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Old 12-08-2013, 07:03 PM   #1
jai_bhardwaj
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अंतरजाल में किसी दूसरे नाम से प्राप्त इस लेख को मंच में प्रस्तुत कर रहा हूँ। मूल रचनाकार को हार्दिक धन्यवाद
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 12-08-2013, 07:03 PM   #2
jai_bhardwaj
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मैं उसका नाम तोश्का नहीं रखना चाहती थी...कि इस नाम में बहुत सारी उदासी थी...लेकिन मुझे मालूम ही नहीं चला कब एक शब्द से उठ कर वो एक जीती जागती जिद्दी लड़की बन गयी...रशियन...नीली आँखों और दो सुनहली चोटियों वाली लड़की को ऐसा कौन सा गम था कि मेरी जान खा गयी कि मेरी कहानी लिखो.

पहली बार इस शब्द के सामने पड़ी थी तो लगा था कि ये मेरा नाम होना था...तोस्का...लेकिन दन्त स में वो बाद नहीं आती जो तालव्य श में आती है. श से कशिश आती है, कुछ मेरे पसंदीदा शब्दों में श होता है...इश्क, रश्क, अश्क, खानाबदोश, तलाश, पलाश...जाने और कितने सारे. स से श हो जाना कुछ वैसे था जैसे आप किसी के प्यार में होते हैं तो उस नाम को एक ख़ास लहज़े में पुकारते हैं...नाम वही होता है मगर महबूब के होटों पर अजीब से नशे में लिया हुआ लगता है. दरअसल आप सिर्फ उसका नाम नहीं लेते हैं...हर बार उसका नाम लेते हुए अपना एक हिस्सा जोड़ देते हैं उसमें...जैसे मैंने उसका नाम पुकारते हुए 'इश्श्श' सा कुछ कहा. सबसे छुपा के उसका नाम लिखा जैसे...चुपचाप जैसे चिरमिरा के फूलों में छिपी हुयी तितली.
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Old 12-08-2013, 07:04 PM   #3
jai_bhardwaj
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उस रोज़ आसमान सियाही हो गया था और मेरी कहानी लिखने को जरा भी रौशनी नहीं बची थी. हवा ने खुद को वैसे रोक रखा था जैसे तुम्हारे आने पर मैं अपनी तेज़ होती साँसों को रोक के रखती हूँ. समंदर के पास का मौसम था कोई...बेहद गर्म और उमस से भरा हुआ. मेरे आसपास की चीज़ों में कोई कलात्मकता नहीं थी...वे इस मशीनी युग की बनी चीज़ें थीं जिन्हें कभी किसी कामगार ने हाथ भी नहीं लगाया था. उनमें कोई आत्मा नहीं थी. मुझे तुम्हारे लिखे प्रेमपत्र याद आ रहे थे, मुझे वो वक़्त भी याद आ रहा था जब खेलते हुए पहली बार तुमने धूल में अपना और मेरा नाम एक साथ लिखा था.

मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि तोश्का ने जब लिखना सीखा था तो उसने अक्षर नहीं सीखे थे...उसने सबसे पहले तुम्हारा नाम लिखना सीखा था. फिर एक वाक्य कि वो तुमसे प्यार करती है...इतने के बाद उसने खुद को जानने की कोशिश की होगी. तोश्का वैसी लड़की है जिसने आइना शायद कभी देखने की जरूरत ही नहीं समझी. तुम मेरे आसपास कहीं रहते जहाँ मैं रोज़ तुम्हें देख सकती तो मैं भी आइना नहीं देखना चाहती कभी. मगर होता ऐसा है कि तोश्का को हर उस चीज़ से प्यार होने लगता है जिससे तुम्हें प्यार है और इस सिलसिले में वो खुद को जानने की कोशिश करती है.
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Old 12-08-2013, 07:04 PM   #4
jai_bhardwaj
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तोश्का बंजारन है...उसे जमीन से नहीं सफ़र से प्यार है. नदियाँ भी प्यासी होती हैं न...वैसी है तोश्का...प्यास का सान्द्र रूप...नदी का सान्द्र रूप...वो हवा को चूम लेती है तो शहर के लोग दीवाने हो जाते हैं. तोश्का...समंदर किनारे चलती जाती है...उसकी घेरदार स्कर्ट भीगती है तो तोश्का का गीत समंदर की सीपियों में परत दर परत जमा होने लगता है. हथेलियों में एक अंजुरी भर पानी आसमान की ओर उछालती है तो दूर हिमालय के सीने में बसे शहरों में मीठे पानी की बरसातें होती हैं.

तोश्का...एक बरसातों के पहले उगने वाली लड़की है, जब आसमान बिलकुल सियाह हो जाता है तो इसी सीली गहरी उदासी से खुद को रचती है वो. उसकी आँखों में कितने सूरज डूब जाते हैं मगर वो ग्रहण के बाद के चाँद जितनी रौशनी भी नहीं मांगती है. उसकी पसंद का संगीत रचने के लिए इश्वर को वाद्ययंत्र उठाना पड़ता है...कभी पियानो, कभी गिटार कभी जलतरंग.

तोश्का को इश्क से प्यार हो गया है...मेरी कहानियों के इश्क से...थोड़ा जिद्दी, थोड़ा पागल...हद दर्जे का मनमौजी... बदतमीज...दुष्ट...मैंने तो उन्हें मिलाया भी नहीं था मगर किस्मत भी कोई शय है. अब मैं उस रोज़ से डरती हूँ जब इश्क मेरी प्यारी तोश्का का दिल तोड़ देगा और मुझे उसे सम्हालना होगा. मैं तोश्का को बता तो नहीं सकती न कि इस कमबख्त, नामुराद इश्क से मुझे भी प्यार हो रखा है और क्यूँ न होता...मैंने उसे अपने लिए ही तो रचा था...मगर वो एक नंबर का दिलफेंक आशिक निकला. मेरी लिखी सारी कहानियों में जबरन अपना रोल लिखवा लेता है.

बहरहाल, तोश्का मेरी जान...मेरी दुआएं तेरे साथ...और या खुदा...मेरे हिस्से की दुआएं लिखने के लिए किसी को अलॉट कर!


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Old 16-08-2013, 11:32 PM   #5
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Default Re: वो बंजारन

जय जी, सर्वप्रथम आपका आभार कि आपने एक सुन्दर कहानी हम पाठको के साथ शेयर की. भाषा और कथानक में नयापन है. लेकिन इसके परे कहीं कुछ है जो पाठक को कचोटता है, तकलीफ़ देता है.

कहानी की मुख्य पात्र (?) है तोश्का. सवाल उठता है कि तोश्का है कौन? कहानी में वर्णित दूसरी नारी पात्र, जो स्वयं एक कथा लेखिका है, की मानस पुत्री? या कथा लेखिका स्वयं किसी कल्पनालोक में तोश्का के रूप में अवतरित होती है. उसका विस्तार रूस के बंजारों के रंग रूप से शुरू होता है और जब वह समंदर के पानी से भरी अंजुरी ऊपर की ओर उछालती है तो हिमालय की गोद में बसे नगरों में मीठे पानी की बरसात होती है.
ईश्वर उसके लिए खुद कई संगीत वाद्य बजाने को तत्पर रहता है. यह कथा भी प्रेम का एक अनोखा अनुभव प्रस्तुत करती है जिसमें बहुत कुछ खोया-पाया जाता है लेकिन पारंपरिक रूप से मिलन का यहां अभाव है. उसके बावजूद (कहानी में गैरमौजूद) दिलफेंक नायक के प्रति प्रवंचना नहीं है.

कथाकार की शैली के बारे में सोचते हए मुझे कई बार अमृता प्रीतम की कहानियों का ध्यान आया. यह कथाकार की लेखकीय परिपक्वता का ही एक सबूत है.
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Old 17-08-2013, 07:15 PM   #6
jai_bhardwaj
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Originally Posted by rajnish manga View Post
जय जी, सर्वप्रथम आपका आभार कि आपने एक सुन्दर कहानी हम पाठको के साथ शेयर की. भाषा और कथानक में नयापन है. लेकिन इसके परे कहीं कुछ है जो पाठक को कचोटता है, तकलीफ़ देता है.

कहानी की मुख्य पात्र (?) है तोश्का. सवाल उठता है कि तोश्का है कौन? कहानी में वर्णित दूसरी नारी पात्र, जो स्वयं एक कथा लेखिका है, की मानस पुत्री? या कथा लेखिका स्वयं किसी कल्पनालोक में तोश्का के रूप में अवतरित होती है. उसका विस्तार रूस के बंजारों के रंग रूप से शुरू होता है और जब वह समंदर के पानी से भरी अंजुरी ऊपर की ओर उछालती है तो हिमालय की गोद में बसे नगरों में मीठे पानी की बरसात होती है.
ईश्वर उसके लिए खुद कई संगीत वाद्य बजाने को तत्पर रहता है. यह कथा भी प्रेम का एक अनोखा अनुभव प्रस्तुत करती है जिसमें बहुत कुछ खोया-पाया जाता है लेकिन पारंपरिक रूप से मिलन का यहां अभाव है. उसके बावजूद (कहानी में गैरमौजूद) दिलफेंक नायक के प्रति प्रवंचना नहीं है.

कथाकार की शैली के बारे में सोचते हए मुझे कई बार अमृता प्रीतम की कहानियों का ध्यान आया. यह कथाकार की लेखकीय परिपक्वता का ही एक सबूत है.
रजनीश बन्धु, एक और कथा-सूत्र पर आपका तर्कपूर्ण विश्लेषण प्राप्त कर न केवल हृदय हर्षित हुआ बल्कि नित नवीन सामग्री मंच में प्रदर्शित करने के लिए बाध्य भी हुआ। आपकी ऐसी प्रेरक प्रविष्टियों के आपको हृदय से आभार।
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