08-12-2010, 03:01 PM | #51 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
मुझे छूकर ज़रा देखो- तुम्हारा आईना हूँ मैं। मुझे भी चोट लगती है कि शीशे का बना हूँ मैं। तुम्हारी निस्ब्तों के साथ मेरा दिल बहलता है कभी सन्दल महकता है कभी लावा पिघलता है चुनौती हूँ, कोई मुठभेड़ हूँ या सामना हूँ मैं। तुम्हारे रंग के छींटे मेरा मौसम बदलते हैं लचीली डालियों पर मोगरे के फूल खिलते हैं पहाडी़ मन्दिरों का जादुई संगीत हूँ आराधना हूँ मैं। कभी जो जख़्म से मजलूम का चेहरा उभरता है हमारी सोच का ख़ुशरंग शीराज़ा बिखरता है कटाए हाथ बायाँ औ’ अँगूठा दाहिना हूँ मैं उमाशंकर तिवारी --------------------------------------------------------------------------------
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08-12-2010, 03:03 PM | #52 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
नयनों ने मन के द्वारे पर स्वप्न सजाए हैं
नयनों ने मन के द्वारे पर स्वप्न सजाए हैं सागर चिंतित हुआ देखकर सूखी हुई नदी किंकर्तव्यविमूढ़ बन रही फिर भी आज सदी अम्मा ने उलझे प्रश्नों के हल बतलाए हैं कोरे काग़ज़ का सदियों से यह इतिहास रहा मौन साधकर सदा लेखनी का ही दास रहा मुनिया ने कुछ रंग-बिरंगे चित्र बनाए हैं निराकार मन की होती ज्यों कोई थाह नहीं अन्तहीन नभ में वैसे ही निश्चित राह नहीं नन्हीं चिड़िया ने उड़ने को पर फैलाए हैं योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ --------------------------------------------------------------------------------
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08-12-2010, 03:04 PM | #53 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
अंदाजों का गणित
रसोईघरों में तीन सौ साठ अंशों की व्यस्तता के फलक में हर लम्हा-हर एक छोटे से कोण में मौजूद दिखतीं स्त्रियाँ नमक-मिर्च, शक्कर, हल्दी-धनिया और मसालों की खुशबुओं का अनुपात चुटकियों में अपने अंदाज से साधती वह भी गुनगुनाते हुए बदस्तूर चाहे बच्चों की भूख-प्यास का समय हो या मर्दों की तलब या बुज़ुर्गों के खाँसने में छुपे हुए इशारे इन सबके अर्थ समाहित थे उनके अंदाजों की दिव्य-दृष्टि में सारी स्त्रियों के अंदर अंदाज की मशीन हमेशा ठीक-ठाक काम करती रही और तो और उसमें लगातार संसाधित होते रहे चूल्हे की आँच के तापमान से लेकर मौसमों के पूर्वानुमान तक के आँकड़े इस तरह तय समय पर आते रहे एक के बाद एक वसंत इस धरती पर और धीरे-धीरे भरता गया आकाश स्त्रियों के अंदाज से बने रंगों के इंद्रधनुष से कई-कई बार तो हैरानी होती कैसे कभी थर्मामीटर और माइक्रोवेव-ओवन जैसे कई उपकरण भी हुए फेल परदे के पीछे रहकर महसूस करके अंदाज लगा लेने के उस नायाब हुनर के आगे जो गुँजाता था व्योम में सधे हुए हाथ के करिश्मे का गान कहना मुश्किल कहाँ से प्रवेश करती थी सटीक अंदाजों की अजस्र धारा अपने-आप सास-माँ से लेकर तो बहू-बेटी तक की देहों के भीतर अनंत काल से दुनिया के बारे में कोई कहती नज़र से पहचानती हैं हम सबको कोई कहती आवाज़ के लहज़े से कोई कहती चाल-ढाल से कोई कहती पता नहीं कैसे मगर हाँ अपने-आप हो जाता है अंदाजा यही आख़िरी बात जो समीकरण है अपने-आप लग जाने वाले अंदाजों के गणित का इसी में दुनिया के ख़ूबसूरत बने होने का राज़ छुपा हुआ है । राग तेलंग --------------------------------------------------------------------------------
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08-12-2010, 03:07 PM | #54 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे, सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा! पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा, बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!- सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये! मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक बाल-कल्पना के अपलर पाँवडडे बिछाकर मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे, ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था! अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे! कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने, ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई; सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन! औ\' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर, मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे- भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो! मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को, और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन! किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से! देखा-आँगन के कोने में कई नवागत छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं! छांता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की, या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी- जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे- डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से! निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता- सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में, और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से, नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है! तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ, हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे! बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा, और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,- मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है! छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से, चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से! ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी! कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,- पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती! लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी, झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती, सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी! आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई, सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !- कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ! यह धरती कितना देती है! धरती माता कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को! नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,- बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर! रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ। इसमें सच्ची समता के दाने बोने है; इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है, इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,- जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ- हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे। --------------------------------------------------------------------------------
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08-12-2010, 03:09 PM | #55 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
स्मृति उस नैनरस के स्मरण भर से , मेरे भाव बादल बन गए, अश्रु झिलमिला उठे और, स्वप्न काजल बन गए। पाथेय पर आशाएं बिखरी, लगा सूर्य क्षितिज से झाँकने, देख पथ के जुगनू,नभ के तारे, कुछ सोचकर, कुछ आंकने। अपने आलिंगन में कर लिया, जब वायु ने सुगंध को, आश्रय मिला तेरे ह्रदय का, मेरे मन स्वछन्द को। अब भी है अंकित ,इस दृष्टि में, वो कोमल छवि,वो नैनरस, समय के पाथेय से, चुरा रखा है मैंने हर दिवस... - चेतना पंत
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08-12-2010, 03:11 PM | #56 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ
अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा। किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर काले बादल घिर आते? उस चित्रकार को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर देखा है चित्रों को बन-बनकर मिट-मिट जाते। फिर उठना, फिर गिर पड़ना आशा है, वहीं निराशा क्या आदि-अन्त संसृति का अभिलाषा ही अभिलाषा? अज्ञात देश से आना, अज्ञात देश को जाना, अज्ञात अरे क्या इतनी है हम सब की परिभाषा? पल-भर परिचित वन-उपवन, परिचित है जग का प्रति कन, फिर पल में वहीं अपरिचित हम-तुम, सुख-सुषमा, जीवन। है क्या रहस्य बनने में? है कौन सत्य मिटने में? मेरे प्रकाश दिखला दो मेरा भूला अपनापन। भगवतीचरण वर्मा
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08-12-2010, 06:45 PM | #57 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में, हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा, आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा? फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में, क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी, जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी, जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला, जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था, मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी, जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी, उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी, जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा, उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे, क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है, यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी; अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया, वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको, जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया, यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली, जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला। जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ, है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है, कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे, प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है, मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का। पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा - नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले, अनवरत समय की चक्की चलती जाती है, मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं, कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है, ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के इस एक और पहलू से होकर निकल चला। जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। ~Harivansh Rai Bachchan.
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08-12-2010, 09:34 PM | #58 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
क्या कहुँ ?
इस सुत्र के विषय मेँ अति उत्तम
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दोस्ती करना तो ऐसे करना जैसे इबादत करना वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना |
09-12-2010, 04:51 PM | #60 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
हम नदिया की धार
हमारी मति निर्मल हम स्वच्छन्द विचार हमारी गति चंचल युगातीत हम रहे नही भाया बंधन हम शाश्वत क्रम बहे न स्वीकारा थंभन हम निर्झर का प्यार हमारे स्वर कलकल । हम नदिया की धार हमारी मति निर्मल ।। अभिनय बिखेरा है हमने विष पीकर के खुश रहने को कहा आंख आंसू भर के हम शिव के अवतार हमारे कंठ गरल । हम नदिया की धार हमारी मति निर्मल ।। अब तक मांगा नही किसी के निर्देशन अपने पथ का आप किया है अन्वेषन हम रचना आधार हमारी कृति सम्भल । हम नदिया की धार हमारी मति निर्मल । हम उन्मुख हो चले सृजन के पथ पर भी और क्रांति के बने कभी उदघोषक भी हम है विविध प्रकार हमारे रूप सकल । हम नदिया की धार हमारी मति निर्मल ।________________________ साभार: हम नदिया की धार द्वारा : संतोष सौनकिया
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