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Old 05-08-2013, 06:39 PM   #21
jai_bhardwaj
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एक एरा जीने का मन होता है। कि जैसे उन्नीस की उम्र में श्री 420 देखे हफ्ता ही हुआ हो और बारिश से रिलेटेड कुछ फिल्मी और कुछ अपनी इल्मी दृश्य गुँथ रहे हों। मन निर्देशक और नायक दोनों हो चला हो। रही पटकथा लेखक की भूमिका तो वो बीत जाने के बाद किसी घोर विरह में निभाई जाएगी (जैसे कि अभी निभाई जा रही है)

तो बारिश ऐसी है कि हवा किधर से आ रही है आज अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। पहले अंधड़ उठा, धूप छांव में बदला, फिर अंधेरा में, नारियल और ताड़ के पेड़ बड़े भोंपू की शक्ल में तब्दील हो गए। सड़क पर हवा के गोल गोल डरावने भंवर बनने लगे और लाइब्रेरी जाने के रास्ते में उस भंवर में सिमटते चले गए। लाइब्रेरी में कुछ खास नहीं करना था। कोर्स की किताबों को दरकिनार करते हुए आषाढ़ का एक दिन और धर्मवीर भारती को पढ़ते हुए दो यादगार प्रेम पत्र लिखने थे। प्रेमिका को इस सदी की सबसे महान और खूबसूरत खोज बताते हुए कुछ मौलिक इन्सीडेंट्स की याद दिलानी थी। परवाहों को किनारे रख कर अमर प्रेम करना था। पत्र में कुछ दृश्य यूं साकार कर देने थे कि लड़की अपना घर बार और हकीकत को भूल बैठे, हमारे पैरों की हवाई चप्पल तलवे पर कैसे घिसती जा रही है यह तो भूले ही साथ ही बाली उमर में मुहब्बत का वो दीया जला दिया जाए कि कोरी चुनरिया पर कोई दूजा रंग ना चढ़े और खुदा ना खास्ता चढ़े भी तो बस आपकी ही याद आए। क्योंकि सुबह सुबह ही किसी प्रेम पुस्तक में यह पढ़ा गया है कि हर मर्द चाहता है कि फलाना औरत उसका पहला प्रेम हो और हर औरत चाहती है कि चिलाना मर्द उसकी आखिरी मुहब्बत हो।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
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Old 05-08-2013, 06:40 PM   #22
jai_bhardwaj
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कि अचानक काले बादल घिर आते हैं, एक कचोट उठता है दिल में। सब छोड़ कर बाहर निकल जाते हैं। जाने कहां चलते जा रहे हैं। वही भींगते पेड़, लजरते पत्ते। टप टप गिरती बूंद। एक एक बूंद में प्रतिबिंबित समूची सृष्टि। दिमाग में ढेर सारे फिल्मी सीन। राजकपूर कैसी निश्छल हंसी। कैसी विनम्रता। काहे की चालाकी। मन पर तो सादगी से ही छाया जा सकता है हमेशा के लिए। अबकी मिलेगी तो माफी मांग लूंगा। मिलेगी ? कहां ? कैसे? किस तरह ? हम्म ! वक्त क्या हुआ ? साढ़े बारह में लाइब्रेरी से निकले थे। बहुत अधिक तो पौने दो हो रहे होंगे। उसके स्कूल की छुट्टी हो रही होगी। अभी एम जी रोड से उसकी बस गुजरेगी। दिखेगी क्या ? अगर खिड़की किनारे हो तब? चांस लेने में क्या जाता है। चलते हैं। खिड़की खुली होनी चाहिए बस। मैं तो कैसे भी पहचान लूंगा। वो मुझे देख पाएगी, पहचान सकेगी ? इतनी जल्दी में ? क्या फर्क पड़ता है, मुझे अपने मर्ज का इलाज करना है। यूं मारे मारे फिरते और इस हालत में देखेगी तो उसे दुख ही होगा।
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Old 05-08-2013, 06:40 PM   #23
jai_bhardwaj
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बस गुज़र चुकी है। लड़के को एहसास भर ही हुआ है कि उसने उसे देखा है बस एक क्षण के लिए। निकलना, भींगना, चलना सफल रहा। एक पेड़ के नीचे बैठा है। सिनेमा के कुछ सीन फिर हावी हो जाते हैं। मीनार की छत होगी, अंधेरा होगा बस एक हाथ तक की दूरी तक दिखने जितना प्रकाश होगा। बारिश होगी। ठंड से कांपते हम दोनों होंगे। मुड़ी तुड़ी गीली सिगरेट होगी। थरथराते होंठों से उसको जलाने की कोशिशें होंगी। नीचे हर जगह पर हम कैमरा रख देंगे। क्लोज अप जहां इमोशंस लेगा, लांग शाॅट कविता के रूप में तब्दील हो जाएगी। यादगार सीन हो जाएगा। यही तो है सिनेमा। भोगा हुआ सच और कसक को पर्दे पर उतारना। जो नहीं हो पाया यहां साकार कर देना। और जो हो सकता है अधिकाधिक संभावना को दिखा देना। मरे और बुझे हुए हृदय में भी प्राण फूंक देना। आखिरकार प्रेम का संदेश देना। यही तो है सिनेमा। वाह राजकपूर वाह। तुम्हारे बहाने हम कितना कुछ सीख रहे हैं जान रहे हैं। मैं जानता हूं मुझे ये लड़की नहीं मिलेगा। जिंदगी इतनी भी फिल्मी नहीं लेकिन यह एहसास... ! इसका कोई जोड़ नहीं। प्रेम का कोई नहीं।
ये शहर जियेगा हमारे प्रेम में. लड़का हिलता है। चिल्ला उठता है - प्रेम का कोई जोड़ नहीं। जैसे किसी ने झकझोर दिया हो।

अब शब्द नहीं सूझ रहे। जिंदगी भी कैसी होती है न। अचानक मिली खुशी पर चहक उठते हैं और जब बहुत जतन से कुछ पाते हैं तो संतुष्टि दिल में अजगर की तरह पसरती जाती है। नहीं मिलता है तो कहने को कितना कुछ होता है- आंख भर आंसू के साथ ढेर सारी शिकायतें, बेशुमार बेचैनी, खारा समंदर जैसी जुबान, व्यक्तित्व में कसैला व्यवहार। मिल जाए तो बस एक शांत चुप्पी। बहुत अधिक तो खुदा के लिए भी - शुक्रिया।
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Old 05-08-2013, 06:41 PM   #24
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प्यार में कुछ नया नहीं हुआ, कुछ भी नया नहीं हुआ। एहसास की बात नहीं है, घटनाक्रम की बात है। हुआ क्या ? चला क्या ? वही एक लम्बा सा सिलसिला, तुम मिले, हमने दिल में छुपी प्यारी बातें की जो अपने वालिद से नहीं कर सकते थे, सपने बांटे और जब किसी ठोस फैसले की बात आई तो वही एक कॉमन सी मजबूरी आई। कभी हमारी तरफ से तो कभी तुम्हारी तरफ से।

सच में, और कहानियों की तरह हमारे प्यार की कहानी में भी कुछ नया नहीं घटा। प्यार समाज से पूछ कर नहीं किया था लेकिन शादी उससे पूछ कर करनी होती है। घर में चाहे कैसे भी पाले, रखे जाएं हम उससे मां बाबूजी और खानदान की इज्ज़त नहीं होती मगर शादी किससे की जा रही है उस बात पर इज्ज़त की नाक और बड़ी हो जाती है।
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Old 05-08-2013, 06:42 PM   #25
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Old 05-08-2013, 06:42 PM   #26
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कोई दूर का रिश्तेदार था जो मुझ पर बुरी नज़र रखता था। मैंने शोर मचाया तो खानदान की इज्ज़त पैदा हो गई। और जब अपने हिसाब से जांच परख कर अपना साथी चुना फिर भी इज्ज़त पैदा हो गई। बुरी नज़र रखने वाला खानदान में था इससे इज्ज़त को कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन एक पराए ने भीड़ में अपने बांहों का सुरक्षा घेरा डाला तो परिवार के इज्ज़त रूपी कपास में आग लगने लगी।

और प्यार की तरह हमारा प्यार भी विरोधाभासों से भरा रहा। हम कहते कुछ रहे और करते कुछ रहे। मैं तुम्हारे लिए उपवास पर रही पर फोन पर एसएमएस में हमेशा क्या खाया समय से बताया। तुम समय अंतराल पर ढ़ेर सारी किताबें अपनी माली हालत छुपा कर भेजते रहे। पता नहीं तुम इतनी किताबों के मार्फत कैसे प्रेम से रू-ब-रू करवा रहे थे। मैं रोती रही और तुम्हें हंसने के लिए कहती रही। तुम मेरा कहा मान सुबह की सैर पर जाते और सिगरेट फूंकते घर लौट आते। कितना सुन्दर होता है प्रेम ! सभी एक दूसरे को जानते हुए छलते रहते हैं।
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Old 05-08-2013, 06:44 PM   #28
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हमारे घर का माहौल कुछ यूं है कि बहुत पढ़ लेने के बाद सिर्फ जांचने की शक्ति बढ़ती है। हमारा घर (पाठक यहां समाज समझ सकते हैं) भी विरोधाभासों से भरा है। बुजुर्ग लोग बहुत पढ़े हैं, भाई बहन भी ऊंची शिक्षा ले रहे हैं लेकिन शिक्षा आज वो है जो व्यवसाय या साख बनाने में काम आती है या फिर ऊंगलियों पर उपलब्धियां गिनवाने में। एक दिलचस्प बात बताती हूं मैंने स्नातक इतिहास विषय से करा और आज मुझे शेरशाह सूरी के शासन काल, अमीर खुसरो किसका दरबारी था यह तक याद नहीं हैं। लेकिन मैं बैचलर हूं, समाज में यह कहने से मुझे कोई नहीं रोक सकता। जबकि ईमानदारी से कहूं तो परीक्षा में यदि मौलिक रूप से मेरी उत्तर कॉपी जांची जाती तो मैं हरगिज़ हरगिज़ पास ना होती। लेकिन, मैं बैचलर हूं। अब हूं तो हूं। और अब इसी विषय से मास्टरी और फिर डॉक्टरी भी करने का सोचा है। हम पढ़ेंगे सागर, अपने लिए, सिर्फ अपने लिए। लार्ड मैकाले ने लकीर खींची हम पीट रहे हैं। मैं शादी करके बच्चे संभालूंगी पर इस क्षेत्र में मेरी पढ़ाई कहीं, कुछ काम नहीं आनी। हां इतना फायदा होगा कि जनगणना में शिक्षितों में मेरी गिनती होगी। सास, ननद से झगड़ने और रौब झाड़ने में मैं फलाने तक पढ़ी हुई हूं यह गिना सकूंगी। इतिहास से इतर मन में जो भी रचनात्मकता होगी, ख्यालों का भंवर होगा वो वहीं दफन करना होगा। परदादाओं ने लकीर खींची और अब हम पीटेंगे।
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Old 05-08-2013, 06:45 PM   #29
jai_bhardwaj
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तुम्हारी किताबों ने बगावत भी सिखायी। कभी कभी तो लगता है किताबें भी विरोधाभास से भरी होती हैं। कोई प्रेम के लिए सब कुछ बलिदान करना सिखाती है, तो कोई गलत के विरोध में खड़े होना। किसके लिए बगावत करूं ? हमारा परिवार (पुन: समाज) यह जानता है कि मैं इन सबसे दूर नहीं जा सकूंगी। जब भी कोई परेशानी होगी तो मजबूरी का ऐसा रोना होगा कि गाज हमारे ही फैसलों पर गिरेगी।

शायद अब तुम ऊपर कहे गए इन सब बातों का मतलब समझ चुके होगे। तो सार यह कि मैं भी मजबूर हो गई और हमारा असंभावित मिलन अपने गंतव्य पर पहुँच गया। तो हमारे तरफ से ना हो गई और मैं वही अन्य लड़कियों की तरह ‘कॉमन मजबूर' हूं। अंत में, घिसी-पिटी बात कहूंगी कि खुश रहना। मुझे माफ कर देना। मुझे भूल जाना। इस वाक्य में अगर कोई क्रांति करूं तो यह कि मुझे कभी माफ मत करना जिससे मैं तुम्हारे मन मस्तिष्क में हमेशा बसी रहूं।

तुम भी कहीं डोलते रहना, मैं भी कहीं बीच मजधार में हिचकोले खाती रहूंगी।

अब नहीं,

तुम्हारी (?)




===समाप्त ===
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Old 17-08-2013, 12:40 PM   #30
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पत्र शैली में लिखे हुये इन कथा-प्रसंगों में प्रेम के विविध रूप उद्घाटित होते हैं जिसमे भावनाओं की निर्मलता भी है और अपनी सीमाओं में जीने की मजबूरी से उपजी ऊब भी. इनके साथ ही समाज के दोगलेपन पर तीखी प्रतिक्रिया भी नज़र आती है जिनकी सच्चाई अखबारों में आये दिन छपने वाली ख़बरों में देखी जा सकती है. इस सुन्दर प्रस्तुति के लिये (जिसमे निश्छल पत्रों की छाया प्रतियाँ भी अनोखापन ले कर आती हैं) बहुत बहुत धन्यवाद, जय जी.

कहानी को देर से पढ़ने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ.
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