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Old 19-10-2013, 03:07 PM   #1
rajnish manga
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Default रावण और दस तलवारें

रावण और दस तलवारें


प्रत्येक वर्ष की भांति दशहरे का त्यौहार आ कर चला गया. सब लोग विशेष रूप से रावण के जलने का इंतजार करते हैं. सभी मर्यादा पुरुषोतम श्री रामचन्द्र जी महाराज को याद करते हैं कि किस प्रकार उन्होंने राक्षस रावण का वध कर धरती को पापियों से मुक्त किया था. आज उनके उस पवित्र तप की स्मृति में रावण के पुतले का दहन किया जाता हैं ताकि जनमानस को प्रेरणा मिल सके कि बुराई पर किस प्रकार अच्छाई की जीत होती हैं.

एक प्रश्न मेरे मन में सदा आता हैं की क्या आज भी समाज में रावण फिर से जीवित हो उठा हैं? उत्तर हैं हाँ. रावण न केवल आज फिर से जीवित हो उठा हैं अपितु पहले से भी शक्तिशाली हो उठा हैं. वह रावण कौन हैं और कहाँ रहता हैं?

उत्तर हैं वह रावण हैं हमारी आतंरिक बुराइयाँ जो हमारे भीतर ही हैं और हमें दिन प्रतिदिन धर्म मार्ग से विचलित करती हैं.उसके दस सिर हैं जिन पर यम-नियम रुपी दस तलवारों से विजय प्राप्त करी जा सकती हैं.अब पाठकगण सोच रहे होगे की यह दस तलवारे कौन सी हैं और उनसे किन बुराइयों पर विजय प्राप्त की जा सकती हैं.

इस आंतरिक रावण से लड़ने की दस तलवारे हैंयम और नियम. यम पांच हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह . नियम भी पांच हैं शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान.यम-नियम के पालन करने से हम अपनी आंतरिक बुराईयों को जो की रावण के दस सिर के समान हैं का सामना कर सकते हैं.
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Old 19-10-2013, 03:10 PM   #2
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1. अहिंसा

सर्वदा सभी प्राणियों के साथ वैरभाव को छोड़कर प्रीति से बरतना अहिंसा हैं. सभी प्राणियों में मनुष्य के साथ साथ पशु आदि भी आते हैं. जहाँ अपनी जिह्वा के स्वाद अथवा उदर की भूख की पूर्ति के लिए निरीह प्राणियों की हत्या करना निश्चित रूप से हिंसा हैं वहीँ विचार मात्र से किसी व्यक्ति विशेष की हानी करने की इच्छा करना भी हिंसा हैं. यदि किसी व्यक्ति को चोरी आदि करने पर उसके सुधार के लिए दंड दिया जाये तो वह कर्म अहिंसा कहलाता हैं, हिंसा नहीं कहलाता हैं क्यूंकि वह कर्म प्राणिमात्र के उद्धार के लिए किया जा रहा हैं.इसी प्रकार किसी आदमखोर जानवर को मारना भी हिंसा नहीं कहलाता क्यूंकि वह जन कल्याण के लिए हैं. आज धर्म के नाम पर विश्व भर में दंगे फसाद, लूट, बलात्कार क़त्ल आदि सुनने को मिलते हैं. हर कोई अपने अपने मजहब, अपने अपने मत,अपनी अपनी विचारधारा,अपने अपने गुरु को श्रेष्ठ और दूसरे को नीचा समझने लगा हैं जिसके कारण चारों तरफ असुरक्षा. अविश्वास और डर का माहोल बन गया हैं. अगर मनुष्य अहिंसा के इस पाठ को समझ जाये तो और सभी के साथ प्रीतिपूर्वक बरतने लगे तो इस हिंसा रुपी रावण का नाश किया जा सकता हैं.

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Old 19-10-2013, 03:11 PM   #3
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2. सत्य

जैसा देखा हो, अनुमान से जाना हो और सुना हो, वैसा ही मन और वाणी में होना सत्य हैं अर्थात जो पथार्थ जैसा हैं, उसको वैसा ही जानना, मानना, बोलना और शरीर से उसको आचरण में लाना सत्य हैं. सत्य को परीक्षा पूर्वक जानना और उसका सर्व हितार्थ बोलना और आचरण में लाना सत्य हैं. वस्तु के स्वरुप के विपरीत जानना, मानना, बोलना, आचरण में लाना असत्य हैं. परन्तु हित के नाम से सत्य के स्थान में असत्य का आचरण करना सत्य नहीं हैं.इतिहास इस बात का गवाह हैं की जो भी व्यक्ति सत्य बोलते हैं वे विश्व में श्रेष्ठ कहलाया हैं जबकि जो भीव्यक्ति असत्य के मार्ग पर चलते हैं वे अप्रसिद्धि का पात्र बने हैं.आज मनुष्य मनुष्य पर विश्वास नहीं करता क्यूंकि असत्य वचन के कारण विश्वास के स्थान पर कुटिलता ही कुटिलता दिखती हैं. एक दूसरे से घृणा का कारण भी यहीं असत्य वचन हैं. सत्य बोलने से व्यक्ति न केवल निडर, शक्तिशाली और दृढ बनता हैं अपितु सभी के द्वारा सम्मान का पात्र भी बनता हैं जबकि असत्य वचन करने वाला क्षणिक सफलता और तात्कालिक सुख का भोग तो कर सकता हैं पर कालांतर में भय, आशंका और रोग उसे अपना शिकार बना लेते हैं जिससे उसका नाश हो जाता हैं. इसलिए असत्य रुपी इस रावण का नाश सत्य से किया जा सकता हैं.

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Old 19-10-2013, 03:12 PM   #4
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3. अस्तेय

मन, वाणी और शरीर से चोरी का परित्याग करके उत्तम कार्यों में तन, मन, धन से सहायता करना अस्तेय हैं. आज देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रस्ताचार हैं.बड़े बड़े नेताओं से लेकर दफ्तर के छोटे कर्मचारी तक अपवाद रूप किसी किसी को छोड़कर सब इस पाप से धीरे धीरे ग्रसित हो गए हैं. यह भी एक प्रकार की चोरी ही हैं. किसी दूसरे के धन, संपत्ति आदि की इच्छा रखने से सबसे बड़ी हानि हमारी आंतरिक शांति का समाप्त हो जाना हैं.मनुष्य जीवन अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद मिलता हैं और इस अमूल्य जीवन को हम इतनी अशांति में गुजार दे क्यूंकि हम सदा दूसरे के धन की इच्छा रकते रहे अथवा प्रयास करते रहे अथवा चोरी करते रहे, ऐसे करने वाले व्यक्ति को आप अज्ञानी नहीं कहेगे तो फिर क्या कहेगे.इसलिए मन, वचन और शरीर से चोरी का परित्याग करके हम इस रावण का नाश कर सकते हैं.
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Old 19-10-2013, 03:14 PM   #5
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4. ब्रह्मचर्य

वेदों का पढ़ना, ईश्वर की उपासना करना और वीर्य की रक्षा करना ब्रह्मचर्य कहलाता हैं. जब योगी मन, वचन और शरीर से ब्रह्मचर्य का दृढ़ पालन बना लेता हैं तब बौद्धिक और शारीरिक बल की प्राप्ति होती हैं. उससे वह अपनी तथा अन्यों की रक्षा करने में, विद्या प्राप्ति तथा विद्या दान में समर्थ हो जाता हैं. ब्रह्मचर्य के पालन से शारीरिक और बौद्धिक बल की प्राप्ति होती हैं. शरीर का बल बढ़ने से शरीर निरोग एवं दीर्घायु होता हैं और उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त करता हैं. बौद्धिक बल के बढ़ने से वह अति सूक्ष्म विषयों को जानने में और अन्यों को विद्या पढ़ाने में सफल हो जाता हैं.

अथर्ववेद 11/5/19 में कहा भी गया हैं की ब्रह्मचर्य के तप से देव मृत्यु को जीत लेते हैं. महाभारत में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं – हे राजन. तू ब्रह्मचर्य के गुण सुन. जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेकर मरण पर्यंत ब्रह्मचर्य का पालन करता हैं, उसको कोई शुभ अशुभ अप्राय नहीं रहता ऐसा तू जान कि जिसके प्रताप से अनेक ऋषि ब्रह्मलोक अर्थात सर्वानन्द स्वरुप परमात्मा में वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते हैं. जो निरंतर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शांत आत्मा, उत्कृष्ट, शुभ गुण स्वाभाव युक्त और रोग रहित पराक्रमयुक्त शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात वेदादि सत्य शास्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास, कर्म आदि करते हैं वे सब बुरे काम और दुखों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और सब सुखों की प्राप्ति कराने हारे होते और इन्हीं के सेवन से मनुष्य उत्तम अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते हैं.

ब्रह्मचर्य के विपरीत कर्म व्यभिचार कहलाता हैं. आज समाज में यह रावण विकराल रूप धारण कर समाज में अनैतिकता फैला रहा हैं जिसके दुष्कर परिणामों से सभी परिचित हैं. भोगवाद की व्यभिचार रुपी लहर में बहकर युवक युवती बहुदा अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं. कच्ची उम्र में बलात्कार जैसा घृणित पाप कर डालते हैं जिसके कारण पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता हैं. अपरिपक्व मानसिक अवस्था में सही या गलत की पहचान कम ही लोगों को होती हैं. इस व्यभिचार रुपी रावण के कारण न जाने कितनो का जीवन बर्बाद हो रहा हैं और कितनो का होगा इसलिए ब्रह्मचर्य रुपी उत्तम नियम के पालन से इस रावण का नाश किया जा सकता हैं.

Last edited by rajnish manga; 19-10-2013 at 03:38 PM.
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Old 19-10-2013, 03:39 PM   #6
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5. अपरिग्रह

विषयों में उपार्जन, रक्षण, क्षय, संग, हिंसा दोष देखकर विषय भोग की दृष्टी से उनका संग्रह न करना अपरिग्रह हैं. अर्थात हानिकारक अनावश्यक वस्तु और अभिमान आदि हानिकारक, अनावश्यक अशुभ विचारों को त्याग देना अपरिग्रह हैं. जो जो वस्तु अथवा विचार ईश्वर प्राप्ति में बाधक हैं उन सबका परित्याग और जो जो वस्तु , विचार ईश्वर प्राप्ति में साधन हैं उनका ग्रहण करना अपरिग्रह हैं. आज के समाज में अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करने की होड़ सी लगी हुई हैं . हर कोई अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर एक मशीन की भांति संग्रह करने के पीछे भाग रहा हैं, जिससे व्यक्ति मानसिक तनाव, दुःख, भय आदि का शिकार होकर अपने जीवन को साक्षात् नरक बनाये हुए हैं. भोगवाद की लहर में बहकर हम जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूल गए हैं. हमारे चारों ओर इसके अनेक उदहारण मिलेगे कोई काला बाजारी करता हैं ताकि सुख मिले, क्या सुख मिलेगा? कोई धोखे से किसी की संपत्ति पर कब्ज़ा कर रहा हैं, क्या सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं. कोई दिन रात एक कर धन इकट्ठा करने में लगा हुआ हैं पर उसे यह नहीं मालूम की एक सीमा के पश्चात यह धन एक एक प्रकार का भोझ ही हैं. हमारे देश के नेता ओर बड़े व्यापारी इसके साक्षात् उदहारण हैं की इतनी धन-संपत्ति को इकठ्ठा करने के बावजूद घोटाले पर घोटाले किये जा रहे हैं. अंत में सब कुछ छोड़कर मृत्यु को ही तो प्राप्त होना हैं. अगर समाज अपरिग्रह के सन्देश को समझ ले तो सभी सुखी हो सकते हैं.अपरिग्रह के इस सन्देश को अगर जनमानस समझ ले तो भटक रहे समाज को अज्ञानता रुपी रावण से मुक्ति मिल जाएगी.
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Old 19-10-2013, 03:43 PM   #7
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6. शौच

शौच का एक अर्थ शुद्धि भी हैं. शुद्धि दो प्रकार की होती हैं एक बाह्य ओर एक आन्तरिक. जल आदि से, पवित्र भोजन से शरीर की बाह्य शुद्धि होती हैं जबकि चित की मलिनताओं को दूर करने से शरीर की आन्तरिक शुद्धि होती हैं.मनुष्य अपने शरीर की बाह्य शुद्धता पर हर प्रकार से ध्यान देता हैं ताकि वो सुन्दर दीख सके. इस सुन्दरता के कारण वो भ्रमित होकर अपने शरीर पर अभिमान कर बैठता हैं और दुसरे के शरीर को घृणा की दृष्टी से देखता हैं. इस अभिमान से मनुष्य सत्य से दूर चला जाता हैं और अपना बहुत सारा बहुमूल्य समय शरीर को सुन्दर बनाने में लगा देता हैं. सत्संग, स्वाध्याय, ईश्वर उपासना, आत्म निरिक्षण के लिए उसके पास समय ही नहीं रहता. आन्तरिक मलिनता की शुद्धि इन्हीं कर्मों से होती हैं.कोई कोई मनुष्य दुसरे के शरीर की सुन्दरता पर मोहित हो जाता हैं जिससे काम वासना की उत्पत्ति होती हैं. अभिमान और काम वासना दोनों व्यक्ति को आन्तरिक रूप से असुद्ध कर देती हैं.आन्तरिक शुद्धि से बुद्धि की शुद्धि होती हैं जिससे मन में प्रसन्नता और एकाग्रता आती हैं, जिससे इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती हैं, उससे बुद्धि ईश्वर की उपासना में लीन होती हैं जिससे ईश्वरीय सुख की प्राप्ति होती हैं.आज के समाज में मांसाहार से भोजन की अपवित्रता होती हैं जिससे न केवल शरीर अशुद्ध होता हैं अपितु विचारों में भी मलिनता आती हैं. अभिमान और काम वासना से मनुष्य जाति का जितना नाश हुआ हैं उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. समाज में फैल रही अराजकता को मांसाहार, अभिमान, काम वासना रुपी रावण से मुक्ति तभी मिल सकती हैं जब शौच (शुद्धि) के मार्ग पर चला जाये.
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Old 19-10-2013, 03:46 PM   #8
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7.संतोष

संपूर्ण प्रयास के पश्चात जो भी उपलब्ध हो, उसी में संतुष्ट रहना, उससे अधिक की इच्छा न करना संतोष हैं. जो व्यक्ति अपने पूर्ण पुरुषार्थ के पश्चात अपने उपलब्ध साधनों से अधिक पदार्थों की इच्छा नहीं करता तो उसको अनुपम सुख की प्राप्ति होती हैं. जब व्यक्ति इन्द्रियों के भोगों में आसक्त रहता हैं तो उसकी विषय भोग की तृष्णा बढती जाती हैं और वो उस तृष्णा की पूर्ती के लिए प्रयासशील रहता हैं. प्रयास में परिणाम पाने के लिए या तो वह अपराध कर बैठता हैं अथवा विफल होने पर दुखों का भोगी बनता हैं.इसलिए संतोष का पालन करने चाहोये जिससे सात्विक सुख की प्राप्ति होती हैं नाकि क्षणिक सुखों की प्राप्ति होती हैं. संतोष का पालन करने से व्यवहार में भी सुख की प्राप्ति होती हैं और दुखों की निवृति होती हैं. जब कोई हानिकारक घटना घट जाती हैं तो संतोषी व्यक्ति को नयून दुःख होता हैं इसलिए संतोष जीवन में सुख प्राप्ति का उपयोगी मार्ग हैं. आज समाज में हर कोई दुखी हैं उसका एक कारण संतोष का नहीं होना हैं इसलिए असंतोष रुपी रावण को त्याग कर संतोष का पालन करने से अनुपम सुख की प्राप्ति की जाये.
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Old 19-10-2013, 03:48 PM   #9
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8. तप

धर्म आचरण करते हुए हानि लाभ, सुख दुःख, मान अपमान , सर्दी गर्मी, भूख प्यास आदि को शांत चित से सहन करना तप हैं. जिन जिन उत्तम कार्यों के करने में स्वयं का और अन्यों का दुःख दूर होता हैं और सुख की प्राप्ति होती हैं उनको करते रहना और न छोड़ना धर्म आचरण हैं . धर्म आचरण करने में जो जो दुःख व्यक्ति को सहना पड़ता हैं उसको तप कहते हैं. आज समाज में अराजकता का एक कारण सज्जन व्यक्तियों द्वारा तप न करना हैं और दुर्जन व्यक्तियों द्वारा करे जा रहे दुष्ट कार्यों को न रोकना हैं.श्री राम सतयुग के विशेष उदहारण हैं जिन्होंने अपने तप से राक्षस रावण को समाप्त किया.उनसे प्रेरणा पाकर आज हमे भी समाज में फैल रही बुराइयों को समाप्त करने के लिए तप करना चाहिए जिससे अधर्म रुपी रावण का नाश किया जा सके.
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Old 19-10-2013, 03:49 PM   #10
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9. स्वाध्याय

वेद आदि धर्म शास्त्रों को पढ़कर ईश्वर के स्वरुप को जानना और ईश्वर का चिंतन मनन करना, अपने दैनिक कार्यों का मानसिक अवलोकन कर अपनी गलतियों को पहचानना और उनको भविष्य मेंदोबारा न करने की प्रतिज्ञा करना स्वाध्याय कहलाता हैं. धर्म शास्त्रों के अध्ययन से और उनका पालन करने से व्यक्ति के आचरण में इतनी योग्यता आ जाती हैं की वह अन्यों को भी धर्म मार्ग पर चला सकता हैं.समाज में सदा श्रेष्ठ मनुष्यों की कीर्ति हुई हैं. सर्व प्रथम व्यक्ति को अपना ही स्वाध्याय करना चाहिए की उसमे क्या क्या बुराइयाँ समाहित हैं फिर उन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए. इस कार्य में ईश्वर ही केवल सहाय हैं और उन ईश्वर को जानने के लिए वेदादि धर्म शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए.आज समाज में हर व्यक्ति अपने आपको सबसे सही और दुसरे को सबसे गलत मान रहा हैं. इसका कारण हैं वह अपने आपको न जानना. अगर व्यक्ति अपनी वास्तविकता को समझे और धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय कर उसी अनुसार वर्ते तो वह किसी को कष्ट नहीं देगा. ऐसा व्यक्ति न केवल बुद्धिमान कहलायगा अपितु समाज का मार्ग दर्शन भी करेगा. स्वाध्यायशील ज्ञानी व्यक्ति ही समाज का नेतृत्व कर सकते हैं. आज समाज का नेतृत्व अज्ञानी भोगी व्यक्ति कर रहे हैं जिसके कारण समाज गर्त में जा रहा हैं.अपने आपको स्वाध्यायशील और ईश्वर प्रेमी बनाकर समाज का नेतृत्व योग्य व्यक्ति द्वारा होने से समाज में अज्ञान रुपी रावण का नाश होगा.

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