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Old 24-03-2015, 06:44 PM   #11
dipu
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

कबीर प्रीतडी तौ तुझ सौं, बहु गुणियाले कंत।
जे हँसि बोलौं और सौं, तौं नील रँगाउँ दंत॥1॥

नैना अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेउँ।
नाँ हौं देखौं और कूं, नाँ तुझ देखन देउँ॥2॥

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै है मेरा॥3॥

कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ।
नैनूं रमइया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ॥4॥

कबीर सीप समंद की, रटै पियास पियास।
संमदहि तिणका बरि गिणै स्वाँति बूँद की आस॥5॥

कबीर सुख कौ जाइ था, आगै आया दुख।
जाहि सुख घरि आपणै हम जाणैं अरु दुख॥6॥

दो जग तो हम अंगिया, यहु डर नाहीं मुझ।
भिस्त न मेरे चाहिये, बाझ पियारे तुझ॥7॥
टिप्पणी: ख-भिसति।

जे वो एकै न जाँणियाँ तो जाँण्याँ सब जाँण।
जो वो एक न जाँणियाँ, तो सबहीं जाँण अजाँण॥8॥

कबीर एक न जाँणियाँ, तो बहु जाँण्याँ क्या होइ।
एक तैं सब होत है, सब तैं एक न होइ॥9॥

जब लगि भगति सकांमता, तब लग निर्फल सेव।
कहै कबीर वै क्यूं मिलैं, निहकामी निज देव॥10॥

आसा एक जू राम की, दूजी आस निरास।
पाँणी माँहै घर करैं, ते भी मरै पियास॥11॥
टिप्पणी: इसके आगे ख में ये दोहे हैं-

आसा एक ज राम की, दूजी आस निवारी।
आसा फिरि फिर मारसी, ज्यूँ चौपड़ि का सारि॥11॥

आसा एक ज राम की जुग जुग पुरवे आस।
जै पाडल क्यों रे करै, बसैहिं जु चंदन पास॥12॥

जे मन लागै एक सूँ, तो निरबाल्या जाइ।
तूरा दुइ मुखि बाजणाँ न्याइ तमाचे खाइ॥12॥

कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुतज मीत।
जिन दिल बँधी एक सूँ, ते सुखु सोवै नचींत॥13॥

कबीर कुता राम का, मुतिया मेरा नाउँ।
गलै राम की जेवडी, जित खैचे तित जाउँ॥14॥

तो तो करै त बाहुड़ों, दुरि दुरि करै तो जाउँ।
ज्यूँ हरि राखैं त्यूँ रहौं, जो देवै सो खाउँ॥15॥

मन प्रतीति न प्रेम रस, नां इस तन मैं ढंग।
क्या जाणौं उस पीव सूं, कैसे रहसी रंग॥16॥

उस संम्रथ का दास हौं, कदे न होइ अकाज।
पतिब्रता नाँगी रहै, तो उसही पुरिस कौ लाज॥17॥

धरि परमेसुर पाँहुणाँ, सुणौं सनेही दास।
षट रस भोजन भगति करि, ज्यूँ कदे न छाड़ैपास॥18॥200॥
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Old 24-03-2015, 06:45 PM   #12
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

कबीर नौबति आपणी, दिन दस लेहु बजाइ।
ए पुर पटन ए गली, बहुरि न देखै आइ॥1॥

जिनके नौबति बाजती, मैंगल बँधते बारि।
एकै हरि के नाँव बिन, गए जन्म सब हारि॥2॥

ढोल दमामा दड़बड़ी, सहनाई संगि भेरि।
औसर चल्या बजाइ करि, है कोइ राखै फेरि॥3॥

सातो सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग।
ते मंदिर खाली पड़े, बैसण लागे काग॥4॥

कबीर थोड़ा जीवणा माड़े बहुत मँडाण।
सबही ऊभा मेल्हि गया, राव रंक सुलितान॥5॥

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूँ पड़ै बिछोइ।
राजा राणा छत्रापति, सावधान किन होइ॥6॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है-
ऊजड़ खेड़ै ठीकरी, घड़ि घड़ि गए कुँभार।
रावण सरीखे चलि गए, लंका के सिकदार॥7॥

कबीर पटल कारिवाँ, पंच चोर दस द्वार।
जन राँणौं गढ़ भेलिसी, सुमिरि लै करतार॥7॥
टिप्पणी: ख-जम...भेलसी, बोल गले गोपाल।

कबीर कहा गरबियौ, इस जीवन की आस।
टेसू फूले दिवस चारि, खंखर भये पलास॥8॥

कबीर कहा गरबियो, देही देखि सुरंग।
बिछड़ियाँ मिलिनौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग॥9॥

कबीर कहा गरिबियो, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि पर्*यूँ भ्वै लेटणाँ, ऊपरि जामैं घास॥10॥

कबीर कहा गरबियौ, चाँम लपेटे हड।
हैबर ऊपरि छत्रा सिरि, ते भी देबा खड॥11॥

कबीर कहा गरबियो, काल गहै कर केस।
नां जाँणों कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस॥12॥
टिप्पणी: ख-कत मारसी।

यहु ऐसा संसार है जैसा सैबल फूल।
दिन दस के व्योहार को, झूठै रंगि न भूल॥13॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-

मीति बिसारी बाबरे, अचिरज कीया कौन।
तन माटी में मिलि गया, ज्यूँ आटे मैं लूण॥15॥

जाँभण मरण बिचारि करि, कूडे काँम निहारि।
जिनि पंथू तुझ चालणां, सोई पंथ सँवारि॥14॥

बिन रखवाले बहिरा, चिड़ियैं खाया खेत।
आधा प्रधा ऊबरै, चेति कै तो चेति॥15॥

हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जलै ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥16॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-

मड़ा जलै लकड़ी जलै, जलै जलावणहार।
कौतिगहारे भी जलैं, कासनि करौ पुकार॥23॥

कबीर देवल हाड का, मारी तणा बधाँण।
खड हडता पाया नहीं, देवल का रहनाँण॥24॥


कबीर मंदिर ढहि पड़ा, सेंट भई सैबार।
कोई मंदिर चिणि गया, मिल्या न दूजी बार॥17॥
टिप्पणी: ख-देवल ढहि।
(16, 17)नंबर के दोहे ‘क’ प्रति में 22, 23 नंबर पर हैं।

आजि कि काल्हि कि पचे दिन, जंगल होइगा बास।
ऊपरि ऊपरि फिरहिंगे, ढोर चरंदे घास॥18॥

मरहिंगे मरि जाहिंगे, नांव न लेखा कोइ।
ऊजड़ जाइ बसाहिंगे, छाँड़ि बसंती लोइ॥19॥

कबीर खेति किसाण का, भ्रगौ खाया खाड़ि।
खेत बिचारा क्या करे, जो खसम न करई बाड़ि॥20॥

कबीर देवल ढहि पड़ा, ईंट भई सैवार।
करि चेजारा सौ प्रीतिड़ी, ज्यौं ढहै न दूजी बार॥18॥

कबीर मंदिर लाष का, जड़िया हीरै लालि।
दिवस चारि का पेषणां, विनस जाइगा काल्हि॥19॥

कबीर धूलि सकेलि करि, पुड़ी ज बाँधी एह।
दिवस चारि का पेषणाँ, अंति षेह का षेह॥20॥
टिप्पणी: ख-धूलि समेटि।

कबीर जे धंधै तौ धूलि, बिन धंधे धूलै नहीं।
ते नर बिनठे मूलि, जिनि धंधे मैं ध्याया नहीं॥21॥

कबीर सुपनै रैनि कै, ऊघड़ि आयै नैन।
जीव पड्या बहु लूटि मैं, जागै तो लैण न दैण॥22॥
टिप्पणी: ख- बहु भूलि मैं।

कबीर सुपनै रैनि के, पारस जीय मैं छेक।
जे सोऊँ तो दोइ जणाँ, जे जागूँ तो एक॥23॥
टिप्पणी: इसके आगे ख में यह दोहा है-

कबीर इहै चितावणी, जिन संसारी जाइ।
जे पहिली सुख भोगिया, तिन का गूड ले खाइ॥30॥

कबीर इस संसार में घणै मनिप मतिहींण।
राम नाम जाँणौं नहीं, आये टापी दीन॥24॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पीपल रूनों फूल बिन, फलबिन रूनी गाइ।
एकाँ एकाँ माणसाँ, टापा दीन्हा आइ॥32॥

कहा कियौ हम आइ करि, कहा करेंगे जाइ।
इत के भए न उत के, चाले मूल गँवाइ॥25॥

आया अणआया भया, जे बहुरता संसार।
पड़ा भुलाँवा गफिलाँ, गये कुबंधी हारि॥26॥

कबीर हरि की भगति बिन, धिगि जीमण संसार।
धूँवाँ केरा धौलहर जात न लागै वार॥27॥

जिहि हरि की चोरी करि, गये राम गुण भूलि।
ते बिंधना बागुल रचे, रहे अरध मुखि झूलि॥28॥

माटी मलणि कुँभार की, घड़ीं सहै सिरि लात।
इहि औसरि चेत्या नहीं, चूका अबकी घात॥29॥

इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूँ पाली देह।
राम नाम जाण्या नहीं, अति पड़ी मुख षेह्ड्ड30॥

राम नाम जाण्यो नहीं, लानी मोटी षोड़ि।
काया हाँडी काठ की, ना ऊ चढ़े बहोड़ि॥31॥

राम नाम जाण्या नहीं, बात बिनंठी मूलि।
हरत इहाँ ही हारिया, परति पड़ी मुख धूलि॥32॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-

राम नाम जाण्या नहीं, मेल्या मनहिं बिसारि।
ते नर हाली बादरी, सदा परा पराए बारि॥42॥

राम नाम जाण्या नहीं, ता मुखि आनहिं आन।
कै मूसा कै कातरा, खाता गया जनम॥43॥

राम नाम जाण्यो नहीं हूवा बहुत अकाज।
बूडा लौरे बापुड़ा बड़ा बूटा की लाज॥44॥

राम नाम जाँण्याँ नहीं, पल्यो कटक कुटुम्ब।
धंधा ही में मरि गया, बाहर हुई न बंब॥33॥

मनिषा जनम दुर्लभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थैं फल झड़ि पड़ा बहुरि न लागै डार॥34॥

कबीर हरि की भगति करि, तजि बिषिया रस चोज।
बारबार नहीं पाइए, मनिषा जन्म की मौज॥35॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पाणी ज्यौर तालाब का दह दिसी गया बिलाइ।
यह सब योंही जायगा, सकै तो ठाहर लाइ॥48॥

कबीर यहु तन जात है, सकै तो ठाहर लाइ।
कै सेवा करि साध की, कै गुण गोविंद के गाइ॥36॥
टिप्पणी: ख-के गोबिंद गुण गाइ।

कबीर यह तन जात है, सकै तो लेहु बहोड़ि।
नागे हाथूँ ते गए, जिनके लाख करोड़ि॥37॥
टिप्पणी: ख-नागे पाऊँ।

यह तनु काचा कुंभ है, चोट चहूँ दिसि खाइ।
एक राम के नाँव बिन, जदि तदि प्रलै जाइ॥38॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
यह तन काचा कुंभ है, मांहि कया ढिंग बास।
कबीर नैंण निहारियाँ, तो नहीं जीवन आस॥52॥

यह तन काचा कुंभ है, लिया फिरै था साथि।
ढबका लागा फुटि गया, कछू न आया हाथि॥39॥

काँची कारी जिनि करै, दिन दिन बधै बियाधि।
राम कबीरै रुचि भई, याही ओषदि साधि॥40॥

कबीर अपने जीवतै, ए दोइ बातैं धोइ।
लोग बड़ाई कारणै, अछता मूल न खोइ॥41॥

खंभा एक गइंद दोइ, क्यूँ करि बंधिसि बारि।
मानि करै तो पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि॥42॥

दीन गँवाया दुनी सौं, दुनी न चाली साथि।
पाइ कुहाड़ा मारिया, गाफिल अपणै हाथि॥43॥

यह तन तो सब बन भया, करम भए कुहाड़ि।
आप आप कूँ काटिहैं, कहैं कबीर विचारि॥44॥

कुल खोया कुल ऊबरै, कुल राख्यो कुल जाइ।
राम निकुल कुल भेंटि लैं, सब कुल रह्या समाइ॥45॥

दुनिया के धोखे मुवा, चलै जु कुल की काँण।
तबकुल किसका लाजसी, जब ले धर्*या मसाँणि॥46॥
टिप्पणी: ख-का कौ लाजसी।

दुनियाँ भाँडा दुख का भरी मुँहामुह भूष।
अदया अलह राम की, कुरलै ऊँणी कूष॥47॥
टिप्पणी: इसके आगे ख में यह दोहा है-
दुनियां के मैं कुछ नहीं, मेरे दुनी अकथ।
साहिब दरि देखौं खड़ा, सब दुनियां दोजग जंत॥61॥

जिहि जेबड़ी जग बंधिया, तूँ जिनि बँधै कबीर।
ह्नैसी आटा लूँण ज्यूँ, सोना सँवाँ शरीर॥48॥

कहत सुनत जग जात है, विषै न सूझै काल।
कबीर प्यालै प्रेम कै, भरि भरि पिवै रसाल॥49॥

कबीर हद के जीव सूँ, हित करि मुखाँ न बोलि
जे लागे बेहद सूँ, तिन सूँ अंतर खोलि॥50॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-

कबीर साषत की सभा, तू मत बैठे जाइ।
एकै बाड़ै क्यू बड़ै, रीझ गदहड़ा गाइ॥65॥

कबीर केवल राम की, तूँ जिनि छाड़ै ओट।
घण अहरणि बिचि लोह ज्यूँ, घड़ी सहे सिर चोट॥51॥

कबीर केवल राम कहि, सुध गरीबी झालि।
कूड़ बड़ाई बूड़सी, भारी पड़सी काल्हि॥52॥

काया मंजन क्या करै, कपड़ धोइम धोइ।
उजल हूवा न छूटिए, सुख नींदड़ी न सोह॥53॥

उजल कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाँहि।
एके हरि का नाँव बिन, बाँधे जमपुरि जाँहि॥54॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-

थली चरंतै म्रिघ लै, बीध्या एक ज सौंण।
हम तो पंथी पंथ सिरि, हर्*या चरैगा कौण॥74॥

तेरा संगी कोइ नहीं, सब स्वारथ बँधी लोइ।
मनि परतीति न ऊपजै, जीव बेसास न होइ॥55॥

मांइ बिड़ाणों बाप बिड़, हम भी मंझि बिड़ाह।
दरिया केरी नाव ज्यूँ, संजोगे मिलियाँह॥56॥

इत प्रधर उत घर बड़जण आए हाट।
करम किराणाँ बेचि करि, उठि ज लागे बाट॥57॥
टिप्पणी: ख एथि परिघरि उथि घरि, जोवण आए हाट।

नान्हाँ काती चित दे, महँगे मोलि बिकाइ।
गाहक राजा राम है और न नेड़ा आइ॥58॥

डागल उपरि दौड़णां, सुख नींदड़ी न सोइ।
पुनै पाए द्यौंहणे, ओछी ठौर न खोइ॥59॥
टिप्पणी: ख पुन पाया देहड़ी, बोछां ठौर न खाइ।
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
ज्यूँ कोली पेताँ बुणै, बुणतां आवै बोड़ि।
ऐसा लेख मीच का, कछु दौड़ि सके तो दौड़ि॥76॥


मैं मैं बड़ी बलाइ है, सके तो निकसी भाजि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई पलेटी आगि॥60॥

मैं मैं मेरी जिनि करै, मेरी मूल बिनास।
मेरी पग का पैषड़ा, मेरी गल की पास॥61॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-

मेरे तेर की जीवणी, बसि बंध्या संसार।
कहाँ सुकुँणबा सुत कलित, दाक्षणि बारंबार॥79॥

मेरे तेरे की रासड़ी, बलि बंध्या संसार।
दास कबीरा किमि बँधै, जाकैं राम अधार॥82॥

कबीर नांव जरजरी, भरी बिराणै भारि।
खेवट सौं परचा नहीं, क्यो करि उतरैं पारि॥83॥

कबीर नाव जरजरी, कूड़े खेवणहार।
हलके हलके तिरि गए, बूड़े तिनि सिर भार॥62॥262॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर पगड़ा दूरि है, जिनकै बिचिहै राति।
का जाणौं का होइगा, ऊगवै तैं परभाति॥84॥
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

कबीर नौबति आपणी, दिन दस लेहु बजाइ।
ए पुर पटन ए गली, बहुरि न देखै आइ॥1॥

जिनके नौबति बाजती, मैंगल बँधते बारि।
एकै हरि के नाँव बिन, गए जन्म सब हारि॥2॥

ढोल दमामा दड़बड़ी, सहनाई संगि भेरि।
औसर चल्या बजाइ करि, है कोइ राखै फेरि॥3॥

सातो सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग।
ते मंदिर खाली पड़े, बैसण लागे काग॥4॥

कबीर थोड़ा जीवणा माड़े बहुत मँडाण।
सबही ऊभा मेल्हि गया, राव रंक सुलितान॥5॥

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूँ पड़ै बिछोइ।
राजा राणा छत्रापति, सावधान किन होइ॥6॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है-
ऊजड़ खेड़ै ठीकरी, घड़ि घड़ि गए कुँभार।
रावण सरीखे चलि गए, लंका के सिकदार॥7॥

कबीर पटल कारिवाँ, पंच चोर दस द्वार।
जन राँणौं गढ़ भेलिसी, सुमिरि लै करतार॥7॥
टिप्पणी: ख-जम...भेलसी, बोल गले गोपाल।

कबीर कहा गरबियौ, इस जीवन की आस।
टेसू फूले दिवस चारि, खंखर भये पलास॥8॥

कबीर कहा गरबियो, देही देखि सुरंग।
बिछड़ियाँ मिलिनौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग॥9॥

कबीर कहा गरिबियो, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि पर्*यूँ भ्वै लेटणाँ, ऊपरि जामैं घास॥10॥

कबीर कहा गरबियौ, चाँम लपेटे हड।
हैबर ऊपरि छत्रा सिरि, ते भी देबा खड॥11॥

कबीर कहा गरबियो, काल गहै कर केस।
नां जाँणों कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस॥12॥
टिप्पणी: ख-कत मारसी।

यहु ऐसा संसार है जैसा सैबल फूल।
दिन दस के व्योहार को, झूठै रंगि न भूल॥13॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-

मीति बिसारी बाबरे, अचिरज कीया कौन।
तन माटी में मिलि गया, ज्यूँ आटे मैं लूण॥15॥

जाँभण मरण बिचारि करि, कूडे काँम निहारि।
जिनि पंथू तुझ चालणां, सोई पंथ सँवारि॥14॥

बिन रखवाले बहिरा, चिड़ियैं खाया खेत।
आधा प्रधा ऊबरै, चेति कै तो चेति॥15॥

हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जलै ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥16॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-

मड़ा जलै लकड़ी जलै, जलै जलावणहार।
कौतिगहारे भी जलैं, कासनि करौ पुकार॥23॥

कबीर देवल हाड का, मारी तणा बधाँण।
खड हडता पाया नहीं, देवल का रहनाँण॥24॥


कबीर मंदिर ढहि पड़ा, सेंट भई सैबार।
कोई मंदिर चिणि गया, मिल्या न दूजी बार॥17॥
टिप्पणी: ख-देवल ढहि।
(16, 17)नंबर के दोहे ‘क’ प्रति में 22, 23 नंबर पर हैं।

आजि कि काल्हि कि पचे दिन, जंगल होइगा बास।
ऊपरि ऊपरि फिरहिंगे, ढोर चरंदे घास॥18॥

मरहिंगे मरि जाहिंगे, नांव न लेखा कोइ।
ऊजड़ जाइ बसाहिंगे, छाँड़ि बसंती लोइ॥19॥

कबीर खेति किसाण का, भ्रगौ खाया खाड़ि।
खेत बिचारा क्या करे, जो खसम न करई बाड़ि॥20॥

कबीर देवल ढहि पड़ा, ईंट भई सैवार।
करि चेजारा सौ प्रीतिड़ी, ज्यौं ढहै न दूजी बार॥18॥

कबीर मंदिर लाष का, जड़िया हीरै लालि।
दिवस चारि का पेषणां, विनस जाइगा काल्हि॥19॥

कबीर धूलि सकेलि करि, पुड़ी ज बाँधी एह।
दिवस चारि का पेषणाँ, अंति षेह का षेह॥20॥
टिप्पणी: ख-धूलि समेटि।

कबीर जे धंधै तौ धूलि, बिन धंधे धूलै नहीं।
ते नर बिनठे मूलि, जिनि धंधे मैं ध्याया नहीं॥21॥

कबीर सुपनै रैनि कै, ऊघड़ि आयै नैन।
जीव पड्या बहु लूटि मैं, जागै तो लैण न दैण॥22॥
टिप्पणी: ख- बहु भूलि मैं।

कबीर सुपनै रैनि के, पारस जीय मैं छेक।
जे सोऊँ तो दोइ जणाँ, जे जागूँ तो एक॥23॥
टिप्पणी: इसके आगे ख में यह दोहा है-

कबीर इहै चितावणी, जिन संसारी जाइ।
जे पहिली सुख भोगिया, तिन का गूड ले खाइ॥30॥

कबीर इस संसार में घणै मनिप मतिहींण।
राम नाम जाँणौं नहीं, आये टापी दीन॥24॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पीपल रूनों फूल बिन, फलबिन रूनी गाइ।
एकाँ एकाँ माणसाँ, टापा दीन्हा आइ॥32॥

कहा कियौ हम आइ करि, कहा करेंगे जाइ।
इत के भए न उत के, चाले मूल गँवाइ॥25॥

आया अणआया भया, जे बहुरता संसार।
पड़ा भुलाँवा गफिलाँ, गये कुबंधी हारि॥26॥

कबीर हरि की भगति बिन, धिगि जीमण संसार।
धूँवाँ केरा धौलहर जात न लागै वार॥27॥

जिहि हरि की चोरी करि, गये राम गुण भूलि।
ते बिंधना बागुल रचे, रहे अरध मुखि झूलि॥28॥

माटी मलणि कुँभार की, घड़ीं सहै सिरि लात।
इहि औसरि चेत्या नहीं, चूका अबकी घात॥29॥

इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूँ पाली देह।
राम नाम जाण्या नहीं, अति पड़ी मुख षेह्ड्ड30॥

राम नाम जाण्यो नहीं, लानी मोटी षोड़ि।
काया हाँडी काठ की, ना ऊ चढ़े बहोड़ि॥31॥

राम नाम जाण्या नहीं, बात बिनंठी मूलि।
हरत इहाँ ही हारिया, परति पड़ी मुख धूलि॥32॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-

राम नाम जाण्या नहीं, मेल्या मनहिं बिसारि।
ते नर हाली बादरी, सदा परा पराए बारि॥42॥

राम नाम जाण्या नहीं, ता मुखि आनहिं आन।
कै मूसा कै कातरा, खाता गया जनम॥43॥

राम नाम जाण्यो नहीं हूवा बहुत अकाज।
बूडा लौरे बापुड़ा बड़ा बूटा की लाज॥44॥

राम नाम जाँण्याँ नहीं, पल्यो कटक कुटुम्ब।
धंधा ही में मरि गया, बाहर हुई न बंब॥33॥

मनिषा जनम दुर्लभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थैं फल झड़ि पड़ा बहुरि न लागै डार॥34॥

कबीर हरि की भगति करि, तजि बिषिया रस चोज।
बारबार नहीं पाइए, मनिषा जन्म की मौज॥35॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पाणी ज्यौर तालाब का दह दिसी गया बिलाइ।
यह सब योंही जायगा, सकै तो ठाहर लाइ॥48॥

कबीर यहु तन जात है, सकै तो ठाहर लाइ।
कै सेवा करि साध की, कै गुण गोविंद के गाइ॥36॥
टिप्पणी: ख-के गोबिंद गुण गाइ।

कबीर यह तन जात है, सकै तो लेहु बहोड़ि।
नागे हाथूँ ते गए, जिनके लाख करोड़ि॥37॥
टिप्पणी: ख-नागे पाऊँ।

यह तनु काचा कुंभ है, चोट चहूँ दिसि खाइ।
एक राम के नाँव बिन, जदि तदि प्रलै जाइ॥38॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
यह तन काचा कुंभ है, मांहि कया ढिंग बास।
कबीर नैंण निहारियाँ, तो नहीं जीवन आस॥52॥

यह तन काचा कुंभ है, लिया फिरै था साथि।
ढबका लागा फुटि गया, कछू न आया हाथि॥39॥

काँची कारी जिनि करै, दिन दिन बधै बियाधि।
राम कबीरै रुचि भई, याही ओषदि साधि॥40॥

कबीर अपने जीवतै, ए दोइ बातैं धोइ।
लोग बड़ाई कारणै, अछता मूल न खोइ॥41॥

खंभा एक गइंद दोइ, क्यूँ करि बंधिसि बारि।
मानि करै तो पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि॥42॥

दीन गँवाया दुनी सौं, दुनी न चाली साथि।
पाइ कुहाड़ा मारिया, गाफिल अपणै हाथि॥43॥

यह तन तो सब बन भया, करम भए कुहाड़ि।
आप आप कूँ काटिहैं, कहैं कबीर विचारि॥44॥

कुल खोया कुल ऊबरै, कुल राख्यो कुल जाइ।
राम निकुल कुल भेंटि लैं, सब कुल रह्या समाइ॥45॥

दुनिया के धोखे मुवा, चलै जु कुल की काँण।
तबकुल किसका लाजसी, जब ले धर्*या मसाँणि॥46॥
टिप्पणी: ख-का कौ लाजसी।

दुनियाँ भाँडा दुख का भरी मुँहामुह भूष।
अदया अलह राम की, कुरलै ऊँणी कूष॥47॥
टिप्पणी: इसके आगे ख में यह दोहा है-
दुनियां के मैं कुछ नहीं, मेरे दुनी अकथ।
साहिब दरि देखौं खड़ा, सब दुनियां दोजग जंत॥61॥

जिहि जेबड़ी जग बंधिया, तूँ जिनि बँधै कबीर।
ह्नैसी आटा लूँण ज्यूँ, सोना सँवाँ शरीर॥48॥

कहत सुनत जग जात है, विषै न सूझै काल।
कबीर प्यालै प्रेम कै, भरि भरि पिवै रसाल॥49॥

कबीर हद के जीव सूँ, हित करि मुखाँ न बोलि
जे लागे बेहद सूँ, तिन सूँ अंतर खोलि॥50॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-

कबीर साषत की सभा, तू मत बैठे जाइ।
एकै बाड़ै क्यू बड़ै, रीझ गदहड़ा गाइ॥65॥

कबीर केवल राम की, तूँ जिनि छाड़ै ओट।
घण अहरणि बिचि लोह ज्यूँ, घड़ी सहे सिर चोट॥51॥

कबीर केवल राम कहि, सुध गरीबी झालि।
कूड़ बड़ाई बूड़सी, भारी पड़सी काल्हि॥52॥

काया मंजन क्या करै, कपड़ धोइम धोइ।
उजल हूवा न छूटिए, सुख नींदड़ी न सोह॥53॥

उजल कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाँहि।
एके हरि का नाँव बिन, बाँधे जमपुरि जाँहि॥54॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-

थली चरंतै म्रिघ लै, बीध्या एक ज सौंण।
हम तो पंथी पंथ सिरि, हर्*या चरैगा कौण॥74॥

तेरा संगी कोइ नहीं, सब स्वारथ बँधी लोइ।
मनि परतीति न ऊपजै, जीव बेसास न होइ॥55॥

मांइ बिड़ाणों बाप बिड़, हम भी मंझि बिड़ाह।
दरिया केरी नाव ज्यूँ, संजोगे मिलियाँह॥56॥

इत प्रधर उत घर बड़जण आए हाट।
करम किराणाँ बेचि करि, उठि ज लागे बाट॥57॥
टिप्पणी: ख एथि परिघरि उथि घरि, जोवण आए हाट।

नान्हाँ काती चित दे, महँगे मोलि बिकाइ।
गाहक राजा राम है और न नेड़ा आइ॥58॥

डागल उपरि दौड़णां, सुख नींदड़ी न सोइ।
पुनै पाए द्यौंहणे, ओछी ठौर न खोइ॥59॥
टिप्पणी: ख पुन पाया देहड़ी, बोछां ठौर न खाइ।
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
ज्यूँ कोली पेताँ बुणै, बुणतां आवै बोड़ि।
ऐसा लेख मीच का, कछु दौड़ि सके तो दौड़ि॥76॥


मैं मैं बड़ी बलाइ है, सके तो निकसी भाजि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई पलेटी आगि॥60॥

मैं मैं मेरी जिनि करै, मेरी मूल बिनास।
मेरी पग का पैषड़ा, मेरी गल की पास॥61॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-

मेरे तेर की जीवणी, बसि बंध्या संसार।
कहाँ सुकुँणबा सुत कलित, दाक्षणि बारंबार॥79॥

मेरे तेरे की रासड़ी, बलि बंध्या संसार।
दास कबीरा किमि बँधै, जाकैं राम अधार॥82॥

कबीर नांव जरजरी, भरी बिराणै भारि।
खेवट सौं परचा नहीं, क्यो करि उतरैं पारि॥83॥

कबीर नाव जरजरी, कूड़े खेवणहार।
हलके हलके तिरि गए, बूड़े तिनि सिर भार॥62॥262॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर पगड़ा दूरि है, जिनकै बिचिहै राति।
का जाणौं का होइगा, ऊगवै तैं परभाति॥84॥
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Old 24-03-2015, 06:49 PM   #14
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

मन कै मते न चालिये, छाड़ि जीव की बाँणि।
ताकू केरे सूत ज्यूँ, उलटि अपूठा आँणि॥1॥
टिप्पणी: ख तेरा तार ज्यूँ।

चिंता चिति निबारिए, फिर बूझिए न कोइ।
इंद्री पसर मिटाइए, सहजि मिलैगा सोइ॥2॥
टिप्पणी: ख-परस निबारिए।

आसा का ईंधन करूँ, मनसा करुँ विभूति।
जोगी फेरी फिल करौं, यों बिनवाँ वै सूति॥3॥

कबीर सेरी साँकड़ी चंचल मनवाँ चोर।
गुण गावै लैलीन होइ, कछू एक मन मैं और॥4॥

कबीर मारूँ मन कूँ, टूक टूक ह्नै जाइ।
विष की क्यारी बोई करि, लुणत कहा पछिताइ॥5॥

इस मन कौ बिसमल करौं, दीठा करौं अदीठ।
जै सिर राखौं आपणां, तौ पर सिरिज अंगीठ॥6॥

मन जाणैं सब बात, जाणत ही औगुण करै।
काहे की कुसलात, कर दीपक कूँ बैं पड़ै॥7॥

हिरदा भीतरि आरसी, मुख देषणाँ न जाइ।
मुख तौ तौपरि देखिए, जे मन की दुविधा जाइ॥8॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर मन मृथा भगा, खेत बिराना खाइ।
सूलाँ करि करि से किसी जब खसम पहूँचे आइ॥9॥

मन को मन मिलता नहीं तौ होता तन का भंग।
अब ह्नै रहु काली कांवली, ज्यौं दूजा चढ़ै न रंग॥10॥

मन दीया मन पाइए, मन बिन मन नहीं होइ।
मन उनमन उस अंड ज्यूँ, खनल अकासाँ जोइ॥9॥

मन गोरख मन गोविंदो, मन हीं औघड़ होइ।
जे मन राखै जतन करि, तौ आपै करता सोइ॥10॥

एक ज दोसत हम किया, जिस गलि लाल कबाइ।
एक जग धोबी धोइ मरै, तौ भी रंग न जाइ॥11॥

पाँणी ही तैं पातला, धूवाँ ही तै झींण।
पवनाँ बेगि उतावला, सो दोसत कबीरै कीन्ह॥12॥

कबीर तुरी पलांड़ियाँ, चाबक लीया हाथि।
दिवस थकाँ साँई मिलौं, पीछे पड़िहै राति।॥13॥

मनवां तो अधर बस्या, बहुतक झीणां होइ।
आलोकत सचु पाइया, कबहूँ न न्यारा सोइ॥14॥

मन न मार्*या मन करि, सके न पंच प्रहारि।
सीला साच सरधा नहीं, इंद्री अजहुँ उद्यारि॥15॥

कबीर मन बिकरै पड़ा, गया स्वादि के साथ।
गलका खाया बरज्ताँ, अब क्यूँ आवै हाथि॥16॥

कबीर मन गाफिल भया, सुमिरण लागै नाहिं।
घणीं सहैगा सासनाँ, जम की दरगह माहिं॥17॥

कोटि कर्म पल मैं करै, यहु मन बिषिया स्वादि।
सतगुर सबद न मानई, जनम गँवाया बादि॥18॥

मैंमंता मन मारि रे, घटहीं माँहै घेरि।
जबहीं चालै पीठि दै, अंकुस दे दे फेरि॥19॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
जौ तन काँहै मन धरै, मन धरि निर्मल होइ।
साहिब सौ सनमुख रहै, तौ फिरि बालक होइ॥

मैंमंता मन मारि रे, नान्हाँ करि करि पीसि।
तब सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीसि॥20॥

कागद केरी नाँव री, पाँणी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग॥21॥

कबीर यह मन कत गया, जो मन होता काल्हि।
डूंगरि बूठा मेह ज्यूँ, गया निबाँणाँ चालि॥22॥

मृतक कूँ धी जौ नहीं, मेरा मन बी है।
बाजै बाव बिकार की, भी मूवा जीवै॥23॥

काटि कूटि मछली, छींकै धरी चहोड़ि।
कोइ एक अषिर मन बस्या, दह मैं पड़ी बहोड़ि॥24॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-

मूवा मन हम जीवत, देख्या जैसे मडिहट भूत।
मूवाँ पीछे उठि उठि लागै, ऐसा मेरा पूत॥47॥
मूवै कौंधी गौ नहीं, मन का किया बिनास।

कबीर मन पंषी भया, बहुतक चढ़ा अकास।
उहाँ ही तैं गिरि पड़ा, मन माया के पास॥25॥

भगति दुबारा सकड़ा राई दसवैं भाइ।
मन तौ मैंगल ह्नै रह्यो, क्यूँ करि सकै समाइ॥26॥

करता था तो क्यूँ रह्या, अब करि क्यूँ पछताइ।
बोवै पेड़ बबूल का, अब कहाँ तैं खाइ॥27॥

काया देवल मन धजा, विष्रै लहरि फरराइ।
मन चाल्याँ देवल चलै, ताका सर्बस जाइ॥28॥

मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ।
पाँणी मैं घीव गीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ॥29॥

काया कसूं कमाण ज्यूँ, पंचतत्त करि बांण।
मारौं तो मन मृग को, नहीं तो मिथ्या जाँण॥30॥292॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-

कबीर हरि दिवान कै, क्यूँकर पावै दादि।
पहली बुरा कमाइ करि, पीछे करै फिलादि॥35॥
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Old 24-03-2015, 06:51 PM   #15
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

कौंण देस कहाँ आइया, कहु क्यूँ जाँण्याँ जाइ।
उहू मार्ग पावै नहीं, भूलि पड़े इस माँहि॥1॥

उतीथैं कोइ न आवई, जाकूँ बूझौं धाइ।
इतथैं सबै पठाइये, भार लदाइ लदाइ॥2॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-

कबीर संसा जीव मैं, कोइ न कहै समुझाइ।
नाँनाँ बांणी बोलता, सो कत गया बिलाइ॥3॥

सबकूँ बूझत मैं फिरौं, रहण कहै नहीं कोइ।
प्रीति न जोड़ी राम सूँ, रहण कहाँ थैं होइ॥3॥

चलो चलौं सबको कहे, मोहि अँदेसा और।
साहिब सूँ पर्चा नहीं, ए जांहिगें किस ठौर॥4॥

जाइबे को जागा नहीं, रहिबे कौं नहीं ठौर।
कहै कबीरा संत हौ, अबिगति की गति और॥5॥

कबीरा मारिग कठिन है, कोइ न सकई जाइ।
गए ते बहुडे़ नहीं, कुसल कहै को आइ॥6॥

जन कबीर का सिषर घर, बाट सलैली सैल।
पाव न टिकै पपीलका, लोगनि लादे बैल॥7॥

जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राइ न ठहराइ।
मन पवन का गमि नहीं, तहाँ पहूँचे जाइ॥8॥

कबीर मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि।
तहाँ कबीरा चलि गया गहि सतगुर कीसाषि॥9॥

सुर न थाके मुनि जनां, जहाँ न कोई जाइ।
मोटे भाग कबीर के, तहाँ रहे घर छाइ॥10॥602॥
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Old 24-03-2015, 06:52 PM   #16
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

कबीर सूषिम सुरति का, जीव न जाँणै जाल।
कहै कबीरा दूरि करि, आतम अदिष्टि काल॥1॥

प्राण पंड को तजि चलै, मूवा कहै सब कोइ।
जीव छताँ जांमैं मरै, सूषिम लखै न कोइ॥2॥304॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे ये दोहे हैं-

कबीर अंतहकरन मन, करन मनोरथ माँहि।
उपजित उतपति जाँणिए, बिनसे जब बिसराँहि॥3॥

कबीर संसा दूरि करि, जाँमण मरन भरम।
पंच तत्त तत्तहि मिलै, सुनि समाना मन॥4॥
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Old 24-03-2015, 06:53 PM   #17
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

जग हठवाड़ा स्वाद ठग, माया बेसाँ लाइ।
रामचरण नीकाँ गही, जिनि जाइ जनम ठगाइ॥1॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर जिभ्या स्वाद ते, क्यूँ पल में ले काम।
अंगि अविद्या ऊपजै, जाइ हिरदा मैं राम॥2॥

कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठि हाटि।
सब जग तो फंधै पड़ा, गया कबीरा काटि॥2॥

कबीर माया पापणीं, लालै लाया लोंग।
पूरी कीनहूँ न भोगई, इनका इहै बिजोग॥3॥

कबीरा माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देईं राम॥4॥

जाँणी जे हरि को भजौ, मो मनि मोटी आस।
हरि बिचि घालै अंतरा, माया बड़ी बिसास॥5॥
टिप्पणी: ख-हरि क्यों मिलौं।

कबीर माया मोहनी, मोहे जाँण सुजाँण।
भागाँ ही छूटै नहीं, भरि भरि मारै बाँण॥6॥

कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खाँड़।
सतगुर की कृपा भई, नहीं तो करती भाँड़॥7॥

कबीर माया मोहनी, सब जग घाल्या घाँणि।
कोइ एक जन ऊबरै, जिनि तोड़ी कुल की काँणि॥8॥

कबीर माया मोहनी, माँगी मिलै न हाथि।
मनह उतारी झूठ करि, तब लागी डौलै साथि॥9॥

माया दासी संत की, ऊँभी देइ असीस।
बिलसी अरु लातौं छड़ी सुमरि सुमरि जगदीस॥10॥

माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर।
आसा त्रिस्नाँ ना मुई, यों कहि गया कबीर॥11॥
टिप्पणी: ख-यूँ कहै दास कबीर।

आसा जीवै जग मरै, लोग मरे मरि जाइ।
सोइ मूबे धन संचते, सो उबरे जे खाइ॥12॥
टिप्पणी: ख-सोई बूड़े जु धन संचते।

कबीर सो धन संचिए, जो आगै कूँ होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ॥13॥

त्रीया त्रिण्णाँ पापणी, तासूँ प्रीति न जोड़ि।
पैड़ी चढ़ि पाछाँ पड़े, लागै मोटी खोड़ि॥14॥

त्रिष्णाँ सींची नाँ बुझे, दिन दिन बढ़ती जाइ।
जबासा के रूप ज्यूँ, घण मेहाँ कुमिलाइ॥15॥

कबीर जग की को कहे, भौ जलि बूड़ै दास।
पारब्रह्म पति छाड़ि कर, करैं मानि की आस॥16॥

माया तजी तौ का भया, मानि तजी नहीं जाइ।
मानि बड़े गुनियर मिले, मानि सबनि की खाइ॥17॥

रामहिं थोड़ा जाँणि करि, दुनियाँ आगैं दीन।
जीवाँ कौ राजा कहै, माया के आधीन॥18॥

रज बीरज की कली, तापरि साज्या रूप।
राम नाम बिन बूड़ि है, कनक काँमणी कूप॥19॥

माया तरवर त्रिविध का, साखा दुख संताप।
सीतलता सुपिनै नहीं, फल फीको तनि ताप॥20॥

कबीर माया ढाकड़ी, सब किसही कौ खाइ।
दाँत उपाणौं पापड़ी, जे संतौं नेड़ी जाइ॥21॥

नलनी सायर घर किया, दौं लागी बहुतेणि।
जलही माँहै जलि मुई, पूरब जनम लिपेणि॥22॥

कबीर गुण की बादली, ती तरबानी छाँहिं।
बाहरि रहे ते ऊबरे, भीगें मंदिर माँहिं॥23॥

कबीर माया मोह की, भई अँधारी लोइ।
जे सूते ते मुसि लिये, रहे बसत कूँ रोइ॥24॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा हैं-

माया काल की खाँणि है, धरि त्रिगणी बपरौति।
जहाँ जाइ तहाँ सुख नहीं, यह माया की रीति॥

संकल ही तैं सब लहे, माया इहि संसार।
ते क्यूँ छूटे बापुड़े, बाँधे सिरजनहार॥25॥

बाड़ि चढ़ती बेलि ज्यूँ, उलझी, आसा फंध।
तूटै पणि छूटै नहीं, भई ज बाना बंध॥26॥

सब आसण आस तणाँ, त्रिबर्तिकै को नाहिं।
थिवरिति कै निबहै नहीं, परिवर्ति परपंच माँहि॥27॥

कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह।
जिहि घरि जिता बधावणाँ, तिहि घरि तिता अँदोह॥28॥

माया हमगौ यों कह्या, तू मति दे रे पूठि।
और हमारा हम बलू गया कबीरा रूठि॥29॥
टिप्पणी: माया मन की मोहनी, सुरनर रहे लुभाइ।
इहि माया जग खाइया माया कौं कोई न खाइ॥26॥
टिप्पणी: ख-गया कबीरा छूटि
ख-रूई लपेटी आगि।

बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़ा कलंक।
और पँखेरू पी गए, हंस न बोवै चंच॥30॥

कबीर माया जिनि मिलैं, सो बरियाँ दे बाँह।
नारद से मुनियर मिले, किसौ भरोसे त्याँह॥31॥

माया की झल जग जल्या, कनक काँमणीं लागि।
कहुँ धौं किहि विधि राखिये, रूई पलेटी आगि॥32॥346॥
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Old 24-03-2015, 06:56 PM   #18
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

जीव बिलव्या जीव सों, अलप न लखिया जाइ।
गोबिंद मिलै न झल बुझै, रही बुझाइ बुझाइ॥1॥

इही उदर के कारणै, जग जाँच्यो निस जाम।
स्वामी पणौ जु सिर चढ़ो, सर्*या न एको काम॥2॥

स्वामी हूँणाँ सोहरा, दोद्धा हूँणाँ दास।
गाडर आँणीं ऊन कूँ, बाँधी चरै कपास॥3॥

स्वामी हूवा सीतका, पैका कार पचास।
राम नाँम काँठै रह्या, करै सिषां की आस॥4॥

कबीर तष्टा टोकणीं, लीए फिरै सुभाइ।
रामनाम चीन्हें नहीं, पीतलि ही कै चाइ॥5॥

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी षटाइ।
राज दुबाराँ यौं फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥6॥

कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ।
दैहिं पईसा ब्याज कौं, लेखाँ करताँ जाइ॥7॥

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ॥8॥
टिप्पणी: ख-कबीर कलिजुग आइया।

चारिउ बेद पढ़ाइ करि, हरि सूँ न लाया हेत।
बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूँढ़ै खेत॥9॥
टिप्पणी: ख-चारि बेद पंडित पढ्या, हरि सों किया न हेत।

बाँम्हण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं।
उरझि पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेदाँ माहिं॥10॥
टिप्पणी:
ख- बाँम्हण गुरु जगत का, भर्म कर्म का पाइ।
उलझि पुलझि करि मरि गया, चारों बेंदा माँहि॥
ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
कलि का बाँम्हण मसकरा, ताहि न दीजै दान।
स्यौं कुँटउ नरकहि चलैं, साथ चल्या जजमान॥11॥

बाम्हण बूड़ा बापुड़ा, जेनेऊ कै जोरि।
लख चौरासी माँ गेलई, पारब्रह्म सों तोडि॥12॥

साषित सण का जेवणा, भीगाँ सूँ कठठाइ।
दोइ अषिर गुरु बाहिरा, बाँध्या जमपुरि जाइ॥11॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर साषत की सभा, तूँ जिनि बैसे जाइं।
एक दिबाड़ै क्यूँ बडै, रीझ गदेहड़ा गाइ॥14॥

साषत ते सूकर भला, सूचा राखे गाँव।
बूड़ा साषत बापुड़ा, बैसि समरणी नाँव॥15॥

साषत बाम्हण जिनि मिलैं, बैसनी मिलौ चंडाल।
अंक माल दे भेटिए, मानूँ मिले गोपाल॥16॥

पाड़ोसी सू रूसणाँ, तिल तिल सुख की हाँणि।
पंडित भए सरावगी, पाँणी पीवें छाँणि॥12॥

पंडित सेती कहि रह्या, भीतरि भेद्या नाहिं।
औरूँ कौ परमोधतां, गया मुहरकाँ माँहि॥13॥
टिप्पणी: ख-कबीर व्यास कहै, भीतरि भेदै नाहिं।

चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माँहि।
फिरि प्रमोधै आन कौ, आपण समझै नाहिं॥14॥

रासि पराई राषताँ, खाया घर का खेत।
औरौं कौ प्रमोधतां, मुख मैं पड़िया रेत॥15॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर कहै पोर कुँ, तूँ समझावै सब कोइ।
संसा पड़गा आपको, तौ और कहे का होइ॥21॥

तारा मंडल बैसि करि, चंद बड़ाई खाइ।
उदै भया जब सूर का, स्यूँ ताराँ छिपि जाइ॥16॥

देषण के सबको भले, जिसे सीत के कोट।
रवि के उदै न दीसहीं, बँधे न जल की पोट॥17॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
सुणत सुणावत दिन गए, उलझि न सुलझा मान।
कहै कबीर चेत्यौ नहीं, अजहुँ पहलौ दिन॥24॥

तीरथ करि करि जग मुवा, डूँधै पाँणी न्हाइ।
राँमहि राम जपंतड़ाँ, काल घसीट्याँ जाइ॥18॥

कासी काँठै घर करैं, पीवैं निर्मल नीर।
मुकति नहीं हरि नाँव बिन, यों कहें दास कबीर॥19॥

कबीर इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जु पकड़ै भेड़ की, उतर्*या चाहै पार॥20॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पद गायाँ मन हरषियाँ, साषी कह्यां आनंद।
सो तत नाँव न जाणियाँ, गल मैं पड़ि गया फंद॥

कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रंम॥21॥

मोर तोर की जेवड़ी, बलि बंध्या संसार।
काँ सिकडूँ बासुत कलित, दाझड़ बारंबार॥22॥68॥
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Old 24-03-2015, 06:56 PM   #19
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

जीव बिलव्या जीव सों, अलप न लखिया जाइ।
गोबिंद मिलै न झल बुझै, रही बुझाइ बुझाइ॥1॥

इही उदर के कारणै, जग जाँच्यो निस जाम।
स्वामी पणौ जु सिर चढ़ो, सर्*या न एको काम॥2॥

स्वामी हूँणाँ सोहरा, दोद्धा हूँणाँ दास।
गाडर आँणीं ऊन कूँ, बाँधी चरै कपास॥3॥

स्वामी हूवा सीतका, पैका कार पचास।
राम नाँम काँठै रह्या, करै सिषां की आस॥4॥

कबीर तष्टा टोकणीं, लीए फिरै सुभाइ।
रामनाम चीन्हें नहीं, पीतलि ही कै चाइ॥5॥

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी षटाइ।
राज दुबाराँ यौं फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥6॥

कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ।
दैहिं पईसा ब्याज कौं, लेखाँ करताँ जाइ॥7॥

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ॥8॥
टिप्पणी: ख-कबीर कलिजुग आइया।

चारिउ बेद पढ़ाइ करि, हरि सूँ न लाया हेत।
बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूँढ़ै खेत॥9॥
टिप्पणी: ख-चारि बेद पंडित पढ्या, हरि सों किया न हेत।

बाँम्हण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं।
उरझि पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेदाँ माहिं॥10॥
टिप्पणी:
ख- बाँम्हण गुरु जगत का, भर्म कर्म का पाइ।
उलझि पुलझि करि मरि गया, चारों बेंदा माँहि॥
ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
कलि का बाँम्हण मसकरा, ताहि न दीजै दान।
स्यौं कुँटउ नरकहि चलैं, साथ चल्या जजमान॥11॥

बाम्हण बूड़ा बापुड़ा, जेनेऊ कै जोरि।
लख चौरासी माँ गेलई, पारब्रह्म सों तोडि॥12॥

साषित सण का जेवणा, भीगाँ सूँ कठठाइ।
दोइ अषिर गुरु बाहिरा, बाँध्या जमपुरि जाइ॥11॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर साषत की सभा, तूँ जिनि बैसे जाइं।
एक दिबाड़ै क्यूँ बडै, रीझ गदेहड़ा गाइ॥14॥

साषत ते सूकर भला, सूचा राखे गाँव।
बूड़ा साषत बापुड़ा, बैसि समरणी नाँव॥15॥

साषत बाम्हण जिनि मिलैं, बैसनी मिलौ चंडाल।
अंक माल दे भेटिए, मानूँ मिले गोपाल॥16॥

पाड़ोसी सू रूसणाँ, तिल तिल सुख की हाँणि।
पंडित भए सरावगी, पाँणी पीवें छाँणि॥12॥

पंडित सेती कहि रह्या, भीतरि भेद्या नाहिं।
औरूँ कौ परमोधतां, गया मुहरकाँ माँहि॥13॥
टिप्पणी: ख-कबीर व्यास कहै, भीतरि भेदै नाहिं।

चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माँहि।
फिरि प्रमोधै आन कौ, आपण समझै नाहिं॥14॥

रासि पराई राषताँ, खाया घर का खेत।
औरौं कौ प्रमोधतां, मुख मैं पड़िया रेत॥15॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर कहै पोर कुँ, तूँ समझावै सब कोइ।
संसा पड़गा आपको, तौ और कहे का होइ॥21॥

तारा मंडल बैसि करि, चंद बड़ाई खाइ।
उदै भया जब सूर का, स्यूँ ताराँ छिपि जाइ॥16॥

देषण के सबको भले, जिसे सीत के कोट।
रवि के उदै न दीसहीं, बँधे न जल की पोट॥17॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
सुणत सुणावत दिन गए, उलझि न सुलझा मान।
कहै कबीर चेत्यौ नहीं, अजहुँ पहलौ दिन॥24॥

तीरथ करि करि जग मुवा, डूँधै पाँणी न्हाइ।
राँमहि राम जपंतड़ाँ, काल घसीट्याँ जाइ॥18॥

कासी काँठै घर करैं, पीवैं निर्मल नीर।
मुकति नहीं हरि नाँव बिन, यों कहें दास कबीर॥19॥

कबीर इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जु पकड़ै भेड़ की, उतर्*या चाहै पार॥20॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पद गायाँ मन हरषियाँ, साषी कह्यां आनंद।
सो तत नाँव न जाणियाँ, गल मैं पड़ि गया फंद॥

कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रंम॥21॥

मोर तोर की जेवड़ी, बलि बंध्या संसार।
काँ सिकडूँ बासुत कलित, दाझड़ बारंबार॥22॥68॥
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Default Re: गुरुदेव कौ अंग

मैं जान्यूँ पढ़िबौ भलो, पढ़िवा थें भलो जोग।
राँम नाँम सूँ प्रीति करि, भल भल नींदी लोग॥1॥

कबिरा पढ़िबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ।
बांवन अषिर सोधि करि, ररै ममैं चित लाइ॥2॥

कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥3॥

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥4॥337॥
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