14-04-2013, 08:06 PM | #1 |
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'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
पिता-पुत्र में काफी बहस हुई। जनार्दन अड़े रहे कि वे अमरीका में रहेंगे और उनके पिता अड़े रहे कि उनके शव के ऊपर से चलकर ही अमरीका जा सकते हैं। आखिरकार जनार्दन की माताश्री के बीच-बचाव से यह तय हुआ कि जनार्दन ब्याह करके जाए नहीं तो कहीं कोई मेम ले आए तो धरम भ्रष्ट हो जाएगा।
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14-04-2013, 08:07 PM | #2 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
काफी रिश्ते आए। आखिरकार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शर्मा की द्वितीय पुत्री ललिता ही उन्हें भाई। अपने समय के हिसाब से वे कुछ अधिक ही आधुनिका थीं अत: भारत में उनके विवाह में परेशानी भी हो रही थी। जनार्दन के हामी भरते ही जैसे यह चरितार्थ हो गया कि 'रिश्ते स्वर्ग में ही बनते हैं।'
अन्तत: दोनों के पासपोर्ट, वीसा तैयार होने के बाद वह दिन भी आ गया, जब उन्हें बनारस से दिल्ली रवाना होना था।
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14-04-2013, 08:07 PM | #3 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
जनार्दन के घर तो कोहराम ही मच गया था। औरों को रोता देखकर जनार्दन की आँखें भी भरने लगीं। ललिता ने भी घड़ियाली आँसू निकालना शुरू कर दिया कि कहीं कोई यह न सोचे कि बहू अन्दर-ही-अन्दर खुश हो रही है लेकिन वास्तविकता तो यह थी कि वह पुरातनपंथी ससुराल से मुक्ति पाने की बात सोचकर बहुत पुलकित थी।
जनार्दन की माताश्री गंगाजल लेकर आई व दोनों पर छिड़का और बुदबुदाई, "हे भगवान, इन्हें अधर्म से बचाना।" प्रोफेसर साहब दोनों को लेकर दिल्ली गए एवं पालम हवाई अड्डे से उन्हें विदाई दी। तारीख थी १० फरवरी, १९७२। पच्चीस वर्ष बीत गए हैं। गंगा में तब से बहुत पानी बह चुका है, परन्तु जनार्दन मिश्र बिलकुल भी नहीं बदले हैं। बदले हैं तो कैलेंडर की तारीख एवं रहने का स्थान। सान फ्रान्सिस्को महानगर के पास सनीवेल में एक बड़े से भव्य घर में रहते हैं एवं उनकी डॉक्टरी का पांडित्य दूर-दूर तक फैला हुआ है। हाँ यह बात अलग है कि उनकी आधुनिका पत्नी अब अत्याधुनिक बन गई हैं एवं उनकी इकलौती संतान रीना 'चिप्स कल्चर' में पलकर शहरी भाषा में स्वस्थ व देहाती भाषा में भैंस लगने लगी है। बस, वर्ण श्याम नहीं हैं।
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14-04-2013, 08:07 PM | #4 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
जनार्दन अभी भी सूर्य को अर्घ्य दिए बिना दिनचर्या आरंभ नहीं करते। मांस मछली तो क्या, अंडे तक को हाथ नहीं लगाते। लेकिन एक विकट समस्या आन पड़ी है। बेटी चौबीस की हो रही है और उसकी शादी की चिन्ता में जनार्दन इकहरे से आधे हुए जा रहे हैं। उन्हें चिन्ता है कि कहीं उम्र के जोश में रीना कोई गलत जीवनसाथी न ढूँढ ले। वैसे इस समस्या के समाधान के प्रयास में तो उन्हें ललिता का भी पूर्ण सहयोग प्राप्त है।
आजकल उनकी शाम का समय ब्राह्मण लड़के खोजने में लग जाता है। जब किसी विवाह योग्य लड़के का पता चलता है, वे तुरन्त उससे मिलने पहुँच जाते हैं एवं अपनी डॉक्टरी आँखों से उसकी जाँच-पड़ताल करने लगते हैं। "ललिता! एक लड़के का पता चला है। कम्प्यूटर इंजीनियर है। अभी दो वर्ष पहले भारत से आया है। इलाहाबाद का है, सरयूपारीण ही है। एक छोटी कम्पनी में काम करता है। मैं तो उससे मिल आया हूँ, मुझे पसंद है। क्यों न तुम रीना से बात करो। वह तैयार हो जाए तो बड़ा अच्छा है," जनार्दन ने ललिता से कहा। "रीना से बात करना तो बिल्ली के गले में घंटी बाँधने जैसा है। फिर भी मैं प्रयत्न करूँगी।" "क्या रीना-रीना हो रहा है," रीना सीढ़ी उतरते हुए बोली। "बेटा, तुम्हारे बारे में ही बात कर रहे थे। एक लड़का है, सुधाकर। मुझे बहुत पसंद है। अगर तुम उससे बात कर लो तो..."
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14-04-2013, 08:08 PM | #5 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
इसके आगे बोलने की हिम्मत नहीं हुई जनार्दन की।
"अच्छा, तो मेरी शादी की बात है! मुझे नहीं करनी अभी शादी-वादी," रीना ने उत्तर दिया। ललिता के बहुत समझाने-बुझाने पर रीना सुधाकर से मिलने को तैयार हो गई। शनिवार आते ही रीना, ललिता एवं जनार्दन सुधाकर के घर पहुँचे। "नमस्ते! आप लोगों का ही रास्ता देख रहा था।" सुधाकर ने शिष्टाचार पूर्वक कहा। "सुधाकर, यह है मेरी पुत्री रीना एवं मेरी पत्नी ललिता।" जनार्दन ने परिचय कराया। सुधाकर ने सोचा कि अच्छा हुआ कि बता दिया वरना उसे तो लगा था कि दो पुत्रियों के साथ आए हैं। रीना ने कमरे का अच्छे ढंग से मुआयना किया। सामने ही एक प्रौढ़ जोड़े की फोटो लगी थी। हो-न-हो यह तस्वीर सुधाकर के माता-पिता की होगी। जनार्दन को चिन्ता थी कि रीना कम-से-कम शिष्टाचारपूर्ण व्यवहार करे। रीना ने सुधाकर से एक-दो सवाल पूछे तथा एक-दो सवालों का ठीक-ठाक-सा उत्तर दिया। जनार्दन ने तो जैसे सुधाकर की चार पीढ़ियों का आगा-पीछा पूछ डाला। किसी तरह बातें समाप्त हुई और उन लोगों ने विदा ली। कार में बैठते ही ललिता बोली, "सचमुच, बड़ा अच्छा लड़का है, क्यों रीना?" "ठीक ही है। लेकिन घर में घुसते ही उसके माता-पिता की बड़ी-सी तस्वीर लगी है एवं बात-बात में मम्मी-पापा बोलता रहता है। यह तो मुझे हर वर्ष जाड़े की छुटि्टयों में भारत ले जाएगा, मच्छरों से कटवाने। फिर मैं स्कीइंग कब करूँगी।"
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14-04-2013, 08:08 PM | #6 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
जनार्दन व ललिता चुप रहे। परन्तु जनार्दन भी कोई हार मानने वाले थोड़े ही थे। मूछें तो अमरीका आते ही कटवा ली थीं फिर ताव किस पर देते! पर जनेऊ पर अवश्य हाथ फेरते हुए सोचने लगे 'चरैवैति चरैवैति'।
"ललिता, मेरे बचपन के मित्र चूड़ामणि त्रिवेदी का लड़का यहाँ आ रहा है। उसको वीसा मिल गया है। लिखा है कि उसका ध्यान रखना, "जनार्दन प्रसन्नतापूर्वक चिठ्ठी पढ़ते हुए बोले। ललिता ने मन-ही-मन सोचा कि बकरा स्वयं शेरनी के सामने आ रहा है। अब माता-पिता से बढ़कर कौन अपनी सन्तान को समझ सकता है। अन्तत: वह दिन भी आ गया, जब जनार्दन सौरभ को सैन होजे हवाई अड्डे से अपने घर ले आए। रीना बाहर गई हुई थी। उसके लौटते ही जनार्दन ने सौरभ का उससे परिचय करवाया। रीना ने मन-ही-मन कहा कि पापा का यह नया मोहरा है। "कब आए आप?" रीना ने सौरभ से पूछा। "अभी-अभी आया हूँ। भारत से लास एँजिल्स और फिर सैन जोस," सौरभ ने बत्तीसी दिखाते हुए कहा। "अच्छा-अच्छा, सैन जोस से आए हैं सान फ्रांसिस्को से नहीं," रीना को हँसी आ रही थी। स्पैनिश भाषा में "ज" को "ह" बोला जाता है, यह बेचारे सौरभ को पता नहीं था। (मेक्सिको की सीमा से लगे होने के कारण कैलिफोर्निया में स्पैनिश भाषा का बहुत प्रभाव है)
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14-04-2013, 08:08 PM | #7 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
रीना घुमा-फिराकर सौरभ के मुँह से सैन जोस सुनती एवं हँसती। जनार्दन को रीना के इस अशिष्ट व्यवहार पर क्रोध आ रहा था एवं सौरभ 'ना समझी-एक वरदान' के सिद्धांत पर चलता जा रहा था।
एकान्त होते ही जनार्दन नीची आवाज में रीना से बोले, "बेटी रीना, ऐसे किसी का मजाक नहीं उड़ाते।" "मैंने किसी का मजाक नहीं उड़ाया है," रीना का उत्तर था। "कितना सीधा-साधा है, तुम्हारे लिए बिल्कुल ठीक रहेगा।" जनार्दन ने सोचा कि जंगल में एक ही शेर काफी है। "यह मरगिल्ला! इससे तो लगता है कभी व्यायाम नहीं किया है। यह क्या शादी करेगा।" "कितनी मेहनत से पढ़ाई की है, जब कमाएगा तो बदन अपने-आप ही बन जाएगा। अब इतनी छोटी बात पर तो मना मत करो।" जनार्दन ने अनुनय की। "मुझे दोस्तों में हँसी नहीं उड़वानी कि कहाँ से ये 'स्केयर क्रो' (खेतों में लगा पुतला) ले आई हो?" रीना बोलते हुए ऊपर चली गई। जनार्दन सिर पकड़कर बैठ गए। सोचने लगे कि भगवान रीना को सद्बुद्धि दे। जनार्दन अब स्वयं ही लड़कों की जाँच-पड़ताल अच्छे ढँग से करने लगे कि रीना कुछ कमी न निकाल सके। अंत में उन्हें एक बहुत अच्छा लड़का मिला। था तो कान्यकुब्ज पर बड़ी कम्पनी में कार्यरत था। भारत में उसका परिवार भी काफी नामी था। जनार्दन ने मानता मानी कि यदि यहाँ बात बन गई तो मंदिर की दान-पेटिका में सौ डॉलर अवश्य डालेंगे। अब सौ डॉलर तो बहुत होते हैं न भगवान।
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14-04-2013, 08:09 PM | #8 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
किसी तरह हिम्मत बाँधकर जनार्दन एवं ललिता ने रीना के सम्मुख प्रस्ताव रखा।
"अब मैं इस झाँसे मे नहीं आने वाली। मेरा अपना जीवन, अच्छी नौकरी है। मुझे जब जो उचित लगेगा, वहीं करूँगी। आप लोगों के इस व्यवहार से मैं बहुत विचलित हो जाती हूँ।" "बेटी, बस इसके घर चली चलो, फिर नहीं कहेंगे," जनार्दन ने हथियार डालते हुए कहा। "ठीक है, पर यह अन्तिम बार होगा," रीना ने शर्त रखी। जनार्दन, ललिता व रीना दिवाकर के घर पहुँचे। "डैड, यह तो एपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स है," रीना चौंककर बोली। "तो क्या हुआ," जनार्दन ने कहा। रीना ने नाक-भौं चढ़ाते हुए अंदर प्रवेश किया। थोड़ी देर बाद ही उसे वहाँ घुटन होने लगी। वाशिंग मशीन, कूड़ादान - सभी कुछ तो दूर-दूर हैं और साझे के हैं।
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
वापस लौटते ही उसने ऐलान कर दिया कि वह उस दमघोंटू एपार्टमेंट में नहीं रह सकती और अभी दो-तीन वर्ष तक घर खरीदने का उसका कोई विचार नहीं है। इतने समय में तो उसका स्वास्थ्य ही चौपट हो जाएगा। जनार्दन एवं ललिता का मुँह खुला-का-खुला रह गया। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। सोफे में धँस गए और सिर पर हाथ फेरा। जहाँ कभी संकरी-सी माँग नामक गली होती थी, वहाँ आजकल काफी चौड़ी सड़क बन चुकी थी। काफी बाल तो अमरीकी "बाथ टब" ने निगल लिए थे एवं बचे-खुचे रीना की शादी की चिन्ता ने। आधे मन से जनार्दन ने टी.वी. खोला तो समाचार आ रहा था। "माऊंटेन व्यू की कम्पनी 'फिक्स साफ्टवेयर' पब्लिक घोषित हो गई है एवं इसका स्टॉक, स्टॉक मार्केट के सारे रिकॉर्ड तोड़ गया है।"
जनार्दन चिल्लाए, "रीना, ललिता!" सुधाकर की कम्पनी बहुत अच्छी चल निकली। सुधाकर करोड़पति बन गया है।" "वो तो बड़ा अच्छा लड़का है," ललिता ने खुशी से कहा। "रीना देखो, तुमने बिना मतलब ही मना कर दिया। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मैं बात करता हूँ।" जनार्दन ने कहा। "पैसा रहे तो भारत अमरीका सब बराबर है। मैंने मना थोड़ी ही किया था। अब कोई लड़की अपने मुँह से कैसे हाँ बोल दे?" रीना ने शर्माने का प्रयास किया।
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14-04-2013, 08:10 PM | #10 |
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Re: 'काहे को ब्याही विदेश' - कहानी- उत्कर्ष राय
जनार्दन खिजला गए कि चित भी मेरी, पट भी मेरी। वैसे उन्हें खुशी भी हो रही थी कि चलो, रीना ने हामी तो भरी! भावी दामाद के रूप में सुधाकर तो उन्हें पसंद था ही। जनार्दन ने सोचा कि सुधाकर आजकल भारत गया है, उसके लौटते ही बात करेंगे।
उनकी बेसब्री बढ़ती जा रही थी। बाहर निकल कर देखा तो डाकिया पत्र डाल रहा था। पत्र-पेटी से जनार्दन ने पत्र निकाले और सरसरी दृष्टि से सारे पत्रों को देखा। उनकी दृष्टि एक विवाह-निमंत्रण पर पड़ी। ऊपर ही लिखा था 'सुधाकर नमिता परिणय'। काँपते हाथों से निमंत्रण खोलकर पढ़ा। पढ़ते ही उन्हें लगा, जैसे हाथों के तोते उड़ गए हों। "ललिता, रीना! यह कार्ड देखो" जनार्दन वाक्य पूरा न कर सके। ललिता व रीना ने कार्ड पढ़कर सारा दोष जनार्दन के सिर मढ़ दिया। जनार्दन धीरे-धीरे पुन: अपने-आपको अपने काम में व्यस्त रखने लगे।
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