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Old 11-09-2013, 07:10 PM   #1
jai_bhardwaj
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Default कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

बाहर शहर भर का उजाला था और भीतर नाईट बल्ब के अँधेरे में सुलगते दो इंसान । पारा अपने सामान्य स्वभाव से लुढ़क गया था । ब्लैंडर स्प्राइड के दो पटियालवी पैग गले का रास्ता नाप चुके थे और तीसरे को अभी कोई जल्दी नहीं थी । सिगरेट के धुएँ के मध्य कोई अनकही बात दबी थी । जिसे अभी बाहर आना था । और उसने अपने आने की दस्तक तीसरे पैग के सँवरने के दौरान दे दी थी ।

-"क्यों कर रहा है, ये सब ?" संजय गिलास आगे बढाते हुए बोला ।

-क्या ?

-"तू जानता है । मैं क्या और किस बारे में कह रहा हूँ ?" संजय ने खीजते हुए कहा ।

आदित्य ने गिलास थामा और कुछ नहीं बोला । संजय ने अगली सिगरेट सुलगा ली और लम्बा कश लेते हुए एक घूँट भरा । फिर हड़बड़ाहट में उठा और कमरे की एक दीवार से दूसरी दीवार तक जाकर, वापस लौट कर बैठते हुए बोला "तुझे हो क्या गया हा ? जहाँ सारी दुनिया अवसर पाते ही यू.एस. और यू.के. भागती है और तू किस्मत को धोखा देना चाहता है । इस अच्छी भली एम.एन.सी. की नौकरी को छोड़ कर, तू उस सरकारी नौकरी में जाने का फैसला कैसे कर सकता है ? और वो भी उस छोटे से पहाड़ी शहर में, जहाँ से दुनिया ठीक से दिखाई भी नहीं देती । और तुझे क्या लगता है कि तेरे ऐसा करने से दुनिया पीछे छूट जायेगी या तू खुद को उससे अलग कर लेगा ।"

-"मैं एकांत चाहता हूँ । इन सबसे दूर । इस भीड़ से, इस शोर से, इस भागती दौड़ती जिंदगी से ।" आदित्य ने लम्बी चुप्पी को तोड़ते हुए कहा ।

-और तू सोचता है कि तुझे एकांत प्राप्त होगा । तू किसको भ्रमित कर रहा है । किस्मत को, मुझे या अपने आपको । किन्तु माफ़ करना मेरे दोस्त । तू तब तक स्वतंत्र नहीं हो सकता, जब तक कि उस अतीत को पीछे नहीं धकेलता । जिसके साथ तू प्रत्येक क्षण जीता है ।

-ऐसी कोई बात नहीं है, संजय ।

-"उस बात को तीन बरस होने को आये और तू है कि" संजय अपना गिलास खाली करते हुए बोला । फिर अगला पैग बनाने लगा । भूल जा उसे और नए सिरे से जिंदगी शुरू कर । वो भी कहीं अपने पति और बच्चों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी जी रही होगी ।
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Old 11-09-2013, 07:11 PM   #2
jai_bhardwaj
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Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

आदित्य ने सिगरेट के कशों के मध्य स्वंय को खामोश कर लिया । उसने यही आदत बना ली थी । संजय उसे हर दफा समझाता था और वह चुप्पी साध लेता था । ख़ामोशी, कुछ भी कहने से बचने का सबसे अच्छा औज़ार होती है । एक छोर से दूजे छोर तक पसरी हुई । अपने पूर्ण विस्तार के साथ स्वंय के होने का एहसास कराती सी । अदृश्य किन्तु स्पर्श की हुई ।

अंततः छह पैग ख़त्म कर लेने के बाद संजय पुनः उसी विषय पर लौट आया । असल में संजय का यही स्वाभाव था । जब तक वह अपनी बात पूरी नहीं कह लेता था, पीता रहता था । और आज तो एक तरह से अंतिम दिन ही था । कल आदित्य को चले जाना था । वह अपनी ओर से, किसी भी तरीके से, उसे रोक लेना चाहता था । वह जानता था कि उसका यूँ एकाएक दूर चले जाना, सही नहीं है । कोई इंसान स्वंय से कब तक भाग सकता है ।

-"तू कहे तो तेरा रेजिगनेशन कैंसिल करवा दूँ । वो एच.आर. मेरी परिचित है और अभी भी उसने वह रेजिगनेशन लैटर आगे नहीं बढाया है ।" संजय ने लगभग होश में आते हुए कहा ।

-"नहीं, उसकी आवश्यकता नहीं है । मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं अब यहाँ नहीं रहूँगा ।" आदित्य ने प्रत्युतर में कहा ।

-क्या निश्चय कर लिया है ? अपने को धीमे-धीमे समाप्त कर लेने का ।

-"गुड नाईट" कहता हुआ आदित्य उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे में जाने लगा ।

-"ठीक है करो, जो करना है ।" संजय खीजते हुए बोला ।

घड़ी दो के टनटनाने की आवाज़ कर रही थी और संजय नींद के आगोश में जा चुका था । किन्तु आदित्य करवटें बदलते हुए उठ खड़ा हुआ । और सिगरेट जलाकर बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठ गया । एकाएक धुएँ के उस ओर चेहरा झलकता है । फिर शोर करती ट्रेन प्लेट फॉर्म से छूटती प्रतीत होती है । और एक ही पल में वह अपने अतीत में चला जाता है ।

वो अक्टूबर की कोई रात थी । आदित्य को हैदराबाद से दिल्ली की दस तीस की ट्रेन पकडनी थी । घडी की सुइयाँ अपनी आदत से तेज़ दौड़ती प्रतीत हो रही थीं । बीते दिनों में कंपनी ने जिस प्रोजेक्ट के सिलसिले में उसे हैदराबाद भेजा था, वह पूर्ण हो चुका था । और आज वह वापस दिल्ली को जा रहा था । वह जल्दबाजी में ऑटो रिक्शे से निकल स्टेशन की और दौड़ा । ट्रेन ने अलविदा की सीटी दे दी थी । आदित्य ने एक नंबर प्लेटफॉर्म से छूटती उस ट्रेन को दौड़ते हुए पकड़ा ।

उसने अपने उस इकलौते बैग को जंजीर में जकड़ते हुए सीट के नीचे खिसका दिया । और ऊपरी जेब से टिकट निकाल कर, अपनी होने वाली सीट का मुआयना करने लगा । तभी उसकी नज़र सामने की सीट पर, अपने सामान को दुरुस्त करती लड़की पर गयी । एक तेईस-चौबीस बरस की खूबसूरत लड़की का उसके सामने की सीट पर होना संयोग की बात थी । जबकि बाकी की चार सीटें रिक्त हों ।

अगला एक घंटा अपनी-अपनी सीट को अपनाने और बोगी के शांत होने में व्यतीत हो गया । धीमे-धीमे सभी यात्री अपने-अपने हिस्से की लाईट बुझाने लगे । यात्रियों को ट्रेन, नींद आने का सबसे सुखद स्थान प्रतीत हो रही थी । मानो वे सब इसमें यात्रा के लिए नहीं बल्कि सोने आये हों ।
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तभी उस खूबसूरत सहयात्री ने कहा "यदि आपको कष्ट ना हो तो मैं ये लाईट बुझा दूँ, सोने का समय हो चला है ।" आदित्य ने ऊपरी सीट से झाँकते हुए देखा और एकटक देखता ही रहा । उसकी खूबसूरत बड़ी-बड़ी आँखें थीं, जो उसके चेहरे को दुनिया के बाकी खूबसूरत चेहरों से अलग करती थीं । उसने चादर ओढ़ते हुए फिर से अपनी बात दोहराई । आदित्य का ध्यान भंग हुआ और तब उसने कहा "जी बिल्कुल, मुझे कोई आपत्ति नहीं है" । लाईट बुझ गयी । जिसका अर्थ था कि सो लेने के सिवा कोई बेहतर विकल्प हाथ में नहीं है । और अंततः कुछ क्षण सोचते हुए आदित्य भी नींद की गोद में चला गया ।

सुबह के आठ बज गए थे, जब आदित्य की आँख खुली । उजाले में ट्रेन शोर मचाती हुई चली जा रही थी । याद हो आया कि वह ट्रेन में है और दिल्ली को वापस जा रहा है । उसने नीचे को झाँक कर देखा । वो अपनी सीट पर बैठी किताब पढने में मग्न थी । खिड़की के रास्ते से आती मुलायम धूप, रह-रह कर लुका-छुपी का खेल, खेल रही थी । मालूम होता था, सुबह का सूरज उसके चेहरे की आभा से लजा रहा हो ।

आदित्य सीट पर से उतरकर, चप्पलों को संभालते हुए, नित्य कर्म करने की ओर चल दिया । वापसी में चेहरे को धुलकर, स्वंय के जागने की निशानी ओढ़ आया । और आकर नीचे की ही रिक्त सीट पर बैठ गया । उसने बाहर की ओर झाँका । खिड़की के उस ओर से पेड़, खेत और उनमें काम करते लोग पीछे की ओर दौड़ते से जान पड़ रहे थे ।
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बीते क्षणों में वह कभी बाहर की दुनिया को देखता तो कभी सामने बैठी उस खूबसूरत सहयात्री को । जो अब भी उतनी ही दिलचस्पी के साथ किताब पढ़ रही थी । जिस के बाहरी आवरण पर अनूठी चित्रकला का प्रदर्शन करते हुए, कुछ आकृतियाँ नज़र आ रही थीं । प्रथम दृष्टि में वह हिंदी की किताब जान पड़ती थी । तभी चाय वाले की आवाज़ सुनाई दी "चाय, चाय, चाय" । उसके पास में आते ही, आदित्य ने कहा "दोस्त एक चाय देना" । कप को हाथ में थामते हुए आदित्य ने पर्स निकाला तो याद हो आया कि सभी छुट्टे तो खर्च हो चुके थे और अब उसके पास केवल पाँच सौ के नोट हैं । वह मुस्कुराते हुए नोट को चाय वाले को थमाता है ।

-"क्या साहब सुबह-सुबह मैं ही मजाक के लिए मिला हूँ" चाय वाला प्रतिक्रिया देता है ।

-दोस्त छुट्टे तो नहीं हैं मेरे पास ।

-देख लो साहब होंगे या किसी से करा लीजिए ।

-"अब इस वक़्त कहाँ से करा लूँ ? मैडम आपके पास होंगे पाँच सौ के छुट्टे ?" सामने बैठी लड़की से पूँछते हुए आदित्य ने कहा ।

-"नहीं मेरे पास तो नहीं हैं" उसने किताब से नज़रें उठाते हुए कहा ।

-"ठीक है दोस्त तो फिर तुम अपनी यह चाय वापस रखो" आदित्य ने कप आगे बढाते हुए कहा ।

-"अरे आप चाय पी लीजिए । मैं पैसे दिए देती हूँ । आप बाद में मुझे दे देना ।" लड़की ने आदित्य को देखते हुए कहा ।

-"जी शुक्रिया" कहते हुए आदित्य ने कप को अपने पास रख लिया ।

लड़की पुनः अपनी किताब में व्यस्त हो चली । घडी नागपुर के आने का वक़्त बता रही थी । हालाँकि लगता नहीं था कि नागपुर अभी कुछ ही मिनटों में आ पहुँचेगा । और आते ही संतरे की सुगंध फैला देगा । जहाँ दौड़ते हुए लोग खाने-पीने की वस्तुएँ खरीदेंगे । और ट्रेन कुछ देर सुस्ता लेगी ।

-"शुक्रिया, आपके कारण चाय पी रहा हूँ " आदित्य ने चाय की चुस्की भरते हुए कहा ।

लड़की प्रत्युतर में हौले से मुस्कुरा दी और पुनः पढने लगी ।

-"आप हिंदी की किताबों को पढने का शौक रखती हैं" आदित्य ने प्रश्न पूँछने के लहजे में कहा ।

-"जी, क्यों ? हिंदी में कोई बुराई नज़र आती है आपको" लड़की ने प्रत्युतर में कहा ।

-नहीं, बुराई तो नहीं किन्तु आज के समय में जब सभी अंग्रेजी की ओर भाग रहे हैं । और उसे पढना और बोलना
अपनी समृद्धि समझते हैं । आप अरसे बाद मिली हैं जो हिंदी का कोई उपन्यास पढ़ते हुए दिखी हैं ।

-"जी, कम से कम मैं तो ऐसा नहीं सोचती । मुझे हिंदी से अथाह प्रेम है । हिंदी में कहानियाँ, कवितायें पढना मुझे अच्छा लगता है । हाँ लेकिन इसका अर्थ ये भी नहीं है कि मैं अंग्रेजी में कुछ नहीं पढ़ती । उसमें भी मुझे दिलचस्पी है ।" लड़की ने अपना पक्ष रखते हुए कहा ।

-"क्या कहा ? अथाह प्रेम । अरे वाह आप तो शुद्ध हिंदी का प्रयोग करती हैं ।" आदित्य ने उसकी इस बात पर कहा ।

-"बस पढ़कर ही सीखा है" लड़की मुस्कुराते हुए बोली ।

-"वाह, आप तो बहुत बड़ी हिंदी प्रेमी निकलीं" आदित्य मुस्कुराते हुए बोला ।

- आप सिर्फ बातें बनाना जानते हैं या कुछ और भी करते हैं ?

आदित्य उसकी इस बात पर पुनः मुस्कुरा दिया और बोला "बस यही समझ लीजिए"

-क्यों आप कोई नेता हैं जो केवल बातें बनाना जानते हैं ।

आदित्य उसकी इस बात पर खिलखिला कर हँस दिया और कप को खिड़की के रास्ते बाहर फैंकते हुए बोला "वैसे जिसे आप पढ़ रही हैं । वह काम मैं भी कर सकता हूँ ।"

-क्या, पढ़ सकते हैं ?

-नहीं, लिख सकता हूँ ।

-अच्छा, तो आप लेखक हैं ?

-नहीं, लेखक तो नहीं किन्तु कभी-कभी लिख लेता हूँ ।

-अच्छा, सच में ? फिर तो बड़े काम के आदमी निकले आप । क्या लिखते हैं आप ?

-कुछ खास नहीं, बस शब्दों को आपस में प्रेम करना सिखाता हूँ ।

-मतलब ?

-"मतलब कि कभी-कभी कवितायें लिख लेता हूँ " आदित्य ने उत्तर दिया ।

-"अरे वाह, कैसी कवितायें लिखते हैं आप ? " लड़की गहरी दिलचस्पी लेते हुए बोली ।

-कोई ख़ास विषय नहीं, बस यूँ, जब मन में जो आया बस वही लिख देता हूँ ।

-"अच्छा, तो फिर सुनाइये न, अपना लिखा कुछ" लड़की खुश होते हुए बोली ।

-अच्छा ठीक हैं सुनाता हूँ किन्तु आपको एक वादा करना होगा कि आप बदले में मुझे चाय पिलायेंगी । अभी तक मेरे
पास छुट्टे नहीं आये हैं ।

-इस बात पर वह मुस्कुरा गयी और बोली "जी बिल्कुल, पक्का"
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आदित्य उसे अपनी एक कविता सुनाता है । वह प्रशंसा करते हुए पुनः एक और कविता सुनाने का आग्रह करती है । आदित्य अपनी दो-तीन कवितायें और सुनाता है ।

-सचमुच आप बहुत अच्छी कवितायें लिखते हैं । मन प्रसन्न हो गया सुनकर ।

-अच्छा, सच में । तो अब केवल प्रशंसा से काम नहीं चलेगा । अपना वादा पूरा कीजिए और मुझे चाय पिलाइए ।

-जी, बिल्कुल ।

अगले कुछ क्षणों में चाय वाला टहलता हुआ वहाँ आ पहुँचा और दोनों ने चाय पी । इस बीच में किताब औंधे पड़े हुए सुस्ता रही थी । यूँ कि उसे अच्छा अवसर मिल गया हो अपनी थकान दूर करने का । ट्रेन की गति धीमी हो चली थी, जो एहसास करा रही थी कि नागपुर बस आ पहुँचा । कुछ यात्री अपने शहर पहुँचने की ख़ुशी मना रहे थे और सामान को बटोर कर, अपने कन्धों पर लाद, दरवाजे को घेरे खड़े थे । आदित्य भी स्टेशन पर उतर, छुट्टे कराने के उद्देश्य से उनके पीछे खड़ा हो गया । ट्रेन प्लेटफोर्म के सहारे रेंगने लगी और अंततः दम तोडती सी, बेजान हो गयी ।

उतरकर वह कई शक्लों से होता हुआ पहले एक दुकान पर पहुँचा, फिर दूसरी, तीसरी और इस तरह से उसने कुछ फल, नमकीन, पानी की बोतल और बिस्कुट के पैकेट खरीद लिए । वापसी में ठेले पर से ताज़ी गर्म पूडियां और सब्जी को थामे हुए वह ट्रेन में चढ़ गया ।

-"लीजए अपना उधार ।" बैठते हुए आदित्य बोला ।

-"जी नहीं । अब आपकी बारी है, चाय पिलाने की ।" लड़की मुस्कुराते हुए बोली .

-ये भी ठीक है । फिलहाल ये गरमा गर्म पूड़ियाँ खाइए ।

-"ये आपने बहुत अच्छा किया । सुबह-सुबह नाश्ता हो जायेगा ।"अपना हिस्सा सँभालते हुए लड़की ने कहा ।

खाने के बीच में ट्रेन चल दी थी । और चाय वाले के आ जाने पर, आदित्य ने अपना आधा उधार चुकता कर दिया था । बाकी के सहयात्री पेट भर जाने पर चहकने की मुद्रा में आ गए थे । मानों अब ट्रेन के सफ़र का आनंद दोगुना हो चला हो । कुछ बच्चे एक दरवाजे से, दूसरे दरवाजे की ओर दौड़ लगा रहे थे । लम्बी यात्रा करने वालों को ट्रेन ने अपना लिया था ।
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-"तो आप करते क्या हैं ?" लड़की ने आदित्य से पूँछा ।

-"जी कुछ खास नहीं । एक सॉफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर हूँ ।" आदित्य ने खिड़की के बाहर से ध्यान भीतर लाते हुए कहा ।

-तो आप सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं ?

-जी

-कहाँ ?

-दिल्ली में काम करता हूँ और प्रोजेक्ट के सिलसिले में हैदराबाद गया था ।

-"एक बात, जो मैं आपसे कम से कम अवश्य पूँछना चाहूँगा" आदित्य पूरी तरह वहाँ आते हुए बोला ।

-क्या ?

-यही कि आपका नाम क्या है ?

-वो इस बात पर मुस्कुरा गयी और बोली "निशा चौहान और मैं पंजाब नेशनल बैंक में असिस्टेंट मैनेजर हूँ । काम के
सिलसिले में हैदराबाद गयी थी और अभी भोपाल में ही कार्यरत हूँ ।"

-अरे वाह । इसका मतलब में एक बैंक मैनेजर के सामने बैठा हूँ ।

वो हँस दी और बोली "बातें बनाना तो कोई आप से सीखे । अरे हाँ आपका नाम क्या है ? मैं तो पूँछना ही भूल गयी ।"

-आदित्य

एक पल के लिए लगा उसने नाम दोहराया हो....आदित्य

बाद के भोपाल तक के सफ़र में दोनों के मध्य ढेर सारी बातें हुईं । जिनमें एक दूसरे की पसंद, फिल्मों, कहानियों, लेखकों और परिवार के सदस्यों से जान-पहचान जैसे विषय शामिल थे । और उसी दौरान आदित्य ने निशा के लिए कविता लिखी थी । जिसने उसे इतना प्रभावित किया कि उसने आदित्य से उसकी डायरी में कैद चन्द कविताओं की माँग कर ली । जिसे आदित्य ने ख़ुशी-ख़ुशी दूसरे पन्नों पर उतार कर दे दिया ।

-"और हाँ, आपका ऑटोग्राफ और पता भी" कविताओं को लेते हुए निशा ने कहा ।

-वो भला क्यों ?

-अरे, इतना हक़ तो बनता है आपकी प्रशंसिका का ।

प्रत्युतर में मुस्कुराते हुए, आदित्य ने कविताओं के अंत में पुनः अपनी कलम चला दी । जिसकी स्याही में आदित्य का पता भी शामिल था ।

सुखद समय जल्दी ही व्यतीत हो चला था और कुछ ही समय दूर, भोपाल स्टेशन प्रतीक्षा में था । ट्रेन सुस्त हो चली थी । मालूम होता था कि भोपाल आ पहुँचा । निशा ने अपना सूटकेस बाहर की ओर निकाला और हाथ आगे बढाते हुए बोली....अच्छा चलती हूँ....आदित्य उठ खड़ा हुआ...रुकिए मैं आपको बाहर तक छोड़ देता हूँ । आदित्य ने उसका सूटकेस बाहर निकाला और दरवाजे के साथ ही खड़ा हो गया । निशा के चेहरे पर मुस्कान बिखर गयी....देखो तो वक़्त का पता ही नहीं चला....प्रत्युतर में आदित्य भी मुस्कुरा दिया । फिर निशा ने हाथ आगे बढाया....अच्छा तो अब चलती हूँ । आदित्य ने हाथ मिलाते हुए कहा "अपना ख्याल रखना" ।
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निशा सूटकेस को थामे सीढ़ियों पर चढ़ती हुई नज़र आ रही थी । ट्रेन ने छूटने का इशारा दे दिया था । आदित्य पुनः अपनी सीट पर आ बैठा । और कुछ ही समय में भोपाल स्टेशन बहुत पीछे छूटता नज़र आने लगा । जहाँ कहीं निशा रहती होगी ।

कुछ पल तक आभास होता रहा कि निशा अभी यहीं है । उसके पीछे छूट गयी, उसकी महक अब भी हवा में तैर रही थी । आदित्य ने उस एहसास को भुलाते हुए आँखें मूँद लीं और सोने की कोशिश में लग गया । बचा हुआ दिल्ली तक का सफ़र उसने सोकर बिताया । और सुबह होते ही अपने पुराने शहर में पहुँच गया । वैसे भी बीते हुए दिनों में दिल्ली उसे बहुत याद आ रहा था ।

ट्रेन के सफ़र को तीन महीने बीत चुके थे । और स्मृतियों में केवल निशा का नाम शेष रह गया था । बसंत अपने आने की दस्तक देने लगा था । धूप अब भी गुनगनी लगती थी । दिल्ली पुनः रंगीन हो चली थी । मालूम होता था कि अब तक कोहरे में छिपी हुई थी । आने वाले हफ्ते में पुस्तक मेला लगने जा रहा था । आदित्य के लिए यह एक ख़ुशी का सबब था कि अबकी बार सप्ताहांत किसी अच्छी जगह बिताने को मिलेगा । और वह बेसब्री से अंतिम दो दिनों की प्रतीक्षा करने लगा ।

साहित्यिक खजाने के मध्य में आकर आदित्य मंत्रमुग्ध था । उसने आधा बैग अपनी पसंदीदा किताबों से भर लिया था और उसकी इच्छा बढती ही जा रही थी । कई किताबों को टटोलता हुआ, वह अंतिम छोर पर जा पहुँचा । उस दुबके हिस्से में कई बेशकीमती किताबें मौजूद थीं । जिनमें आदित्य खो सा गया था । तभी एकाएक पीछे से आवाज़ आई "अरे आदित्य, आप" । उसने पलटकर देखा, निशा सामने खड़ी थी । एक पल को उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि वे दोनों आमने-सामने खड़े हैं ।

-"आप यहाँ कैसे ?" आदित्य ने मुस्कुराते हुए पूँछा ।

-"बस, जैसे आप, वैसे मैं" निशा प्रत्युतर में बोली ।

-मतलब ?

-अरे बाबा, किताबें खरीदने आई हूँ । मेरी बुआ जी दिल्ली में ही रहती हैं । उन्ही के यहाँ छुट्टी लेकर आई थी ।

-आपने बताया नहीं कि आपकी बुआ जी यहाँ रहती हैं ।

-आपने पूँछा भी तो नहीं ।

फिर दोनों एक-दूसरे की बातों पर खिलखिलाकर हँस दिए । अगले ही कुछ क्षणों में दोनों मैदान में बैठे कॉफी पी रहे थे । दोनों अपने-अपने हिस्से की ख़ुशी छुपा नहीं पा रहे थे । जो रह-रह कर उनकी बातों के साथ बही जा रही थी ।
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-"अच्छा, हाँ, मैं तो बताना ही भूल गयी । मैं कल ही आपको यह चैक भेजने वाली थी ।" अपने पर्स की तलाशी लेते हुए निशा ने कहा ।

-किस बात का चैक ?

-"आपकी कविता को मैंने अपने बैंक में होने वाली वार्षिक प्रतियोगिता में दिया था । और आपकी कविता को प्रथम पुरस्कार मिला है । ये रहा आपका पाँच हज़ार का चैक ।" आदित्य को पकड़ाते हुए निशा ने कहा ।

-ये मेरे नाम से कैसे ?

-अरे ये मेरी चैक बुक से कटा हुआ है । बैंक की ओर से मिला चैक मेरे नाम का था ।

-"अब ये मैं नहीं रख सकता । जीती आप हैं । आप ही जानें ।" आदित्य ने चैक वापस करते हुए कहा ।

-कविता तो आपकी ही थी । तो यह आपका ही हुआ न ।

-अच्छा ठीक है । न मेरा और न आपका । इसकी रकम को किसी अनाथालय में जमा करा देते हैं ।

-हाँ ये बेहतर है । और मेरी ट्रीट ?

-"वो तो आपको वैसे भी मिल जायेगी ।" आदित्य ने मुस्कुराते हुए कहा ।

अगले रोज़ आदित्य, निशा को साथ ले अनाथालय गया । कुछ घंटे वहाँ बिताने के बाद और दान की रस्म अदायगी करते हुए, वे लौट पड़े । वापसी में दिल में सुकून की हलचल हो रही थी । मालूम होता था कि एक सुखद एहसास उनके साथ चला आया है ।

लम्बी चुप्पी को तोड़ते हुए, आदित्य ने निशा से पूँछा "किस रेस्टोरेंट में चलना है ।"

- "रेस्टोरेंट कोई भी हो, बस खाना लज़ीज होना चाहिए ।" निशा मुस्कुराते हुए बोली ।

-जी, हुज़ूर ।

अगले ही क्षणों में, वे एक रेस्टोरेंट में थे । आदित्य जाते ही कुर्सी पर बैठ गया । निशा खड़े हुए मुस्कुराने लगी । "ओह, माफ़ करना" कहता हुआ आदित्य उठा और निशा के लिए हौले से कुर्सी को पीछे धकेल कर, बैठने के लिए आमंत्रित किया । निशा मुस्कुराते हुए बैठ गयी ।

कितनी तो अनगिनत बातें थीं । जो दोनों ने अपने पास जमा कर रखी थी । बातों के मध्य नए-नए विषय जन्म ले लेते थे । और इनके मध्य में किसी बात पर निशा का मासूमियत से हँस देना । अपने बालों को रह-रह कर कानों के पीछे धकेलते रहना । खाने के मध्य में चोरी से आदित्य को देखना । और कहना कि चुप क्यों हो । उस रोज़ तो बहुत बोल रहे थे । प्रत्युतर में आदित्य का मुस्कुरा जाना शामिल था ।

बुआ के घर जाने से पहले, निशा ने आदित्य को बताया कि वह कल भोपाल चली जायेगी । आज ही उसकी छुट्टियां ख़त्म हो रही हैं और कल के बाद से उसे ऑफिस जाना है । निशा विदा लेते हुए, आदित्य से उसका मोबाइल नंबर ले जाना नहीं भूली । जो उनकी दोस्ती के दिनों के लिए आवश्यक हो गया था ।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
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भोपाल पहुँचने पर निशा ने फ़ोन किया । जो फिर एक आदत में तब्दील हो गया । कभी आदित्य फ़ोन करता तो कभी निशा । मिनटों का स्थान पहले घंटों ने लिया और फिर कई दफा तो सारी रात बीत जाती । बातें थीं कि, एक ख़त्म होती तो दूजी उपज आती । अब दोनों को ही इस बात का एहसास हो चला था कि उनका रिश्ता अब केवल दोस्ती तक सीमित नहीं रहा । वे उसकी परिधि के बाहर जा चुके हैं । किन्तु यह केवल एक अनकहा सच था । जिसे किसी ने कबूल नहीं किया था । यह केवल मौन स्वीकृति थी कि वे किसी भी विषय को छू सकते थे । अपना रूठना जता सकते थे । रात-रात भर, एक दूसरे को मना सकते थे । उन दिनों में निशा आदित्य को 'आदि' कहने लगी थी और आदित्य निशा को आप से तुम ।

दो महीने बाद, निशा का दिल्ली आना हुआ । जो संयोगवश ना होकर, पूर्व नियोजित था । वे दोनों जब मिले तो उनके मध्य चुप्पी पसर गयी । कहने को कितना कुछ तो था । किन्तु वह क्या था जो रोके हुए था । आने से पहले दोनों ने क्या-क्या तो सोचा था । कि ये कहेंगे या वो कहेंगे । किन्तु मौन टूटे नहीं टूट रहा था । अंततः आदित्य बोला "तो अबके तुम्हारी बारी है, ट्रीट देने की" । निशा के गालों पर गड्ढे उभर आये, जो अक्सर ही उसके खुश होने को जताते थे ।

-"हाँ, हाँ, क्यों नहीं । कहाँ चलना है ? वहीँ, उसी रेस्टोरेंट में ?" निशा चहकते हुए बोली ।

-नहीं, वो तो जब चाहे खा सकते हैं ।

-तो फिर क्या खाना है, ज़नाब को ?

-एक अर्सा हो गया । मैगी नहीं खायी । सूजी का हलवा नहीं खाया । घर का खाना नहीं खाया ।

-अरे तो ये सब भी खिला सकते हैं आपको । हमारी बुआ के घर चलो ।

-अच्छा, सच में ।

-हाँ, बिल्कुल । यदि आप की दिली ख्वाहिश यही सब खाने की है तो ।

-क्यों ? तुम्हारी बुआ को ऐतराज़ नहीं होगा कि किसको ले आई घर पर ।

-जी नहीं, हमारे दोस्तों का हमेशा स्वागत है, उनके घर पर ।

-अच्छा, यदि ऐसा है तो चलते हैं ।

घर पर जाकर मालूम चला कि बुआ जी और फूफा जी कहीं बाहर जा रहे हैं । और ये जानने पर कि आदित्य ख़ास तौर पर आमंत्रित हुआ है । उन्होंने निशा को जाते-जाते समझा दिया कि बिना कुछ खाए, आदित्य को जाने न दिया जाए । अब केवल वे दोनों घर में थे । और आदित्य की दिली ख्वाहिश को पूरा करने के लिए निशा ने मैगी, सूजी का हलवा और कॉफी बनायीं ।

-"शादी क्यों नहीं कर लेते ? रोज़ ही घर का खाना खाया करना" मैगी और हलवा ख़त्म हो जाने और कॉफी के घूँट के मध्य निशा ने कहा ।

-बहुत देर की ख़ामोशी के बाद आदित्य ने कहा "किससे ?"

-कोई तो होगी ऐसी । जिससे शादी कर सकते होगे ।

-"मुझे तो कहीं नज़र नहीं आती" आदित्य ने गलत उत्तर देते हुए कहा ।

निशा अपनी जगह से उठकर, खाली हुए दोनों कप लेकर रसोई में जाने लगी । कप उठाते हुए ही उसकी आँख में आँसू भर आये थे । जिन्हें उसने रसोई में जाकर बहाया । पीछे से आदित्य ने जाकर उसे गले से लगा लिया । "अरे तुम तो रोने लगीं । मैं तो मजाक कर रहा था । अच्छा बाबा, आई लव यू" निशा के आँसुओं को उंगली पर लेते हुए आदित्य बोला । निशा के गालों पर गड्ढे उभर आये । और वो पुनः आदित्य के गले से लग गयी । एहसास होता है कि ना जाने कितने समय से वे यूँ ही एक दूजे से चिपके हुए हैं ।
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अबके निशा जो भोपाल गयी तो पीछे छोड़ गयी, भविष्य के सपने और मीठी यादें । दोनों ने आने वाले समय में शादी करने का निर्णय लिया था । भविष्य से बेखबर, वे वर्तमान में खुश थे । इस दृढ विश्वास के साथ कि निशा अपने पिताजी को अंतर्जातीय विवाह के लिए मना लेगी । दोनों अपनी पूरी जिंदगी, एक दूजे के साथ बिताने का हिसाब कर चुके थे ।

उनके प्यार को लगभग एक साल बीतने को हो आया था । और इस बीच वे कई बार एक-दूसरे से मिल चुके थे । मौका पाते ही निशा दिल्ली चली आती या सप्ताहांत में आदित्य भोपाल चला जाता । दिन बड़े सुकून भरे थे । एहसास होता था कि अभी तो शुरू हुए हैं । अभी तो एक-दूजे का हाथ थामा है । अभी तो सपने बुनने शुरू किये हैं ।

सुखद समय का बहुत जल्द ही अंत हो गया । जब निशा ने आदित्य के बारे में, अपने पिताजी को बताया । उन्होंने साफ़ कर दिया था कि यह शादी किसी भी हालत में नहीं हो सकती । निशा भी कहाँ हार मानने वाली थी । उसने अपना स्थानांतरण दिल्ली करा लिया । और घर पर साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि चाहे जो हो जाए वह आदित्य से ही शादी करेगी । वह धीमे-धीमे अपने घर से विच्छेदित सी हो गयी थी । तभी उसकी माँ ने उसे एक बार घर आने को कहा । और वह माँ के लिए भोपाल चली गयी ।

उस रात निशा के पिताजी ने किसी लड़के का फोटो दिखा कर, जबरन शादी करने का दबाव बनाया । निशा ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि उसके परिवार के सदस्य ऐसा करेंगे । उसने सुबह होते ही दिल्ली जाने के, अपने इरादे के बारे में बता दिया । उसके पिताजी ने कुछ नहीं कहा । और वह अपने पीछे रोती, बिलखती माँ को छोड़ कर चली आई ।

दो रोज़ बाद भोपाल से माँ का फ़ोन आया कि पिताजी अस्पताल में भर्ती हैं । उन्होंने आत्महत्या करने की कोशिश की है । खबर पाते ही निशा ने आदित्य को सब बताया और भोपाल को रवाना हो गयी । अस्पताल में पिताजी बेबस, लाचार प्रतीत होते थे । लगता था कि दान में उसके हिस्से की खुशियाँ माँगना चाहते हों ।
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