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Old 08-12-2010, 12:58 PM   #1
Sikandar_Khan
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Default !!मेरी प्रिय कविताएँ !!

मै पिंजर का तोता
उड़ता था मै नील गगन में
अपने पंख पसारे
मधुर गीत मै गाता था
अपने प्रीतम के द्वारे
जाने कौन घडी में किसने
कैसा जाल बिछाया
पल भर में न देर लगी
खुदको पिंजर में पाया
अब ...........मै पिंजर का तोता
लोग देखकर मुझको कहते
कितना प्यारा गाता है
सोने के पिंजर में देखो
सारे सुख पाता है
पथिक मगर तुम अपने अंतर के
अंतरपट को खोलो
मेरे इन मधु गीतों को
तुम विरह बात से तोलो
क्यूंकि .......मै पिंजर का तोता .
सोने के यह दर दरवाजे
मेरे खातिर धेला है
शान-ओ-शौकत, रिश्ते नाते
मेरे खातिर मेला है
"अंजना" कब कौन मुसाफिर
मुझको ले जायेगा
न जाने कब पिंजर तोता नील गगन पायेगा
अब तो हूँ.........मै पिंजर का तोता
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 08-12-2010, 01:02 PM   #2
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’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’

चिर अतीत में ’आज’ समाया,
उस दिन का सब साज समाया,
किंतु प्रतिक्षण गूँज रहे हैं नभ में वे कुछ शब्द तुम्हारे!
’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’

लहरों में मचला यौवन था,
तुम थीं, मैं था, जग निर्जन था,
सागर में हम कूद पड़े थे भूल जगत के कूल किनारे!
’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’

साँसों में अटका जीवन है,
जीवन में एकाकीपन है,
’सागर की बस याद दिलाते नयनों में दो जल-कण खारे!’
’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’


हरिवंशराय बच्चन
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Old 08-12-2010, 01:05 PM   #3
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अच्छी किताब

एक अच्छी किताब अन्धेरी रात में
नदी के उस पार किसी दहलीज़ पर
टिमटिमाते दीपक की ज्योति है
दिल के उदास काग़ज़ पर
भावनाओं का झिलमिलाता मोती है
जहाँ लफ़्ज़ों में चाहत के सुर बजते है

ये वो साज़ है
इसे तनहाइयों में पढ़ो
ये खामोशी की आवाज़ है
एक बेहतर किताब हमारे जज़्बात में

उम्मीद की तरह घुलकर
कभी हँसाती, कभी रुलाती है
रिश्तों के मेलों में बरसों पहले बिछड़े
मासूम बचपन से मिलाती है
एक संजीदा किताब
हमारे सब्र को आज़माती है

किताब को ग़ौर से पढ़ो
इसके हर पन्ने पर
ज़िन्दगी मुस्कराती है

देवमणि पांडेय
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Old 08-12-2010, 01:07 PM   #4
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अजनबी

अजनबी रास्तों पर
पैदल चलें
कुछ न कहें

अपनी-अपनी तन्हाइयाँ लिए
सवालों के दायरों से निकलकर
रिवाज़ों की सरहदों के परे
हम यूँ ही साथ चलते रहें
कुछ न कहें
चलो दूर तक

तुम अपने माजी का
कोई ज़िक्र न छेड़ो
मैं भूली हुई
कोई नज़्म न दोहराऊँ
तुम कौन हो
मैं क्या हूँ
इन सब बातों को
बस, रहने दें

चलो दूर तक
अजनबी रास्तों पर पैदल चलें।


दीप्ति नवल (Actress)
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Old 08-12-2010, 01:10 PM   #5
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जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|

यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |


~dushyant kumar
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Old 08-12-2010, 01:12 PM   #6
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आँखों की ख़ुशबू

आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है
दिल को बहलावा नहीं दर्द दिया जाता है
दर्द जो है इश्क़ में वह ही ख़ुदा है सबका
दर्द के पहलू में यार को सजदा किया जाता है

आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है…

तुम याद आ रहे हो और तन्हाई के सन्नाटे हैं
किन-किन दर्दों के बीच ये लम्हे काटे हैं
अब साँसें बिखरी हुई उधड़ी हुई रहती हैं
हमने साँसों के धागे रफ़्ता-रफ़्ता यादों में बाटे हैं

आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है…

इस जनम में हम मिले हैं क्योंकि हमें मिलना है
तुम्हारे प्यार का फूल मेरे दिल में खिलना है
दूरियाँ तेरे-मेरे बीच कुछ ज़रूर हैं सनम
मगर यह फ़ासला भी एक रोज़ ज़रूर मिटना है

आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है…


विनय प्रजापति 'नज़र'
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अधर मधु किसने किया सृजन?

अधर मधु किसने किया सृजन?
तरल गरल!
रची क्यों नारी चिर निरुपम?
रूप अनल!

अगर इनसे रहना वंचित
यही विधान,
दिए विधि ने तप संयम हित
न क्यों दृढ़ प्राण ?


सुमित्रानंदन पंत
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अधूरा मकान

उस रास्ते से गुज़रते हुए
अक्सर दिखाई दे जाता था
वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान

वह अधूरा था
और बिरादरी से अलग कर दिए आदमी
की तरह दिखता था

उस पर छत नहीं डाली गई थी
कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे
वह हारे हुए जुआड़ी की तरह खड़ा था
उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाईं थी

हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की
गूँज होती है
कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा
कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बांझ

उस अधूरे बने पड़े मकान में
एक सपने के पूरा होते -होते
उसके धूल में मिल जाने की आह थी
अभाव का रुदन था
उसके खालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का
मर्सिया था

एक ऐसी ज़मीन जिसे आंगन बनना था
जिसमें धूप आनी थी
जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आये
कपड़ों को सूखना था
सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से
गौरवान्वित होना था

अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी
डरा देता है
उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर
उस रास्ते से गुज़रती हूँ
पर जानती हूँ
अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता
अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों
और छोटी-छोटी ख्वाहिशों के बिखरने का
इतिहास दफ़्न होता है ।


संध्या गुप्ता
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Old 08-12-2010, 02:12 PM   #9
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प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।

मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।


रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,
आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।


वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,
वह सुधा के स्वाद से जा*ए छला क्या,
जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।


मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,
पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।

हरिवंशराय बच्चन
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Old 08-12-2010, 02:13 PM   #10
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आज फिर से
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,

रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,

आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

मैं तपोमय ज्योती की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,

स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,

किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

हरिवंशराय बच्चन
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