02-12-2012, 06:18 AM | #1 |
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हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
हमारी मित्र है ‘मृत्यु’ -रवींद्रनाथ ठाकुर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर कहा करते थे कि मृत्यु भीषण तथा विकराल नहीं है, वह तो मनुष्य की परम सखा है। उससे हमें भयभीत नहीं होना चाहिए। प्रेम से उसका स्वागत करना चाहिए और अर्ध्य अर्पित करके कृतार्थ हो जाना चाहिए। हम सभी को मृत्यु को एक परम महोत्सव मानना चाहिए। यह उल्लास की अधिकारी है। यहां प्रस्तुत हैं गुरुदेव के कुछ अनुकरणीय विचार।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
02-12-2012, 06:19 AM | #2 |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
एक स्वप्नदृष्टा
शिक्षण से ही मनुष्य का हृदय निर्मित किया जा सकता है। शिक्षण-पद्धति ही खराब हो तो मनुष्य-जाति का सर्वनाश हो जाएगा। यह जानकर उन्होंने अपने पिता से उनकी ध्यान-भूमि मांग ली, जिस पर शांति निकेतन की स्थापना की। आज वह बीज अंकुरित होकर उसी में विश्व भारती के वृक्ष का सुंदर निर्माण कर रहा है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर वैदिक आर्यों की तरह कहा करते थे कि मृत्यु भीषण नहीं है, विकराल नहीं है, वह तो मनुष्य की परम सखा है। उससे हमें भयभीत नहीं होना चाहिए। प्रेम से उसका स्वागत करना चाहिए और अर्ध्य अर्पित करके कृतार्थ हो जाना चाहिए। मृत्यु एक परम महोत्सव मानना चाहिए।
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02-12-2012, 06:19 AM | #3 |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
साहित्य का ऐसा एक भी क्षेत्र नहीं है, जिसे गुरुदेव ने स्पर्श कर दिव्य न बनाया हो। अस्पृश्यता उन्हें छू तक नहीं पाई थी। हर क्षेत्र में उन्होंने हमें कुछ न कुछ नई चीज दी ही है। उपन्यास, नाटक, गल्प, भावगीत, खंडकाव्य यह तो उनका अपना क्षेत्र था। परंतु निबंध, साहित्य विवेचन, छंद-शास्त्र, व्याकरण शब्दतत्व विज्ञान आदि एक भी विषय उन्होंने छोड़ा नहीं है। महात्मा गांधी रचनात्मक कार्यक्रम पर इतना जोर क्यों देते हैं, इसे समझने के लिए हर एक को रवींद्रनाथ के स्वदेशी, समाज और समूह ये तीन निबंध पढ़ने ही चाहिए। मानवीय हृदय की व्याकुलता अगर देखनी हो तो उनकी ‘चोखेरबाली’ पढ़िए। ‘रामायण’ जैसी निष्ठा की तलाश हो, तो ‘नौका डूबी’ पढ़िए। सामाजिक सुधार को पहचानना हो तो ‘गोरा’ का अध्ययन कीजिए।
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02-12-2012, 06:19 AM | #4 |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
रवींद्रनाथ देशभक्त थे, इसमें जरा भी शक नहीं, लेकिन उनकी देशभक्ति को हमें अपने मापदंड से नहीं नापना चाहिए। यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने राजनीति में कभी प्रत्यक्ष भाग ही न लिया हो। बंग-भंग के आंदोलन में उन्होंने जोश-खरोश से भाग लिया था। उनकी प्राणप्रिय संस्था शांति निकेतन की स्थापना में ब्रह्माबांधव उपाध्याय उनके सहयोगी थे। आगे चलकर जब रवींद्रनाथ ने देखा कि देशभक्ति में चारित्र्य का विशेष आग्रह नहीं रखा जाता, तब उन्होंने एकदम अपना हाथ हटा लिया। उस समय देशभक्त कहलाने वालों ने उनको जो जली-कटी सुनाई, उसे यथार्थरूप से समझने के लिए शब्द से भी उनका प्रतिवाद नहीं किया। सब कुछ शांति से सह लिया और कहा कि जनसंदर्प देखते ही मेरा जी घबराने लगता है। मुझे अकेले ही अपनी मति के अनुसार काम करने दीजिए। उस समय की उनकी मन:स्थिति अंशत: उनके ‘घरे-बाहिरे’ में व्यक्त हुई है।
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02-12-2012, 06:19 AM | #5 |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
एक अवसर पर लोकमान्य तिलक ने कहा था कि खच्चर अलबत्ता अपनी कुल-परम्परा की शेखी बघारता है। घोड़े को उसकी जरूरत नहीं होती। अगर हम अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा के अनुरूप उदार आचरण करेंगे, तो पूर्वजों की कीर्ति के भरोसे जीने की नौबत ही नहीं आएगी।... संसार कहता है कि रवींद्रनाथ साहित्य सम्राट थे, लेकिन उन्होंने साहित्य की उपासना केवल साहित्य-विलास के लिए नहीं की। महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर जैसे धर्मपरायण पिता से उन्हें जो आध्यात्मिक विरासत मिली थी, उसी का साहित्य में विनियोग करके मनुष्य-जाति की सेवा करने की धुन उन पर सवार रहती थी। हृदय के विकास के बिना, उसमें मार्दव और आर्द्रता लाए बिना, मनुष्यता नहीं आएगी, यह समझकर ही उन्होंने साहित्य, संगीत, चित्रकला, नृत्यकला आदि ललितकलाओं की उपासना का उपक्रम किया था। कवि के नाते रवींद्रनाथ ठाकुर की ख्याति का आरम्भ उनके 13वें वर्ष से ही हुआ। उनकी यह प्रतिभा उनके 80वें वर्ष तक लगातार बढ़ती ही गई।
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02-12-2012, 06:20 AM | #6 |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
गीतांजलि पर भी सवाल
‘गीतांजलि’ जब अंग्रेजी में प्रकाशित हुई, तब हमारे कुछ विद्वान कहने लगे कि इसमें क्या धरा है? ऐसे विचार तो तुकाराम, सूर और तुलसी में लबालब भरे हैं। तुलसी, सुर और तुकाराम का अंग्रेजी में तर्जुमा किया जाता, तो उन्हें भी नॉबेल पुरस्कार मिला होता। उसकी सर्वत्र प्रशंसा होती है, लेकिन उसकी वजह से ‘गीतांजलि’ की मौलिकता जरा भी फीकी नहीं पड़ती।... कुछ लोग कहते हैं कि रवींद्रनाथ की यह मान्यता थी कि धर्म व्यक्ति तक सीमित है, संस्कृति (हिंदू) समाज तक सीमित है, राजनीति राष्ट्रीयता तक और अंतरराष्ट्रीय दृष्टि वैज्ञानिक आविष्कारों तक ही सीमित है। ये बातें बिल्कुल बेसिर-पैर की हैं। इसमें शक नहीं कि रवींद्रनाथ संपूर्ण देशभक्त थे, लेकिन उन्हें पाश्चात्य पद्धति के राष्ट्रवाद या राष्ट्रपूजा से कितनी घृणा थी, यह देखना हो तो उनकी अप्रतिम शैली की पुस्तक ‘नेशनलिज्म’ पढ़िए।
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02-12-2012, 06:21 AM | #7 |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
क्या है तेरा और मेरा धर्म
रूढ़िवादी लोग जिसे ‘मेरा और तेरा’ धर्म कहते हैं, उस धर्म की रवींद्रनाथ को ज्यादा परवाह नहीं थी। उनकी समाज सेवा, काव्य, मानवहित चिंता इन सबका आधार धर्म ही है, जिन्होंने उनकी ‘साधना’, ‘पर्सनैलिटी’ और ‘रिलीजन ओव मैन’, ये तीनों पुस्तकें सरसरी तौर पर भी पढ़ी हों, वे यह कहने की हिम्मत कभी नहीं करेंगे कि रवींद्र की जगत दृष्टि भौतिक सुधारों तक ही सीमित थी। भौतिक सुधारों के विषय में रवींद्रनाथ का कहना था कि आज दुनिया में भौतिक सभ्यता का ही दौर चल रहा है और वह मनुष्य-जाति की आत्मा को ही ग्रस लेना चाहती है। इसलिए आज उसे परास्त ही करना चाहिए और उसे आध्यात्मिक संस्कृति की चेरी बनाना चाहिए।
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02-12-2012, 06:21 AM | #8 |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
वे हिंदुस्तान से ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया से आग्रहपूर्वक कहते थे, भाइयों हृदय-धर्म से, मनुष्यता के धर्म से बेईमानी न करो। दूसरों के प्रति द्वेष करके हम स्वजनों की सेवा कभी नहीं कर सकेंगे। हिंदुस्तान का इतिहास और उसका भविष्य दोनों कहते हैं कि यहां जो कोई आए वे लौटने के लिए नहीं आए। जो हेकड़ी दिखाने आएंगे, उनका अहंकार झड़ जाएगा और हिंदू-मुसलमान, पारसी, ईसाई, यहूदी, नास्तिक और आस्तिक सभी इस महामानव-सागर के तीर पर इकट्ठे होकर सेवा-अर्चना करेंगे। हिंदुस्तान विश्व बंधुत्व की प्रयोगशाला है। यहां हर भारतीय को हृदय की संकीर्णता और नास्तिकता को तिलांजलि देकर व्यापकता की साधना करनी चाहिए।
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02-12-2012, 06:21 AM | #9 |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
बड़े, ऊंचे और उदार बनो
उनका मानना था कि बड़े बनो, ऊंचे और उदार बनो। दूर तक देखो, दक्षता में कोई सुख नहीं है, बड़प्पन में ही जीवन की कृतार्थता है। जिस प्रकार रवींद्रनाथ ने भगवान से कहा है कि चूंकि मेरी यह अभिलाषा है कि मैं अपना हृदय स्वच्छ और शुचित रखूंगा, उसी प्रकार हमको भी अपने हृदय में रवींद्र की पवित्र स्मृति स्थापित करने के लिए किसी हीनता और द्वेष का सम्पर्क नहीं होने देना चाहिए। अगर हम प्रत्येक हृदय में इस युग-पुरुष की स्थापना करेंगे, तो उनकी मृत्यु पर शोक करने के बदले हम कृतज्ञतापूर्वक उनकी श्रद्धा को पुष्ट करके उन्हें अपने जीवन में अजर-अमर करेंगे। रवींद्रनाथ ने तो राष्ट्रगीत के रूप में ‘वंदे मातरम...’ को स्वीकार कर अपनी तरुणाई में दिव्य संगीत वाणी के जरिए उसका प्रचार भी किया। पर उनका दिया हुआ राष्ट्रगीत ‘जन-गण-मन...’ हमारी भारतीय भावना और विश्व समन्वय के सर्वथा अनुकूल है। उनके इस गीत के साथ ‘हे मोर चितमानवेर सागरतीरे...’ गीत भी पूरे देश में गाए जाने चाहिए। ये हमारे दीक्षा-गीत बन जाने चाहिए। भारत-भास्कर की यह सर्वश्रेष्ठ देन है।
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02-12-2012, 11:00 PM | #10 | |
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Re: हमारी मित्र है ‘मृत्यु’
Quote:
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जीवन के कुछ जाने अनजाने प्रसंगों और उनके जीवन दर्शन के बारे में पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. आपने ठीक कहा कि गुरुदेव ने साहित्य की हर विधा में अपनी लेखनी का जादू बिखेरा. साहित्य के अलावा चित्रकला और संगीत के क्षेत्र में उनका योगदान अद्वितीय है. रबीन्द्र संगीत अपनी अलग पहचान रखता है और बड़े बड़े गायक रबीन्द्र संगीत से जुड़ कर स्वयं को धन्य समझते हैं. गुरुदेव के जीवन व सोच के बारे में इतनी अच्छी सामग्री देने के लिये मुझ जैसे कितने ही पाठक आपके आभारी होंगे. एक निवेदन, यदि संभव हो तो गुरुदेव के द्वारा रचे गए हज़ारों गीतों में से कुछ चुनिदा गीत मय हिंदी अनुवाद अवश्य दें. |
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