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04-07-2013, 10:44 PM | #1 |
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Re: इधर-उधर से
चिंतन
जैसा आचरण राजा का वैसा ही प्रजा का (लेखक: योगेन्द्र जोशी) मैंने पहले भी महर्षि बाल्मीकिविरचित रामायण में उल्लिखित राम-जाबालि संवाद की चर्चा की थी । उल्लिखित प्रसंग में मुनि जाबालि श्रीराम को समझाते हैं कि उन्हें जनसमुदाय की आकांक्षाओं का सम्मान करते हुए उसकी अयोध्या वापसी की पार्थना मान लेनी चाहिये और तदनुरूप दिवंगत राजा को दिये अपने वचन भुला देना चाहिए । अपनी बात के समर्थन में उन्होंने कतिपय तर्क भी पेश किये थे । श्रीराम प्रतिवाद करते हुए कहते हैं कि वचन तोड़ने से स्वर्गीय राजा को कोई क्लेश नहीं पहुंचेगा इसे मान लें तो भी समाज के व्यापक हित में ऐसा करना सर्वथा हानिकर होगा । उनका तर्क थाः कामवृत्तोऽन्वयं लोकः कृत्स्नः समुवर्तते । यद्वृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ।।9।। (रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 109) (यदि मैं आपकी बात मान लूं तो भी यह कहना ही होगा कि पहले तो मुझे स्वेच्छाचारी मान लिया जायेगा, फिरदेखा-देखी) समाज में सभी स्वेच्छाचारी हो जायेंगे । (ऐसा इसलिए कि) राजागण जैसा आचरण प्रस्तुत करते हैं प्रजा वैसा ही स्वयं भी करती है । उपरिकथित तथ्य वस्तुतः शाश्वत और सार्वत्रिक मूल्य का है । आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नाम से तो कोई राजा नहीं है, किंतु राजा के स्थान पर हमारे जनप्रतिनिधि हैं, पूरी शासकीय व्यवस्था को चलाने वाले हैं । कही गयी बात उनके संदर्भ में भी मान्य है । वे जैसा आचरण करेंगे वैसा ही शासित सामान्य लोग भी करेंगे । चूंकि अनुकरणीय दृष्टांत प्रस्तुत करने वाले जनप्रतिनिधि अब ढूढ़े नहीं मिलते, इसलिए सदाचारण का समाज में लोप हो रहा है । दुर्भाग्य से उच्च पद पर आसीन व्यक्ति अब इस बात की परवाह प्रायः नहीं करता कि उसके कृत्यों को लेकर सामान्य जनों के बीच उसकी क्या छबि बन रही है । काश, ऐसा हो पाता कि शासकीय व्यवस्था के शीर्षस्थ लोग आम आदमियों के लिए अनुकरणीय उदाहरण पेश करते ! |
07-07-2013, 10:42 PM | #2 |
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Re: इधर-उधर से
काश हर मस्ज़िद की खिड़की मंदिर में खुलती
लेखक: सत्यजीत चौधरी 6 दिसंबर, 1992 को जब विवादित ढांचा ढहाया गया, तब मैं जवान हो रहा था। बारहवीं में था। पिताजी उन दिनों बुलंदशहर में बतौर अध्यापक तैनात थे। हम सब उनके साथ ही रह रहे थे। दंगे भडक चुके थे। हमने छत पर चढïकर दूर मकानों से उठती लपटों की आंच महसूस की थी। मौत के खौफ से बिलबिलाते लोगों की चीखें सुनी थीं। हैवानियत का नंगा नाच देखा था। ‘जयश्री राम’ और ‘अल्लाह ओ अकबर’ के नारों में भले ही ईश्वर और अल्लाह का नाम हो, लेकिन तब उन्हें सुनकर रीढ़ों में बर्फ-सी जम जाती थी। पूरा देश जल रहा था। अखबार और रेडियो पर देशभर से आ रही खबरें बेचैन किए रहतीं। हमारे हलक से निवाले नहीं उतरते थे। तभी से ‘छह दिसंबर’ मेरे दिमाग के किसी गोशे में नाग की तरह कुंडली मारकर बैठ गया था। कमबख्त तब से शायद हाईबरनेशन में पड था। इतने सालों बाद जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला सुनाने का ऐलान हुआ तो नाग कुलबुलाकर जाग गया। पिछले एक महीने से नाग और राज्य सरकार की तैयारियों ने बेचैन किए रखा। अयोध्या फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश के एडीजी (लॉ एंड आर्डर) बृजलाल के प्रदेशभर में हुए तूफानी दौरों ने और संशय में डाल दिया। इसके बाद शुरू हुआ ‘संयम की सीख का हमला। प्रदेश सरकारों से लेकर केंद्र सरकार, और संघ-भाजपा से लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, दारुल उलूम तक फैसले का सम्मान करने की घुट्टी पिलाते मिले। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया तो कुछ सुकून मिला, लेकिन चार दिन बाद ही जब सर्वोच्च अदालत ने मामला फिर हाईकोर्ट को लौटा दिया तो वही बेचैनी हावी हो गई। मुजफ्फरनगरगर्भनाल की तरह मुझसे जुड़ा है। मम्मी-पापा और बच्चे वहीं रहते हैं। ‘फैसले की घड़ी’ जैसे-जैसे नजदीक आती गई, जान सूखती चली गई। मैं दिल्ली में, बच्चे और मां-पिताजी वहां। मुजफ्फरनगर के कुछ मुस्लिम दोस्तों की टोह ली। वे भी हलकान मिले। हिंदुओं को टटोला, वहां भी बेचैनी का आलम। बस एक सवाल सबको मथे जा रहा था कि ‘तीस सितंबर’ को क्या होगा। कुछ और लोगों से बात हुई तो पता चला कि पुलिस वाले गांव-गांव जाकर उन लोगों के बारे में जानकारियां इकट्ठा कर रहे हैं, जिनकी छह दिसंबर, 1992 के घटनाक्रम के बाद भड़के दंगों में भूमिका थी या जो इस बार भी शरारत कर सकते थे। इस दौरान एक-दो बार मुजफ्फरनगर के चक्कर भी लगा आया। लोग बेहद डरे-सहमे मिले। उन्हें लग रहा था कि तीस तारीख को फैसला आते ही न जाने क्या हो जाएगा। सबको एक ही फिक्र खाए जा रही थी कि ‘छह दिसंबर’ न दोहरा दिया जाए। लोगों को लग रहा था कि शैतान का कुनबा फिर सड़कों पर निकल आएगा। पथराव होगा, आगजनी अंजाम दी जाएगी। अस्मतें लुटेंगी, खून बहेगा। इंसानियत को नंगा कर उसके साथ बलात्कार किया जाएगा। |
07-07-2013, 10:43 PM | #3 |
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Re: इधर-उधर से
खैर ‘तीस सितंबर’ भी आ गई। उस दिन मैं गाजियाबाद स्थित ‘एक कदम आगे’के कार्यालय में बैठा था। देश के लाखों लोगों की तरह मैं भी टीवी से चिपका था। खंडपीठ के निर्णय सुनाने के कुछ ही देर बाद हिंदू संगठनों के वकील और उनके कथित प्रतिनिधि न्यूज चैनलों पर नमूदार हो गए। उन्होंने फैसले की व्याख्या जिस अंदाज में शुरू की, उसने सभी को डराकर रख दिया। कई चैनल ऐसे भी थे, जिन्होंने समझदारी से काम लिया और फैसले की प्रमुख बातों को समझने के बाद ही मुंह खोला।। बहरकैफ, इस दौरान मैं लगातार मुजफ्फरनगर के लोगों के संपर्क में रहा। इस बीच, खबर आई की मुजफ्फरनगर जिले की हवाई निगरानी भी हो रही है। सुरक्षा प्रबंधों से साफ हो गया था कि शासन ने मुजफ्फरनगर जनपद को संवेदनशील जिलों में शायद सबसे ऊपर रखा था। राज्य सरकार कोई रिस्क नहीं लेना चाह रही थी।
मैं घबराकरइंटरनेटकी तरफ लपका। मेरी हैरत की इंतहा नहीं रही, जब मंने पाया कि ट्वीटर, फेसबुक और जीटॉक के अलावा ब्लाग्स पर ‘जेनरेशन नेक्स्ट’ अपना वर्डिक्ट दे रही थी, अमन, एकजुटता और भाईचारे का ‘फैसला’। एक भी ऐसा मैसेज नहीं मिला जो नफरत की बात कर रहा हो। पहले तो यकीन नहीं हुआ, फिर इस एहसास से सीना फूल गया कि देश का भविष्य उन हाथों में है, जो हिंदू या मुसलमान नहीं, बल्कि इंसान हैं। कह सकते हैं कि भविष्य का भारत महफूज हाथों में हैं। कई युवाओं ने फैसले पर ट्वीट किया था- ‘न कोई जीता, न कोई हारा। आपने नफरत फैलाई नहीं कि आप बाहर।’ कहीं पढ़ा था कि पुणे मेंघोरपड़ी गांवहै, जहां मस्जिद की खिड़की हिंदू मंदिर में खुलती है।अहले-सुन्नत जमात मस्जिद और काशी विशेश्वर मंदिर को अगर जुदा करती है, तो बस ईंट-गारे की बनी एक दीवार। एक और रोचक तथ्य इस दोनों पूजास्थलों के बारे में यह है कि जब बाबरी विध्वंस के बाद पूरे देश में दंगे भड़क रहे थे, पुणे में दोनों समुदाय के लोगों ने मिलकर मंदिर का निर्माण कर रहे थे। निर्माण के लिए पानी मस्जिद से लिया जाता था। याद आया कि ऐसी ही शानदार नजीर हम मुजफ्फरनगर वाले काफी पहले पेश कर चुके हैं। कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होकर ‘धर्म के कारोबारियों’ को आईना दिखा रहे हैं। माना जाता है कि मस्जिद 1391 में बनी थी। ब्रिटिश शासनकाल में मस्जिद के बगल में खाली पड़ी जमीन को लेकर विवाद हो गया। हिंदुओं का कहना था कि उस स्थान पर मंदिर था। मामला किसी अदालत में नहीं गया। दोनों फिरकों के लोगों ने बैठकर विवाद का निपटारा कर दिया। तब मस्जिद के इंचार्ज मौलाना महमूद बख्श कंधेलवी ने जमीन का वह टुकडा हिंदुओं को सौंप दिया। वहां आज लक्ष्मी नारारण मंदिर शान से खड़ा है। मंदिर में आरती होती है और मस्जिद से आजान की आवाज बुलंद होती है। सह-अस्तित्व की इससे बेहतर मिसाल और क्या होगी। यह है हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत की मिसाल। ** |
08-07-2013, 10:27 PM | #4 |
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Re: इधर-उधर से
अपना-पराया
(लेखक: जयप्रकाश मानस) उस दिन आफिस के लिए निकला तो देखता हूँ कि पड़ोसन भाभी, अस्त व्यस्त साड़ी लपेटे, बदहवास सी कहीं चली जा रही थी । मैंने स्कूटर उनके पास रोक कर पूछा- ‘क्या बात है भाभी इस तरह .......मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि वह सुबकने लगीं।’ सुबकते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाईं, “अभी-अभी खबर मिली है कि गुड्डी के दूल्हे ने जहर खा लिया है, इसलिए उसके यहाँ जा हूँ ।” मन बहुत आहत हुआ, किंतु क्या कर सकता था सिवाय इसके कि उन्हें बस स्टेण्ड तक छोड़ दूँ । शाम को लौटते समय सोचा चलो उनके घर का हाल तो ले लूँ । मैंने दरवाजा खटखटाया ही था कि अंदर से भाभी की हँसी सुनाई पड़ी । मैं चौंका, तभी भाभी बाहर आ गई । उनके मुस्कुराते चेहरे को देखकर मैंने कहा- ‘अफवाह थी ना ?’ ‘नहीं, वो तो मुझे तब राहत मिली जब बस स्टैण्ड में ही पता चला कि ज़हर, गुड्डी के दूल्हे ने नहीं, उसके जेठ ने खाया था।’ भाभी ने कहा । |
08-07-2013, 10:29 PM | #5 |
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Re: इधर-उधर से
नसीहत
(लेखक: जयप्रकाश मानस) मुन्ना दौड़ता हुआ कमरे से निकल रहा था, कि उसका पैर फर्श में पड़े गिलास से टकराया गया और गिलास टूट गया। पास खड़े पापा जी ने एक चपत लगा कर ‘देखकर चलने’ की नसीहत पिला दी । चंद दिनों बाद एक दिन मुन्ना बरामदे में खेल रहा था । पापाजी कहीं जाने को जल्दी-जल्दी निकले तो उनका पैर कमरे में रखे कप से टकरा गया । मुन्ना की निगाह पापा जी से मिली किंतु अप्रत्याशित रुप से इस बार फिर चपत उसे पड़ गई और साथ ही नसीहत, कि चीजों को ठीक जगह पर क्योंनहीं रखते। |
09-07-2013, 08:36 PM | #6 |
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Re: इधर-उधर से
हृदयग्राही उद्धरण ... आभार बन्धु।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
11-07-2013, 11:29 PM | #7 |
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Re: इधर-उधर से
लघुकथा / इकलौती औलाद
(लेखक: दीपक 'मशाल') उस छोटे से कस्बे में ले दे कर एक ही तो टॉकीज थीजिसमें सबको मनोरंजन के लिए जाना होता था।लेकिन उसे क्या पता था कि आज उसके स्कूल से भागकर और घर से चुराए गए उन पैसों से वो माधुरी दीक्षित की याराना फिल्म देखने से इतनी बड़ी मुसीबत में फंस जाएगा।फिल्म ख़त्म होने तक तो सब ठीक-ठाक था लेकिन बाहर निकलते ही उसके सामने पड़ोस में रहने वाले वो मिश्रा अंकल पड़ गए।अब एक तो मिश्रा जी इधर-उधर करने में माहिर, ऊपर से पापा के दोस्त भी।उसकी तो ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे।शाम को पिटाई तो तय ही थी।मारे डर के वो घर ना जाकर कस्बे से सौ किलोमीटर दूर बसे शहर को जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ गया।शाम तक जब उसका कुछ पता ना चला तो घर वाले परेशान हो उठे।मोहल्ले में हंगामा मच गया, सारे कस्बे में कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा गया, मिश्रा जी को भी उसी दिन किसी काम से 15 दिन के लिए बाहर जाना पड़ गया तो अब खबर कौन देता।पुलिस में रिपोर्ट हुई लेकिन नतीजा सिफ़र। कहते हैं कि भूख वो बला है जो अच्छे-अच्छों को रास्ते पर ले आती है।तो दो दिन बाद जब सारा पैसा ख़त्म हो गया तो लड़का थक हार कर पेट टटोलता हुआ घर लौट आया।अब ना उसे मार का डर था ना पिटाई का, थी तो सिर्फ भूख।रास्ते में बचने का उपाय भी सोच लिया।घर पहुँचने पर माँ-बाप के तो जैसे प्राण ही लौट आये।पूछने पर उसने बताया कि एक झोली वाला बाबा उसके ऊपर जादू करके ले गया था।पहले साथ में फिल्म दिखाई फिर बिस्कुट खिलाकर जाने क्या नशा करा दिया कि उसे पता ही ना चला फिर क्या हुआ।लेकिन जब दूसरे शहर में पहुँचने पर होश में आया तो किसी तरह जान छुड़ा कर घर लौट आया। लड़के की बहादुरी से सभी बड़े प्रभावित, ऐसे स्वागत हुआ जैसे कोई कुँवर जंग जीत कर लौटा हो।अब बाप को चोरी हुए पैसों का सारा चक्कर समझ में तो आ रहा था, पर बेचारा इकलौती औलाद का और करता भी क्या। (अंतरजाल से) |
11-07-2013, 11:31 PM | #8 |
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Re: इधर-उधर से
लघुकथा / देनदारी
(लेखक: दीपक 'मशाल') उम्र के सातवें दशक में कदम रखते अवध किशोर की साइकिल भी उसी कीतरह हो चली थी। बाकी सब तो चलाया भी जा सकता लेकिन उस चेन का क्या करते जो इतनी पुरानी और ढीली पड़ गई थी कि हर दस कदम पर ही उतर जाती। अपना खुद का कोई ख़ास काम ना होने की वजह से उसे घर के सामान लाने के इतने काम दे दिए जाते कि सारा दिन निकल जाता। वो भी साइकिल के बिना तो दिन भर में भी पूरे ना हों। आज उसकी छोटी सी वृद्धावस्था पेंशन हाथ आई तो सोचा कि पहले नई चेन ही डलवा लेते हैं। पैसे लेकर घर पहुंचा ही था कि उसके हाथ में हरे-हरे नोट देख बेटा बोल पड़ा, ''दद्दा दो महीना पहलें तुमने चश्मा और जूता के लाने जो पैसा हमसे लए ते वे लौटा देओ, हमे जा महीना तनख्वाह देर से मिलहे और मोटरसाइकिल की सर्विस जरूरी कराने है।'' अवध किशोर ने पैसे उसे देते हुए इतना ही कहा, ''हाँ बेटा हम तो भूलई गए ते कि तुम्हाई कछू देनदारी है हमपे, अच्छो रओ तुमने याद दिला दई।'' (अंतरजाल से) |
11-07-2013, 11:36 PM | #9 |
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Re: इधर-उधर से
सुनने की कला
(विलियम स्ट्रिंगफेलो) सुनने का गुण मानव जीवन को विशिष्टता प्रदान करता है. आप दूसरे व्यक्ति के कहे हए शब्द नहीं सुन पायेंगे यदि आप अपनी वेशभूषा के बारे में ही सोच रहे होंगे या यह सोच रहे होंगे कि आप दूसरे व्यक्ति के चुप होने के बाद क्या बोलेंगे अथवा वह जो बोल रहा है वह ठीक है या नहीं, तर्कपूर्ण या सहमत होने लायक है भी या नहीं. इन सभी मुद्दों का अपना अपना महत्व है, किन्तु तभी जब वक्ता अपनी बात कह चुका हो और सुनने वाला एक एक शब्द को पूरी गंभीरता से सुन चुका हो, उसके बाद. सुनना भी प्रेम-प्रदर्शन का एक पुरातन तरीका है, जिसमे एक व्यक्ति बोलने वाले के शब्दों को ईमानदारी से सुनता है और उन्हें समर्पित भाव से अपने ह्रदय और मस्तिष्क तक आने देता है. |
11-07-2013, 11:41 PM | #10 |
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Re: इधर-उधर से
वनों के प्यार में एक व्यक्ति यदि अपना आधा दिन पेड़ों व हरियाली के आकर्षण मेंबंध कर किसी वन में जा कर बिताता है, तो दुनिया वाले उसे ‘आवारा’ या ‘लोफ़र’ कह कर बुलाने से नहीं चूकते. दूसरी ओर, यदि एक व्यक्ति उसी जंगल के पेड़ काटता है, बेचता है और समय से पहले ही धरती को बंजर बनाने की दिशा में काम करता है तो उसे बड़ा मेहनती और उद्यमशाली नागरिक कह कर इज्ज़त-मान दिया जाता है. क्यों? हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) अमरीकी लेखक, कवि, दार्शनिक, दास-प्रथा विरोधी |
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