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Old 30-01-2011, 04:51 AM   #21
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Old 30-01-2011, 04:57 AM   #22
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मुगल ध्वज
प्रशासन

सन्* १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई। सन्* १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन्* १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया।

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Old 30-01-2011, 05:03 AM   #23
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तत्कालीन चाँदी की मुद्रा

मुद्रा

अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले।

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Old 30-01-2011, 05:07 AM   #24
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राजधानी स्थानांतरण

पानीपत का तृतीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। इसके बाद उसने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में और खानदेश(वर्तमान बुढ़हानपुर, महाराष्ट्र का भाग) को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में प्रशासन संभालने हेतु एक-एक राज्यपाल नियुक्त किया। उसे राज संभालने के लिये दिल्ली कई स्थानों से दूर लगा और ये प्रतीत हुआ कि इससे प्रशासन में समस्या आ सकती है, अतः उसने निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को आगरा के निकट फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के लगभग मध्य में थी। एक पुराने बसे ग्राम सीकरी पर अकबर ने नया शहर बनवाया जिसे अपनी जीत यानि फतह की खुशी में फतेहाबाद या फतेहपुर नाम दिया गया। जल्दी ही इसे पूरे वर्तमान नाम फतेहपुर सीकरी से बुलाया जाने लगा। यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं, और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं।

किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अंत तक यहीं से शासन संभाला।

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Old 30-01-2011, 05:23 AM   #25
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अमर सिंह द्वार, आगरा का किलाआगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण वयवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चहारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं। ये दोनों द्वार अपने धनुषाकार मेहराब-रूपी आलों व बुर्जों तथा लाल व सफ़ेद संगमर्मर पर नीली ग्लेज़्ड टाइलों द्वारा अलंकरण से ही पहचाने जाते हैं। वर्तमान किला अकबर के पौत्र शाहजहां द्वारा बनवाया हुआ है। इसमें दक्षिणी ओर जहांगीरी महल और अकबर महल हैं।
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Old 03-02-2011, 02:45 AM   #26
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नीतियां


टिप्पणी: इस शीर्षक में आगे लिखी गई कोई भी बात कोई व्यक्तिगत टिप्पणी या विवाद करने के लिए नहीं है| सभी बातें उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों और इतिहासकारों के मत एवं शौध पर आधारित हैं| अतः इसके बारे में कोई बहस ना करें| यदि किसी को कोई आपत्ति हो तो सीधे मुझसे अथवा नियामकों से संपर्क करें|

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Old 03-02-2011, 02:52 AM   #27
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विवाह संबंध

आंबेर के कछवाहा राजपूत राज भारमल ने अकबर के दरबार में अपने राज्य संभालने के कुछ समय बाद ही प्रवेश पाया था। इन्होंने अपनी राजकुमारी हरखा बाई का विवाह अकबर से करवाना स्वीकार किया। जोधाबाई की मृत्यु १६२३ में हुई थी। उसके पुत्र जहांगीर द्वारा उसके सम्मान में लाहौर में एक मस्जिद बनवायी गई थी। भारमल को अकबर के दरबार में ऊंचा स्थान मिला था, और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र मानसिंह भी दरबार के ऊंचे सामंत बने रहे।

हिन्दू राजकुमारियों को मुस्लिम राजाओं से विवाह में संबंध बनाने के प्रकरण अकबर के समय से पूर्व काफी हुए थे, किन्तु अधिकांश विवाहों के बाद दोनों परिवारों के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे, और न ही राजकुमारियां कभी वापस लौट कर घर आयीं। हालांकि अकबर ने इस मामले को पिछले प्रकरणों से अलग रूप दिया, जहां उन रानियों के भाइयों या पिताओं को पुत्रियों या बहनों के विवाहोपरांत अकबर के मुस्लिम ससुराल वालों जैसा ही सम्मान मिला करता था, सिवाय उनके संग खाना खाने और प्रार्थना करने के। उन राजपूतों को अकबर के दरबार में अच्छे स्थान मिले थे। सभी ने उन्हें वैसे ही अपनाया था सिवाय कुछ रूढ़िवादी परिवारों को छोड़कर, जिन्होंने इसे अपमान के रूप में देखा था।
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अन्य राजपूत रजवाड़ों ने भी अकबर के संग वैवाहिक संबंध बनाये थे, किन्तु विवाह संबंध बनाने की कोई शर्त नहीं थी। दो प्रमुख राजपूत वंश, मेवाढ़ के शिशोदिया और रणथंभोर के हाढ़ा वंश इन संबंधों से सदा ही हटते रहे। अकबर के एक प्रसिद्ध दरबारी राजा मानसिंह ने अकबर की ओर से एक हाढ़ा राजा सुर्जन हाढ़ा के पास एक संबंध प्रस्ताव भी लेकर गये, जिसे सुर्जन सिंह ने इस शर्त पर स्वीकार्य किया कि वे अपनी किसी पुत्री का विवाह अकबर के संग नहीं करेंगे। अन्ततः कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुए किन्तु सुर्जन को गढ़-कटंग का अधिभार सौंप कर सम्मानित किया गया। अन्य कई राजपूत सामंतों को भी अपने राजाओं का पुत्रियों को मुगलों को विवाह के नाम पर देना अच्छा नहीं लगता था। गढ़ सिवान के राठौर कल्याणदास ने मोटा राजा राव उदयसिंह और जहांगीर को मारने की धमकी भी दी थी, क्योंकि उदयसिंह ने अपनी पुत्री जोधाबाई का विवाह अकबर के पुत्र जहांगीर से करने का निश्चय किया था। अकबर ने ये ज्ञान होने पर शाही फौजों को कल्याणदास पर आक्रमण हेतु भेज दिया। कल्याणदास उस सेना के संग युद्ध में काम आया और उसकी स्त्रियों ने जौहर कर लिया।

इन संबंधों का राजनैतिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण था। हालांकि कुछ राजपूत स्त्रियों ने अकबर के हरम में प्रवेश लेने पर इस्लाम स्वीकार किया, फिर भी उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी, साथ ही उनके सगे-संबंधियों को जो हिन्दू ही थे; दरबार में उच्च-स्थान भी मिले थे। इनके द्वारा जनसाधारण की ध्वनि अकबर के दरबार तक पहुंचा करती थी। दरबार के हिन्दु और मुस्लिम दरबारियों के बीच संपर्क बढ़ने से आपसी विचारों का आदान-प्रदान हुआ और दोनों धर्मों में संभाव की प्रगति हुई। इससे अगली पीढ़ी में दोनों रक्तों का संगम था जिसने दोनों संप्रदायों के बीच सौहार्द को भी बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप राजपूत मुगलों के सर्वाधिक शक्तिशाली सहायक बने, राजपूत सैन्याधिकारियों ने मुगल सेना में रहकर अनेक युद्ध किये तथा जीते। इनमें गुजरात का १५७२ का अभियान भी था। अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने शाही प्रशासन में सभी के लिये नौकरियों और रोजगार के अवसर खोल दिये थे। इसके कारण प्रशासन और भी दृढ़ होता चला गया।
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कामुकता

तत्कालीन समाज में वेश्यावृति को सम्राट का संरक्षण प्रदान था। उसकी एक बहुत बड़ी हरम थी जिसमे बहुत ही स्त्रियाँ थीं। इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक अपहृत करवा कर वहां रखा हुआ था। उस समय में सती प्रथा भी जोरों पर थी। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुन्दर स्त्री को सती होते देखते थे, बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते व उसे सम्राट की आज्ञा बताते तथा उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था। हालांकि इस प्रकरण को दरबारी इतिहासकारों ने कुछ इस ढंग से कहा है कि इस प्रकार बादशाह सलामत ने सती प्रथा का विरोध किया व उन अबला स्त्रियों को संरक्षण दिया। अपनी जीवनी में अकबर ने स्वयं लिखा है– यदि मुझे पहले ही यह बुधिमत्ता जागृत हो जाती तो मैं अपनी सल्तनत की किसी भी स्त्री का अपहरण कर अपने हरम में नहीं लाता। इस बात से यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि वह सुन्दरियों का अपहरण करवाता था। इसके अलावा अपहरण न करवाने वाली बात की निरर्थकता भी इस तथ्य से ज्ञात होती है कि न तो अकबर के समय में और न ही उसके उतराधिकारियो के समय में हरम बंद हुई थी।


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आईने अकबरी के अनुसार अब्दुल कादिर बदायूंनी कहते हैं कि बेगमें, कुलीन, दरबारियो की पत्नियां अथवा अन्य स्त्रियां जब कभी बादशाह की सेवा में पेश होने की इच्छा करती हैं तो उन्हें पहले अपने इच्छा की सूचना देकर उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती है; जिन्हें यदि योग्य समझा जाता है तो हरम में प्रवेश की अनुमति दी जाती है। अकबर अपनी प्रजा को बाध्य किया करता था की वह अपने घर की स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन सामूहिक रूप से आयोजित करे जिसे अकबर ने खुदारोज (प्रमोद दिवस) नाम दिया हुआ था। इस उत्सव के पीछे अकबर का एकमात्र उदेश्य सुन्दरियों को अपने हरम के लिए चुनना था। कहते हैं कि स्वयं अपने अभिभावक एवं संरक्षक बैरम खां की बीबी सलीमा सुल्तान बेगम पर १५ वर्षीय अकबर की कामुक दृष्टि थी। इतनी कम आयु में भी उसने बैरम खां की पत्नी को हरम में लेने के लिए एक सर्वोच्च राजभक्त कर्मचारी के समस्त अधिकार छीनकर उसकी हत्या करवा दी और तुरंत बाद उसकी बीबी सलीमा सुल्तान, जो उसके ६ वर्षीय पुत्र अब्दुल रहीम की माँ थी, को अपने हरम में ले लिया। गोंडवाना की रानी दुर्गावती पर भी अकबर की कुदृष्टि थी। उसने रानी को प्राप्त करने के लिए उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के दौरान वीरांगना ने अनुभव किया कि उसे मारने की नहीं वरन बंदी बनाने का प्रयास किया जा रहा है, तो उसने वहीं आत्महत्या कर ली। तब अकबर ने उसकी बहन और पुत्रबधू को बलपूर्वक अपने हरम में डाल दिया। अकबर ने यह प्रथा भी चलाई थी कि उसके पराजित शत्रु अपने परिवार एवं परिचारिका वर्ग में से चुनी हुई महिलायें उसके हरम में भेजे।
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अकबर, मुगल साम्राज्य, akbar


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