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30-08-2013, 09:21 PM | #1 |
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डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने (1)
(अंतर-जाल से) अब एक बार फिर पीछे मुड़ें? जब मैं एल.टी. की परीक्षा दे चुकी थी। शायद परीक्षा परिणाम उस समय तक निकला भी नहीं था (या निकल गया था, याद नहीं) कि यू.पी. में सर्विस करने का अवसर मिला। हमारे प्रिन्सिपल डॉ. इबादुर रहमान खान जो वहाँ इन्सपेक्टर ऑव स्कूल्स भी थे, के हस्ताक्षर से एक फरमान आया कि वे मुझे मेरठ में डिप्टी इन्स्पैक्ट्रैस की पोस्ट पर लाना चाहते हैं। पर शर्त यह कि मैं उर्दू की कोई प्रारम्भिक परीक्षा उर्त्तीण कर लूँ । उर्दू का अलिफ़बे भी मैं नहीं सीख पाई थी। दादा ने अपनी मृत्यु से पूर्व एक बार मुझ उर्दू की वर्णमाला सिखाने का प्रयास भी किया, किन्तु मेरे पल्ले वह पड़ा ही नहीं। उन दिनों उत्तरप्रदेश में राजकीय कार्य की वर्नाक्यूलर भाषा उर्दू ही हुआ करती थी। अतः डॉ. खान को विनम्र शब्दों में उनकी ऑफर के लिए आभार तो व्यक्त किया ही साथ में उर्दू न सीख पाने की असमर्थता भी बता दी थी। दीदी को ही मैंने लिखा कि जयपुर में मेरे लिए कोई उचित नौकरी की कोशिश करें। उनका जो उत्तर आया बड़ा निराशाजनक था। कुछ ही दिनों पश्चात्* अचानक उन्होंने फौरन जयपुर पहुँचने का बुलावा भेजा। उस निराशाजनक उत्तर के पीछे अनुमान मात्र था कि एक ही विभाग में दो बहिनें कार्यरत हों, यह शायद उनके डाइरेक्टर ऑव एज्यूकेशन को मान्य नहीं होगा। यह 1940 का वर्ष था। Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:13 AM. |
30-08-2013, 09:22 PM | #2 |
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Re: डायरी के पन्ने
जयपुर में कन्या विद्यालय के नाम पर ही संस्था थी- महाराज गर्ल्स हाई स्कूल। उसमें हिन्दी अध्यापिका के पद के लिए मैं इन्टरव्यू देने गई। इन्टरव्यू लेने वालों में मुख्य थे जोबनेर के ठाकुर साहब श्री नरेन्द्र सिंह जी। उनका पहला प्रश्न था- राष्ट्रकवि कौन हैं? उनकी किसी कविता की पंक्तियाँ सुनाने को कहा। फिर सुभद्रा कुमारी चौहान की किसी प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ सुनानी पड़ीं- ‘बुन्देले हर बोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी॥ उस समय की उनकी मुख-मुद्रा से मुझे आभास हुआ की मेरा चयन हो जाएगा। यह घटना जुलाई मध्य की है। फिर नियुक्ति पत्र मिला और मैंने 1 अगस्त 1940 को महाराजा गर्ल्स हाई स्कूल में हिन्दी अध्यापिका का पद सम्हाल लिया। एक बात और याद आ गई। जब मैं बी.ए. पढ़ रही थी, जीजाजी का आग्रह हुआ कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा आयोजित ‘विशारद’ की परीक्षा मैं दूँ । उस समय ‘विशारद’ हिन्दी को बी.ए. के समकक्ष मान्यता प्राप्त थी। वह परीक्षा भी मैंने सहजता से उत्तीर्ण कर ली थी। जोबनेर ठाकुर साहब- शिक्षामन्त्री, इस तथ्य से विशेष प्रभावित हुए थे। अब तक जो कुछ लिखा, टीटू, तुम निस्सन्देह बोर हो रही होगी। आवश्यक-अनावश्यक सब कुछ ही तो लिख मारा। अब आज इतना ही। अध्यापनकाल का प्रारम्भ कैसे हुआ इसका उल्लेख, कल तक के लिए स्थगित । ठीक?
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:13 AM. |
30-08-2013, 09:26 PM | #3 |
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Re: डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने (2)
इलाहाबाद छोड़ने के पूर्व की कुछ घटनाएँ याद आ रही हैं। जब मैं इन्टरमीडियेट में पढ़ रही थी, दादा को मेरे विवाह की चिन्ता हुई। कानपुर के एक क्रान्तिकारी, स्वतंत्रता सेनानी विख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी हुआ करते थे। हरिशंकर विद्यार्थी नामक उनके पुत्र के साथ दादा ने मेरे विवाह की चर्चा अपने कानपुरी मित्रों के मार्फत की। दादा ने उन्हें मेरे लिए अति योग्य वर के रूप में पसन्द कर लिया। अपने एक पत्र द्वारा दादा ने मुझे इतनी सूचना दी और मेरी सहमति माँगी। संयोग से वह पत्र भी अभी मिल गया। मेरे सहमत-असहमत होने से पूर्व ही जीजाजी ने दादा को लिखा कि वे स्वयँ कानपुर जा कर उस विद्यार्थी परिवार से मिलेंगे, लड़के को स्वयं देखकर निर्णय लेना चाहेंगे। जीजाजी कानपुर गए हरिशंकर जी की जाँच-परख करके लौट कर मेरी उपस्थिति में दीदी को बताया की परिवार यद्यपि बहुत अच्छा है पर लड़के की टाँग में कुछ खोट है। वह झुक कर के चलता है। दीदी ने आँख से कनखी मार कर मेरी ओर देखा और स्वयँ झुक कर चलना शुरू किया। फिर जीजीजी से पूछा ऐसे चलता है? ‘हाँ’ जीजाजी का संक्षिप्त उत्तर था। उस समय ठहाका मार कर हम सब हँस पड़े थे। आखिर जीजाजी ने दादा को लिख दिया कि मित्थल के लिए यह रिश्ता उपयुक्त नहीं है। कुछ समय बाद शायद मौसी के द्वारा सुना गया कि उनकी कोई रिश्ते में लगने वाली लड़की ‘मुक्ता’ (जो मेरे साथ पढ़ती थी) का विवाह हरिशंकरजी से सम्पन्न हुआ। अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते दादा अपने जीवनकाल में ही मेरे विवाह के लिए चिन्तित रहते थे। इसी कारण वह अपने भाइयों को भी मेरे लिए उपयुक्त वर खोजने के लिए लिखते होंगे। उन दिनों हमारे सबसुख चाचा (जो मुझे बहुत प्यार करते थे) जावरा स्टेशन पर बुकिंग क्लर्क थे। जावरा छोटी सी मुस्लिम रियासत थी। इन्टर की परीक्षा देकर ग्रीष्मकालीन अवकाश में हम सब अजमेर आए थे। उसी बीच सबसुख चाचा का एक पोस्टकार्ड दादा के नाम आया। उन्होंने दादा को सूचित किया कि नूरचश्मी मित्थल (चाचा मेरे लिए सदा यही सम्बोधन प्रयुक्त करते थे) को देखने दो सज्जन हैदराबाद से आ रहे हैं Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:14 AM. |
30-08-2013, 09:29 PM | #4 |
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Re: डायरी के पन्ने
बहुत ऊँचा खानदान है, मित्थल के लिए इससे बढ़िया घर-वर नहीं मिलेगा। दादा ने वह खत, जो उर्दू में लिखा था (हमारे सभी चाचा ईवन दादा की वर्नेक्यूलर उर्दू ही हुआ करती थी) पढ़ कर हमें सुना दिया। उस समय लजा कर मैं दादा के कमरे से बाहर निकल आई थी। यथासमय हैदराबाद के दोनों महानुभाव हमारे यहाँ पधारे। कुछ देर तक दादा से गुफ्तगू चलती रही। वे लोग मुझे एक बार देखना तो चाह ही रहे थे। उनके लिए नाश्ता और शर्बत आदि की व्यवस्था दादा ने करा रखी थी। उनके सामने नाश्ता प्रस्तुत करने के नाम पर मुझे दादा ने बुलाया। बड़े संकोच से मैंने ड्रॉईंग रूम में प्रवेश किया प्लेट्स मेज़ पर रख सिर झुकाए उल्टे कदम लौट आई। एक झलक पर ही उन लोगों ने मुझे देखा और पसन्द कर लिया। कुछ ही समय पश्चात् दादा तथाकथित भावी वर की फोटो ले कर अन्दर आए। दीदी को थमाते हुए कहा कि लड़के की यह तस्वीर है। मित्थल को भी दिखा दो। उस भलेमानस का नाम ‘दीपक’ था। फोटो में एक नयनसुख चेहरा देखा। आकर्षक व्यक्तित्व। दादा फोटो लेने वापिस अन्दर आए। दीदी ने सहमति व्यक्त कर दी। उस समय मेरे असहमत होने का प्रश्न ही कहाँ था। बात फाइनल स्टेज पर पहुँची और वे जाने को खड़े हुए। इतने में उन में से एक व्यक्ति ने दादा को और अधिक इम्प्रेस करने को कह दिया कि आपकी बेटी हमारे यहाँ जब बहूरानी बन कर आएँगी, इनके लिए भी पर्देवाली एक शानदार कार का प्रबन्ध कर दिया जाएगा। कार पर पर्दे चढ़े हों और उसमें दादा की बेटी कैदी जैसी बैठेगी, यह दादा को कैसे मान्य होता। उन्होंने तत्काल ही कह दिया कि उन्हें पर्दे से परहेज है। लिहाजा उन्हें अब यह रिश्ता मंजूर नहीं।
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:15 AM. |
30-08-2013, 09:32 PM | #5 |
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Re: डायरी के पन्ने
दादा ने उन्हें निराश कर दिया था। असल में ये लोग उस खानदान के गुमाश्ता और दीवान थे। अजमेर से लौटते समय वे दोनों जावरा रुक कर चाचा से फिर मिले और उन्हें सारा किस्सा सुना कर कह दिया कि हम लोग आपके भाई साहब के यहाँ से कितनी निराशा लेकर लौट रहे हैं। चाचा अवाक्*! दूसरे दिन ही चाचा स्वयँ दादा से मिलने अजमेर आ गए। दादा को बहुत मनाने की कोशिश की। पर अपने दादा निश्चय पर अडिग रहे। ऐसा अच्छा मौका दादा चूक रहे हैं, यह कह कर चाचा लौट गए। आज तुम्हारे सामने अपने मन की बात खोलूँ? दादा का हठ मुझे भी कचोटता रहा, कुछ दिनों तक। दीदी मेरी मित्र जैसी थीं। उनसे मैंने कह भी दिया कि दादा पूछते तो सही कि मुझे पर्दा गाड़ी में बैठते कष्ट होता क्या? जालीदार पर्दे में से मैं बाहर झाँक तो सकती थी। बाहर वाला मुझे क्यों देखें? आदि-आदि…ऐसे नाज़ुक मसले पर मैं दादा के आगे मन खोलने की हिम्मत न जुटा पाई थी। हाँ, दीदी ने अलबत्ता दादा को कह दिया कि मित्थल को पर्दे में रहने से उज्र नहीं था। जानती हो, उस समय दादा ने क्या तर्क दिया था? अम्मा यद्यपि परलोकगामी हो गई थीं पर अम्मा का आदर्श, उनका सिद्धान्त दादा को सदैव सजग रखता था। अम्मा पर्दे को कुप्रथा की संज्ञा दे चुकी थीं। अम्मा की हर इच्छा का मान रखना दादा के जीवन का महान्* लक्ष्य था। इस रिश्ते को नामंजूर कर दादा ने अम्मा की आत्मा को सन्तोष पहुँचाया। ऐसा विश्वास दादा का रहा होगा। टीटू, ऐसे संवेदनशील प्रसंग और भी आने हैं। आज इतना ही । पुराने पत्रों को पढ़ने की इच्छा है।
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:16 AM. |
30-08-2013, 09:34 PM | #6 |
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Re: डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने (3)
आज सुबह-सुबह तुमसे फोन पर बात कर के लौटी अपने भ्रम का बयान स्वाति से करती-करती खूब हँसी। हँसने के ऐसे क्षण अब जीवन में यदा-कदा आते हैं ना? ना जाने किस ख़ुमारी में फोन पकड़ा होगा कि तुम्हारा स्वर भी नहीं पहचान सकी। उत्तर-प्रत्युत्तर में स्थिति स्पष्ट हुई। तो तुम आज नहीं आ रही हो। कल सन्ध्या समय लिखने की छुट्टी कर अपने खतों का अम्बार खोला। कुछ सॉर्टिंग की। आज वह कार्य बड़े परिश्रम से सम्पन्न कर पाई। दादा, भाईजी, शरण भाई, नाना, मौसी, दीदी, जीजाजी तथा अन्याय अपनी सहेलियों और सहपाठिनों के पत्र अलग-अलग छाँट कर पिन-अप कर दिये हैं। बिर्जन के पत्र तुम्हारे लिए विशेष रुचिकर होंगे। प्रतापभाई का एक पत्र गुजराती में लिखा प्राप्त हुआ। वह तुम्हीं से पढ़वा कर समझँगी। दादा का, न जाने क्यों, केवल एक ही पत्र मिला। निश्चय ही एक बण्डल और कहीं ढूँढने से मिल जाने की आशा है। हाँ अब बताओ इस नई कॉपी का शुभारम्भ किस प्रसंग से किया जाए? युनिवर्सिटी के अध्ययन-काल के कुछ दृश्य देखोगी? इलाहाबाद युनिवर्सिटी की स्थापना सन् 1887 में हुई थी। अतः 1937 में बड़ी धूमधाम से इसकी स्वर्ण जयन्ती मनाने की योजना बनी थी। इस शुभावसर पर भारत कोकिला श्रीमती सरोजनी नायडू का दर्शन किया। उनका भाषण भी सुना। उसी अवसर पर जो कॉन्वोकेशन हुआ, उसे उन्होंने ही अर्डेस किया था। इस समारोह के विभिन्न कार्यक्रम एक सप्ताह तक चलते रहे। एक सन्ध्या हिन्दी नाटक के लिए निश्चित की गई थी। श्री रविन्द्रनाथ द्वारा लिखित ‘विसर्जन’ नामक नाटक का मंचन किया गया। उसमें मुझे रानी का अभिनय करना था। इस नाटक का चयन किसने किया था व निर्देशन किसका था, यह सब बिल्कुल याद नहीं। हमारी एक सहपाठिन थी ‘प्रीती मुखर्जी’। बंगाली क्रिश्चियन थी। लखनऊ आई.टी. कॉलेज से इन्टर पास करके इस युनिवर्सिटी में प्रवेश लिया था। आई.टी. कॉलेज लखनऊ की लड़कियाँ अल्ट्रा फैशनेबल और इंगलिश बोलचाल में पटु थीं। हमारे प्रॉक्टर थे मिस्टर रुद्रा। उन्होंने हम लोगों के मेकअप का दायित्व प्रीति को सौंपा। Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:21 AM. |
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