14-09-2013, 12:14 PM | #1 |
अति विशिष्ट कवि
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डायन राजनीति !
घर - घर लोगों ने फिर से सुख चैन गंवाये हैं . अच्छे ख़ासे रहते थे सब मिल जुल बस्ती में ; कुछ सम्मोहन कर्ताओं ने चित भरमाये हैं . मरहम दिन में बांट रहे हर इक ज़ख़्मी को वो ; रात जिन्होंने बस्ती में बारूद बिछाये हैं . असुरक्षित अनुभव कर जिनके पीछे उमड़े लोग ; उन्हें वहम है , अब ये सब उनके हमसाये हैं . कट मर कर , उन्माद उतरने पर समझेंगे लोग ; हम सब प्यादे उनके , जो शतरंज बिछाये हैं . रंगे हाथ का सबब अगर मुन्सिफ़ ने पूछा भी ; क़ातिल देंगे तर्क , जश्न था , हिना रचाये हैं . पता है , कुर्सी नंगा नाच दिखा सकती , फिर भी ; क्यों हम सबने ख़ुद चुन के नकटे बैठाये हैं ! रचयिता ~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव , गोमती नगर , लखनऊ .
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14-09-2013, 02:26 PM | #2 |
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Re: डायन राजनीति !
आज के पसमंज़र में ग़ज़ल के रूप में आपकी यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति अभी हाल ही में भोगी जा चुकी विभीषिका और उसके प्रमुख पात्रों का नक़ाब नोचती नज़र आती है. चंद शब्दों में आपने सारा परिदृष्य सामने प्रस्तुत कर दिया, डॉ. राकेश श्रीवास्तव जी. बहुत सुन्दर, बहुत सार्थक रचना.
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16-09-2013, 11:03 PM | #3 |
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Re: डायन राजनीति !
आज के परिपेक्ष्य को साकार करती रचना......................................... ..
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