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19-04-2012, 01:29 PM | #1 |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
ये सवाल ऐसे हैं जो किसी भी राज्य के लिए सबसे जरूरी हैं. क्योंकि इसी की जमीन पर खड़े होकर किसी भी राज्य को विकास की धारा से जोड़ा जा सकता है. या कहें आम आदमी को अपने स्वतंत्र होने का एहसास होता है.
लेकिन जब सत्ता का मतलब ही संविधान हो जाये, तो फिर क्या-क्या हो सकता है, यह बंगाल की माली हालत को देख कर समझा जा सकता है. जहा संसदीय राजनीति के जरिये सत्ता बनाये रखने या सत्ता पलटने को ही लोकतंत्र मान लिया गया. और हर आम बंगाली का राजनीतिकरण सत्ता ने कर दिया. उसकी एवज में बीते तीन दशक में बंगाल पहुंचा कहां? यह आज खड़े होकर देखा जा सकता है. क्योंकि कभी साढ़े बारह लाख लोगो को रोजगार देने वाला जूट उद्योग ठप हो चुका है. जो दूसरे उद्योग लगे भी उनमें ज्यादातर बंद हो गये हैं. इसी वजह से 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की चहारदीवारी अभी भी है. यह जमीन दुबारा उघोगों को देने के बदले सत्ता से सटे दलालों के जरिये व्यावसायिक बाजार और रिहायशी इलाकों में तब्दील हो रही हैं. चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफिया और बिल्डरों की नजर इस जमीन पर है. और औसतन वाम सत्ता के दौर में अगर हर सौ कार्यकत्र्ता में से 23 कार्यकत्र्ता की कमाई जमीन थी. तो ममता के दौर में सिर्फआठ महीनों में हर सौ कार्यकर्ता में से 32 की कमाई जमीन हो चुकी है. बंगाल का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारीख में कोइ उद्योग नहीं है, जहां उत्पादन हो. हिंदुस्तान मोटर का उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था. हाल में उसे शुरू किया गया, लेकिन वहां मैनुफेक्चरिंग का काम खानापूर्ति जैसा ही है. डाबर की सबसे बडी इंडस्ट्री हुगली में थी. वहां ताला लग चुका है. एक वक्त था हैवी इलेक्तिट्रकल की इंडस्ट्री बंगाल में थी. फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था. वह भी बंद हो गया . कोलकाता शहर में ऊषा का कारखाना था, जहां लॉकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है. बंगाल की राजनीति ने नैनो के जरिये किसान की राजनीति को उभार कर यह संकेत तो दिये कि हाशिये पर उत्पादन को नहीं ले जाया जा सकता है, लेकिन जो रास्ता पकड़ा उसमें उदारवादी अर्थव्यवस्था के उन औजारों को ही अपनाया, जो उत्पादन नहीं सर्विस दें. क्योंकि सर्विस सेक्टर का मतलब है नगद फसल. |
22-04-2012, 05:45 PM | #2 |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
सत्ता का नशा सर चढ़ कर बोलता है....दोस्त. सत्ता के घोड़े पर सवार मुख्यमंत्री की नजर सच्चाई देखने के काबिल नहीं रहती है.
सत्ता की सीडियां बड़ी मुश्किल से चढ़ी गयी हैं...अब वो मुश्किल याद रखी होती तो इस तरह के तानाशाही फैसले नहीं होते...घृणा की राजनीति नहीं होती..
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