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Old 05-08-2013, 06:33 PM   #11
jai_bhardwaj
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लड़की अपने साथ रेडीमेड चाय की पत्तियां रख लेती, लकड़ी खोजना कठिन ना था। लड़का किसी चरवाहे से दोस्ती गांठता, प्यार के दो मीठे बोल बोलता, बकरियों की एक टोली को थोड़ी दूर तक चरा लाता। बदले में चरवाहा एक बकरी के एक वक्त का दूध खुशी-खुशी दे देता।

दोनों चाय पीते। कुछ बोलते, ज्यादा गुनते। बीच-बीच में एक लम्बी चुप्पी आ जाती। थोड़ी देर बाद दोनों खुद में ही असहज महसूस करते। इधर उधर गर्दन घुमाते और कोई नई बात कहने की सोचते। जो कहना होता सामने वाले को पहले से पता होता और कुछ मिला कर एक ऐसा माहौल बनता जैसे कोई बहुत बोरिंग सी नाटक देख रहे हों और अगला अब क्या करेगा और कौन सा संवाद होगा पूरा स्क्रीप्ट हमारे दिमाग में सहेजा हुआ होता है।

कई बारी ऐसा भी होता कि एक-दूसरे को देख दोनों दिल ही दिल में पछताते कि काश प्यार नहीं हुआ होता तो ऐसा बुरा हाल भी नहीं हुआ होता। क्षण भर बाद ही फिर अपराधबोध उभर आता। उसे मिटाने के लिए किसी बहाने से एक दूसरे का हाथ पकड़ लेते। बात कुछ और करते पर दिल ही दिल में माफी मांगते और पछताते। कहीं से यह प्रतिज्ञा भी करते कि अब और ज्यादा टूट कर प्यार करेंगे।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 05-08-2013, 06:34 PM   #12
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कुछ हादसे हो चुके थे, कुछ होने वाले थे। जो हो चुके थे वो झेले जा चुके थे जो होने वाले थे उसका इल्म दोनों को था। इस ख्याल ने भीतर ही भीतर ऐसा उत्पात मचा रखा था कि 22-23 साल का प्यार 28-29 में तब्दील हो गया था। यह थका देने वाला था। पेट का दर्द अभी मीठा भी नहीं हुआ था कि परिपक्व हो गया। बातों में फिलोसफी गिरने लगे। सिगरेट का कश लंबा खींच कर देर में छोड़ा जाता। कई बार इतनी देर हो जाती कि लगता धुंआ अब बाहर नहीं आएगा।

पहाड़ों पर सांझ ठहर जाती। पेट में पड़ा कंकड़ बढ़ कर पत्थर का रूप लेने लगता। कई बार ढ़लते-ढलते सूरज भी रूक जाता अब आलम यह था कोई कुछ कहता तो अपने कहे को उसी तान पर सुनने की कोशिश करता और सामने होने के बावजूद आवाज़ उस तक देर में पहुंचती। कहने वाला देखता कि हवा की तरंगों पर वो जा रही है आवाज़, एक कदम, दो कदम..... अब उसके कान तक पहुंची, समाई, वो अब उसके मस्तिष्क में हरकत हुई और अब लड़की को समझ में आई और अब उसकी प्रतिक्रिया होने वाली है।
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Old 05-08-2013, 06:34 PM   #13
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सांझ के सन्नाटे साथ देते। आंखें फाड़कर देखा जाता तो कहीं-कहीं ही सही झाडि़यों का झुरमुट ज्यादा अंधेरे में डूबा लगता। कितनी तो टोकरी अंधियारे की रखी हुई लगती। पलकें देर से झपकायी जाती और अंधेरा प्याला दर प्याला दिल में उतरने लगता।

हादसों ने हमें बताया कि तुम्हारा रूतबा किस कदर अहम था।
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Old 05-08-2013, 06:35 PM   #14
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उसके आने की जब खबर महकी थी तो वो उतनी बड़ी नहीं थी जब सच में उसके कदमों की आहट आने लगी क्योंकि उसने आने को कई बार कहा था। ऐसा ही लगा वक्त ने एकदम आंखों के पास माचिस की तीली जलाई हो। इस झूठे आने को कहने पर उसे एकबारगी ऐतबार तो हो ही जाता था। और नहीं भी होता था तो यह एक खूबसूरत छलावा था, मन में घूमने वाला एक काल्पनिक छल्ले की तरह। दिल को अच्छा लगने वाला झूठ।

झूठ भी दो तरह के होते हैं एक जिसे सुनकर तन बदन में आग लग जाए, आपका तलवा लहर जाए तो दूसरा जिसे सुनने को आपका दिल बार-बार दिल करे। जैसे किसी लड़के की कई प्रेमिकाएं हो और एक नई लड़की जो उसकी दोस्त बनी हो वो भी उससे आई लव यू सुनने की इच्छुक हो। एक संतुष्टि प्रदान करने वाला झूठ मानो बेटा उम्र के एक बड़े मोड़ तक बेरोज़गार रहे और मां को दिलासा देता रहे - अम्मा दो रोटी भी कमाऊंगा न, तो एक- एक खा लेंगे.... और मां इसे सुनकर वारी वारी जाए।
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Old 05-08-2013, 06:35 PM   #15
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अपनों के कदमों की आहट अपने आप में एक पुरकशिश कहानी होती है। दिल को धड़काने वाली। करीब आती जाती और पेट में एक मीठा सा दर्द उठाती हुई। जैसे सुहागरात में सेज पर दुल्हन की आंखें बंद हों और पति देर तक कोई हरकत न करे। दुल्हन का मन वन में कुंचाले भरती हिरणी सी हो जाए। एक छटपटाहट, आंखे खोलकर देखना चाहे लेकिन पलकें भींचे रहे और साड़ी में आधा छुपा पेट वैसा ही हरकत करे जैसे मानव हृदय का गुब्बारा फक-फक करता है।

उस अपने की कदम की आहट छोटी-छोटी सांस वाली शहनाई की आवाज़ जैसी भी लगती। घर की सारी चीज़ें अपने जगह से हिली हुई लगती। दीवार धसके लगते, किताबों का ताखा तिरछा लगता। पलंग का तखत का रंग ज्यादा कजली सा लगता, घर की सभी चीज़ें रोकती लेकिन वो इन्हें देख कर भी अनदेखा करती। हर चीज़ के साथ व्यवहार बदला हुआ था लेकिन अनिभय ऐसा मानो ‘नहीं-हां मैं तुम्हें समझ रही हूं‘, ‘मुझे किसी चीज़ की जल्दी नहीं है‘ जैसा।
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Old 05-08-2013, 06:36 PM   #16
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अब कहां फुर्सत थी! कांटी पर टंगे करछुल को सीधा करने की जिसके लिए छोटी बहन को सज़ा दिया जाता। हर चीज़ को रखने का एंगल बताया जाता। सहेजने और बरतने का सलीका समझाया जाता। जिंदगी काट कर रखी हुई थी और तनहाई ने खीझ पैदा कर थी। कभी रो लिया जाता तो कभी किसी छोटे बच्चे को पकड़कर दो तमाचे मार दिए जाते।
नेक लाइन के गड्ढे गहरे हो जाते, जहां अक्सर नहाने के बाद पानी की एक बूंद देर तक रूकी रहती। कई बार तो रूके रूके ही सूख जाती तो कई बार वो उसके देख लिए जाने के बाद होंठों से चुन ली जाती। एक बार तो उसने कह भी दिया था सबमें लड़ाई होती होगी मैं यहां ठहरूंगा।

उसकी दुनिया जबसे छोटी हुई यह आहट ही है जिसे सुनकर जीवन के तमाम गंगा घाट पर दीये जल जाते और उसके बाइस पानी में एक शरारे पैदा हो जाते।

प्रेमिका इतनी संवेदनशील कि काम करते, सोते जागते उसके आने का एक खदशा होता। सूनी सी गली मन के एकांत में दूर तक रेंग गई थी लेकिन जब आज सीढ़ी पर आदमकद छाया देखी तो पूरा बदन झूठा (सुन्न) पड़ गया और अब पवित्र मिलन से जूठा होने की बारी थी।
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लड़की वो जिसका अगला कदम क्या होगा ये पता न हो। लड़की वो जो किस करवट बैठेगी इसका अंदाजा न हो। लड़की वो जो मासूम चेहरा बनाकर चीख उठे। लड़की वो जो इतनी बेपरवाह कि बाल, दुपट्टा और हंसी उड़ी जा रही हो और यह न सोचे कि इनसे कैसे अनमोल हीरे मोती गिरे जा रहे हैं और इसे बचा कर रखना चाहिए। लड़की वो जो इतनी नासमझ कि छत से नीचे आती बीच सीढ़ी पर सबसे बचकर चूम लो तो चिल्ला उठे कि - ''मम्मी देखो इसने मुझे यहां सीढ़ी पर छुपकर जबरदस्ती किस किया।'' लड़की वो जो पैदाइशी कलाकार हो, हर सुबह उसका बदल यूं जैसे केले के नए पत्ते गोल गोल खुलते हैं। लड़की वो जिसकी दो आंखों में चूहे और खरगोश जैसी चलपता और गालों पर उगे सुनहरे रोएं जैसी हल्की नादानी हो। जो बार बार प्यार करने जैसी गलती पर मजबूर करे।
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यह दर्ज कर रहा हूं कि उन आंखों में अब किसी ताखे पर जलती डिबिया का कम रास में जलने जैसा संशय भी आ चुका होगा और थोड़ी बहुत अपनी थरथराती रोशनी की ज़द में दूर रखे किसी सामान के कद का हिलना डुलना भी। भौतिक चीजों की अभावों में नहीं होगी इससे बदन में उभार भी ऐसे आए होंगे जैसे मिट्टी के घरो की सपाट दीवारों पर अचानक निकल आया कोई ताखा। लम्बे हाथों को लेकर सड़कों पर चलती होगी। बहुत खूबसूरत नही थी/हो तुम कि जिसके कारण मैंने तुमसे प्यार किया। बस इतना ही था कि चारों तरफ से घिरे किसी पहाड़ी की गोद में एक पहचानी सी हवा सरसराया करती है। यहां हवा काॅमन है जो जब पछुआ बन कर चलती है तो मिट्टी के दरारें सूख कर फैल जाती है, थोड़ी ठंड भी लगती है, गोया होंठ भी फटने लगते हैं और जब पूरब से आने का रूख अख्तयार करती है तो बदन में बसे अतीत के/जोड़ों के दर्द उभारती है। उत्तर और दख्खिन से आती हवा बड़ी क्षणिक होती है इतनी कि इन पर हम गौर नहीं करते। कभी कभी लगता है हवाओं पर पूरब और पश्चिम दिशा का ही दबदबा है और जो हवा इस लड़ाई में बहक जाती होगी वो बाकी बचे दोनों दिशाओं के मार्फत हमारी खिड़कियों से रिस आता है।
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Old 05-08-2013, 06:38 PM   #19
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चैराहा घेर कर छोटा कर दिया गया है, मेन फील्ड अब बैठने की जगह नहीं रही, क्रिकेट खेलना तो दूर की बात है। सुधा डेयरी प्रोजेक्ट वाली दुकान पर अब तुम अपने छोटी भाई के साथ भी नहीं आती। अपनी दीदी का सलवार कुरता तुम्हें लगभग फिट आने लगा है जिनमें पहले भी हम इतने वाकिफ थे कि मुझे कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी।

दूध लाना, मोड़ पर से दही, सब्जी लाना, अपने भाई को स्कूल से लाना वो सारे छोटे छोटे बहाने खत्म हो रहे हैं बस बच रहा है तो एक बड़ा हक़ीक़त। ज़रा मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में एक बार लेकर थपथपाते हुए यकीन तो दिलाना कि हम अब नहीं मिलेंगे! क्या एक बार अपने चेहरे पर अब वो भाव ला सकोगी कि तुम्हें राह चलते, बालकनी में खडे रहते कोई नहीं देख रहा होगा ? क्या एक बार उसी लहजे में फोन पर माफी मांग सकोगी ? क्या मेरे साथ किसी घुटे हुए उदास प्रेम भरे गीत में आवाज़ मिला सकोगी ? क्या मैं प्रति किलोमीटर एक रूपए आॅटो पर बचा कर सैंडविच (दुकान का नाम) से पैदल पांच रूपए का डेयरी मिल्क तुम्हारे दामन में रख पाऊंगा ? अगर तुम नाराज़ रही तो उसे खिड़की के बाहर फेंक सकूंगा? कैसी उम्र है कि मैं अपने रूखाई के शबाब पर हूं और डेयरी मिल्क दामन में रखने ना सही फेंकने तक का मौका भी तुमसे खुल कर मांग नहीं रहा?
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कभी हम एक दूसरे में फिसलते थे। मैं चबाए हुए अन्न की तरह तुम्हारी हलक से उतरता था, तुम किसी आंसू की तरह मेरी आंखों में ही पैदा हो कर फिर से जज्ब हो जाती थी।

कई तहों में रखी जिंदगी से मिलती-जुलती, मां से सुना एक मुहावरा याद आता है - ‘‘मुठ्ठी भर चना, कभी घनघना ... तो कभी वो भी मना''
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