैसा इंसाफ, कैसा कानून ? क्या इसे कोई कानून कहा जा सकता है ? न्यायसंगत और तर्कसंगत तो यह है कि फल भोगने वाले को सजा या पारितोष का एहसास हो और यह तभी सम्भव है कि जब कर्म करने वाला उसी शरीर व चेतना के साथ फल भोगे, जिस शरीर व चेतना के साथ उसने कर्म किया है। उपर्युक्त तथ्यों और तर्कों से सिद्ध हो जाता है कि आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा एक अबौद्धिक और अवैज्ञानिक धारणा है। इस मिथ्या व कपोल-कल्पित मान्यता ने करोड़ों मनुष्यों को जीवन के मूल उद्देश्य से भटका दिया है। यह धारणा मनुष्य जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं करती। मनुष्य के सामने कोई उच्च लक्ष्य न हो, कोई दिशा न हो तो वह जाएगा कहाँ ? विचित्र विडंबना है कि जीवन है मगर कोई जीवनोद्देश्य नहीं है। बिना किसी जीवनोद्देश्य के साधना और साधन सब व्यर्थ हो जाता है। यात्रा में हमारे पास कितनी भी सुख-सुविधा, सामग्री, साधन हो, मगर यह पता न हो कि जाना कहाँ है ? हमारी दिशा, हमारी मंजिल, हमारा गंतव्य क्या है तो हम जाएंगे कहाँ ? दिशा और गंतव्य निश्चित हो तभी तो गंतव्य की दिशा की तरफ चला जा सकता है। अगर दिशा का भ्रम हो तो मनुष्य कभी सही दिशा की तरफ नहीं बढ़ सकता। एक व्यक्ति दौड़ा जा रहा है और उसे पता न हो कि किधर और कहाँ जाना है तो क्या लोग उसे बेवकूफ नहीं कहेंगे? हमारे जीवन में भौतिक कारणों, अकारणों का बड़ा महत्व है। यहाँ किसी का विकलांग, निर्धन, रोगी अथवा स्वस्थ, सुन्दर और धनी होना पिछले कर्मों का प्रतिफल नहीं है। यह विषमता भौतिक, प्राकृतिक और सामाजिक असंतुलन का परिणाम है। कभी चेचक व पोलियों आदि बीमारियों को मनुष्य का भाग्य और पूर्वजन्म का फल समझा जाता था मगर आज वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रयासों द्वारा मनुष्य ने इन पर विजय प्राप्त कर ली है। यहाँ के परिणाम किसी पूर्वकृत योनियों के सत्कर्म या पाप कर्म के परिणाम नहीं हैं। यहाँ की विषमता को समझने के लिए हमें सृष्टिकर्ता की योजना (Creation Plan of God) को भी समझना होगा। यह जगत एक क्रियाकलाप (Activation) है। तैयारी (Examination) है, एक दिव्य जीवन के लिए, पारलौकिक जीवन के लिए। सांसारिक अभ्युद्य मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य है पारलौकिक जीवन की सफलता। भौतिक सुख-सुविधा सामग्री केवल जरूरत मात्र है। यहाँ जब हम वह कुछ हासिल कर लेते हैं जो हम चाहते हैं, तो हमारे मरने का वक्त करीब आ चुका होता है। हम बिना किसी निर्णय, न्याय, परिणाम के यहाँ से विदा हो जाते हैं। धन, दौलत, बच्चें आदि सब यही रह जाता है। अगर हम यह मानते हैं कि जो कर्म हमने यहाँ किए हैं, उनके परिणाम स्वरूप हम जीव-जन्तु, पेड़- पौधा या मनुष्य बनकर पुनः इहलोक में आ जाएंगे तो यह एक आत्मवंचना (Self Deception) है। हमें इस धारणा की युक्ति-युक्तता पर गहन और गम्भीर चिंतन करना चाहिए। पारलौकिक जीवन की सफलता मानव जीवन का अभीष्ट (Desired) है। यही है मूल वैदिक और कुरआनी अवधारणा और साथ-साथ बौद्धिक और वैज्ञानिक भी। (अंतरजाल से साभार , शायद इससे कुछ मदद मिले )
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15-04-2011, 10:17 AM | #75 |
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Re: सवाल आपके - जवाब हम सब के !!
महाराज ...!
इतना लिख दिए की पढने में समस्या हो गयी |
15-04-2011, 10:46 AM | #76 |
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Re: सवाल आपके - जवाब हम सब के !!
कोई बात नहीँ आप किस्तो मेँ पढ़ सकते हैँ
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15-04-2011, 11:04 AM | #77 |
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Re: सवाल आपके - जवाब हम सब के !!
लिखे कहाँ है भाई...थोडा कॉपी पेस्ट मारें हैं !
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( वैचारिक मतभेद संभव है ) ''म्रत्युशैया पर आप यही कहेंगे की वास्तव में जीवन जीने के कोई एक नियम नहीं है'' Last edited by VIDROHI NAYAK; 15-04-2011 at 08:18 PM. |
15-04-2011, 03:11 PM | #78 | |
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Re: सवाल आपके - जवाब हम सब के !!
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धन्यवाद विद्रोही जी, एक तार्किक लेख प्रस्तुत करने के लिए पाप पुण्य और कर्म की अवधारणा पर. वैसे जहाँ तक मुझे पता है हिंदू धर्म में जीव का वास तो सभी प्राणियों में माना गया है. इसलिए इस अवधारणा को पशु -पक्षियों इत्यादि को चेतन विहीन या निकृष्ट जीव बता कर ख़ारिज कर देने की बात उतनी दम वाली नहीं प्रतीत होती. खास कर आज कल के युग में जब मनुष्य प्राणी जगत पर खुले दिमाग से नए अध्ययन कर रहा है और पशु मनोविज्ञान जैसी विधाएँ उभर कर आ रही है. उपरी तौर पर यह कह देना आसान होता है कि मनुष्य को छोड़ कर अन्य प्राणी चेतना शून्य है.. इन सब का उदाहरण हमें उन से पूछना चाहिए जो उनके निकट संपर्क में है. हाँ हम यह जरूर कह सकते है कि उनका चेतन अल्पविकसित होता है मनुष्य की तुलना में. हिंदू धर्म में वनस्पति, पशु-पक्षी इत्यादि का भक्षण भी पाप की श्रेणी में आता ही है. और इस पाप से बचने की अवधारणा ऋषि मुनियों के आहार में मिलती है. जिसमें फलाहार को ऋषियों के लिए उचित भोजन बताया गया है जिसमें आप बीज का परित्याग करते है क्यूंकि बीज में जीव का वास माना जाता है(नए जीवन का). जैन धर्म भी इस तरह की अवधारणा मानता है मेरे ख्याल से.. खैर ये सब बातें तो कुछ विषय से हट कर है. लगता है हिंदू धर्म के विद्वानों ने प्राकृतिक विपदा और कर्म चक्र के प्रश्न पर कुछ तर्क नहीं रखे हैं... और निष्कर्ष यही निकलता है कि इस बात का कोई तार्किक उत्तर हिंदू धर्म नहीं दे पाया है.
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17-04-2011, 09:59 AM | #79 |
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Re: सवाल आपके - जवाब हम सब के !!
हम भी तो भूखे हैं...कहाँ हड़ताल करें?? यह तो वह तस्वीर है जो किसी छायाकार की दया दृष्टि से सामने आई ..ऐसी ना जाने कितनी कहानियां हैं, कहीं कोई भूख से मरता है तो कहीं कोई तृष्णा से ! हम जानते हैं , सब जानते हैं ...पर हमें क्या, बाप दादाओ ने तो दिया ही है ,हमें कौन सी मौत आई जा रही है ! हमारे दावे तो राष्ट्र हित के ही हैं परन्तु शायद यह शाब्दिक ही है ! हाँ राष्ट्र हित होगा , अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होते हुए देश की पहचान बनाये रखेंगे ! वही देश ... !!भारत !! (जो अब गांवों में नहीं गरीबी में बसता है )
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18-04-2011, 04:58 PM | #80 | |
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Re: सवाल आपके - जवाब हम सब के !!
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ये समस्या भी कुछ उसी तरह की समस्या की श्रेणी में शामिल है जिसकी पूर्णतः व्याख्या असंभव है ( जैसे इश्वर ,आत्मा ,आदि ) पहले आपने यहाँ पर " हिन्दू धर्म के अनुसार पाप पुण्य की व्याख्या " पर सवाल किया है तो मै सर्वप्रथम यह कहूंगा की हिन्दू धर्म पूरी तरह से ईश्वरवादी है / अगर यहाँ हिन्दू दर्शन की बात आती या भारतीय दर्शन का जिक्र होता तो मै कुछ महान लोगों के विचार प्रस्तुत कर सकता था /भारतीय दर्शन में वैसे तो चार्वाक ,बौध ,जैन ...को छोड़ दें तो बाकी " षड्दर्शन " हिन्दू दर्शन में ही आतें हैं जिनके विचारों में काफी विभिन्नता देखने को मिलती है / मगर ये षड्दर्शन हिन्दू धर्म नहीं है / मै यहाँ कुछ विचार रख रहां हूँ पर ये विचार केवल हिन्दू धर्म के अनुसार है न की किसी दर्शन के अनुसार ( आशा करूंगा की यहाँ तक आपलोग दोनों में अंतर समझ चुके होंगे ) (1 ) हिन्दू धर्म की पहली मान्यता है की संसार में शारीरिक और मानसिक दुःख के रूप में जो अशुभ ही वह वस्तुतः मनुष्य के अपने किये गए कर्मों का ही दुष्परिणाम है / इश्वर मनुष्य के खुद के पापो का ही समुचित दंड देने के लिए अशुभ उत्पन्न करता है ...जैसे अगर कहीं भूकंप आया तो कोई हिन्दू धार्मिक व्यक्ति यही कहेगा की धरती पर पाप का बोझ बढ़ गया अतः इश्वर को ऐसा करना पडा / (2 ) दूसरी मान्यता है की प्राकृतिक विपदाओं से उत्पन्न अशुभ मानव के लिए एक चेतावनी है जिसके द्वारा वह अपने इश्वर की महानता और अपार शक्ति को पहचान सकता है / यदि संसार में कोई अशुभ न हो तो कोई इश्वर की पहचान नहीं कर सकता / (3 ) तीसरी मान्यता है की शुभ को जानने के लिए ...उसके महत्व को पहचानने के लिए अशुभ का होना अनिवार्य है / दुःख प्राप्त करने के बाद ही हमें सुख का वास्तविक स्वरुप और महत्व पता चलता है / जिस व्यक्ति ने स्वम अपने जीवन में कष्ट सहा हो वही एनी दुखी व्यक्तियों के प्रति सच्ची सहानुभूति रख सकता है / उपरोक्त मान्यताओं पर सबसे गंभीर आपति यह कहकर लगाईं जाती है की नैतिक अशुभ की व्याख्या तक तो ठीक है परन्तु प्राकृतिक अशुभ में तो निर्दोष लोग भी शिकार होतें हैं ..ऐसा क्यूँ है ..क्यूँ उन बच्चों ..पशु पक्षियों को इनका सामना करना पडता है जिन्होंने कोई पाप नहीं किया है तो यहाँ पर पुनर्जन्म के आधार पर बताने की कोशिश की जाती है की इसके लिए " आत्मा " और " पुनर्जन्म " का अस्तित्व है / उसके पूर्वजन्म में किये गए कर्म का फल उसे इस परिणाम के रूप में भोगना पड़ता है / यहाँ पर मै फिर कहूंगा की यह तार्किक रूप से युक्तिसंगत नहीं है परन्तु ये समस्या किसी हिन्दू धर्म के व्यक्ति की नहीं है की वो इसकी व्याख्या करे समस्या दार्शनिकों की हो जाती है और इसी क्रम में षड्दर्शन सामने आतें हैं / षड्दर्शन में सभी ने अपने अपने विचार रखें हैं बस इतना ही
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ये दिल तो किसी और ही देश का परिंदा है दोस्तों ...सीने में रहता है , मगर बस में नहीं ...
Last edited by Ranveer; 18-04-2011 at 05:01 PM. |
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