19-01-2013, 07:01 PM | #1 |
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जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक इस को कहते हैं आलम-आराई के ज़मीं हो गई है सर ता सर रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली बन गया रू-ए-आब पर काई सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई है हवा में शराब की तासीर बदानोशी है बाद पैमाई क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब" शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई
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19-01-2013, 07:02 PM | #2 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़गान-ए-यार था अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू तोड़ा जो तू ने आईना तिम्सालदार था गलियों में मेरी नाश को खेंचे फिरो कि मैं जाँ दाद-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल हर ज़र्रा मिस्ले-जौहरे-तेग़ आबदार था कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था
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19-01-2013, 10:34 PM | #3 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
बहुत सुन्दर विचार है, दीपू जी. इसके लिए धन्यवाद. मिर्ज़ा ग़ालिब की देन उर्दू साहित्य ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य की अनमोल विरासत है. उनका सारा साहित्य जिसमें उनकी उर्दू शायरी, फारसी शायरी, उनका उर्दू गद्य, इतिहास, पत्र साहित्य कालजयी है. आने वाली पीढ़ियाँ मिर्ज़ा ग़ालिब के साहित्य से प्रेरणा लेती रहेंगी. उनके पाए के साहित्यकार सदियों में एक होता है.
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19-01-2013, 10:46 PM | #4 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
दीवाने ग़ालिब की आरंभिक पक्तियां यहाँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ:
नक्श फ़रियादी हे किसकी शोखिये तहरीर का का ग़ ज़ी है पैराहन हर पै क रे तस्वीर का कावे कावे सख्त जानी हाय तन्हाई न पूछ सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का. (विरह की रात काटना इतना ही कठिन है जितना दूध की नहर निकालना-जैसा फरहाद ने पहाड़ को काट कर नहर निकाली थी) |
20-01-2013, 09:44 AM | #5 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
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20-01-2013, 09:44 AM | #6 | |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
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20-01-2013, 09:44 AM | #7 | |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
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20-01-2013, 10:20 AM | #8 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
ड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले..बहुत निकले मगर मेरे अरमान दिल से लेकिन कम निकले..
निकलना खुल्द( स्वर्ग) से आदम का सुनते आये थे, हुआ मालुम तब , तेरे कूचे से जब हम निकले..
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20-01-2013, 10:21 AM | #9 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले ,
बहुत निकले मेरे अरमां मगर फिर भी कम निकले ! डरे क्यूँ मेरा कातिल ? क्या रहेगा उसकी गर्दन पर , वो खूँ जो चश्मेतर से उम्रभर यूँ दमबदम निकले ! निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन, बहुत बेआबरू होकर तेरे कुचे से हम निकले !!
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20-01-2013, 10:21 AM | #10 |
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Re: जब भी बोले ग़ालिब --- दिल को छू गए
हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है,
तुम्ही कहो की ये अंदाज-ए-गुफ्तगुं क्या है! जला है जिस्म जहाँ , दिल भी जल गया होगा , कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजूं क्या है! रंगों में दोड़ने फिरने के, हम नहीं कायल , जब आँख ही से ना टपका तो लहू क्या है ! वो चीज़ जिसके लिए हो हमको हो बहिश्त ( स्वर्ग) अज़ीज़ सिवाए बादा-ए-गुल्फामें(सुन्दर) मुश्कबू (कस्तूरी या सुगंध ) क्या है !!
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