28-10-2014, 10:51 AM | #1 |
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एक कारीगर/कर्मचारी की कविता…
रंग कोयले का काला है, जलकर दिया उजाला है, तापित होकर ठंढा पानी, भाप की शक्ति सबने जानी. बिजली भले नहीं दिखती है, इससे मृत भी नृत्य करती है. बड़े छोटे सब कल करखाने, बिजली की लीला सब जाने. रेल क्रेन या अन्य मशीने, मृत बने गर बिजली छीने कारीगर हो या मजदूर, घर से रहता हरदम दूर. साइरन की मीठी धुन सुन, बिस्तर छोड़े होकर निर्गुण. चश्मा हेलमेट बूट पहनकर, आता वह साइकिल पर चढ़कर. हाजिरी लेती सजग यन्त्रिका, देरी से हो स्वत: दण्डिता. घर्र घर्र आवाजे करती, अनेक मशीनें चलती रहती. . पाना, पेंचकस, और हथौड़ा, सामने टेबुल लम्बा चौड़ा. पढ़े लिखे कुछ मन में सोचे, अनपढ़ अपना हाथ न खींचे. टाइम टेबुल बनी हुई है, बॉस की भौहें तनी हुई है. अपनी गति से चले मशीने, मानव देह से बहे पसीने. गलती छोटी गर हो जाती, खून करीगर की बह जाती. तापित लोहा द्रव बन जाता, शत सोलह डिग्री खौलाता अपनी ड्यटी नित्य निभाए, सकुशल अगर वो घर आ जाए, पत्नी बच्चे खुश हो जाते, बैठ के थोड़ा वे सुस्ताते. मिहनत का फल उसको मिलता, एक मास जिस दिन हो जाता. घर का राशन लाना होगा, कर्जा किश्त चुकाना होगा. पत्नी को साड़ी की आशा, नए खिलौने ला दे पापा. बोनस जिस दिन वह पाता है, सबसे ज्यादा सुख पाता है. कपड़े नए बनाने होंगे, घर पर कुछ भिजवाने होंगे. भूल के सारे रीति रिवाज, बॉस की सुनता बस आवाज. अर्थ नीति का पालन करता, देश विकास में इक पग धरता नेता अवसर खूब भुनाता, मालिक से चंदा जो पाता, लेखक कवि जो भाव जगाये, सुन्दर शब्द कहाँ से पाये, बातें करता लम्बी चौड़ी, पगार, पोंगा और पकौड़ी ‘तीन शब्द’ से गहरा नाता, ‘पोंगा’ उसको समय बताता चाय संग खाए ‘पकौड़ी’, ख़त्म ‘पगार’ बचे न कौड़ी http://jlsingh.jagranjunction.com/20...4%B5%E0%A4%BF/
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