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Old 20-12-2010, 01:20 PM   #1
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Post ~!!श्री भागवत पुराण!!~

!!बिष्णु पुराण!!
बिष्णु पुराण १
क्षीर सागर में स्थित त्रिकूट पर्वत पर लोहे, चांदी और सोने की तीन चोटियाँ थीं। उन चोटियों के बीच एक विशाल जंगल था जिसमें फलों से लदे पेड़ भरे थे। उस जंगल में गजेंद्र नामक मत्त हाथी अपनी असंख्य पत्नियों के साथ विहार करते अपनी प्यास बुझाने के लिए एक तालाब के पास पहुँचा।

प्यास बुझाने के बाद गजेंद्र के मन में जल-क्रीड़ाएँ करने की इच्छा हुई। फिर वह अपनी औरतों के साथ तालाब में उतर कर पानी को उछालते हुए अपना मनोरंजन करने लगा। इस बीच एक बहुत बड़े मगरमच्छ ने गजेंद्र के दायें पैर को अपने दाढ़ों से कसकर पकड़ लिया। इस पर पीड़ा के मारे गजेंद्र धींकार करने लगा। उसकी पत्नियाँ घबड़ा कर तालाब के किनारे पहुँचीं और अपने पति के दुख को देख आँसू बहाने लगीं। उनकी समझ में न आया कि गजेंद्र को मगरमच्छ की पकड़ में से कैसे छुड़ायें?

गजेंद्र भी मगरमच्छ की पकड़ से अपने को बचाने के सारे प्रयत्न करते हुए छटपटाने लगा। गजेंद्र अपने दाँतों से मगरमच्छ पर वार कर देता और मगरमच्छ उछल कर हाथी के शरीर को अपने तेज नाखूनों से खरोंच लेता जिससे खून की धाराएँ निकल आतीं।

हाथी मगरमच्छ की पीठ पर अपनी सूंड चलाता, मगरमच्छ अपनी ख़ुरदरी पूँछ से हाथी पर वार कर देता। अगर हाथी अपने चारों पैरों से मगरमच्छ को कुचलने की कोशिश करता तो वह पानी के तल में जाकर छिप जाता। इस पर हाथी किनारे पर पहुँचने के लिए आगे बढ़ता, तब झट से मगरमच्छ हाथी को पकड़ कर खींच ले जाता और उसे पानी में डुबो देता। इस तरह मगरमच्छ और हाथी के बीच एक हज़ार साल तक लगातार लड़ाई चलती रही।
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Last edited by ABHAY; 20-12-2010 at 10:15 PM.
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Old 20-12-2010, 01:22 PM   #2
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Post Re: बिष्णु पुराण

गजेंद्र अपनी ताक़त पर विश्वास करके हिम्मत के साथ लड़ता रहा, फिर भी धीरे-धीरे उसकी ताक़त घटती गई। मगरमच्छ तो पानी में जीनेवाला प्राणी है !

पानी के अंदर उसकी ताक़त ज़्यादा होती है ! वह हाथी का खून चूसते दिन ब दिन मोटा होता गया। हाथी कमजोर हो गया। अब सिर्फ़ उसका कंकाल मात्र रह गया। मगरमच्छ की पकड़ से अपने को बचा लेना हाथी के लिए मुमकिन न था।

आख़िर गजेंद्र दुखी हो सोचने लगा, ‘‘मैं अपनी प्यास बुझाने के लिए यहाँ पर आया। प्यास बुझाने के बाद मुझे यहाँ से चला जाना चाहिए था ! मैं नाहक़ क्यों इस तालाब में उतर पड़ा? मुझे कौन बचायेगा? फिर भी मेरे मन के किसी कोने में यह यक़ीन जमता जा रहा है कि मैं किसी तरह बच जाऊँगा। इसका मतलब है कि मेरी आशा का कोई आधार ज़रूर होगा। उसी को मैं ईश्वर कहकर पुकारता हूँ।''

‘‘देवता, भगवान, ईश्वर नामक भावना का मूल बने हे प्रभु ! तुम्हीं सभी कार्य-कलापों के कारण भूत हो !

‘‘मुझ जैसे घमण्डी प्राणी जब तक खतरों में नहीं फँसते, तब तक तुम्हारी याद नहीं करते ! दुख न भोगने पर तुम्हारी ज़रूरत का बोध नहीं होता ! तुम तब तक उसे दिखाई नहीं देते, जब तक वह यह नहीं मानता कि तुम हो, और उसके मन में यह खलबली नहीं मचती कि तुम हो या नहीं।'' इस तरह बराबर सोचनेवाले गजेंद्र को लगा कि मगरमच्छ के द्वारा सतानेवाली पीड़ा कुछ कम होती जा रही है !

गजेंद्र ने जब ध्यान करना शुरू किया, तभी मगरमच्छ के दाढ़ों के मसूड़ों में पीड़ा शुरू हुई। उसका कलेजा काँपने लगा। फिर भी वह रोष में आकर गजेंद्र के पैर को चबाने लगा।

‘‘प्राणियों की बुराई और पीड़ा को तुम हरनेवाले हो ! तुम सब जगह फैले हुए हो ! देवताओं के मूल रूप हे भगवान ! इस दुनिया की सृष्टि के मूलभूत कारण तुम हो। मैं यह विश्वास करता हूँ कि अपनी रक्षा करने के लिए मैं जितनी तीव्रता के साथ प्रार्थना करता हूँ, तुम उतनी जल्दी मेरी रक्षा कर सकते हो !
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Old 20-12-2010, 01:31 PM   #3
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Post Re: बिष्णु पुराण

‘‘सब प्रकार के रूप धरनेवाले, वाणी और मन से परे रहनेवाले हे ईश्वर ! ऐसे अनाथों की रक्षा करनेवाली जिम्मेदारी तुम्हारी ही है न?

‘‘प्राण शक्तियाँ मेरे भीतर से जवाब दे चुकी हैं! मेरे आँसू सूख गये हैं? मैं ऊँची आवाज़ में तुम्हें पुकार भी नहीं सकता हूँ ! मैं अपना होश-हवास भी खोता जा रहा हूँ! चाहे तुम मेरी रक्षा करो या छोड़ दो, यह सब तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। मेरे अंदर सिर्फ़ तुम्हारे ध्यान को छोड़ कोई भावना नहीं है। मुझे बचाने वाला भी तुम्हारे सिवाय कोई नहीं है !'' यों गजेंद्र सूंड उठाये आसमान की ओर देखने लगा।

मगरमच्छ को लगा कि उसकी ताक़त जवाब देती जा रही है ! उसका मुँह खुलता जा रहा है। उसका कंठ बंद होता जा रहा है।

उधर हाथी की आँखें इस तरह बंद होने लगीं कि उसे अपने अस्तित्व का ही बोध न था। वह एक दम अचल खड़ा रह गया।

उस हालत में विष्णु आ पहुँचे। सारा आसमान उनके स्वरूप से भर उठा। गजेंद्र को लगा कि वह एक अत्यंत सूक्ष्म कण है।

विष्णु ने अपना चक्र छोड़ दियाऔर अभय मुद्रा में अपना हाथ फैलाया। बड़ी तेज़ गति के साथ चक्कर काटते विष्णु-चक्र ने आकर मगरमच्छ का सर काट डाला।

दर असल मगरमच्छ एक गंधर्व था। उसका नाम ‘हुहू' था। प्राचीन काल में देवल नामक एक ऋषि पानी में खड़े होकर तपस्या कर रहे थे, तब मगरमच्छ की तरह पानी में छिपते हुए आकर गंधर्व ने उनका पैर पकड़ लिया। इस पर ऋषि ने उसे शाप दे डाला कि तुम मगरमच्छ की तरह इस पानी में पड़े रहो ! अब विष्णु-चक्र के द्वारा उसका शाप जाता रहा।

मगरमच्छ से छुटकारा पानेवाले गजेंद्र को तालाब से बाहर खींचकर विष्णु ने अपनी हथेली से उसके कुँभ-स्थल को स्पर्श किया। उस स्पर्श की वजह से गजेंद्र अपनी खोई हुई ताक़त पाने के साथ पूर्व जन्म का ज्ञान भी प्राप्त कर सका।

गजेंद्र पिछले जन्म में इंद्रद्युम्न नामक एक विष्णुभक्त राजा थे। विष्णु के ध्यान में मग्न उस राजा ने एक बार ऋषि अगस्त्य के आगमन का ख़्याल न किया। ऋषि ने क्रोध में आकर उसे शाप दिया कि तुम अगले जन्म में मत्त हाथी बनकर पैदा होगे। उसी दिन गजेंद्र के रूप में पैदा होकर उसने मुक्ति प्राप्त की।
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Old 20-12-2010, 01:38 PM   #4
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Post Re: बिष्णु पुराण

गजेंद्र मोक्ष की कहानी नैमिशारण्य में होनेवाले सत्र याग में पधारे हुए शौनक आदि मुनियों को सूत महर्षि ने सुनाई।

मुनियों ने सूत महर्षि से कहा, ‘‘मुनिवर, गजेंद्र मोक्ष की कहानी हमें तो सिर्फ़ एक हाथी की जैसी मालूम नहीं होती, बल्कि सारे प्राणि कोटि से संबंधित मालूम होती है। ख़ासकर कई बंधनों और मुसीबतों में फँसकर तड़पनेवाले मानव जीवन से संबंधित लगती है।''

इसके जवाब में सूतमहर्षि बोले, ‘‘हाँ, गजेंद्र मोक्ष की कहानी श्लेषार्थ से भरी हुई है। उसका अन्वय जो जिस रूप में चाहे कर सकता है। काल तो विष्णु के अधीन में है। इसलिए काल-चक्र के परिभ्रमण में कई कठिनाइयाँ और समस्याएँ हल होती जाती हैं।''

मुनियों ने पूछा, ‘‘मुनिवर, गजेंद्र मोक्ष के आधार पर हमें यह मालूम होता है कि प्रत्येक कार्य का कारणभूत सर्वेश्वर विष्णु हैं। ऐसे महाविष्णु की कहानी पूर्ण रूप से सुनने की इच्छा हमारे मन में जाग रही है। हम आपके सामने बच्चों के समान हैं। इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमारी समझ में आने लायक़ सरल शैली में विष्णु कथा की सारी बातें समझा दें। आपने महर्षि व्यास के द्वारा समस्त पुराण, इतिहास और उनके मर्म को भी जान लिया है। इसलिए आप ही वे कहानियाँ सुनाकर हमको कृतार्थ कर सकते हैं।''

मुनियों की बातें सुनकर सूत मुनि ख़ुश हुए और बोले, ‘‘हाँ, ज़रूर सुनाऊँगा। महर्षि व्यास ने विष्णु से संबंधित अनेक लीलावतारों की विशेषताओं को महा भागवत के रूप में रचा और अपने पुत्र शुक को सुनाया। विष्णु पुराण सुनकर भव सागर से तरने की इच्छा रखनेवाले महाराजा परीक्षित को शुक महर्षि ने सुनाया। गजेंद्र की रक्षा करने के लिए प्रकट हुए विष्णु का अवतार आदि मूलावतार माना गया।
भगवान विष्णु ने कई अवतार लिए; उनमें विकास की दशाओं के अनुसार दशावतार नाम से प्रसिद्ध दस अवतार ज़्यादा मुख्य हैं।

नार का अर्थ नीर है। विष्णु जल के मूल हैं, इसलिए वे नारायण कहलाये। नारायण से ही नीर या जल का जन्म हुआ। जल से प्राणी पैदा हुए। विष्णु मछली के रूप में अवतरित हुए; दशावतारों में वही पहला मत्स्यावतार है।

विष्णु जल से भरे नील मेघ के रंग के होते हैं। मेघ के अंदर जैसे बिजली छिपी हुई है, उसी प्रकार विष्णु स्वयं तेजोमय हैं, उनके भीतर से उत्पन्न जल भी तेज से भरे रहकर गोरे रंग का प्रकाश बिखेरता रहता है। वही जल कारणोदक क्षीर सागर है।

क्षीर सागर में अनंत रूपी काल (समय) शेषनाग के रूप में कुंडली मारे लेटा रहता है। शेषनाग के एक हज़ार फण हैं। अनन्त शेषनाग पर शेषशायी के रूप में विष्णु लेटे रहते हैं। उनकी नाभि में से एक लंबे नाल के साथ एक पद्म ऊपर उठा। उसी पद्म से ब्रह्मा का उदय हुआ। ब्रह्मा ने सभी प्राणियों की सृष्टि की।

अनंतकाल युगों के रूप में चलता रहता है। कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग - इन चारों को मिलाकर एक महा युग होता है।

एक हज़ार महायुग मिलकर एक कल्प होता है। एक कल्प ब्रह्मा का एक दिन होता है (रात का व़क्त इसमें शामिल नहीं है) दिन के समाप्त होते ही उन्हें नींद आ जाती है। वही कल्पांत है। उस व़क्त चारों ओर गहरा अंधेरा छा जाता है। विष्णु से निकली संकर्षण की अग्नि सब को जला देती है। झंझावात चलने लगते हैं, तब भयंकर काले बादल हाथी की सूंडों जैसी जलधाराएँ लगातार गिराने लगती हैं। महासमुद्र में आसमान को छूनेवाला उफान होता है। भू, भुवर और स्वर्ग लोक डूब जाते हैं। चारों तरफ़ जल को छोड़ कुछ दिखाई नहीं देता। यही ब्रह्मा के सोने की रात प्रलयकाल है।

यही कल्पांत का समय है।
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Old 20-12-2010, 01:45 PM   #5
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Post Re: बिष्णु पुराण

सत्यव्रत नामक राजर्षि नदी में नहाकर नारायण का ध्यान करके जब वे अर्घ्य देने को हुए तब उनकी अंजलि में सोने के रंग की एक छोटी मछली आ गई। सत्यव्रत उस मछली को नदी में छोड़ने जा रहे थे, तब वह मछली बोल उठी, ‘‘हे राजन, हमारी मछली की जाति अच्छी नहीं होती, छोटी मछलियों को बड़ी मछलियॉं खा जाती हैं। अगर उनसे बच भी जाये, मछुआरे जाल फेंककर पकड़ लेते हैं। इसलिए मैं आपकी शरण माँगने अंजलि में आ गई हूँ। कृपया से मुझे छोड़ न दीजियेगा।''

सत्यव्रत मछली को अपने कमंडलु में रखकर अपने नगर में ले गये। वे महाराजा के रूप में राज्य करते हुए बड़ी तपस्या करनेवाले एक राजर्षि थे। विष्णु के परम भक्त और बड़े ज्ञानी थे।

कमण्डलु के भीतर वाली छोटी मछली दूसरे दिन तक बड़ी हो गई और छटपटाते आर्तनाद करने लगी, ‘‘महाराज, मुझको कमण्डलु से निकाल कर बड़ी जगह पहुँचा दीजिए।''

इस पर मछली को बड़े नांद में छोड़ दिया गया। वह थोड़ी ही देर में बहुत बड़ी हो गई, तब सत्यव्रत ने उसे एक तालाब में डाल दिया। मछली बराबर बढ़ती गई, तब उसे तालाब से बड़ी नदी में, नदी से समुद्र में पहुँचाया गया।

इस पर मछली ने पूछा, ‘‘हे राजर्षि, मैं आपकी शरण में आया हूँ। ऐसी हालत में क्या आप मुझे समुद्र में छोड़कर चले जायेंगे? क्या मगरमच्छ और तिमिंगल मुझको निगल नहीं जायेंगे?''

सत्यव्रत ने कहा, ‘‘हे महामीन, बताओ, मैं इससे बढ़कर तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ? पल भर में सौ योजन बढ़नेवाले तुमको भला कौन प्राणी निगल सकता है !''
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Old 20-12-2010, 02:00 PM   #6
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Post Re: बिष्णु पुराण

बिष्णु पुराण २
सत्यव्रत की बातें सुनकर मछली समुद्र के बीच पहुँची, एक महा पर्वत की भांति समुद्र की लंबाई तक फैलकर बोली, ‘‘सत्यव्रत, देखा, तुम्हारी वाणी अचूक निकली और अचूक रहेगी। न मालूम मैं यों बढ़ते-बढ़ते क्या से क्या हो जाऊँगी?''

सत्यव्रत ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, और उसकी स्तुति करने लगा, ‘‘मत्स्यावतार वाले हे नारायण ! आप रक्षा की माँग करने आये और मेरी रक्षा करने के लिए आपने मत्स्यावतार लिया। आप मत्स्य के रूप में अवतरित लीलामानुष स्वरूप हैं ! आपकी लीलाओं को समझने की ताक़त मेरे अन्दर कहाँ है?''

इसके जवाब में मत्स्यावतार में रहनेवाले विष्णु ने कहा, ‘‘हे राजन्, सात दिनों के अंदर कल्पांत होनेवाला है। प्रलयकाल के जल में सारी दुनिया डूब जाएगी। लेकिन ज्ञान, औषधियों और बीजों का नाश नहीं होना चाहिए। तुम्हारे वास्ते एक बड़ी नाव गहरे अंधेरे में चिराग की तरह जलती आएगी। उसके अन्दर सप्त ऋषि होंगे ! वह रोशनी उन्हीं लोगों की है !

‘‘तुम अपने साथ औषधियों और बीजों के ढेर को नाव में पहुँचा दो। मेरे सिर पर जो सींग हैं, उस पर नाव को कस कर थामे रहूँगा और उसके डूबने से मैं बचाऊँगा। इसी के वास्ते मैंने इस रूप में अवतार लिया है। इस व़क्त ब्रह्मा निद्रा में निमग्न हैं, उनके जागने तक यह नाव ध्रुव नक्षत्र को दिशा सूचक बनाकर यात्रा करेगी। अगले कल्प में तुम वैवस्वत के नाम से मनु बनोगे।'' सत्यव्रत ने विष्णु की आज्ञा को शिरोधार्य कर नत मस्तक हो उन्हें प्रणाम किया।
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Old 20-12-2010, 02:03 PM   #7
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मत्स्यावतार अपने चार पंखों को फड़-फड़ाते, ऊँची लहरों को चीरते समुद्र के अन्दर चला गया।

ब्रह्मा गहरी नींद सो रहे थे। अंधकार में प्रलय तांडव हो रहा था।

हयग्रीव नामक सोमकासुर समुद्र तल से ऊपर आया, फिर अचानक चमगीदड़ की तरह ब्रह्मा के सत्य लोक में उड़कर चला गया।

ब्रह्मा जब नींद के मारे पहले जंभाइयाँ ले रहे थे, तब उनके चारों मुखों से सफ़ेद, लाल, पीले और नीले रंगों में चमकनेवाले चार वेद बाहर निकले और नीचे गिर गये। हयग्रीव ने उन वेदों को उठा ले जाकर समुद्र के अन्दर छिपा दिया।

हयग्रीव देवताओं और विष्णु का भी ज़बर्दस्त दुश्मन था। वेदों के बिना ब्रह्मा सृष्टि की रचना नहीं कर सकते थे। हर एक कल्प में विष्णु अच्छाई को बढ़ावा देकर उसका विकास करना चाहते थे। उनके इस संकल्प को बिगाड़ देना ही हयग्रीव का लक्ष्य था।

प्रलय कालीन समुद्र पृथ्वी को डुबो रहा था। उस व़क्त सत्यव्रत को उस गहरे अंधेरे में दूरी पर नक्षत्र की तरह टिमटिमाने वाली रोशनी में एक नाव दिखाई दी। वही सप्त ऋषियों की कांति से भरी नाव थी।

सत्यव्रत ने औषधियों तथा बीजों को नाव के अंदर पहुँचा दियाऔर नारायण की स्तुति करते उसी नाव में यात्रा करने लगा। मत्स्यावतार की नाक पर एक लंबा सींग था। नक्षत्र की तरह चमकने वाले उस सींग से लिपट कर एक महा सर्प प्रलयकालीन आंधी को निगल रहा था। मत्स्यावतार अपने पंखों से लहरों को रोकते समुद्र को चीरते नाव को सुरक्षित ले जा रहा था। ध्रुव नक्षत्र को मार्गदर्शक बनाकर वह नाव फूल की तरह तिरते आगे बढ़ रही थी।

समुद्र के गर्भ में छिपाये गये वेदों का पहरा देते सोमकासुर समुद्र के भीतर टहल रहा था। चारों वेद चार शिशुओं के रूप में बदलकर किलकारियॉं कर रहे थे।

मत्स्यावतार वेदों की खोज करते हुए आगे चल पड़ा। मत्स्यावतार को देखते ही सोमकासुर घबरा गया; फिर भी हिम्मत बटोर कर वह अपना कांटोंवाला गदा हाथ में ले जूझ पड़ा।

उस समय तक विष्णु का अवतार मत्स्य के रूप में कमर तक हो गया था। उसमें चारों हाथ निकल आये थे। देखते-देखते मत्स्यावतार और सोमकासुर के बीच भीषण लड़ाई छिड़ गई।
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सोमकासुर समुद्र तल में पहुँचकर भागने लगा, इस पर विष्णु ने अपने चक्र से उसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया।

विष्णु शिशुओं के रूप में स्थित वेदों को अपनी बगग में दबाकर पानी के ऊपर आ गये। वे चारों शिशु विष्णु के कंठहार में शोभा देनेवाले श्रीवत्स तथा कौस्तुभ मणियों के साथ नन्हें हाथों से खेलते हुए क़िलकारियाँ मार रहे थे। चारों बच्चे सफ़ेद, लाल, पीले व नीले रंग की कांतियों से चमक रहे थे। विष्णु के हाथों में शंख और चक्र शोभायमान थे।

विष्णु के मत्स्यावतार को देख ऋषि और सत्यव्रत तन्मय हो हाथ उठाकर उनकी स्तुति करने लगे। प्रलय तांडव शांत हो गया था, जहाँ-तहाँ भूमि दिखाई देने लगी थी। नाव भी अपने लक्ष्य पर पहुँच गई।

ब्रह्मा के लिए दिन और रात का समय बराबर था। उनकी निद्रा का समय पूरा होने को था। आसमान में प्रकाश की किरणें फूट रही थीं। नया कल्प शुरू हो रहा था। सरस्वती देवी पहले जाग उठीं। उन्होंने अपनी वीणा पर भूपाल राग का आलाप किया।

ब्रह्मा जाग उठे। उन्हें लगा कि उनके चारों सिरों में कोई अशांति फैली है। फिर परख कर देखा, वेद गायब थे। इसी चिंता में ब्रह्मा कुछ परेशान थे, तभी विष्णु ने मत्स्यावतार में प्रत्यक्ष हो उनके हाथ में वेद सौंप दिये।

ब्रह्मा ने विष्णु के मत्स्यावतार को जी भरकर देखा, तब अपने हाथ जोड़कर चारों मुखों से उनकी स्तुति की :

‘‘हे नारायण ! जो व्यक्ति आपके मत्स्यावतार का ध्यान करता है, उसकी सारी विपदाएँ इस तरह हट जायेंगी जैसे प्रलय के रूप में उपस्थित सारी विपदाएँ दूर हो जाती हैं और उनका अज्ञान रूपी अंधकार हट जायेगा।''

विष्णु के द्वारा मत्स्यावतार लेने का कार्य सफल हो गया था, इसलिए वे अंतर्धान होकर अपने निवास वैकुंठ में पहुँचे।

ब्रह्मा ने वेद लेकर सृष्टि की रचना शुरू की। सत्यव्रत श्राद्धदेव वैवस्वत के नाम से मनु हुए।

सप्त ऋषि आसमान में अपने-अपने स्थानों में पहुँचकर सप्तर्षि मण्डल के रूप में प्रकाशित होते हुए, ध्रुव की प्रदक्षिणा करते घूमने लगे। यों सूत महर्षि ने कहानी सुनाई। इस पर मुनियों ने पूछा, ‘‘सूत महर्षि, हम लोग ध्रुव की कहानी सुनना चाहते हैं!''
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सूत मुनि यों सुनाने लगे : इस विशाल विश्व में सबसे ज़्यादा ऊँचा स्थान ही ध्रुव मण्डल है। वही विश्व स्वरूप विष्णु के शिर का स्थान है।

ऐसा ऊँचा स्थान पानेवाले ध्रुव उत्तानपाद नामक एक राजा के पुत्र थे । ध्रुव की माता सुनीति राजा उत्तानपाद की ज्येष्ट पत्नी थी, सुरुचि छोटी रानी थी। राजा सुरुचि को ज़्यादा प्यार करते थे।

एक दिन राजा उत्तानपाद छोटी रानी सुरुचि के पुत्र उत्तम को अपनी जांघ पर बिठाकर प्यार जता रहे थे। तभी वहाँ पर ध्रुव आ पहुँचा ! उसके मन में भी अपने पिता की जाँघ पर बैठने की इच्छा थी। वह बड़ी लालसा से अपने पिता की आँखों में देखता रहा। उस व़क्त सुरुचि वहीं पर थी। राजा सुरुचि से डर कर ध्रुव को देखकर भी अनदेखा सा कर गये। ध्रुव ने सोचा था कि उसके पिता उसको भी अपने छोटे भाई के जैसे अपनी जाँघ पर बिठायेंगे। पर ऐसा न होते देख उसे रोना आया। उसके गालों पर आँसू मोती जैसे चमक उठे।

ध्रुव की हालत देख सुरुचि खिल-खिला कर हँस पड़ी और बोली, ‘‘अरे, बदक़िस्मत के बच्चे ! चाहे तुम ज़िंदगी भर तपस्या क्यों न करो, मेरे पुत्र के समान तुम्हें अपने पिता की जांघ पर बैठने का भाग्य प्राप्त न होगा। मेरे पेट में पैदा होगे तभी तुम्हें यह सौभाग्य प्राप्त होगा। हाँ, तुम तो जब देखो, नारायण का संकीर्तन किया करते हो ! अब तपस्या करके उसी नारायण से पूछकर देखो, कहीं वे तुम को ऐसा सौभाग्य प्रदान कर सकते हैं या नहीं?'' यों सुनीति ने ध्रुव का मज़ाक उड़ाया।

बालक ध्रुव का मन कचोट उठा। उसका दुख उमड़ पड़ा। उसका क्रोध खौल उठा। उसके मन में सुरुचि की हत्या करने की इच्छा जगी, लेकिन दूसरे ही क्षण उसे सुरुचि एक उत्तम उपदेशिका सी लगी, मानो उसे यह सलाह देती हो, ‘‘बेटा, नारायण पर विश्वास करो। तपस्या करो।'' तब ध्रुव को लगा कि उत्तम कुमार ऐसे महान उपदेश पाने का सौभाग्य न रखनेवाला एक आभागा है? राजा उत्तानपाद उसे अंधेरे रूपी जाल में फंसकर छटपटाने वाले हिरण जैसे लगे। इसके बाद ध्रुव ने सुरुचि को इस प्रकार प्रणाम किया, जैसे गुरु का उपदेश पाने के बाद शिष्य गुरु को प्रणाम करता है।
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Post Re: बिष्णु पुराण

तब वहाँ से चल पड़ा। ध्रुव के इस व्यवहार पर चकित हो सुरुचि अपने मन में सोचने लगी, ‘‘लड़का तो भला मालूम होता है ! गालियाँ देने के बाद भी प्रणाम करके चला गया। प्रणाम न करे तो करेगा ही क्या? मेरे सामने मुँह खोलने की उसकी हिम्मत है? या उसकी मॉं हिम्मत कर सकती है?''

आँसू बहाते लौट आये ध्रुव को देख, दासियों के द्वारा सारी हालत जानकर सुनीति रो पड़ी, तब बोली, ‘‘हाँ, बेटा, बात सच है। दासी जैसी ही निकृष्ट जीवन बितानेवाली मेरे गर्भ से तुम क्यों पैदा हुए? तुम्हारी मौसी की बातें सच हैं ! तुम्हारे लिए और मेरे वास्ते भी उस नारायण को छोड़ कोई दूसरा सहारा नहीं है।''

अपनी माता की बातें सुनने पर ध्रुव के मन को शांति मिली। बोला, ‘‘माँ, मैं तपस्या करने जा रहा हूँ। मुझे कृपया आशीर्वाद दो।''

‘‘क्या बोला? तुम तपस्या करोगे? तब तो नारायण से सुरुचि के गर्भ से पैदा होने का वर, माँग लो।'' सुनीति ने कहा।

‘‘माँ, ऐसी बातें अपने मुँह से न निकालो ! मैं तुम्हारा पुत्र हूँ! हमें कभी अपने को छोटा मानना नहीं चाहिए ! यह तो आत्महत्या के समान है। मैं यह साबित करना चाहता हूँ कि ध्रुव की माता कैसी भाग्यशालिनी है? दिशा हीनों के लिए दिग्दर्शक बनने का वर मैं नारायण से माँग लूँगा।'' यह कहकर ध्रुव उसी व़क्त घर से चल पड़ा।

रास्ते में नारद मुनि से बालक ध्रुव की मुलाक़ात हुई। नारद ने पूछा, ‘‘हे ध्रुव कुमार ! लगता है कि तुम खेलने के लिए चल पड़े?''

‘‘स्वामी, मैं तपस्या करने जा रहा हूँ!'' ध्रुव ने जवाब दिया।
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