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Old 31-05-2012, 11:03 PM   #11
Dark Saint Alaick
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सीरिया की मुश्किलें

'द न्यूयॉर्क टाइम्स' ने खुलासा किया है कि अमेरिका-रूस में इस बात पर सहमति बन रही है कि सीरिया में भी यमन की तरह रास्ते निकाले जाएं। दोनों देश चाहते हैं कि बशर अल असद भी उसी तरह से हुकूमत छोड़ें, जैसे यमन में अली अब्दुल्ला सालेह ने छोड़ी है। अमेरिकी अखबार का कहना है कि इस खबर की पुष्टि नहीं हुई है, पर रूस ने सकारात्मक संकेत दिए हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या सीरिया में यमन मॉडल कामयाब होगा? जवाब है कि कई वजहों से यह मुश्किल है। सबसे अहम तो यह है कि आज जो कुछ सीरिया में हो रहा है, वह यमन में घटी घटनाओं से काफी आगे निकल चुका है। दोनों देशों की घटनाओं की तुलना ही नहीं की जा सकती। सीरिया में असद शासन के हाथों मरने वालों की संख्या 12 हजार के आंकड़े को पार कर चुकी है। आखिर इस कत्लेआम का दोषी किसे ठहराया जाएगा? वास्तव में रूस और बशर अल असद के बीच के करार के जो कुछ खुलासे हुए हैं, उनसे न केवल बागियों का गुस्सा भड़केगा, बल्कि खुद असद के करीबियों को भी तगड़ा झटका लगेगा। करार यह है कि सत्ता से बेदखल होने के बाद असद को सीरिया से सुरक्षित जाने का रास्ता मुहैया कराया जाएगा, लेकिन उनके सुरक्षा महकमे के आला अफसरों व नेताओं के भविष्य के बारे में सोचिए, जिन्होंने असद के इशारे पर सीरिया में कत्लेआम जारी रखा।

-अरब न्यूज
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Old 01-06-2012, 10:10 PM   #12
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संकट की अर्थव्यवस्था

उन्होंने मौका फिर गंवा दिया, जबकि ग्रीस की मंदी से बैंकों के दिवालिया होने की आशंका बढ़ गई है। पूरे यूरोप पर आर्थिक संकट के बादल घुमड़ रहे हैं। बावजूद इसके यूरोप के शासक इस हफ्ते एक आवश्यक कदम उठाने में विफल रहे, जबकि उन्हें इसकी सख्त जरूरत थी। बीते बुधवार की डिनर मीटिंग से चंद रोज पहले ऐसा लग रहा था कि जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल कठोर कदमों से पीछे हटेंगी। दरअसल जब फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव में फ़्रैन्कोइस होल्लांद को अपने प्रो. ग्रोथ एजेंडे के बूते जीत मिली, तब अचानक मर्केल बोल पड़ीं कि ग्रीस और दूसरे देशों में विकासवादी कार्यक्रम सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ मदद की संभावना बनती है, लेकिन बुधवार को ग्रीस व यूरो जोन के दूसरे देशों की मदद की बजाय वह खर्च कटौती व असंभव लक्ष्यों पर जोर देने लगीं। वैसे यह स्पष्ट है कि मितव्ययिता विफल रही है और यह अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने की निशानी है। इससे यह और मुश्किल हो जाता है कि कर्ज में डूबे देश उधार चुका पाएं। राजनीतिक परिदृश्य भी साफ नहीं है। इसी महीने ग्रीस के पार्लियामेंट चुनावों में मतदाताओं ने उन दो दलों के उम्मीदवारों को खारिज कर दिया, जो जर्मन आदेशित पैकेज के समर्थन में थे। जाहिर है आर्थिक असमंजस का माहौल है।

-द न्यूयॉर्क टाइम्स
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Old 04-06-2012, 10:52 AM   #13
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विदेश दौरे पर आंग सान सू की

आंग सान सू की अब वाकई आजाद महसूस कर रही होंगी। दो दशक से भी ज्यादा वक्त तक वह बर्मा में कैद रहीं। वह पड़ोसी देश थाईलैंड गई। पिछले 24 में से 15 वर्षो तक सू की अपने ही घर में नजरबंद रहीं। हालांकि उन्हें कैद करने वालों की यही मंशा थी कि वह देश छोड़ दें। सैनिक शासक तो किसी तरीके से इस लेडी से छुटकारा चाहते थे, ताकि उन समस्याओं से निपटा जा सके, जिनकी वह जननी थीं। हालांकि सू की को आशंका थी कि अगर विदेश जाती हैं, तो उन्हें बर्मा लौटने नहीं दिया जाएगा। उस वक्त सैन्य सरकार भी यही सोचती थी कि अगर वह देश से निकलीं, तो लोकतांत्रिक आंदोलन कुचलने में देर नहीं लगेगी। लोकतांत्रिक आंदोलन से आंग सान सू की 1988 से जुड़ी हुई हैं। 1999 में इंग्लैंड भी नहीं जा सकीं, जबकि उनके पति व ब्रिटिश विद्वान माइकल ऐरिस का निधन हो गया था। पिछले साल से सैन्य सरकार ने राजनीतिक सुधार की शुरुआत की है। इससे सू की के मन में उम्मीद जगी है कि वह बर्मा के अंदर और बाहर आ-जा सकती हैं। बैंकॉक में बर्मी समुदाय के लोगों से मिलकर वे काफी भावुक हो गईं।

- द इर्रावड्डी
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Old 06-06-2012, 02:30 AM   #14
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कानून लागू करने की जरूरत

चीनी मानवाधिकार कार्यकर्ता चेन ग्वांगचेंग अमेरिका में हैं। मीडिया के सामने वह चीन के राजनीतिक नेतृत्व को कोसते हुए कहते हैं, चीन में अच्छे कानूनों की कमी नहीं है, बल्कि इन्हें ठीक से लागू करने की जरूरत है। वाकई कम्युनिस्ट पार्टी हुक्म और सनक के बूते सरकार चलाती है, न कि कानून के शासन के जरिए। इसकी वजह साफ है। दरअसल वहां व्यक्ति के स्व शासन की परवाह पार्टी नहीं करती। नतीजतन कायदे-कानून पार्टी से बनकर आते हैं न कि जनप्रतिनिधियों से। फिर भी उम्मीद की एक किरण है। वर्षों से इस पार्टी पर यह दबाव डाला जा रहा है कि वह व्यक्ति के अधिकारों को मान्यता दे, चाहे वे अधिकार प्रशासन में हों या जायदाद के मामलों में। लगता है कि कम्युनिस्ट नेतृत्व की नई फसल इस बात पर सहमत हो रही है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विस्तार ही चीन की निरंतर समृद्धि की बेहतर राह है। मई महीने में नेशनल ब्यूरो ऑफ़ इकोनॉमिक रिसर्च की एक स्टडी प्रकाशित हुई है। इसके मुताबिक चीन के ग्रामीण क्षेत्र में चुनाव की शुरुआत से आर्थिक विषमता घटी है। यह भविष्य के लिए उम्मीद की लिरण है।

- द क्रिश्चियन साइंस मॉनीटर
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Old 08-06-2012, 08:03 AM   #15
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सड़क सुरक्षा सबसे जरूरी

श्रीलंका में वर्षों से सड़क सुरक्षा पर बहस चलती रही है। फिर भी कुछ बेहतर नतीजे सामने नहीं आए हैं। रोज हादसों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है । इन्हें लेकर जनता में न भय है और न घृणा। श्रीलंकाई अखबारों और टीवी चैनलों पर इन हादसों की रिपोर्टें होती हैं, लेकिन तब भी न तो जनता में जागरूकता फैली और न ही प्रशासन की नींद खुली है। विडंबना यह है कि वह देश जो पिछले तीन साल से शांति पथ पर है, जिसने मानव बम और विस्फोटों से मुक्ति पाई, वह सड़क हादसों में वृद्धि के कारण मौत की घाटी बनता जा रहा है। इसके लिए कौन दोषी है। सड़कें या बढ़ते वाहन। इतना तो साफ है कि सड़क पर जिंदगी और मौत के बीच का फर्क मिटता जा रहा है। हालांकि हादसों की कुछ ऐसी वजहें हैं, जिन्हें दूर करने की जरूरत है। सबसे पहली वजह है चालकों और यात्रियों की लापरवाही। पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों पर गौर करें, तो राजमार्गों पर तेज गति से वाहन चलाने, सिग्नल की अनदेखी करने, शराब पीकर ड्राइविंग करने और मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चलाने से सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं।

- डेली मिरर
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Old 08-06-2012, 05:42 PM   #16
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मिस्र का इम्तिहान

इस वक्त मिस्र एक चौराहे पर खड़ा है। उसके लिए इम्तिहान की घड़ी है। दरअसल मिस्र इस वक्त बदलाव और राजनीतिक-सामाजिक बवंडर से बुरी तरह जूझ रहा है और जनता इनसे पार पाने की जुगत में है। बीते दिनों मिस्र के लोगों ने ऐसे ही एक दौर का सामना किया, जब कोर्ट ने पुराने निजाम की ताकतवर हस्तियों के खिलाफ फैसले सुनाए। सत्ता से बेदखल राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को बगावत कुचलने और आंदोलनकारियों की हत्या के आदेश देने के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गई। उनके घरेलू मामलों के मंत्री हबीब अल अदली को भी इसी मामले में इतनी ही सजा दी गई। वहीं भ्रष्टाचार के दूसरे मामलों में मुबारक और उनके बेटों को बरी कर दिया गया। कुछ लोगों ने इन फैसलों पर सहमति जताई है, तो अनेक को यह फैसला मंजूर नहीं। आज के मिस्र के लिए यह अहम नहीं है कि वह इस एक मुकदमे में उलझा रहे, बल्कि इसे बड़े स्तर पर देखने की जरूरत है, ताकि मुल्क में एक संजीदा और मजबूत जम्हूरी समाज की स्थापना हो सके, जहां समानता और कानून का शासन हो।

-गल्फ न्यूज
संयुक्त अरब अमीरात का अखबार
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Old 09-06-2012, 12:38 AM   #17
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रोचक खगोलीय घटना

यह हफ्ता शुक्र के पारगमन के लिए जाना जाएगा। आसमान में यह नजारा मंगलवार को अमेरिकियों ने देखा और आज यूरोप के लोगों ने। वाकई यह एक अतुलनीय खगोलीय घटना है और इसे देखना एक जादुई अहसास देने वाला है। आठ साल पहले भी यह नजारा दिखा था, जब पृथ्वी व सूर्य के बीच से शुक्र गुजरा था। अब 2117 से पहले यह नजारा नहीं दिखेगा। अब तक पारगमन की छह घटनाएं दर्ज हैं। 1639 में इस तरह की सबसे पहली घटना दर्ज हुई। इसकी भविष्यवाणी इंग्लैंड में टॉक्सटेथ के एक पादरी ने की थी। अगले दो दशकों तक उनके दस्तावेज अप्रकाशित रहे। जेरेमियाह होरोक्स की मृत्यु 22 साल में ही हो गई थी। वह उस दुनिया में जन्मे थे, जिसमें यह भ्रांति थी कि पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में है। अपरिष्कृत दूरबीन, त्रुटियुक्त घड़ी व केपलेर के पूर्व के आकलनों के आधार पर उन्होंने यह भविष्यवाणी की थी। फिर भी उन्होंने सौर तंत्र की पुष्टि की और पारगमन का इस्तेमाल किया, परंतु इसे हूबहू अवलोकित करने की जरूरत होती है। 1761, 1874,1882 व 2004 में भी पारगमन हो चुका है।

-द गार्जियन
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Old 12-06-2012, 12:36 AM   #18
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सीरियाई अराजकता के खतरे

लीबिया में मित्र राष्ट्रों की उपस्थिति कमजोर रही और ओबामा प्रशासन ने वहां नेपथ्य से नेतृत्व करने की रणनीति अपनाई। जाहिर है लीबिया में आक्रामक सैन्य कार्रवाई नहीं हुई। नतीजतन विद्रोही सेनाओं को काबू में रखने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सका, जबकि बागी संगठनों में से कई के तार अलकायदा से जुड़े थे। इन बेलगाम विद्रोही फौजों ने लीबियाई तानाशाह गद्दाफी द्वारा जुटाए गए रॉकेटों और मिसाइलों को लूट लिया। कमोबेश इसी तरह का खतरा सीरिया में पैदा हो रहा है। हालांकि वहां राष्ट्रपति असद को ईरान का समर्थन मिला रहा है, वहीं असद विरोधी अभियान में अलकायदा की भूमिका अहम हो गई है। सीरिया की लड़ाई लंबी चली, तो अलकायदा से जुड़े संगठन अपनी स्थिति और मजबूत कर लेंगे, जबकि असद पर तेहरान का प्रभाव गहराता जाएगा। सीरिया के इस अराजक माहौल में उसके नरसंहारकारी हथियार चरमपंथी गुटों के हाथ लग सकते हैं। वहां सैन्य कार्रवाई को लेकर रूस और चीन विरोध कर रहे हैं। ऐसे में इन दोनों देशों की जिम्मेदारी बनती है कि वे वहां जंग रोकने लायक दबाव बनाएं।

-द जेरूसलम पोस्ट
इजरायल का प्रमुख अखबार
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मिले जुले संकेत

हालांकि रफ्तार धीमी कही जा सकती है, पर साल 2011-12 के इकोनॉमिक सर्वे से कुछ उम्मीदें भी जगती हैं। ऊर्जा संकट, जबरदस्त सैलाब और दुनिया के डगमगाते आर्थिक हालात के बावजूद इकोनॉमी की रफ्तार पिछले साल की दर 2.4 से बढ़कर 3.7 फीसदी हो गई है। मैन्युफैक्चरिंग और खेती में सुधार है, लेकिन सर्विस सेक्टर में तरक्की की गति जस की तस है। अगर हुकूमत 4.2 फीसदी के ग्रोथ टारगेट को छूने में फिर नाकाम होती है, तो इसकी एकमात्र वजह होगी ऊर्जा संकट को दूर करने में मिली नाकामयाबी। दो फीसदी का घाटा तो इसी से होता है। पिछले दिनों इकोनॉमिक गवर्नेस और ऊर्जा सेक्टर को सुधारने की कोशिशें हुई हैं। इनसे कुछ बेहतर नतीजे आ सकते हैं, लेकिन चिंता की बात यह है कि हुकूमत जीडीपी के अनुपात में टैक्स उगाही में नाकाम रही। यह दस फीसदी से नीचे है, जो उपमहाद्वीप में सबसे कम है। न सब्सिडी घटाने की व्यवस्था हुई, न घाटे में चल रही सरकारी कंपनियों को उबारने की। हमारी आर्थिक दिक्कतें दूर हो सकती हैं, अगर सूबाई व संघ सरकार तालमेल के साथ काम करें।

-डॉन
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यूरो संकट के सवाल

आखिर उन्हें गलती क्यों नहीं दिख सकी? यही सवाल ब्रिटिश पर्यवेक्षकों को निराश करता है और हैरत में भी डालता है। जबकि यह सवाल तब से बना रहा है, जब से पूरे यूरोप में एकल मुद्रा पद्धति लागू हुई या फिर जब से पूरे यूरो जोन में आर्थिक संकट के हालात हैं। एक के बाद दूसरे देश के बाजार पस्त हो रहे हैं। इस पर खूब सारे स्पष्टीकरण दिए गए। अलग-अलग चर्चाएं भी हुई। कयास लगाए गए कि ग्रीक समुदाय द्वारा वित्तीय अनुशासन तोड़ने से यह संकट आया। लेकिन सारे तर्क बेकार थे। हाल ही में यूरोप के कुलीन तबके ने इसे स्वीकारा है। इनके मुताबिक न तो ग्रीस की लापरवाही और न ही जर्मनी में आई तंगी इसकी जड़ है बल्कि मूल वजह खुद यूरो है। दरअसल यूरोप की भिन्न अर्थव्यवस्थाओं को एकल मुद्रा नीति में जबरदस्ती पिरोया गया जबकि इससे पहले न तो केंद्रीय बैंक का गठन हुआ और न ही वास्तविक राजकोषीय शासन की व्यवस्था की गई। यहां तक कि पुर्तगाल से लेकर जर्मनी तक पर एक समान ब्याज दर थोपी गई। दक्षिणी देशों को उत्तरी देशों से होड़ लेने के लिए उकसाया गया लेकिन मुद्रा अवमूल्यन से बचने के तरीके उन्हें नहीं सुझाए गए।

-द टेलीग्राफ
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