17-07-2012, 11:29 PM | #81 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
राजकुमार स्थावर सर्ग की उच्छृंखल वृत्तियों और उद्दंडता से जितना उनके पिता राजा दुमिल दुखी थे, उससे अधिक वहां की प्रजा थी। वह हर वक्त अपनी उच्छृंखल वृत्तियों और उद्दंडता में ही मगन रहते थे। महाराज दुमिल ने उनकी इस प्रवृत्ति को दूर करने के लिए एक से बढ़कर एक विद्वान बुलाए, अच्छे-अच्छे नैतिक उपदेशों के लिए उस समय के नामी-गरामी वक्ताओं की भी व्यवस्था की, किंतु जिस तरह चिकने घड़े पर पानी का प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार राजकुमार स्थावर सर्ग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनका वही रवैया जारी रहा। अंत में महाराज दुमिल ने पूज्यपाद अश्वत्थ की शरण ली और उनसे आग्रह किया कि जो भी हो, वे उन्हें इस परेशानी से मुक्त करें। प्रजा के हित को ध्यान में रखकर महर्षि अश्वत्थ ने राजकुमार को ठीक करने का आश्वासन तो दे दिया, पर उन्होंने महाराज से स्पष्ट कह दिया कि उनकी किसी भी योजना में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं की जानी चाहिए। महाराज दुमिल ने उस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। महर्षि अश्वत्थ की आज्ञा से सर्वप्रथम स्थावर सर्ग की राज्य वृत्ति रोक दी गई। उनके पास की सारी संपत्ति छीन ली गई और सम्राट की ओर से उन्हें बंदी बनाकर अप-द्वीप पर निष्कासित कर दिया गया। यह वह स्थान था, जहां न तो पर्याप्त भोजन ही उपलब्ध था और न ही जल। अतिवृष्टि के कारण रात में सो सकना कठिन था। वहां दिन में हरदम हिंसक जंतुओं का भय बना रहता था। कुछ ही दिन में स्थावर सर्ग सूख कर कांटा हो गए। अब तक तो उनके मन में जो अहंकार था, वह प्रकृति की कठोर यातनाओं के आघात से टूटकर चकनाचूर हो गया। महाराज को इस बीच कई बार पुत्र के मोह ने सताया भी, पर वे महर्षि अश्वत्थ को वचन दे चुके थे, इसलिए कुछ बोल भी नहीं सकते थे। समय पूरा होने को आया। प्रकृति के संसर्ग में रहकर स्थावर सर्ग बदले और जब लौट कर आए, तो सबने उनका मुखमंडल दर्प से नहीं, करुणा और सौम्यता से दीप्तिमान देखा। जो काम मनुष्य नहीं कर सके, वह प्रकृति की दंड व्यवस्था ने पूरा कर दिखाया। प्रजा ने राहत की सांस ली। यह कथा पढ़ कर भी कोई सज्जन कुछ न समझें हों, तो उनके लिए स्पष्टीकरण है - प्रकृति के वैषम्य को देखें, फिर उसके पारस्परिक संबंधों पर विचार करें, स्पष्ट हो जाएगा कि मनुष्य का बदलना कितना आसान है।
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27-07-2012, 04:46 PM | #82 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
कठिनाइयों से सबक लें
जीवन की भौतिक उपलब्धियां आपकी खुशी तय नहीं कर सकतीं। आपकी शिक्षा और आपका प्रभावशाली सीवी आपकी जिंदगी नहीं है। जीवन कठिन है, जटिल है। किसी के नियंत्रण में नहीं है। समझदारी है कठिनाइयों से सबक लेने में और अपनी ऊर्जा को सही दिशा में इस्तेमाल करने में। सच्ची खुशी तब मिलती है, जब आप अपनी वास्तविक क्षमताओं को समझने लगते हैं। इसलिए पराजय से घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हार हमें खुद को पहचानने का मौका देती है। इसका फायदा उठाइए। ईश्वर ने इंसान को वह कल्पनाशक्ति प्रदान की है, जिसकी मदद से वह दूसरों की तकलीफों को महसूस कर सकता है, पर ज्यादातर लोग दूसरों के बारे में सोचना ही नहीं चाहते। वे दूसरों की पीड़ा समझने के लिए अपने दिल-दिमाग के दरवाजे नहीं खोलना चाहते। वे अपने संकरे घेरे में जीना चाहते हैं। यह सही नहीं है। आप जितना ज्यादा शिक्षित, योग्य और संपन्न हैं, आपकी जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा है और यह जिम्मेदारी अपने देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। दुनिया के अन्य हिस्सों में रह रहे लोगों के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी बनती है। कई बार ऐसा हो सकता है कि जिस क्षेत्र में कोई विफल रहा हो, उसी क्षेत्र में आप सफल हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति हमेशा जीतता ही रहे। कभी-कभी आपको हार का सामना भी करना पड़ता है। विफलता से कोई नहीं बच सकता। हार ही से आप यह तय कर सकते हैं कि आपके अंदर कितनी जबरदस्त इच्छाशक्ति है, अनुशासन है। ऐसा भी हो सकता है कि आप विफलता या हार से परिचित न हों, लेकिन आपके मन में भी हार-जीत को लेकर चिंता जरूर होगी। अब यह तो आपको तय करना है कि आपके लिए हार का क्या मतलब है। लोग अपने-अपने ढंग से आपके ऊपर हार-जीत के मानक थोपने की कोशिश करेंगे, लेकिन यह भी आपके ऊपर है कि उस मानक को आप किस संदर्भ में लेते हैं।
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27-07-2012, 04:48 PM | #83 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
संत इबादीन की सादगी
फारस के विख्यात संत इबादीन हमेशा खुदा की इबादत और दीन-दुखियों की सहायता में लगे रहते थे। वह रूखा-सूखा जो भी मिलता था, उसे खाकर भी बेहद प्रसन्न और संतुष्ट रहते थे। चूंकि वे काफी विख्यात थे, इसलिए रोजाना उनके पास ढेरों लोग आते थे और अपनी विभिन्न समस्याएं उनके सामने रखते थे। संत इबादीन बड़े ध्यान से उन सबकी बातें सुनते और सलाह मशविरा करके समस्या का समाधान करने की कोशिश करते। कई लोगों की समस्या बड़ी जटिल होती थी, तो वे उससे उबरने का रास्ता भी बताया करते थे। जो भी उनके पास समस्या लेकर आता, समाधान होने पर संतुष्ट होकर घर लौटता था। धीरे-धीरे उनकी शोहरत पूरे इलाके में फैलने लगी। उनकी शोहरत के किस्से फारस के शाह तक जा पहुंचे। जब कई लोगों ने शाह से संत इबादीन की उदारता और उनकी विद्वता की चर्चा की, तो शाह भी उनसे बेहद प्रभावित हो गए। वह संत इबादीन से मिलने के लिए उत्सुक हो उठे। शाह ने संत से मिलने का विचार किया। एक दिन वह ढेर सारे उपहार, खाने का सामान और कीमती कपड़े लेकर संत इबादीन की कुटिया में पहुंच गए। उन्होंने संत के चरणों में कीमती शॉल रखा और उनसे कहा कि वे पुराने शॉल को उतार कर नया शॉल ओढ़ लें। इस पर संत ने पूछा - तुम्हारे यहां तो बहुत से स्वामीभक्त सेवक होंगे? शाह इस सवाल पर कुछ देर के लिए तो हैरत में पड़ गए, फिर संत की तरफ देखते हुए 'हां' कहा। संत ने फिर पूछा - और अगर कोई नया आदमी नौकरी मांगने आ जाए, तो क्या तुम पुराने वफादार सेवकों को नौकरी से हटा दोगे? शाह ने कुछ सोचते हुए कहा नहीं - नहीं उन्हें क्यों हटाऊंगा। वे पहले की तरह मेरी सेवा करते रहेंगे। इस पर संत ने समझाया - इसी तरह तुम्हारे नए और कीमती कपड़े मिलने पर क्या पुराने कपड़ों को छोड़ देना ठीक होगा? कभी नहीं। आखिर ये वफादार सेवक की तरह हैं। तुम अपने ये कपड़े छोड़कर जा सकते हो, मगर पुराने कपड़े तो अपना समय पूरा करके ही हटेंगे। संत की सादगी के सामने शाह नतमस्तक हो गए। वे सारा सामान वहां छोड़कर चले गए।
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27-07-2012, 05:04 PM | #84 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
संयमित जीवन से मिलता है लक्ष्य
अगर आपके जीवन में लक्ष्य होता है, तभी आप खुद को जीवंत महसूस करते हैं। लक्ष्य तय करने का मतलब सिर्फ पढ़ाई और केरियर में मुकाम हासिल करना नहीं होता। लक्ष्य तय करने का मतलब एक संयमित सफल जीवन जीना भी होता है। संयमित सफलता का मतलब है, अपनी सेहत का ध्यान रखना, अपने रिश्तों को मजबूत बनाना और मानसिक शांति बनाए रखना। एक खुशहाल जीवन के लिए यह बहुत जरूरी है। अगर आपकी पीठ में चोट लगी हो, तो क्या आप कार ड्राइविंग का मजा ले पाएंगे? अगर आपका दिमाग तनाव से भरा हो, तो क्या आपको शॉपिंग करने में मज़ा आएगा ? सच्ची खुशी तभी महसूस होती है, जब जीवन में शांति और प्यार हो। अगर जीवन में सौहार्द नहीं होगा, तो आपके अंदर का उत्साह और जोश खत्म होने लगेगा। अपने अंदर की चिनगारी को बनाए रखने के लिए एक और बात जरूरी है। वह यह है कि जीवन में बहुत ज्यादा गंभीर नहीं होना चाहिए। जीवन में सीरियस नहीं, सिंसियर होना चाहिए। बेवजह की गंभीरता ओढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। बेहतर है कि हम अपने काम और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति ईमानदार बनें। बहुत ज्यादा गंभीर होने की जरूरत नहीं है। बस, अपने अंदर की चिनगारी को निराशा और अन्याय से बचाकर रखें। विफलता को स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है। कई बार आपको लगेगा कि दूसरे आपसे ज्यादा भाग्यशाली हैं, लेकिन बेहतर यह है कि जो आपको मिला है, उसे लेकर आप खुश रहें और जो नहीं मिला, उसे स्वीकार करने की हिम्मत रखें। उम्र बढ़ने के साथ भी अपने प्रिय शौक बनाए रखें। गैरजरूरी त्याग न करें। ऐसा करने से आपके अंदर की ऊर्जा खत्म होने लगती है। खुद से प्रेम करना भी जरूरी है। हम एक तरह से लिमिटेड वैलिडिटी वाले प्रीपेड कार्ड की तरह हैं। अगर हम भाग्यशाली रहे, तो अगले पचास साल तक जीवित रहेंगे। पचास साल का मतलब है 2,500 वीकेंड। इस समय को आनंद से गुजारें।
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27-07-2012, 05:07 PM | #85 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
बीज का सही उपयोग
किसी गांव में एक बहुत धनवान व्यक्ति रहता था। उसके पास काफी धन संपदा थी और उसके चर्चे भी दूर दूर तक हुआ करते थे, लेकिन उसके पास जो धन संपदा थी, वह उसने खुद की मेहनत से अर्जित नहीं की थी। जो कुछ भी था, वह सब उसे पिता से पैतृक सम्पति के रूप में मिला था। वह दिन-रात यही सपने देखता रहता था कि किस तरह उसकी सम्पति बढ़ती चली जाए। वह और अधिक संपत्ति पाने की लालसा ही पाले रहता था, लेकिन उसके लिए न तो मेहनत और न ही किसी प्रकार की कोशिश करता था। एक दिन उसने सोचा कि धन कमाने के लिए क्यों न किसी साधु-महात्मा से राय ली जाए। एक दिन वह एक संत के पास पहुंचा। उसने संत को प्रणाम कर कहा - महात्मा जी, आप तो जीने की कला जानते हैं। कृपया कोई ऐसी युक्ति बताइए, जिससे मेरी संपत्ति में लगातार वृद्धि हो। संत ने उसे कुछ बीज देते हुए कहा - ये बीज बड़े चमत्कारी हैं। तुम इन्हें अपने आंगन के किसी कोने में नमी वाली जगह पर बो देना। तुम्हारे धन में बढ़ोतरी होने लगेगी। वह धनी व्यक्ति बीज ले आया और उसने उन्हें आंगन के एक कोने में बो दिया। कुछ दिनों के बाद पौधे उग आए। पौधे बड़े हुए। उसमें फल आने लगे, पर उसकी संपत्ति नहीं बढ़ी। वह फिर संत के पास पहुंचा और दुखी होकर बोला - महाराज, मैंने तो बीज बो दिए, पर मेरी संपत्ति में थोड़ी भी बढ़ोतरी नहीं हुई। संत ने मुस्कराकर कहा - मैंने सोचा था कि तुम मेरी बात समझ जाओगे, पर तुम तो कुछ समझ ही नहीं पाए। तुमने बीजों का सही उपयोग किया। उन्हें बोया और अब वे फल दे रहे हैं। तुम ही नहीं तुम्हारा सारा परिवार उनका सुख ले रहा है। तुमने बीज बोया, पौधों को पानी दिया, तभी तो फल मिला। उसी तरह अपने धन को भी किसी उद्यम में लगाओ। इससे तुम्हें भी लाभ होगा और अनेक लोगों के लिए रोजी-रोजगार की व्यवस्था होगी। फिर उससे जो पैसे मिलें, उन्हें जनकल्याण में लगाओ। बिना उद्यम के संपत्ति कैसे बढ़ सकती है। धन का उपयोग बीज की तरह करो, नहीं तो जो धन है, वह भी नष्ट हो जाएगा। उस व्यक्ति को बात समझ में आ गई।
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29-07-2012, 01:44 AM | #86 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अंधेरे में पड़ी रस्सी
बाबा फरीद अपने स्वभाव के अनुसार हमेशा शांत भाव से रहते थे। अक्सर वे चलते-चलते ही मनन भी करते रहते थे। लोगों को उनकी इस आदत के बारे में जानकारी थी, इसलिए वे मनन के समय बाबा फरीद को टोकते नहीं थे। एक बार बाबा फरीद मनन करते हुए ही कहीं जा रहे थे। तभी एक व्यक्ति उनके साथ चलने लगा। हालांकि वह बाबा के स्वभाव को जानता नहीं था, लेकिन उसकी जिज्ञासा ने उसे बाबा के साथ कर दिया था। कुछ देर तक साथ चलने के बाद व्यक्ति ने बाबा से पूछा - क्रोध को कैसे जीता जा सकता है? काम को कैसे वश में किया जा सकता है? अक्सर ऐसे प्रश्न लोग बाबा से पूछते रहते थे। बाबा ने बड़े स्नेह से उस व्यक्ति का हाथ पकड़ा और बोले - तुम मेरे पीछे आते आते और चलते चलते थक गए होगे। चलो किसी पेड़ की छाया में विश्राम करते हैं। वहां बैठकर ही मैं तुम्हारे सवालों का जवाब दूंगा। दोनों ने एक छायादार पेड़ देखा और उसके नीचे बैठ गए। बाबा बोले - बेटा, दरअसल समस्या क्रोध और काम को जीतने की नहीं, इन दोनों को जानने और समझने की है। वास्तव में न हम क्रोध को जान पाते हैं और न काम को समझ पाते हैं। हमारा यह अज्ञान ही हमें बार-बार हराता है। इन्हें जान लो, तो समझो आपकी जीत पक्की है। जब हमारे अंदर क्रोध प्रबल होता है अथवा काम प्रबल होता है, तब हम नहीं होते हैं। हमें होश ही नहीं होता है कि हम क्या कर रहे हैं। इस बेहोशी में जो कुछ होता है, वह मशीनी यंत्र की भांति हम करते चले जाते हैं। बाद में केवल पछतावा बचता है। बात तो तब बने, जब हम फिर से सोयें नहीं। अंधेरे में पड़ी रस्सी सांप जैसी नजर आती है। इसे देख कर कुछ तो भागते हैं, कुछ उससे लड़ने की ठान लेते हैं, लेकिन गलती दोनों ही करते है। ठीक तरह से देखने पर पता चलता है कि वहां सांप तो है ही नहीं। बस, जानने की बात है। इस तरह इंसान को अपने को जानना होता है। अपने में जो भी है, उससे ठीक से परिचित भर होना है। बस, फिर तो बिना लड़े ही जीत हासिल हो जाती है। उस व्यक्ति को अपने सवाल का जवाब मिल गया।
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29-07-2012, 01:48 AM | #87 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
मूल्यों से समझौता नहीं करें
खुद पर भरोसा रखिए। ठान लीजिए कि आपके अंदर प्रतिभा है और आप चुनौतियों का बखूबी सामना कर सकते हैं। बस, आपको अपने अंदर यह विश्वास पैदा करना होगा कि आप अपने लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं। हो सकता है कि कई बार आपको यह समझ में नहीं आ रहा होता है कि आप क्या करें। खुद को साधारण मान कर पीछे भी हटने लगते हैं। कभी खुद को साधारण न मानें। आप यह महसूस करें कि अन्य लोगों की तरह आपके अंदर भी प्रतिभा है। मैं किसी से कम नहीं हूं। मैं भी वह सब कर सकता हूं, जो मेरे साथ वाले लोग कर सकते हैं। अपने मन में कभी यह ख्याल नहीं आने दें कि हालात की वजह से आप आगे नहीं बढ़ पाएंगे। परिस्थितियों को कभी बाधा नहीं बनने दें। हो सकता है, आपका जन्म एक साधारण परिवार में हुआ हो। माता-पिता भी साधारण नौकरी करते हों। जाहिर है कि वे अमीर लोगों की तरह आपको बड़ी-बड़ी सुविधाएं नहीं दे सकते, लेकिन वे हमें जीवन के मूल्य सिखाते हैं। इन्हीं मूल्यों की मदद से आप आगे बढ़ सकते हैं। अपने मूल्यों से समझौता मत कीजिए। विनम्र रहें। कृतज्ञ होना सीखें। हमें हर स्थिति में सच्ची कोशिश जारी रखनी चाहिए। आप कभी मत यह सोचें कि बहुत देर हो चुकी है। न कभी बहुत देर होती है और न कभी बहुत जल्दी। अच्छा काम आप कभी भी शुरू कर सकते हैं। सपने देखें, बड़े सपने देखें। अपने सपनों पर भरोसा रखें। आप अपनी किस्मत खुद लिख सकते हैं। कोशिश करनी होगी। बिना देर किए। हार से कभी मत डरिए। खतरा लेने से मत डरिए। खुद से सवाल पूछिए। यह बेवकूफी भरे सवाल भी हो सकते हैं। यह सोचकर मत डरिए कि कहीं वापस न आना पड़े। हार के भय से कोशिश करना मत छोड़िए। जैसे-जैसे आप जिंदगी में आगे बढ़ेंगे, मुश्किलें आएंगी। चुनौतियां आएंगी। कई बार भ्रम की स्थिति आएगी। हो सकता है कि कई बार आपकी बनाई योजनाएं विफल हो जाएं। आपके बेहतरीन विचारों में गलतियां निकाली जाएं। आपको इन सबसे निपटना होगा। बस, खुद को तैयार कीजिए।
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29-07-2012, 01:59 AM | #88 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
नकली लड़ाई, नकली जीत
हर किसी के भीतर खुद को विजेता समझने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए कि मानव ने कई स्तरों पर लड़कर ही सभ्य जीवन हासिल किया है। कोई भी व्यक्ति अपने को कमजोर नहीं मानना चाहता। वह हर समय एक ताकतवर पहचान से खुद को जोड़े रखना चाहता है। इसके लिए वह अपने को एक ताकतवर समुदाय का वंशज बताने में लगा रहता है। यह प्रवृत्ति दूसरे रूप में भी सामने आती है। हम खुद को श्रेष्ठ तो बताते ही हैं, दूसरों को कमजोर भी ठहराते हैं। यहां तक कि हम बहुत सफल व्यक्ति की भी जड़ें खोजने लगते हैं और उसे किसी कमतर समुदाय का ठहराकर एक मनोवैज्ञानिक संतोष प्राप्त करते हैं। यह एक तरह की जीत होती है यानी एक लड़ाई हमारे मन में चल रही होती है सभ्यता के आरंभिक दिनों की तरह। इस नकली लड़ाई में हम नकली जीत पाकर प्रसन्न होते हैं। अपने अहम् से बाहर निकलने और खुद को तुच्छ समझने की बात कहने वाले महापुरुष हमें इसी नकली संघर्ष से बाहर निकालना चाहते थे। दरअसल एक दुनिया सबके भीतर होती है। कई बार किसी गली से गुजरते हुए लगता है, हम उस गली में पहले रहा करते थे। इसी तरह जब हम किसी व्यक्ति से मिलते हैं, तो उसकी तुलना किसी पुराने शख्स से या किसी रिश्तेदार या किसी दोस्त से करने लग जाते हैं। हम हमेशा नई चीजों में पुरानी चीजों को खोजते रहते हैं। दूसरी तरफ हमेशा वर्तमान से ऊबे रहते हैं और बदलाव चाहते हैं, लेकिन जब नई चीजें आती हैं, तो हम पुरानी चीजों से उन्हें मिलाने की कोशिश करने लग जाते हैं। जब हमारा किसी एक चीज से रिश्ता बनता है, तो वह कभी टूटता नहीं है। हम कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते, चाहे वह कितना अप्रिय क्यों न हो। शायद हमारी यही बात हमें इंसान बनाती है। हम खुद भी एक सृष्टि कर रहे होते हैं। हर किसी के जेहन में अपनी एक दुनिया बसी होती है, जिसका रूप वह अपने हिसाब से तय करता है। शायद इसलिए हम नयों को पुरानों से और पुरानों को नयों से जोड़ते रहते हैं।
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29-07-2012, 02:05 AM | #89 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सच्चे संत की भलाई
सिखों के छठे गुरु हरगोविंद ने सबसे पहले सिखों के शस्त्रीकरण की बात कही थी। उनका मानना था कि मजबूत शरीर में ही सबल मन का निवास होता है। सभी लोग उनकी इस बात से सहमत थे। किन्तु जहां गुरु हरगोविंद की ख्याति चारों ओर फैलती जा रही थी, वहीं उनके दुश्मनों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। कुछ समय बाद सम्राट जहांगीर ने अपने एक दीवान चंदूलाल की शिकायत पर गुरु हरगोविंद को ग्वालियर के किले में कैद कर लिया। दरअसल चंदूलाल भी गुरु हरगोविंद की बढ़ती ख्याति को पचा नहीं पा रहा था। जब गुरु हरगोविंद को कैद करने की खबर फैली पर चारों तरफ हंगामा मच गया। सभी को जहांगीर के इस कदम पर आश्चर्य हुआ और नाराजगी भी हुई। तब लाहौर के मशहूर फकीर मियां मीर ने जहांगीर को चेतावनी दी कि एक दुष्ट दीवान के कहने पर एक सच्चे तपस्वी को बंदी बनाने का परिणाम उसे भुगतना होगा। यदि उसने गुरु हरगोविंद को मुक्त नहीं किया, तो भारी गड़बड़ी फैल सकती है। यह सुनकर जहांगीर घबरा गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने तुरंत गुरु हरगोविंद को मुक्त करने का हुक्म दिया। शाही हरकारे बादशाह का हुक्मनामा लेकर ग्वालियर के किले में पहुंचे, लेकिन गुरु हरगोविंद ने कैद से छूटने से इंकार कर दिया। सब चकित हो उठे। जब उनसे इसका कारण पूछा गया, तो वे बोले - मैंने इस कैदखाने में तमाम बेगुनाहों को जुल्म सहते देखा है। साधु हमेशा बंधन मुक्त होता है। जो आजाद है, वह दूसरों के बंधन को भी नहीं झेल सकता। गुरु हरगोविंद ने चेतावनी देते हुए हरकारे से कहा - बादशाह जहांगीर से कह दो कि या तो सभी बेगुनाह कैदियों को छोड़ दें या फिर मुझे भी यहीं कैद रखा जाए। गुरु हरगोविंद की बात का इतना असर था कि जहांगीर ने सभी बेगुनाह कैदियों को रिहा कर दिया। सिख परंपरा आज भी गुरु हरगोविंद के नाम के आगे बंदी छोड़ का विशेषण लगाती है। गुरु हरगोविंद ने अपनी जान की परवाह न करते हुए भी एक सच्चे संत की तरह पहले दूसरों की भलाई के बारे में सोचा।
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31-07-2012, 05:25 PM | #90 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
रंगीन पत्थरों के सहारे इलाज
कहते हैं कई बार आदमी के शरीर के अंदर कोई बीमारी होती ही नहीं, फिर भी वह अक्सर यह सोचने लगता है कि वह किसी न किसी बीमारी से जरूर पीड़ित है। दरअसल यह कोई बीमारी नहीं होती, केवल आदमी की मानसिकता ही इसका बड़ा कारण बन जाती है। आदमी की सोच भी फिर वैसी ही बनती चली जाती है। ब्राजील के एक बहुत ही अनुभवी डॉक्टर थे डॉ.सिमोन। पूरे देश में उनका काफी नाम था। वह असाध्य बीमारियों का उपचार तो करते ही थे, इसके अलावा मानसिक समस्याओं का समाधान भी बखूबी किया करते थे। वह आदमी को देख कर ही भांप लेते थे कि उसका किस पद्धति से इलाज करना बेहतर है। उनके मधुर स्वभाव और स्नेहपूर्ण संवाद से मरीज उनसे बेहद आत्मीयता महसूस करते थे। एक दिन उनकी कार का ड्राइवर डॉ. सिमोन के पास अपने एक रिश्तेदार जीमर को लेकर आया। जीमर को शराब की लत थी। वह नशा किए बगैर एक दिन भी नहीं रह पाता था। डॉ. सिमोन को उसने बताया कि वह शराब छोड़ना तो चाहता है, पर चाहकर भी नहीं छोड़ पा रहा है। उसने बहुत कोशिश की, पर उसे सफलता मिल ही नहीं रही है। जब रोज शाम को उसे तलब लगती है, तो वह शराब के लिए पागल जैसा हो उठता है। डॉ. सिमोन समझ गए कि यह शराबी कोरे उपदेशों से या जबर्दस्ती शराब छोड़ने वाला नहीं है। वह अंदर जाकर रंगीन पत्थरों के छोटे-छोटे टुकड़े ले आए और जीमर को देते हुए बोले - देखो, ये पत्थर दवा हैं। आज से ग्लास में शराब डालने से पहले इनमें से एक पत्थर उसमें डाल लेना। इसी तरह हर रोज एक - एक पत्थर बढ़ाते रहना। इन पत्थरों के प्रभाव से तुम्हारे नशे की आदत कम होते-होते एक दिन पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। जीमर ने वैसा ही किया। दिनों दिन उसके गिलास में पत्थर बढ़ते रहे और शराब कम होती रही। एक वक्त ऐसा भी आया, जब वह एकदम कम पीने लगा। फिर शराब में उसकी रुचि ही समाप्त हो गई। इस प्रकार जीमर जान भी नहीं पाया कि शराब छुड़ाने में पत्थरों ने नहीं, सिमोन की मनोवैज्ञानिक युक्ति ने कमाल दिखाया था।
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