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#921 |
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#922 |
Special Member
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उसके कहे से जो काष्ठ का थम्भा स्वर्ण का हो गया तो तू विचारकर देख कि किस कारण से काष्ठ का सुवर्ण हुआ | वह केवलमात्र है, जो संकल्प से भिन्न कुछ भी होता तो काष्ठ का सुवर्ण न होता | यह सर्व विश्व संकल्परूप है, जैसा संकल्पदृढ़ होता है, तैसा ही हो भासता है | जैसे तू अपने मनोराज में संकल्प करे है कि यह ऐसे रहे और जो उससे और प्रकार करे तो भी हो जावे सो होता है, तैसे ही वर और शाप भी और प्रकार हो जाते हैं |
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#923 |
Special Member
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न और कोई जगत् है, न कार्य है और न कारण है वही आत्मसत्ता ज्यों की त्यों है, जैसा संकल्प जिसमें फुरता है तैसा हो भासता है तू पूछता है कि असत्य से फिर जगत् कैसे उत्पन्न होता है जो आप ही न हो तो उसमें जगत् कैसे प्रकटे? हे राजन्! असत्य इसी का नाम है कि जो जगत् असत्य था इसलिये श्रुति ने उसे असत्य कहा | जो आदि असत्य था इसलिये असत्यता जगत् की कही है पर आत्मा तो असत्य नहीं होता? सबका शेषभूत आत्मा है, जब उसमें संवेदन फुरती है तब ब्रह्म अलक्ष्यरूप हो जाता है परन्तु उस संवेदन के फुरने और मिटने में ब्रह्म ज्यों का त्यों है उसका अभाव नही होता |
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#924 |
Special Member
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जैसे जल में तरंग उपजता है और फिर लीन हो जाता है परन्तु उसके उपजने और मिटने में जल ज्यों का त्यों है और तरंग उसके आभास फुरते हैं | जैसे तू मनोराज से एक नगर कल्पे और फिर संकल्प छोड़ दे तब संकल्परूप नगर का अभाव हो जाता है परन्तु सदा अविनाशी रहता है जैसे स्वप्ने की सृष्टि उपजती भी है और लीन भी हो जाती है परन्तु अधिष्ठान ज्यों का त्यों है और जैसे रत्नों का प्रकाश उठता है और लीन भी हो जाता है परन्तु रत्न ज्यों का त्यों होता है, तैसे ही आत्मा विश्व के भाव अभाव में ज्यों का त्यों रहता है पर उसका आभास जगत् उपजता मिटता भासता है | उपजता है तब उत्पत्ति भासती है और जब मिटता है तब प्रलय हो जाती है परन्तु उभय आभास हैं |
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#925 |
Special Member
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जैसे वायु फुरती है तब भासती है और ठहर जाती है तब नहीं भासती परन्तु वायु एक है तैसे ही आत्मा एक ही है फुरने का नाम उत्पत्ति है और न फुरने का नाम जगत् की प्रलय है सो सर्व किंचनरूप है |
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#926 |
Special Member
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वशिष्ठजी बोले कि हे राजन्! तूने प्रयाग के जो दो पुरुषों का प्रश्न किया है उसका उत्तर सुन | जो उसका शत्रु बन गया था सो तो उसका पाप था और जो उसका मित्र बन गया था सो उसका पुण्य था | प्रयाग तीर्थ धर्मक्षेत्र था | हे राजन्! पापरूप वासना के अनुसार मृत्यु भासती है पर पुण्यरूपी जो मित्र है सो पापरूपी शत्रु को रोकता है और पुण्यरूपी तीर्थ के बल से हृदय से अल्परूपी पाप वेग से भासता है जब मृत्यु आती है तब वह आपको मरता जानता है और भाईजन कुटुम्बी रुदन करते हैं पर जब अपनी और देखता है तब जानता है कि मैं तो मुआ नहीं |
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#927 |
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जब मृतक सर्ग की ओर देखता है तब आपको मुआ जानता है और भाईजन रूदन करते हैं | इस प्रकार उसको मरना भासता है, और यह देखता है कि भाईजन जलाने चले हैं , उन्होंने अग्नि में मुझको डाला है और मैं जलता हूँ | जब फिर पुण्य की ओर देखता है तब जानता है कि मैं मुआ नहीं जीता हूँ और फिर पाप की ओर देखता है तब जानता है कि मैं मुआ हूँ और मुझको यमदूत ले चले हैं, यह परलोक है और यहाँ मैं सुख दुःख भोगता हूँ | जब फिर पुण्य की ओर देखता है तब जानता है कि मैं मुआ नहीं, जीता हूँ, यह मेरे भाई बैठे हैं और वहाँ मेरा व्यवहार चेष्टा है इस प्रकार उभय अवस्था को पुरुष देखता है |
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#928 |
Special Member
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जैसे संकल्पपुर और स्वप्ननगर में उभय अवस्था देखे और एक ही पुरुष नाना प्रकार की चेष्टा देखता है | कहीं जीता देखता है, कहीं मृतक देखता है, कहीं व्यवहार देखता है और कहीं निर्व्या पार इत्यादिक नाना प्रकार की चेष्टा एक ही पुरुष में होती है, तैसे ही एक ही पुरुष को पुण्य पाप की वासना से जीना मरना भासता है | हे राजन्! यह सम्पूर्ण जगत् संकल्पमात्र है, जैसा संकल्प दृढ़ होता है तैसा ही रूप हो भासता है | परलोक जानना भी अपने वासना के अनुसार भासता है और जो कुछ उसके निमित्त पुत्र बान्धव देते हैं सो पुत्र बान्धव भी उसकी पुण्य पाप वासना में स्थित हुए हैं |
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#929 |
Special Member
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वे जो कुछ इसके निमित्त करते हैं उनसे यह सुख, दुःख , नरक, स्वर्ग भोगता है पर वास्तव में कोई बान्धव और पुत्र नहीं- उनकी वासना ही नाना प्रकार के आकार को धारकर स्थित हुई है | हे राजन्! सहस्त्र चन्द्रमा को जो तूने प्रश्न किया है उसका उत्तर सुनो सहस्त्र भी इसी आकाश में स्थित होते हैं और अपनी-अपनी वासना से कलासंयुक्त चन्द्रमा हो विराजते हैं परन्तु एक को दूसरा नहीं जानता परस्पर अज्ञात हैं-जो अन्तवाहक दृष्टि से देखे उसको भासते हैं | हे राजन्! जो कोई ऐसी भावना करे कि मैं उनके मण्डल को प्राप्त होऊँ तो तत्काल ही जो प्राप्त होता है | जैसे एकही मन्दिर में बहुत मनुष्य सोये हों तो उनको अपने स्वप्न की सृष्टि भासती है और अन्योन्य विलक्षण है-एक की सृष्टि को दूसरा नहीं जानता, तैसे ही एक आकाश में सहस्त्र चन्द्रमा बनते हैं |
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#930 |
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जैसे इन्द्र ब्राह्मण के दशपुत्र दशब्रह्मा हो बैठे थे तैसे ही जिसकी कोई तीव्र भावना करता है वही हो जाता है | जो कोई भावना करे कि हम इसी मन्दिर में सप्तद्वीप का राज्य करें तो वैसा ही हो जाता है, क्योंकि अनुभवरूपी कल्पवृक्ष है उसमें जैसी तीव्रभावना होती है, तैसे ही हो भासती है | वर के वश से उस पुरुष को सप्तद्वीप का राज्य प्राप्त हुआ और शाप के वश से उसका जीव उसी मन्दिर में रहकर द्वीप का राज्य करता रहा | जैसे स्वप्ने में राज्य करे हैं तैसे ही अपने मन्दिर में अपनी संवेदन ही सृष्टिरूप होकर भासती है |
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