30-08-2013, 01:59 PM | #11 |
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Re: कथा-लघुकथा
(कथाकार: चाँद मुंगेरी) -अम्मा !भूख लगी है हमका भात देय दो अम्मा. -थोडा वखत और रुक बबुआ.बाप गेल हौs माडुआ पिसाबे खातिर मिल...हूनका औवते ही तोहका रोटी बना दे वौs माँ के आश्वासन भरे शब्द भी बबुआ को आश्वस्त न कर सके...वह तुनक कर बोला-रोटी!मडुआ की ? अम्मा आज दू दिन के बाद तू हमका खिलेयवेड़ भी तो रोटी-यू भी मडुआ की ? -तब तोहका औरका चाहीं खीरे पुडी ? माँ खीज कर बोली . माँ के क्रोध को पचाकर बबुआ ने खुशामदी स्वर में कहा-अम्माहमको भात दे दो अम्मा.बहुत जी चाहे भात खावेs ला . -अरे करमजला अब ही साल भर पहले जब बड़का ठाकुर मारा रहा तो तू हुनका मरण-भोज में भात खाया fक नहीं ....बोल ? -हाँ! खाया रहा.!. लेकिन अम्मा का ई दूसरा ठाकुर नहीं मरेगा ? -मरेगा कैसे? बड़का को चोर मारा रहा...हिनका कौन..मारेगा ? माँ के प्रश्न को सुन बबुआ की पकड़ हंसुआ पर सख्त हो गई...अब उसके समक्ष था सिर्फ- ठाकुर ...हंसुआ....भात. ठाकुर ...हंसुआ....भात. -------------------- |
30-08-2013, 02:51 PM | #12 |
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Re: कथा-लघुकथा
हरियल तोता
(कथाकार: जनकराज परीक) लड़का अपनी हवेली के दरवाजे पर बैठा मौज से जलेबी खा रहा था और भिखारिन- सी दिखने वाली लड़की एकटक उसके दोने पर दृष्टि गड़ाये थी.लड़कीके हाथ मे कपड़े से बना तोता देख कर लड़का सह्सा मचल उठा,‘मै हरियल तोता लूंगा, मै हरियल तोत लूंगा. ’आवाज सुनकर लड़के के पिता आए. पूछ-ताछ करने पर पता चला कि लड़की जलेबी तो लेना चाहतीहैं पर बदले मे अपना तोता नही देना चाहती. कुछ सोच कर लड़के के पिता बोले,‘देखो भाई, जलेबी खाने के लिये तो केवल दांत, मुंह और पेट काफ़ी है लेकिन तोता रखने के लिए भीगी हुई दाल चाहिए, हरी मिर्चें चाहिए. तुम में से जो एक मुट्ठी दाल और पांच सात हरी मिर्चें बाजार से ला सके वह तोता ले ले. जो न ला सके वह जलेबी खा ले.’ ‘लेकिन मेरे पास दाल और मिर्च के लिये पैसे नहीं हैं.’ लड़की दीन स्वर मे बोली. ‘पैसे इस के पास भी नहीं है.’ पिता ने लड़के की ओर इशारा करते हुए कहा,‘दोनों उधार लेकर आओ.’ प्रस्ताव पर सहमति प्रकट कर दोनों बाजार की ओर चल दिए । लड़की के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब उधार के नाम पर उसे तो किसी नेदुकानके चबूतरे पर पाँव भी नहीं रखने दिया और लड़के के लिये गोदाम के दरवाजे खुल गये. लिहाजा शर्त के अनुसार दोने में बची हुई जलेबी की जूठन के बदले वह अपना हरियल तोता हार कर निरापद भाव से अपने टापरे की ओर चल पड़ी. ** |
30-08-2013, 07:14 PM | #13 |
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Re: कथा-लघुकथा
दीनदुखियो के साथ सदा यही होता रहा हैं............................... यही तो हमारी मानसिकता हैं............................................... .
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30-08-2013, 08:51 PM | #14 |
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Re: कथा-लघुकथा
आपने सत्य कहा, मित्र. सामाजिक विषमता और have nots के शोषण की कहानी अनादि काल से यही है. कथा के मूलतत्व के बारे में आपने विचार व्यक्त करते हुये सूत्र पर गुणात्मक योगदान किया है. आपका हार्दिक धन्यवाद.
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14-09-2013, 02:55 PM | #15 |
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Re: कथा-लघुकथा
सधन्यवाद वापिस इस बार भी “सधन्यवाद वापिस” की स्लिप के साथ रचना लौट आने पर एक उभरते लेखक बन्धु बौखलाये हुये संपादक के कार्यालय में पहुंचे और अपनी रचनाओं के साथ लगाई गई सभी स्लिपों को सम्पादक जी के सामने मेज पर पटकते हुये झुंझलाहट भरे स्वर में बोले, “क्या मज़ाक है श्रीमान? आपने पहली रचना लौटाते हुये किसी स्तरीय रचना का आग्रह किया था. और अब स्तरीय रचना भेजी तो यह स्लिप !”(लेखक: बलबीर त्यागी) सम्पादक जी आँखों से जरा चश्मा खिसका कर मुस्कुराये और बोले, “तब आपकी रचना हमारी पत्रिका के स्तर की नहीं थी और अब हमारी पत्रिका आपकी रचना के स्तर की नहीं. यदि कहीं गुस्ताख़ी हुई है तो क्षमा चाहूंगा.” ** |
14-09-2013, 03:58 PM | #16 |
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Re: कथा-लघुकथा
आखिर क्यों?
(इन्टरनेट से साभार) सलमा कॉलेज जाने के लिए तैयार ही हो रही थी कि सलामत का फोन आ गया। उसने बॉटनिकल गार्डेन में मिलने के लिए बुलाया था। इसलिए, कॉलेज के पीरियड खत्म होते ही गार्डेन जा पहुँची। दोनों ने गार्डेन के कैफे में नाश्ता किया, फिर इधर-उधर घूमते हुए दुनिया-जहान की बातें करते रहे। उन्हें होश ही नहीं रहा कि कब शाम हो गई और पाँच बच गए। वह घर पहुँची तो माँ ने आड़े हाथों लिया-- यह घर आने का वक्त है ? तुम पढ़ने जाती हो या नौकरी करने ? मुझे तुम्हारा यह रवैया जरा भी पसंद नहीं है, सकीना। अम्मी गरजीं। -- आज थोड़ी देर हो गयी अम्मी । रास्ते में सलामत मिल गया था। उसी के साथ बातचीत में थोड़ी देर हो गयी । बस इतनी सी तो बात है और एक आप हैं कि हल्ला मचाये जा रही हैं। उसने भी अपनी ओर से हल्की सी नाराज़गी जतायी । -- लेकिन तेरा यह तौर-तरीका मुझे पसंद नहीं है, सलमा । जरा सोच तो सही किसी ने साथ देख लिया तो कितनी बदनामी होगी। मुहल्ले में हमारी क्या इज्जत रह जाएगी। लोग तुझे आवारा, बदचलन और न जाने क्या-क्या कहेंगे ? तू समझती क्यों नहीं? माँ ने समझाने की अथक कोशिश की। पहले तो सलमा चुप रही, फिर न जाने उसे क्या सूझा, बोली-- अम्मी । मुहल्ले के लड़के चाहे किसी से प्यार करें, किसी से रोमांस करें और साथ घूमे-फिरें। तब किसी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता । किसी को कुछ भी गलत दिखाई नहीं देता, लेकिन जब कोई लड़की किसी से प्यार करें या किसी के साथ घूमे-फिरे तो लोग बावेला मचाने लगते हैं। उसे बदचलन तक कहने लगते हैं। आखिर औरत भी तो किसी मर्द के साथ ही घूमती है. फिर यह दोहरी मानसिकता क्यों? |
14-09-2013, 04:03 PM | #17 |
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Re: कथा-लघुकथा
निशान
आज दोनों बिना हाथ थामे, किनारे की रेत पर कदमों के निशान बनाते हुए, खामोश चल रहे थे... वह रुक कर पीछे मुडी और बोली, " देखो लहरों ने हमारे क़दमों के निशान मिटा दिए.. अगले महीने मेरी शादी है....तुम आना ज़रूर.." |
17-02-2014, 09:38 PM | #18 |
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Re: कथा-लघुकथा
जिंदा लोग
लेखक: डॉ. हरभजन सिंह सड़क पर ज्यों ही मैंने अपना स्कूटर दाहिनी ओर मोड़ा तो सामने से आ रहे साइकिल सवार के संतुलन बिगड़ जाने से वह गिर पड़ा। इतने में मैं मोड़ काट चुका था। मैंने पीछे मुड़कर देखा, वह उठ रहा था। मैंने देखा, उसका एक बाजु नहीं था। सोचा, उतर कर पता कर लूँ, पर न जाने किस जल्दी के कारण मैं रुक न सका। रात को जब खाना खाने लगा तो रोटी गले से नीचे ही न उतरे। मन बार-बार कोसे कि तूने उतर कर उसकी मदद क्यों नहीं की, क्षमा क्यों नहीं माँगी। इन्हीं सोचों में रात गुज़र गई। अगले दिन मैंने स्कूटर उठाया और उसी चौक में पहुँच गया। वहाँ एक रोहड़ी वाले से कहा कि कल जो व्यक्ति साइकिल से गिरा था, उसके बारे में बताए। रेहड़ी वाले ने बताया कि वह तो एक बाँह वाला तेजू है। फैक्टरी में काम करता है और रोज शाम को वहाँ से गुज़रता है। मैं शाम को वहाँ जाकर खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, तेजू एक हाथ से धीरे-धीरे साइकिल चलाता हुआ आ रहा था। पास आने पर मैंने उसे रोक लिया और कहा, “भाई साहब, मैं वही आदमी हूँ जिसकी वजह से कल आप यहाँ गिर पड़े थे। मैं आपसे माफी…।” इतना कह मैंने उसे बाँहों में ले लिया। वह हँस पड़ा, “भाई सा'ब! हम तो रोज ही कई ठोकरें खाते हैं, यह कौनसी बड़ी बात हो गई। मुझे तो कल वाली बात बिल्कुल ही भूल गई थी।” इतना कह उसने एक हाथ से मेरी पीठ थपथपाई। उसकी थपथपाहट में मेरी दोनों बाँहों से कहीं अधिक ताकत थी। मुझे लगा, जैसे उसकी दृढ़ता के सामने मेरी दोनों बाँहें ढ़ीली हैं।
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17-02-2014, 09:40 PM | #19 |
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Re: कथा-लघुकथा
लोकतंत्र
लेखक: अमर गंभीर गाड़ी तेज रफ्तार से मंजिल की ओर बढ़ रही थी। डिब्बे में बैठी सवारियां अपनी बातों में मस्त थीं। “मेरा दिल करता है, जंजीर खींचूं।” एक यात्री बोला। “क्यों?” “बस मन करता है।” उसने अपनी इच्छा प्रकट की। और फिर सबने मिल कर फैसला किया,“इसे जंजीर खींच लेने दो। सभी मिलकर जुर्माने की रकम अदा कर देंगे।” सभी सहमत थे, पर एक असहमत था। “मैं क्यों दूँ पैसे! यह क्यों खींचे जंजीर…करे कोई, भरे कोई, यह कहाँ का नियम है?” पर तब तक यात्री जंजीर खींच चुका था। जंजीर खींचते ही गाड़ी रुक गई। गार्ड उस डिब्बे में दाखिल हुआ। सभी ने मिल कर उस व्यक्ति पर दोष लगा दिया, जिसने उनकी हाँ में हाँ नहीं मिलाई थी।
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17-02-2014, 10:19 PM | #20 |
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Re: कथा-लघुकथा
उपरोक्त चारो कथाओ में हमारी घटिया मानसिकता के सत्य को उजागर किया.... उपरोक्त कथा में डॉ. हरभजन सिंह ने मानवीय सम्वेदना को बडी सुंदर ता से उजागर किया.... इन ज्ञानवर्धक प्रहसनों को प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.........
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