14-06-2015, 10:24 AM | #1 |
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saccha prem
श्री कृष्ण के हृदय में लगा और उनके श्रीमुख से निकला हे राधे ! सुनते ही रुक्मणी बोली प्रभु! ऐसा क्या है राधा जी में ,जो आपकी हर साँस पर उनका ही नाम होता है।मैं भी तो आपसे अपार प्रेम करती हूँ; फिर भी आप हमें नहीं पुकारते। श्री कृष्ण ने कहा -देवी!आप।कभी राधा से मिली हैं ?और मंद मंद मुस्काने लगे। अगले दिन रुक्मणी राधाजी से मिलने उनके महल में पहुंची ।राधाजी के कक्ष के बाहर अत्यंत खूबसूरत स्त्री को देखा और उनके मुख पर तेज होने कारण उसने सोचा कि ये ही राधाजी है और उनके चरण छुने लगी; तभी वो बोली -आप कौन हैं ? तब रुक्मणी ने अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया ;तब वो बोली मैं तो राधा जी की दासी हूँ।राधाजी तो सात द्वार के बाद आपको मिलेंगी । रुक्मणी ने सातो द्वार पार किये और हर द्वार पर एक से एक सुन्दर और तेजवान दासी को देख सोच रही थी क़ि अगर उनकी दासियाँ इतनी रूपवान हैं तो राधारानी स्वयं कैसी होंगी ?सोचते हुए राधाजी के कक्ष में पहुंची।कक्ष में राधा जी को देखा ,अत्यंत रूपवान तेजस्वी जिसका मुख सूर्य से भी तेज चमक रहा था। रुक्मणी सहसा ही उनके चरणों में गिर पड़ी पर ये क्या राधा जी के पैरो पर तो छाले पड़े हुए है।रुक्मणी ने पूछा देवी आपके पैरो में छाले कैसे ? तब राधा जी ने कहा देवी कल आपने कृष्णजी को जो दूध दिया, वो ज्यदा गरम था; जिससे उनके ह्रदय पर छाले पड गए और उनके ह्रदय में तो सदैव मेरा ही वास होता है। - जय श्री कृष्ण |
14-06-2015, 07:42 PM | #2 |
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Re: saccha prem
बहुत ही अद्भुत प्रसंग है। कृष्ण-राधा प्रेम पुजनीय है। शायद प्रेम की तभी उच्चतम और महान बना रहता है जब वह अधूरा रहता है!
वैसे ओफ धी टॉपिक...सच्चा प्रेम क्या होता है? हम यह दो शब्दों का योग बार बार हंमेशा सुनते है....'सच्चा प्रेम' । मै अपने ब्लॉग में भी जिक्र करता रहेता हुं की प्रेम 'सच्चा' कैसे हो सकता है? सच्चा है तभी तो वह प्रेम है! जुठा है तो वह प्रेम है ही नहीं! यह तो वही बात हो गई की' गर्म बरफ' या 'ठंडी आग' । जैसे की मेरे प्यारे गुलज़ार जी कहतें है....प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो!
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14-06-2015, 08:17 PM | #3 |
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Re: saccha prem
यहाँ मेरा कुछ मतभेद है. हमने सुना भी है और पढ़ा भी है कि 'सत्य ही ईश्वर है' या 'ईश्वर ही सत्य है'. ऐसी स्थिति में सत्य मीठा और कर्णप्रिय ही होना चाहिये, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं. लेकिन अक्सर यह भी सुनाई दे जाता है कि 'सत्य कड़वा होता है'. यह विरोधाभास क्यों? इसी भांति विशुद्ध प्रेम आजकल rare हो गया है. प्रेम में मिलावट होने पर यह प्रेम 'झूठा' भी हो सकता है. अतः प्रेम के परस्पर विपरीत रूपों का ज़िक्र करते हुए यदि हम 'सच्चा प्रेम' और 'झूठा प्रेम' कहते हैं तो बुरा क्या है? उसके अलावा, सच्चा कहने से प्रेम की तीव्रता का आभास होता है.
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14-06-2015, 08:35 PM | #4 | |
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Re: saccha prem
Quote:
फिर तो जब प्रेम की बात हो शुद्ध प्रेम की ही बात हो।
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15-06-2015, 09:25 PM | #5 |
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Re: saccha prem
apni rai rakhne ke liye dhanyawad manga ji mai aapki baat se sahmat hu kadachit prem matra prem hota hai uske alawa kuch bhi aur hone pe wo prem nahi rah jaega, maine ek baar meri nazar me ek bahut gyani insan ke muh se ek kamal ki baat suni thi, usne kaha ki prem yadi dharm nahi hai to wo prem hi nahi hai, yaha dharm ka matlab hindu musalman nahi varan sabko ek samaan manne ke niyat hai, unke hisab se yadi koi sabse ek sa vyavhar nahi kar paya to wo prem hi nahi kar paya, bhed bhav ya moh karne ki jis bhavna ko hum prem samajhte hai shayad wo hi jhutha prem hai, iske viprit bhed bhav na karne ko hi sachcha prem kah sakte hai, sochiye wo kaun si niyat ya shakti hogi jiske chalte radha krishna ek na ho pane bawjood prem ki murat mane jate hai wahi baki log unke samkaksha nahi mane jate, kyuki radha krishna jagat se prem karte the sabse ek bhav rakhte the aur yahi unka ek dusre ke prati prem darshane ka tarika bhi tha.dharm pe rahna varan krishna bhagwan ki pratigya hi nahi balki radha ji se prem karne ka madhyam bhi tha.
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