11-11-2012, 08:05 AM | #11 |
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Re: गांधी जी से एक काल्पनिक बातचीत
गांधी जी : मुसलमानों के साथ मेरे सद्भाव भरे संबंध में यह बात नीहित थी कि वे मेरी मूर्तियों और मंदिरों के प्रति सहिष्णुता बरतेंगे। मूर्तिपूजन के दो रूप हैं। एक तो सूक्ष्म और अमूर्त है और दूसरा स्थूल और मूर्त। इनमें से पहले वाले की मैं निंदा करता हूँ। उस संदर्भ में मैं खुद मूर्तिभंजक हूँ, कारण ये मूर्तिपूजक मूर्तिपूजन के अलावा किसी और रूप में ईश्वर की आराधना को न केवल स्वीकार ही नहीं करते बल्कि धर्मांध होने की स्थिति में पहुँचकर उसके प्रति नफरत का भाव रखने लगते हैं। दूसरे रूप की मूर्तिपूजा पत्थर से लेकर सोने तक की प्रतिमा को देवता मानकर अराधना करने और उसी में रमे रहने तक सीमित रहती है (यंग इंडिया, 1924)। ईश्वर तो एक ही है। भले ही हम उसे कितने ही नामों से क्यों न पुकारें। वह सार्वभौम है। हम उसका सेवक होना स्वीकार कर लें तो हमें किसी मनुष्य या मनुष्यों के समक्ष झुकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जो यह कहते हैं कि मैंने राम, जो कि महज एक मनुष्य था, को ईश्वर मान लिया, वे अज्ञानी हैं। मैंने यह अनेकों बार दुहराया है कि मेरा राम ही ईश्वर है। वह पहले भी ईश्वर था, आज भी है और आगे भी रहेगा। वह अजन्मा और स्वयंभू है। इसलिए, आपको दूसरों की आस्था का सम्मान करना होगा और उसके प्रति सहिष्णु होना होगा। हजारों मंदिरों को मिट्टी में क्यों न मिला दिया जाए, मैं एक भी मस्जिद में खरोंच तक नाही लगाऊँगा और ऐसा करके मैं साबित कर दूँगा कि मेरा धर्म और उसके प्रति मेरा रुख उनकी धर्मांधता से श्रेष्ठ है। मस्जिदों को गिराकर हिंदू अपने धर्म और अपने मंदिरों की रक्षा नहीं कर पाएँगे। यह तो वही धर्मांधता हुई जिसके वश में आकर मंदिर गिराए गए थे। मैं इन उन्मादी हिंदू और मुसलमान भाइयों से यही कहूँगा कि याद रखिए, आपके धर्म की छवि आपके कृत्य से ही बनती है। मैं तो आज तक ऐसे एक भी मुसलमान से नहीं मिला जो उकसाए जाने पर भी इस तरह के उन्माद के पक्ष में दलील दे रहा हो (यंग इंडिया, 1924)। मैं बोला नामक गाँव में दंगे के दौरान क्षतिग्रस्त हुई मस्जिद को देखने गया था। मुझे पता चला कि होली के दिन लोगों ने उसे फिर से तोड़ा और वहाँ होली मनाई और हुड़दंग मचाया। यदि यह सही है, तो निस्संदेह वे ऐसा करके मुसलमानों को यह चेतावनी दे रहे थे कि भले ही उन्होंने अपना घर फिर से बना लिया है, लेकिन वे उसमें घुसने की हिमाकत न करें। यदि इस कृत्य को उन्होंने होली जैसे पवित्र त्योहार के अवसर पर अंजाम दिया है तो यह निश्चित ही हिंदुओं, बिहार और पूरे देश के लिए अपशकुन है (हरिजन, 1947)। उस मूर्ति की कोई अर्थवत्ता नहीं रह जाती जिसे गुणी पंडितों द्वारा विधिपूर्वक स्थापित नहीं किया गया हो। हिंदुओं द्वारा बलपूर्वक मस्जिद अधिग्रहण हिंदू धर्म को शर्म की स्थिति में डालने वाला कृत्य है। यह हिंदुओं का दायित्व बनता है कि वे मस्जिद से मूर्तियाँ हटाएँ और उसे पुन: खड़ा करें। मैंने आज तक नहीं सुना कि किसी मस्जिद को जबरन गुरुद्वारा बनाया गया हो। सिक्ख गुरु ग्रंथ साहब की पूजा करते हैं। यह ग्रंथ साहब का अपमान होगा कि उन्हें किसी मस्जिद में प्रतिष्ठित कर दिया जाए। अयोध्या में जिस स्थल को लेकर विवाद हो रहा है उसका ताल्लुक सर्वव्यापी ईश्वर से नहीं बल्कि सत्ता के खेल से ज्यादा है। मुसलमान भाइयों को उस स्थल पर मस्जिद नहीं बनानी चाहिए जहाँ राम और सीता की प्रतिमाएँ रख दी गई हैं। उन्हें उसे हिंदू भाइयों को सौंप देना चाहिए और वहाँ मंदिर निर्माण में उनकी मदद करनी चाहिए। इतना त्याग उन्हें करना होगा। इसी तरह, हिंदू भाइयों को उस स्थान पर मंदिर निर्माण नहीं करना चाहिए जहाँ मस्जिद थी, भले ही उस पर उनका कानूनी हक क्यों न हो जाए। दूसरों की आस्था का सम्मान और उसके लिए त्याग सर्वोच्च धर्म है। दोनों ही पक्ष के धार्मिक नेता, जो एक-दूसरे के लिए त्याग और सम्मान का भाव रखना जानते हैं, सामने आकर साथ मिलकर सोचेंगे तो हल निकल आएगा। उनका भारी विरोध किया जाएगा। तनाव बने रहने से जिनके स्वार्थ सधते हों वे नहीं चाहेंगे कि सच्चे धार्मिक लोग आगे आएँ और सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित करें। लेकिन विरोध के बावजूद यह धार्मिक नेताओं का दायित्व बनता है कि दोनों ही समुदाय के बीच अविश्वास और संदेह की स्थिति को खत्म कर लोगों के मन में एक-दूसरे के प्रति बंधुत्व और प्रेम की भावना जाग्रत करें। इसके लिए यह जरूरी है कि दोनों ही समुदायों को साझे हितों के प्रति जागरूक किया जाए और उन्हें लामबंद किया जाए। जैसा कि मैंने खिलाफत आंदोलन का समर्थन करके और मुसलमान भाइयों ने 1920 में असहयोग आंदोलन का समर्थन करके किया था। सत्य और अहिंसा का दामन थामे धार्मिक नेता ही अविश्वास और संदेह के बादल छाँट सकते हैं। |
11-11-2012, 08:05 AM | #12 |
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Re: गांधी जी से एक काल्पनिक बातचीत
इ.इं. : गांधी जी, मेरी समझ बढ़ाने में आपने जो मदद की उसके लिए धन्यवाद। लेकिन, मैं अभी भी संतुष्ट नहीं हूँ। उम्मीद है, मैं जल्द ही आपसे पुन: मिलने आऊँगा।
गांधी जी : आप जब भी मुझे याद करेंगे मैं अपने विचार साझा करने के लिए प्रस्तुत रहूँगा। |
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