09-08-2013, 05:48 PM | #21 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
हमारी ट्रेन जो की एक तरह से ख़ास ट्रेन थी(समर स्पेशल)..वो अपने "स्पेशल" के टैग का लाज रखते हुए लगभग छः घंटे लेट चल रही थी.ट्रेन का लेट होना कोई बड़ी दिक्कत की बात नहीं थी जितना ये की मेरा टिकट कन्फर्म नहीं था.हम चार लोग थे..मैं,मेरा दोस्त, वो..और उसकी दीदी.उसका और दीदी का टिकट कन्फर्म था इसलिए हमें ज्यादा चिंता नहीं थी लेकिन फिर भी हम चाहते थे की हमारे टिकट कन्फर्म हो जाए ताकि सफ़र में कोई परेशानी न हो... टिकट कन्फर्म कराने के चक्कर में ही मैं स्टेशन वक़्त से कुछ पहले पहुँच गया था, पहुंचा तो मालुम चला की ट्रेन छः घंटे बाद खुलेगी.मैंने चाहा की उसे फोन कर के बता दूँ की आराम से आये.लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.मैंने फोन किया और सिर्फ फोन की घंटी बजती रही, वो घर से स्टेशन के लिए निकल चुकी थी.
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09-08-2013, 05:49 PM | #22 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
स्टेशन के बाहर सीढ़ियों पर मैं अपने दोस्त के साथ उसके आने का इंतजार कर रहा था.वो सामने से अपनी दीदी के साथ आते दिखी..अपने उसी 'दिल्ली-लुक' में - हैट,गौग्ल्ज ,जींस और कुरते में. उसे देखते ही मैं हँस पड़ा था...मेरी हँसी देखकर उसके चेहरे का भाव कुछ अजीब तरह से बदल गया, जिससे ये तो साफ़ साफ़ पता चल रहा था की उसे मेरा इस तरह से हँसना पसंद नहीं आया था..कायदे से तो ऐसे मौके पर उसे भड़क जाना चाहिए था, लेकिन वो पास आई और एक टफ लुक देने की कोशिश करते करते वो खुद ही हँस पड़ी..
"मुझे ऐसे मत देखो न तुम..ऐसी ड्रेसिंग तो आज की सभी लड़कियां करती हैं". उसने कहा, और मेरी नज़रों से बचते हुए कोने में बने बैठने की जगह पर जाकर वो बैठ गयी. हम इधर इस बात पर विमर्श कर रहे थे की आगे क्या किया जाए, यहाँ रुका जाए या फिर कहीं चला जाये ..लेकिन उसे इन सब बातों से कोई ख़ास मतलब नहीं था..वो कोने में चुपचाप बैठी कॉमिक्स की एक किताब पढ़ रही थी.हमने तय किया की हम स्टेशन के वेटिंग रूम में ही बैठकर इंतजार करेंगे.
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09-08-2013, 05:49 PM | #23 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
हम सामन लेकर वेटिंग रूम में आ गए थे...मैंने सुझाव दिया की क्यों न हम क्लॉक रूम में सामान रख कर आसपास के मार्केट घूम आयें...वो मेरे इस सुझाव से एकाएक बहुत इक्साइटेड हो गयी..जैसे वो ऐसे ही किसी सुझाव का इंतजार कर रही हो..दीदी ने लेकिन बाहर घुमने जाने पर असहमति जताई...वो अपने दो साल के बेटे को साथ लेकर बाहर घुमने नहीं जाना चाह रही थी.उन्होंने हमसे कहा की अगर हम चाहे तो घुमने जा सकते हैं...हम तो जैसे दीदी के इस अप्रूवल का ही इंतजार कर रहे थे..
मैंने अपने दोस्त को साथ चलने के लिए कहा, लेकिन उसने साफ़ इंकार कर दिया..मुझे उसके इंकार करने की वजह मालुम थी.वो लड़कियों से बात करने या फिर उनके साथ समय बिताने से हिचकिचाता था.और जब भी वो मेरे साथ होती थी, वो हमेशा उसके साथ समय बिताने से बचना चाहता था..वो शायद बहुत शरमा सा जाता था उसके सामने...इसलिए दीदी को और अपने उस दोस्त को वेटिंग में ही बैठा छोड़ हम दोनों बाहर निकल आये.
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09-08-2013, 05:49 PM | #24 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
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09-08-2013, 05:50 PM | #25 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
नई दिल्ली स्टेशन के बाहर खड़े होकर उसने कनौट प्लेस जाने की जिद की.,,लेकिन मैं वहां न जाने की बात पर अड़ा रहा.वैसे तो समय हमारे पास बहुत था और हम आराम से कनौट प्लेस से घूम कर आ सकते थे...लेकिन फिर भी मुझे डर था की हम लेट न हो जाएँ.हम कनौट प्लेस की तरफ न निकल कर सामने पहाड़गंज के मार्केट की तरफ घुमने निकल पड़े.
पहाड़गंज मार्केट में सड़कों के किनारे लगे दुकाने देखकर उसने मुझे वो सब चीज़ें गिनाने शुरू कर दिए जो वो खरीदना चाह रही थी..मैं भी उसकी बातों को ध्यान से सुनने का ढोंग कर रहा था, सच कहूँ तो उसकी उस लिस्ट को मैं पिछले दो दिनों में जाने कितनी बार सुन चूका था और मुझे लिस्ट में लिखी सभी चीज़ों के नाम याद से हो गए थे. हम थोड़ी दूर आये थे की एक गली के पास आकर मैं रुक गया..गली की तरफ इशारा कर के मैंने उसे वो होटल दिखाया मैंने पिछली तीन रातें बिताई थी...वो एकटक से उस गली को देखने लगी..और दूर से ही होटल के बिल्ल्डिंग को और होटल के साईनबोर्ड को ध्यान से पढने लगी... "होटल स्कॉट..तुम यहाँ रुके थे?...कैसा अजीब सा नाम है,कैसी अजीब सी गली में है ये होटल....ऐसे होटल में मत रुका करो" उसने कहा मुझसे. "क्यूँ, नाम में ऐसा क्या है?" मैंने थोडा क्यूरोसिटी दिखाते हुए पूछा.
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09-08-2013, 05:50 PM | #26 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
"एक तो...एक तो ये ठीक जगह नहीं है...ऊपर से...यहाँ...ये...ये ..देख नहीं रहे, इस होटल का नाम इंग्लिश है, ऐसे विदेशी नामों वाले होटल में विदेशी लोग रहते हैं...तुम ऐसे होटल में रहोगे तो लोग तुम्हे भी विदेशी समझने लगेंगे".उसने कुछ झिझकते हुए कहा था..
उसने फिर से एक बेमतलब लॉजिक सामने रखा था, लेकिन मैं समझ गया था की वो क्या कहना चाह रही थी...वो कुछ दूसरी बात कहते कहते बीच में रुक गयी थी और एक बेमतलब सा लॉजिक देकर उसने जानबुझकर बात को दूसरी तरफ मोड़ दिया था.कोई और वक़्त होता तो मैं उसके उस लॉजिक पर उसकी जम कर खिंचाई करता लेकिन उस दिन मैंने कुछ भी नहीं कहा.. हम कुछ देर युहीं साथ चलते रहे थे...वो हर दूकान के आगे रुकते जा रही थी और मैं बार बार आगे बढे जा रहा था, पीछे मुड़कर देखता तो वो साथ नहीं चल रही होती और किसी दूकान के आगे खड़ी होकर चीज़ों को निहारते दिखती वो...उसके इस तरह हर दूकान पर रुक जाने से मैं थोड़ा चिढ़ रहा था, लेकिन चिढ़ ज्यादा इस वजह से थी की वो बिन बताये ही दूकान पर रुक जाया कर रही थी..और मैं आगे बढ़ जा रहा था. "कहीं भी रुक जाती हो...कम से कम एक आवाज़ तो दे सकती हो" मैं थोड़ा इरीटेट सा हो गया था और गुस्से में कहा उससे "हर दूकान में तुम्हे जाने की क्या जरूरत होती है....".
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09-08-2013, 05:51 PM | #27 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
मेरी इस डांट का उसने हँसते हुए जवाब दिया था "लड़कियों के साथ घुमने की आदत डाल लो, कुछ मैनर्स सीख लो...आगे आगे बढ़ के चलोगे तो ऐसे ही चिढ़ते रहोगे...साथ साथ या पीछे चलो..तब कुछ नहीं होगा".उसने हँसते हुए इतनी मासूमियत से ये बात कही की मेरा सारा गुस्सा काफूर हो गया.
शायद मेरी उस डांट ने कुछ ज्यादा असर कर दिया था...वो एकदम शांत सी होकर चलने लगी...हर दूकान के आगे वो रुक भी नहीं रही थी...कभी कभी किसी दूकान के आगे उसके पैर ठिठक जाते थे लेकिन बिना रुके वो जल्दी ही आगे बढ़ जा रही थी.मुझे उस वक़्त अपनी उस बात पर बहुत पछतावा हो रहा था.."बेकार में ही उसे डांट दिया" मैंने सोचा. मैंने उसे कहना भी चाहा की तुम्हे दूकान में जो कुछ भी देखना हो तुम देख लो, मैं डाटूंगा नहीं.लेकिन मैं चुप ही रहा.मैं सोचने लगा की क्यों मैं अक्सर गलत शब्दों को गलत वक़्त पर चुन लेता हूँ और बाद में अपने कहे शब्दों पर पछताता हूँ. कुछ देर तक हम युहीं साथ चलते रहे बिना कुछ कहे...वो पता नहीं किस सोच में थी...जब भी वो ऐसे किसी सोच में डूब जाती थी तब मैं थोड़ा चिंतित सा हो जाता...ये सोच कर की उसे किस तरह मैं संभालूँगा.वो बहुत ज्यादा देर चुप रहती थी तो अक्सर उसके आँखों से आंसूं निकलने लगते थे.उस दिन मुझे इस बात की चिंता होने लगी थी, लेकिन मेरी वो चिंता बेमतलब की थी...उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था.
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09-08-2013, 05:51 PM | #28 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
हम घूमते घूमते एक छोटे से कैफे के पास आकर रुक गए...उसकी ईच्छा हुई की यहाँ कुछ खाया जाए....और दीदी के लिए भी कुछ यहाँ से पैक करवा लेंगे.उस कैफे में प्रवेश करते ही हम दोनों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था...पहाड़गंज की एक संकड़ी सी गली में बाहर से दिखने वाला बिलकुल ही साधारण सा कैफे अन्दर से इतना खूबसूरत भी हो सकता है, इसकी हम दोनों ने कल्पना भी नहीं की थी.हम कोने की एक टेबल पर बैठ गए.यूँ तो उस कैफे में सभी चीज़ों के दाम भी हमारी कल्पना से ज्यादा थे,लेकिन हम उस सुन्दर से कैफे में आकर इतने खुश थे की थोड़ा ज्यादा दाम देना हमें कुछ ख़ास अखरा नहीं...मैंने अपनी बची खुची पौकेट मनी का एक बड़ा हिस्सा कैफे के मेनू पर कुर्बान कर दिया था..
सैंडविच का एक टुकड़ा मुहं में लेते हुए अचानक से एक शेर उसके जुबान पर चढ़ आया था... "जिगर और दिल को बचाना भी है नज़र आप ही से मिलाना भी है महब्बत का हर भेद पाना भी है मगर अपना दामन बचाना भी है" मैं हतप्रभ सा होकर उसे देखने लगा...मेरी आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी...मैंने कभी नहीं सोचा था की वो कभी मुझे शेर सुना पाएगी..."शायरी बड़े-बूढ़े लोगों का काम है" यही कहती थी वो.लेकिन आज उसने इतना खूबसूरत शेर कह दिया, मैं तो बिलकुल दंग रह गया था.
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09-08-2013, 05:53 PM | #29 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
"किसने लिखा है ये?" मेरे पूछने पर उसने मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा था - "मैंने लिखा है..खुद मैंने".
उसकी आँखें उस वक़्त इतनी साफ़...निश्चल और मेरे चेहरे के इतने पास थीं की ना चाहते हुए भी मुझे उसपर विश्वास करना पड़ा था.बाद में मैंने अपनी डायरी में वो शेर नोट कर लिया था और उसके नीचे उसका नाम लिख दिया था. कुछ साल बाद जब शायरी पढने का सलीका आया और कुछ शायरों की शायरी पढ़ी तो एक दिन मजाज लखनवी की एक ग़ज़ल पर नज़र गयी और शुरू के दो शेर पढ़कर मैं हतप्रभ सा रह गया.ये वही शेर थे जो उसने मुझे सुनाये थे..पहाड़गंज के उस कैफे में और जिसे मैंने बाद में अपनी डायरी में नोट कर लिया था, उसके नाम के साथ.मुझे एकाएक हँसी आने लगी और इस बात पर काफी अचरज भी हो रहा था की उसने मजाज़ का शेर उन दिनों कैसे और कहाँ से पढ़ लिया होगा.मेरी उस डायरी के पन्ने पर वो शेर अब तक लिखा हुआ है..लेकिन मैंने उन दो पंक्तियों के नीचे से उसका नाम कभी हटाया नहीं..बल्कि जब मुझे जब पता चला की शेर मजाज साहब का है तब मैंने शेर के नीचे उनका नाम लिखने के बजाये उसके ही नाम को बड़े बड़े अक्षरों में एक स्केच पेन से हाईलाईट कर के लिख दिया था.वो नाम आज भी वैसे ही है और अब भी जब कभी वो शेर कहीं पढ़ लेता हूँ तो मुझे मजाज़ साहब का ख्याल नहीं आता, लगता है सच में ये शेर उसने ही लिखा था.
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09-08-2013, 05:55 PM | #30 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
शायद उस शाम उसे शायरी का रोग सा लग गया था या कोई शायर की आत्मा उसके ऊपर हावी हो गयी थी...कैफे से निकलने के बाद से लेकर वेटिंग रूम में पहुँचने के बीच उसने कई शेर कह दिए थे..बिलकुल ही शायराना अंदाज़ में वो बातें कर रहीं थी.कहीं कहीं से सुने कुछ अंग्रेजी के कुछ हिंदी की कविताओं की पंक्तियाँ वो लगातार दोहरा रही थी...वेटिंग रूम में बैठे हुए उसने पता नहीं कहाँ से सुना हुआ अंग्रेजी का एक कोट दोहराया था.."True love comes quietly, if you hear bells, get your ears checked"..
मजे की बात ये थी की वो जो कुछ भी कह रही थी हर कुछ को वो खुद का लिखा बताती थी...और मैं बेवकूफों की तरह उसकी बात पर यकीन भी कर लेता था...उसकी ये चोरी बहुत बाद में पकड़ी गयी थी. उस शाम सिर्फ शायरी ही नहीं...वो अजीब बहकी बहकी बातें भी कर रही थीं, हम तीनों का उसकी बातों पर हँसते हँसते बुरा हाल था.प्लेटफोर्म पर जब हम पहुंचे और ट्रेन को आने में थोड़ी और देर हो गयी तो उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा था "अरे अब आ भी जा कमबख्त...." आसपास की कुछ नज़रें हमारी तरफ मुड़ गयीं थीं...दीदी ने उसे चुप कराने की कोशिश की लेकिन वो वहां प्लेटफोर्म पर खड़े ट्रेन को जी भर कोस रही थी...."I swear...i'm gonna kill this bloody train..." उसने गुस्से में कहा था...शायद उसकी ये धमकियों को ट्रेन ने सच में सुन लिया होगा और वो जल्द ही आकर प्लेटफोर्म पर लग गयी.
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