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Old 12-01-2013, 01:45 PM   #1
malethia
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Default स्वामी विवेकानन्द

!!स्वामी विवेकानन्द जी का आज जन्म दिन है !!

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Old 12-01-2013, 01:46 PM   #2
malethia
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी सन् १८६3 को कलकत्ता में हुआ था। इनका बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। इनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवीजी धार्मिक विचारों की महिला थीं।

उनका अधिकांश समय भगवान् शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले 'ब्रह्म समाज' में गये किन्तु वहाँ उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे।

दैवयोग से विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। अत्यन्त दर्रिद्रता में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।

स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव श्रीरामकृष्ण को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की चिंता किये बिना, स्वयं के भोजन की चिंता किये बिना वे गुरु-सेवा में सतत संलग्न रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था।

विवेकानंद बड़े स्वपन्द्रष्टा थे। उन्होंने एक नये समाज की कल्पना की थी, ऐसा समाज जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं रहे। उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धांत की जो आधार विवेकानन्द ने दिया, उससे सबल बौदि्धक आधार शायद ही ढूंढा जा सके।

विवेकानन्द को युवकों से बड़ी आशाएं थीं। आज के युवकों के लिए ही इस ओजस्वी संन्यासी का यह जीवन-वृत्त लेखक उनके समकालीन समाज एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में उपस्थित करने का प्रयत्*न किया है यह भी प्रयास रहा है कि इसमें विवेकानंद के सामाजिक दर्शन एव उनके मानवीय रूप का पूरा प्रकाश पड़े।
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Old 12-01-2013, 01:46 PM   #3
malethia
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द

बचपन से ही नरेन्द्र अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के और नटखट थे। अपने साथी बच्चों के साथ तो वे शरारत करते ही थे, मौका मिलने पर वे अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। नरेन्द्र के घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण, रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे पड़ गए। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखाई देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुक्ता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पंडितजी तक चक्कर में पड़ जाते थे।
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Old 12-01-2013, 01:47 PM   #4
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द

एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखायी तथा घृणा से नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर स्वामी विवेकानन्द को क्रोध आ गया। उस गुरु भाई को पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भंडार की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा!
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Old 12-01-2013, 01:48 PM   #5
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द

सम्मलेन भाषण

अमेरिकी बहनों और भाइयों,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
- ' जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।'
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
- ' जो कोई मेरी ओर आता हैं - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।'
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
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Old 12-01-2013, 01:49 PM   #6
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द

२५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिये। तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् १८९३ में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले।

एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किन्तु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे।

उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें 'साइक्लॉनिक हिन्दू' का नाम दिया। "आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा" यह स्वामी विवेकानन्दजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। ४ जुलाई सन् १९०२ को उन्होंने देह-त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। जब भी वो कहीं जाते थे तो लोग उनसे बहुत खुश होते थे।
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Old 12-01-2013, 01:50 PM   #7
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द

उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आनेवाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।

तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। गुरुदेव रवींन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’’

रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था, ‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देखकर ठिठककर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा, ‘शिव !’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।’’



मूम्बई मे गेटवे ऑफ़ इन्डिया के निकट स्थित स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमुर्ति


वे केवल संत ही नहीं थे, एक महान् देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘नया भारत निकल पड़े मोदी की दुकान से, भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।’’ और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानंद के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं—केवल यहीं—आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन—‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’

उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में विवेकानंद लगभग सशस्त्र या हिंसक क्रांति के जरिए भी देश को आजाद करना चाहते थे. उन्हें जल्दी ही यह विश्वास हो गया कि परिस्थितियां उन इरादों के लिए परिपक्व नहीं हैं. इसलिए विवेकानंद ने ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत और दुनिया को खंगाल डाला।

उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिए जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ. विवेकानंद पुरोहितवाद, धार्मिक आडंबरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे. उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था. उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवी नहीं था. उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए।

उनका यह कालजयी आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंत में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है. पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्गी उनके इस आव्हान को सुनकर बंध गई थी। आज कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मंदिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती. विवेकानंद के जीवन की अंर्तलय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत है।

उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राम्हणवाद, धार्मिक कर्मकांड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ाई है और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ जेहाद भी बोला है. उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिंतकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिए। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी बेसाख्ता जरूरत है।

यह विवेकानंद का अपने देश की धरोहर के लिए दंभ या बड़बोलापन नहीं था। यह एक वेदांती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी. बीसवीं सदी के इतिहास ने बाद में उस पर मुहर लगाई।
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Old 12-01-2013, 01:52 PM   #8
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द



उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्चभर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा "एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।" प्रत्यदर्शियों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने अपने 'ध्यान' करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घंटे ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रक्खा था। उन्होंने कहा भी था, 'यह बीमारियाँ मुझे चालीस वर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।' 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।
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Old 12-01-2013, 02:05 PM   #9
malethia
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द

स्वामी जी की दस बातें .............

1. उठो, जागो और तब तक रुको नहीं जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये।

2. तमाम संसार हिल उठता। क्या करूँ धीरे-धीरे अग्रसर होना पड़ रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान!
3. जब तक जीना, तब तक सीखना' -- अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
4. पवित्रता, दृढ़ता तथा उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ।
5. ज्ञान स्वयं में वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।
6.जब कोई विचार अनन्य रूप से मस्तिष्क पर अधिकार कर लेता है तब वह वास्तविक भौतिक या मानसिक अवस्था में परिवर्तित हो जाता है।
7.आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।
8. हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।
9. लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।
10.तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।
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Old 12-01-2013, 07:39 PM   #10
jai_bhardwaj
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Default Re: स्वामी विवेकानन्द

12 जनवरी ... राष्ट्रीय युवा दिवस
[COLOR="rgb(255, 0, 255)"]
यह समय युवाओं का है. आज की तकनीक भरे समय में अगर कोई देश प्रगति की राह पर तेजी से चल सकता है तो वही जिस देश के युवाओं के कंधे इतने बलवान हों कि वह किसी भी कठिनाई पर ना झुकें ना थकें. युवाओं के कंधों पर ना सिर्फ राष्ट्र की छवि होती है बल्कि विश्व समाज को आगे ले जाने का भी दबाव होता है.[/SIZE][/COLOR]

National Youth Day of India 2013

[COLOR="rgb(255, 0, 255)"]]युवा वर्ग को हर देश के लिए बेहद अहम इसलिए माना जाता है क्यूंकि युवाओं का जोश किसी भी देश की उप्तादक क्षमता को बढ़ाने के लिए अहम होता है और जितना अधिक उप्तादन होगा उतना अधिक देश प्रगति करेगा. यहां उत्पादन से तात्पर्य कार्यक्षमता से है फिर वह चाहे वह कार्यक्षमता किसी कारखाने में लगे या खेल के मैदान में.
[/COLOR][SIZE="4"]

NATIONAL YOUTH DAY 2013: राष्ट्रीय युवा दिवस

देश में युवाओं की इसी क्षमता को पहचानते हुए वर्ष 1985 से हर वर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद की जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. साल 1985 में संयुक्त राष्ट्र ने भी अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष मनाया था और इसी को संज्ञान में लेते हुए भारतीय सरकार ने भी हर साल राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने का निर्णय लिया.
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
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