01-12-2012, 02:10 PM | #521 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 02:10 PM | #522 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
बाल्मीकिजी बोले, हे साधो! जब इस प्रकार विपश्चित् ने कहा तब सायंकाल हुआ और सूर्य अन्तर्धान हो गये-मानों विपश्चित् के वृत्तान्त देखने को अन्यसृष्टि में गये-और नौबत नगारे बजने लगे मानो दशरथ की जय-जय करते हैं | उस समय राजा दशरथ ने धन, जवाहिर और वस्त्राभूषण से राजा विपश्चित् का यथायोग्य पूजन किया, दशरथ से आदि लेकर सब राजाओं ने वशिष्ठजी को प्रणाम किया और परस्पर प्रणाम करके सर्वसभा ने अपने-अपने स्थानों को जा स्नान करके यथाक्रम भोजन किया और नियम करके विचारसहित रात्रि व्यतीत की और जब सूर्य की किरणें उदय हुई तो फिर अपने अपने स्थानों पर परस्पर नमस्कार करके आ बैठे तब वशिष्ठजी पूर्व के प्रसंग को लेकर बोले, हे रामजी! यह अविद्यमान है और है नहीं पर भासती है यही आश्चर्य है |
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01-12-2012, 02:11 PM | #523 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जो वस्तु सदा विद्यमान है सो नहीं भासती और जो अविद्या है ही नहीं सो सदा भासती है इसी से इसका नाम अविद्या है | हे रामजी! आत्मसत्ता अनुभवरूप है, उसका अनुभव होना अनिश्चित हो रहा है और अविद्यक जगत् जो कभी कुछ हुआ नहीं सो स्पष्ट होकर भासता है-यही अविद्या है | हे रामजी! सिद्ध राजा के मन्त्री का उपदेश भी तुमने सुना और विपश्चित् का वृत्तान्त भी विपश्चित् के मुख से ही सुना, अब इस विपश्चित् की अविद्या हमारे आशीर्वाद और यथार्थ वचनों से नष्ट होती है और अब यह जीवन्मुक्त होकर बिचरेगा |
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01-12-2012, 02:11 PM | #524 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
मेरे उपदेश से इसकी अविद्या अब नष्ट होती है अतः जीवन्मुक्त होकर जहाँ जहाँ इसकी इच्छा हो बिचरे | जब जीव आत्मा की ओर आता है तब अविद्या नष्ट हो जाती है | आत्मतत्त्व को यथार्थ न जानने ही का नाम अविद्या है जो आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है | जैसे अन्धकार तब तक रहता है, जबतक सूर्य उदय नहीं हुआ पर जब सूर्य उदय होता है तब अन्धकार नष्ट हो जाता है, तैसे ही अविद्या तबतक अन्त है जबतक मनुष्य आत्मा की ओर नहीं आया पर जब आत्मा का साक्षात्कार होता है तब अविद्या का अत्यन्त अभाव हो जाता है |
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01-12-2012, 02:11 PM | #525 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
अविद्या अविद्यमान है पर असम्यक्् दर्शी को सत्य भासती है | जैसे मृगतृष्णा का जल अविद्यमान है और विचार किये से उसका अभाव हो जाता है, तैसे ही भली प्रकार विचार किये से अविद्या का अभाव का अभाव हो जाता है | हे रामजी अविद्या रूपी विष की बेलि देखनेमात्र फूल सहित सुन्दर भासती है परन्तु स्पर्श किये से काँटे चुभते हैं और फल भक्षण किये से कष्ट होता है | यह सब शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन्द्रियों के विषय देखनेमात्र सुन्दर भासते हैं यही फूल फल हैं पर जब इनका स्पर्श होता है तब तृष्णारूपी कण्टक चुभते हैं और इन्द्रियों के भोग भोगने से राग, द्वेष और कष्ट प्राप्त होता है | हे रामजी! अविद्या भीतर से शून्य है और बाहर से बड़े अर्थसंयुक्त भासती है |
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01-12-2012, 02:11 PM | #526 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे आकाश में इन्द्रधनुष नाना प्रकार के रंग सहित दृष्टि आता है परन्तु अन्तर से शून्य है-अनहोता ही भासता है, तैसे ही अविद्या अनहोती ही भासती है, और जैसे इन्द्रधनुष जलरूप मेघ के आश्रय रहता है, तैसे ही यह अविद्या जड़ मूर्खों के आश्रय रहती है | अविद्यारूपी धूलि जिसको स्पर्श करती है उसको आवरण कर लेती है, जबतक अर्थ नहीं जाना तबतक भासती है और विचार किये से कुछ नहीं निकलता जैसे सीपी में रूपा भासता है पर विचार किये से उसका अभाव हो जाता है तैसे ही विचार किये से अविद्या का भी अभाव हो जाता है |
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01-12-2012, 02:11 PM | #527 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
विचार किये से ही अविद्या नष्ट हो जाती है और वह चञ्चल है और भासती है | हे रामजी! अविद्यारूपी नदी में तृष्णारूपी जल है, इन्द्रियों के अर्थरूपी भँवर हैं और रागद्वेषरूपी तेंदुये (ग्राह) हैं जो पुरुष इस नदी के प्रवाह में पड़ता है उसको बड़े कष्ट प्राप्त होते हैं | जो तृष्णारूपी प्रवाह में बहते हैं उनको अविद्यारूपी नदी का अन्त नहीं आता और जो किनारे के सन्मुख होकर वैराग्य और अभ्यासरूपी नाव पर चढ़के पार हुए हैं उनको कोई कष्ट नहीं होता | जो पदार्थ अविद्यारूप हैं उनमें जो भावना करते हैं वे मूर्ख हैं | यह सब अविद्या का विलास है | एक ऐसी सृष्टि है जिसमें सैकड़ों चन्द्रमा और सहस्त्रों सूर्य उदय होते हैं, कई ऐसी सृष्टियाँ हैं जिनमें जीव सदा समताभाव को लिये बिचरते हैं और सदा आनन्दी रहते हैं, कई ऐसी सृष्टि हैं कि जिनमें अन्धकार कभी नहीं होता, कई ऐसी सृष्टि हैं जहाँ प्रकाश और तम जीवों के अधीन है कि जितना प्रकाश चाहें उतना ही करें और कई ऐसी सृष्टि हैं जहाँ जीव न मरते हैं और न बूढ़े होते हैं सदा एकरस रहते हैं और प्रलयकाल में सब इकट्ठे ही मरते हैं |
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01-12-2012, 02:12 PM | #528 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
कहीं ऐसी सृष्टि है जहाँ स्त्री कोई नहीं, कहीं पहाड़ की नाईं जीवों के शरीर हैं | हे रामजी! इनसे अनन्त ब्रह्माण्ड फुरते हैं सो सब अविद्या का विलास है | जैसे समुद्र में वायु से तरंग फुरते हैं, वायु बिना नहीं फुरते, तैसे ही परमात्मरूपी समुद्र में जगत््रूपी तरंग अविद्यारूपी वायु के संयोग से उठते हैं और मिट भी जाते हैं | हे रामजी! बड़े-बड़े मणि, मोती, सुवर्ण और धातुमय स्थान, भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चारों प्रकार के तृप्ति कर्ता पदार्थ, घृतरूप स्थान, ऊख के रस के समुद्र माखन, दही और दूध के समुद्र, अमृत के तालाब, बड़े-बड़े कल्प और तमाल वृक्ष से आदि लेकर सुन्दर स्थान और सुन्दर अप्सरा और बड़े दिव्य वस्त्रों से आदि लेकर जो पदार्थ हैं वे सब संकल्परूप अविद्या के रचे हुये हैं, जो इनकी तृष्णा करते हैं वे मूर्ख हैं उनके जीने को धिक्कार है | हे रामजी! यह अविद्या का विलास है विचार किये से कुछ नहीं निकलता
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01-12-2012, 02:12 PM | #529 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे मरु स्थल में अनहोती नदी भासती है और विचार किये से उसका अभाव होजाता है, तैसे ही आत्मविचार किये से अविद्या के विलासरूप जगत् का अभाव हो जाता है | जिसको आत्मा का प्रमाद है उसको देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदिक इष्ट-अनिष्ट अनेक प्रकार के पदार्थ भासते हैं और कारण कार्य भाव से जगत् भी स्पष्ट भासता है पर जिसको आत्मा का अनुभव हुआ है उसको सर्व आत्मा ही भासता है | हे रामजी! एक सदृष्ट सृष्टि है और दूसरी अदृष्ट सृष्टि है |
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01-12-2012, 02:12 PM | #530 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
यह जो प्रत्यक्ष भासती है सो सदृष्ट सृष्टि है और जो दृष्टि नहीं आती वह अदृष्ट सृष्टि है पर दोनों तुल्य हैं जैसे सिद्धलोग आकाश में जो सृष्टि रच लेते हैं सो संकल्पमात्र होती है | उनकी सृष्टि परस्पर अदृष्ट है और अनेक प्रकार की रचना है | उनकी सुवर्ण की पृथ्वी है और रत्न और मणियों से जड़ी हुई, अनेक प्रकार के विषय हैं और अमृत के कुण्ड भरे हुए हैं, उनके अधीन तम और प्रकाश हैं- और अनेक प्रकार की रचना बनी हुई है सो सब संकल्पमात्र है
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