10-05-2013, 01:44 PM | #71 |
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Re: इधर-उधर से
बेदी : औरत के लिए ... पता नहीं ये मेरी पिछले जनम की माँ है (अपनी बहु वीना के लिए) मेरी इतनी सेवा करती है. मेरी बेटियाँ, मेरी बहन, मेरी बहू, ये सब कितनी अच्छी हैं. ये औरत बड़ी अच्छी चीज है. ये भूल चुकी हैं कि मैंने ज़िन्दगी में क्या क्या गलतियां की हैं. पद्मा जी, अगर मैं बच गया तो औरत पर बड़ा कुछ लिख सकता हूँ. औरत की दया, उसकी ममता, उसकी अच्छाई से मैं इतना भर गया हूँ. मेरी बहन एक ही है. मुझसे काफी छोटी. उसके लिए जो कुछ मैंने किया था वो उसने मुझी पर कुर्बान कर दिया. ये औरत सिर्फ देना जानती है, लेती कुछ नहीं. (सन्दर्भ: दीवानखाना) ** |
10-05-2013, 01:47 PM | #72 |
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Re: इधर-उधर से
लघु कथा / राजा
(लेखक: राम स्वरुप दीक्षित) राजमाता सत्यवती के समक्ष गंगापुत्र भीष्म ने प्रस्ताव रखा कि राजा की सभी योग्यताओं को देखते हुए पांडू को हस्तिनापुर नरेश बनाया जाये. भीष्म के इस प्रस्ताव का समर्थन करने के बजाय नीतिज्ञ विदुर ने कहा, “गंगापुत्र का प्रस्ताव ठीक है, पर नीति के अनुसार पांडू राजा नहीं बन सकते. क्योंकि ये खुली आँखों वाले हैं. ये देख सकते हैं और आप लोग तो जानते हैं कि हस्तिनापुर को आज आँख वाले राजा की आवश्यकता नहीं है.” माता सत्यवती सहित सब ने विदुर की बात का समर्थन करते हुये धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर नरेश बना दिया. ** |
11-05-2013, 11:48 PM | #73 |
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Re: इधर-उधर से
बनिया और प्रोफ़ेसर
(लेखक: कन्हैया लाल ‘सरस’) कलकत्ते में एक बार खादी प्रदर्शनी लगाई गई जिसका उदघाटन गाँधी जी ने किया था. इस अवसर पर उन्होंने वहां उपस्थित लोगों से कहा, “आज जो भी खादी खरीदेगा उसका कैश मीमो मैं स्वयं बनाऊंगा.” गाँधी जी का इतना कहना था कि खरीदारों की बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई. थोड़ी ही देर में ढाई हजार रूपए की खादी बिक गई. उस वक़्त वहां आचार्य कृपलानी भी उपस्थित थे. वे मुस्कुराते हुए बोले, “लेना-देना कुछ नहीं, बनिए ने ढाई हजार मार लिए.” “भला गाँधी जी कब चूकने वाले थे. तुरन्त चुटकी लेते हुए बोले, “यह काम मेरे जैसे बनिए ही कर सकते हैं. आप जैसे प्रोफ़ेसर नहीं.” ** |
11-05-2013, 11:49 PM | #74 |
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Re: इधर-उधर से
दो पीढियां
(लेखक: इबादुर रहमान) जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ा करता था, तभी की याद है. बरसात में कभी स्कूल जाते या लौटते समय वर्षा होने लगती थी, तब हम अपने अपने बस्तों को अपनी कमीज में छिपा लेते थे, जिससे कि हमारी कापियां या किताबें भीग कर नष्ट न होने पायें. इस प्रयास में हम स्वयं भीग जाया करते थे. और ऐसी ही बरसात में एक दिन मेरा बेटा स्कूल से वापस आया. उसका बस्ता बुरी तरह भीगा हुआ था, लेकिन उसके कपड़े और सर सुरक्षित थे. उसने पास आ कर बड़े ही गर्व से कहा, “पापा .. पापा .. मैंने वर्षा से बचने के लिए अपना स्कूल बैग सिर पर रख लिया था. देखो, मैं बिलकुल नहीं भीगा हूँ. अब मुझे सर्दी नहीं लगेगी न?” ** |
11-05-2013, 11:51 PM | #75 |
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Re: इधर-उधर से
लघुकथा / अपनी अपनी भूख
(लेखक : सुबोध कुमार श्रीवास्तव) बच्चे ने माँ से कहा, “माँ, अब मैं बड़ा हो रहा हूँ. मुझे भूख अधिक लगने लगी है. चार रोटियों से अब मेरा पेट नहीं भरता. मैं एक रोटी और भी खा सकता हूं.” दूसरे दिन मां ने बेटे की थाली में एक रोटी और परोस दी. बेटे ने भरपेट खाना खाया. लेकिन जब मां खाना खाने बैठी तो उसकी थाली में दो की जगह एक रोटी देख कर बेटे ने पूछा, “मां, तुम आज एक रोटी कम क्यों खा रही हो?” मां ने बेटे को समझाते हुए कहा, “अब मैं बूढी हो रही हूँ, मेरी भूख भी कम हो गई है. अब एक रोटी खाने पर ही मेरा पेट भर जाता है.” ** |
13-05-2013, 01:29 PM | #76 |
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Re: इधर-उधर से
लघु-कथा
शहीद (लेखक: रमाकांत) सरकार और विद्रोहियों के बीच लड़ाई चल रही थी. विद्रोही आलाकमान की ओर से संदेशवाहक कूटभाषा में लिखा गुप्त सन्देश ले कर विद्रोहियों के दूसरे ठिकाने के लिए रवाना हुआ. भेदियों से खबर मिलने पर उसे सरकार की पुलिस ने घेर लिया. सन्देश को पुलिस के हाथ में पड़ने से बचाने के लिए संदेशवाहक ने जान की बाजी लगा दी. लेकिन वह अकेला इतनी फ़ोर्स के आगे कब तक टिकता. पुलिस की गोलियों से छलनी हो कर वह गिर पड़ा. बहादुर हरकारे की लाश से बरामद कागज़ पढ़ा गया लिखा था – “सन्देश ले जाने वाला गद्दार है. उसे देखते ही ख़त्म कर दो.’ लेकिन यह सन्देश अब पुलिस के कब्जे में था – अपने गद्दार साथी को विद्रोहियों ने शहीद घोषित किया. ** |
13-05-2013, 01:31 PM | #77 |
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Re: इधर-उधर से
लघुकथा / तलाश
(लेखक: राकेश रंजन) चौराहे पर एक व्यक्ति का खून हो गया था. सहमी भीड़ से पुलिस इंस्पेक्टर ने पूछा, “आप में से किसी ने कातिल को देखा है?” एक दुबले पतले नौजवान ने भीड़ से निकल कर कहा, “मैंने देखा है. उसने इसका पेट फाड़ दिया और मोटर साइकिल पर स्वर हो कर भाग गया.” “क्या तुम उसे पहचानते हो?” “नहीं, लेकिन अगर वह फिर दिख जाए तो पहचान लूँगा.” नौजवान ने बताया. दूसरे दिन शाम को, उसी चौराहे पर उस नौजवान के पेट में किसी ने छुरा भोंक दिया. पुलिस-इंस्पेक्टर फिर किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था, जिसने इस हादसे को अपनी आँखों से देखा हो. ** |
15-05-2013, 10:03 PM | #78 |
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Re: इधर-उधर से
एक आदिम ईश्वर की हत्या
(कवि: कुमार विकल) मैंने सोचा था एक छोटे से घर में साधारण आकांक्षाओं के बीच ज़िन्दगी गुज़ार दूंगा, और उस आदमी की हत्या के बारे में भूल जाऊंगा जो मैंने की तो नहीं किन्तु एक अपराध-भावना से पीड़ित हूँ कि शायद उस हत्या में मेरा भी कहीं हाथ था. वह आदमी कौन था, नहीं जानता किन्तु उसकी प्रेतात्मा ने मेरे विरुद्ध एक षडयंत्र रचा हुआ है मेरे घर को भूतेला खंडहर बना दिया मेरी आकांक्षाओं पर प्रेतों के चेहरे लगा दिए और जब कभी सोते में खुरदरी हथेली के दबाव से जाग उठता हूँ तो एक क्षण के लिए महसूस होता है, कि एक वेगवती काली नदी के बहाव में मेरा शरीर डूबता जा रहा है. मैं – जैसे कोई अशरीरी अस्तित्व अंधे जल की गहराई से गुदगुदाता है और अपनी समूची जिजीविषा को साक्षी मान कर कहता है कि अपनी चेतन अवस्था में मैंने कोई हत्या नहीं की हाँ, कभी मेरे किसी पूर्वज ने एक आदिम ईश्वर की हत्या जरूर की थी. ** |
15-05-2013, 10:05 PM | #79 |
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Re: इधर-उधर से
मिस्र की एक कथा / पूर्व सूचना
(पुनर्कथन: शिव रैना) मिस्र का एक शासक एक रात स्वप्न में तैरता हुआ नील नदी पार कर गया. सुबह नींद टूटते ही उसने स्वयं को विश्व का सर्वश्रेष्ठ तैराक घोषित करवा दिया और इस सिलसिले में एक भव्य समारोह का आयोजन कर डाला. मंत्री, प्रजा और दूसरे लोग चकित थे. उन्हें शासक की बुद्धि पर तरस आ रहा था. एक लोकप्रिय जादूगर को इस अनोखे समारोह का पता चला तो वह तुरन्त शासक की सेवा में उपस्थित होकर नम्र स्वर में बोला, “प्रजापति, आपने कौन सी नील नदी तैर कर पार की थी. “तू पागल हो गया है क्या,” शासक दहाड़ा,”नील नदी मिस्र में एक ही है.” लेकिन महाराज, यह नील नदी तो पिछले तीन दिन से सूखी पड़ी है!” उसने हाथ मलते हुए कहा. उसने दृष्टि-भ्रम जादू का सहारा लिया था. सिंचाई मंत्री ने उसका समर्थन किया. शासक ने तुरन्त नील नदी का निरीक्षण किया. नदी सचमुच सूखी पड़ी थी. कीचड़ ही कीचड़ नज़र आ रहा था. शासक ने दरबार में लौटते ही घोषणा की, “सिंचाई मंत्री का सर कलम कर दिया जाए! अगर मंत्री हमें नदी के सूखने की पूर्व-सूचना दे देता तो हम तैर कर हरगिज़ पार करने न जाते.” फांसी के समय जादूगर ने शासक से विनम्र निवेदन किया, “प्रजापति, अब नील नदी पानी से लबालब भर गई है. कृपया सिंचाई मंत्री को क्षमा कर दीजिये और बेशक नदी को तैर कर पार कीजिये.” उस दिन लोगों ने सांस रोक कर एक लोमहर्षक दृश्य देखा. जादूगर और सिंचाई-मंत्री को एक साथ नदी में डुबाया जा रहा था. ** |
19-05-2013, 12:06 AM | #80 |
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Re: इधर-उधर से
3 अक्टूबर 1977 की डायरी का एक अंश
आख़िरी झोंपड़ी “समकालीन भारतीय साहित्य” के अंक 70 (मार्च-अप्रेल 1997) में केशव रेड्डी का सम्पूर्ण उपन्यास “आख़िरी झोंपड़ी” छपा है. बहुत दिनों बाद इस उपन्यास के रूप में अच्छा कथा साहित्य पढ़ा. पढ़ा इसलिए कि रचना बहुत ही सशक्त बन पड़ी है. इसमें वर्णन किया गया है आन्ध्र प्रदेश में रहने वाली यानादी जाति का. इसमें वहां रहने वाले एक व्यक्ति मानव या मनुवा की कहानी बतायी गई है जिसकी जमीन को नंबरदार ने झूठा इलज़ाम लगा कर हड़प कर लिया है. इसी तरह उसने अन्य यानादियों की जमीन पर भी धोखे से कब्ज़ा कर लिया था. सब लोग धीरे धीरे वहां से चले गए लेकिन मनुवा वहीँ रह गया. कहानी में पात्रों के रूप में नम्बरदार और मनुवा के अलावा एक बाबा, मनुआ का छोटा लड़का छोटू (वह डरपोक है लेकिन शरीर से हट्टा-कट्टा है) तथा एक कुत्ता राजी है. कहानी के अंत में नम्बरदार मनुवा को यानादी टीले के खेतों से चूहे निकालने के लिए (जो खेती खा जाते हैं) कहता है. मनुवा और उसका बेटा रातभर चूहे निकालने का काम करते हैं और फिर वापिस आ जाते हैं और आमदनी होने की खुशी में उत्सव मनाते हैं. उसी रात नम्बरदार के खेत में तीन एकड़ धान की तैयार फसल काट ली जाती है. नम्बरदार का शक मनुवा पर है और वह उसकी डंडे से बहुत पिटाई करता है. वह मरणासन्न है (चोटों के कारण अन्ततः मारा जाता है). बाबा कुत्ते को नम्बरदार पर हमला करने के लिए उकसाता है. नम्बरदार का गला कट जाता है और वह मर जाता है. यह देख कर छोटू वहां से भाग जाता है और पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर लेता है. इधर 15 दिन तक कुत्ता भी रोता रहता है, कुछ खाता नहीं. किसी को काट लेता है. इस पर लोगों ने उस मरियल प्रायः कुत्ते को पत्थरों की चोटों से मार दिया. बाबा भी वहां से चला जाता है. झोंपड़ी भी आंधी, बारिश और धूप से अपना बचाव न कर पाने के कारण गिर जाती है. अंत में एक खौफनाक मौन सारे वातावरण को अपने आगोश में ले लेता है. ** |
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