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Old 01-12-2012, 08:21 AM   #21
ravi sharma
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जैसे आकाश शुभपदार्थ को धारता है और धूम और बादल से ढापा भी दृष्टि आता है परन्तु किसी से स्पर्श नहीं करता, तैसे ही ज्ञानवान् में सब क्रिया दृष्टि आती हैं परन्तु अपने निश्चय में वह किसी से स्पर्श नहीं करता | जैसे नटवा स्वाँग ले आता है और चेष्टा करता दीखता है पर हृदय से अपने नटत्व भाव में निश्चय होता है, तैसे ही ज्ञानवान् को भी सब क्रिया में अपना आत्म भाव निश्चय होता है | जैसे जिसको स्वप्ना आता है वह यदि स्वप्न में भी अपना पूर्वरूप स्मरण रखता है तो स्वप्न के पदार्थ में बर्तता है तो भी उनके मुख में आपको सुखी नहीं मानता और दुःख में आपको दुःखी नहीं मानता-सब सृष्टि उसको अपना ही स्वरूप भासती है, तैसे ही ज्ञानवान् को अपने स्वरूप के निश्चय से सुख-दुःख का क्षोभ नहीं होता | जो ऐसे पुरुष हैं उनको दुःख से क्या होता है? जैसे उनकी इच्छा होती है तैसे ही सिद्ध होकर भासती है | हे रामजी! यह जितनी सृष्टि है सो सब चित्सत्ता में है और योगीश्वर पुरुष उसी में स्थित होकर जहाँ प्राप्त हुआ चाहते हैं वहाँ अन्तवाहक से जा प्राप्त होते हैं और तीनों काल उनको विद्यमान होते हैं साधन कुछ नहीं परन्तु ज्ञानी अवश्य करके किसी निमित्त यत्न नहीं करते-जैसा प्राप्त होता है उसी में प्रसन्न रहते हैं |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 08:21 AM   #22
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हे रामजी! एक काल में ब्रह्माजी ऊर्ध्वमुख से सामवेद को गायन करते थे और सदाशिव का मान न किया तब सदाशिव ने अपने नख से ब्रह्मा का पाँचवाँ शीश काट डाला परन्तु ब्रह्माजी के मन में कुछ क्रोध न फुरा | उन्होंने विचारा कि मैं चिदाकाश हूँ सो अब भी चिदाकाश हूँ मेरा तो कुछ गया नहीं, शिर से मेरा क्या प्रयोजन है? न कुछ हानि है और न कुछ लाभ है | हे रामजी! इस प्रकार सर्व विश्व रचनेवाले ब्रह्मा का शिर कटा, जो वे फिर भी शिर लगा लेते तो समर्थ थे परन्तु उनको लगाने का कुछ प्रयोजन न था और न लगाने में कुछ हानि भी न थी | उनका भी निश्चय सदा आत्मपद में हैं इस कारण उन्हें कुछ क्षोभ न हुआ | हे रामजी! काम के सदृश और कोई विकार नहीं है | जो सदाशिव पार्वती को बायें अंग में धारते हैं और कामदेव के पाँच बाण चलने से सर्वविश्व मोहित होता है उस काम को सदाशिव ने भस्म कर डाला तो क्या स्त्री के त्यागने को वे समर्थ नहीं हैं परन्तु उनको रागद्वेष कुछ नहीं इस कारण त्याग नहीं करते | त्यागने से कुछ अर्थ की सिद्धि नहीं होती और रखने से कुछ अनर्थ नहीं होता-जो कुछ प्रवाहपतित कार्य होता है उसको करते हैं खेद नहीं मानते इससे वे जीवन्मुक्त हैं |
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Old 01-12-2012, 08:21 AM   #23
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विष्णुजी सदा विक्षेप में रहते हैं, आप भी कर्मकरते हैं और लोगों से भी कराते हैं और लोगों से भी कराते हैं और शरीर धारते हैं और त्याग भी देते हैं इत्यादिक क्षोभ में रहते हैं सो त्यागने को समर्थ भी हैं परन्तु त्यागने में उनका कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता और करने में कुछ हानि नहीं होती | उनको लोग कई गुणों से गुणवान् जानते और मुझको तो शुद्ध चिदाकाश रूप भासता है | मूर्ख कहते हैं कि विष्णु श्याम सुन्दर हैं परन्तु वे शुद्ध चिदाकाशरूप हैं और सदा शुद्धस्वरूप में उनको अहंप्रत्यय है | आकाशमार्ग में जो सूर्य स्थित है वे कभी ऊर्ध्व की ओर और कभी नीचे जाते हैं तो क्या उनको स्थित होने की सामर्थ्य नहीं है? है परन्तु चलना और ठहरना दोनों उनको सम है और खेद से रहित होकर प्रवाहपतित कार्य में रहते हैं इससे जीवन्मुक्त हैं |
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Old 01-12-2012, 08:22 AM   #24
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जीवन्मुक्त चन्द्रमा भी है सो घटते घटते सूक्ष्म होते दृष्टि आते हैं और कभी बढ़ते जाते, शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्ष उनमें होते हैं और रात्रि को प्रकाशते हैं तो क्या वे अपनी क्रिया को त्याग नहीं सकते? नहीं त्याग सकते हैं, परन्तु क्षोभ से रहित होकर प्रवाहपतित कार्य में बिचरते हैं इससे जीवन्मुक्त हैं | अग्नि सदा दौड़ता रहता है और यज्ञ और होम के भोजन करने को सर्व ओर जाता है तो क्या उसको गृह में बैठने की सामर्थ्य नहीं है? है परन्तु जो कुछ अपना आचार है उसको वह नहीं त्यागता, क्योंकि ठहरने में उसका कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता और चलने में कुछ हानि नहीं होती-दोनों में वे तुल्य जीवन्मुक्त हैं | हे रामजी! वृहस्पति और शुक्र को बड़ा क्षोभ रहता है, वृहस्पति देवताओं की जय के निमित्त यत्न करते हैं और शुक्र दैत्यों की जय के निमित्त यत्न करते रहते हैं तो क्या इनको त्यागने की सामर्थ्य नहीं है परन्तु दोनों इनको तुल्य हैं इस कारण खेद से रहित होकर अपने कार्य में विचरते है इससे जीवन्मुक्त पुरुष हैं |
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Old 01-12-2012, 08:22 AM   #25
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हे रामजी! राज्य में बड़े क्षोभ होते हैं पर राजा जनक आनन्दसहित राज्य करता है और जीवन्मुक्त है- और प्रह्लाद, बलि, वृत्रासुर और मुर आदि दैत्य जीवन्मुक्त हुए हैं और समताभाव को लिये खेद से रहित नाना प्रकार की चेष्टा करते रहे हैं और हृदय से शीतल और जीवन्मुक्त रहे हैं | राजा नल, दिलीप और मान्धाता आदि ने भी समताभाव को ले राज्य किया है सो जीवन्मुक्त हैं | ऐसे ही अनेक राजा हुए हैं और उनमें रागवान् भी दृष्टि आये हैं परन्तु हृदय में रागद्वेष से रहित शीतलचित्त रहे हैं | हे रामजी! ज्ञानी और अज्ञानी की चेष्टा तुल्य होती है परन्तु इतना भेद है कि ज्ञानी का चित्त शान्त है और अज्ञानी का चित्त क्षोभ में है, इष्ट की प्राप्ति में वह हर्षवान् होता है और अनिष्ट की प्राप्ति में द्वेष करता है और ग्रहणत्याग की इच्छा से जलता है, क्योंकि उसको संसार सत्य भासता है और जिसका चित्तशान्त हो गया है उसके भीतर न राग है, न द्वेष है, स्वाभाविक शरीर की जो प्रारब्ध होती है उसमें कुछ अपना अभिमान नहीं होता |
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Old 01-12-2012, 08:22 AM   #26
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उसके निश्चय में सब आकाशरूप हैं, जगत् कुछ बना नहीं-भ्रममात्र है जैसे आकाश में नीलता भ्रममात्र है और दूर नहीं होती तैसे ही यह जगत् भ्रम से भासता है परन्तु है नहीं | जैसे आकाश में नाना प्रकार के तरुवरे भासते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है और जैसे काष्ठ की पुतली काष्ठरूप होती है, तैसे ही जगत् भ्रमरूप है | जो कुछ भ्रम से भिन्न भासता है वह सब भविष्यनगर में असत्य है और जो कुछ तुम्हें दृष्टि आता है सो कुछ नहीं केवल सर्व कलना से रहित, शुद्धसंवित जड़ता बिना मुक्त स्वभाव एक अद्वैत आत्मसत्ता स्थित है और केवल आकाशरूप है, उसमें जगत् भी वही रूप है और पाषाण की शिला वत् घन मौन है | तुम भी उसी रूप में स्थित हो रहो |
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Old 01-12-2012, 08:23 AM   #27
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रामजी ने पूछा, हे भगवन्! उस राजा विपश्चित् ने फिर क्या किया? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो उनकी दशा हुई है सो तुम सुनो | पश्चिम दिशा का विपश्चित् वन में बिचरता फिरता था कि एक मत्त हाथी के वश पड़ा और उसने उसे पहाड़ की कन्दरा में मार डाला, दूसरे विपश्चित् को राक्षस ले गया और बड़वाग्नि में डाल दिया वहाँ अग्नि ने उसे भक्षण कर लिया, तीसरे विपश्चित् को एक विद्याधर स्वर्ग में ले गया और उसने वहाँ इन्द्रका मान न किया इसलिये उसको इन्द्र ने शाप दिया और वह भस्म हो गया, इसी प्रकार चौथा भी हुआ उसके एक मच्छ ने आठ टुकड़े कर डाले | जैसे प्रलयकाल में लोक भस्म हो जाते हैं तैसे ही चारों विपश्चित् मर गये | तब उनकी संवित्त आकाशरूप हुई परन्तु उनको जगत् देखने का संस्कार था इससे उनको आकाशरूप संवित् फिर आन फुरी उससे जाग्रत भासने लगा और पृथ्वी, द्वीप, समुद्र, स्थावर जंगमरूप जगत् को देखा और अन्तवाहक शरीर से चेष्टा करने लगे |
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Old 01-12-2012, 08:23 AM   #28
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उनमें से एक पश्चिम दिशा का विपश्चित् विष्णु भगवन् के स्थान में मुआ निर्वाण हो गया इससे उसकी संवित् में सर्व अर्थ शून्य हो गये और वह वहाँ मुक्त हुआ | एक मच्छ के उदर में सहस्त्र वर्ष पर्यन्त रहा उससे फिर एक देश का राजा हुआ और वहाँ राज्य करने लगा | एक चन्द्रमा के निकट जा वहाँ मरके चन्द्रमा के लोक को प्राप्त हुआ और एक बहता हुआ समुद्र के पार हुआ और आगे चौरासी हजार योजन पृथ्वी को लाँघता गया | इसी प्रकार चारों फिर जिये और समुद्र बन और पर्वतों को लाँघते गये | सबके आगे दसशहस्त्र योजन सुवर्ण की पृथ्वी आई जहाँ देवताओं के बिचरने के स्थान हैं उनको भी वे लाँघते गये | आगे लोकालोक पर्वत आया जिसने सर्व पृथ्वी को आवरण किया है-जैसे वृक्षों से वन का आवरण होता है, तैसे ही उस पर्वत ने पञ्चाशत्कोटि योजन पृथ्वी को आवरण किया है और पचास हजार योजन ऊँचा है- वे उस लोकालोक पर्वत में पहुँचे जहाँ तारों का नक्षत्र चक्र फिरता है उसको भी वे लाँघ गये |
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Old 01-12-2012, 08:23 AM   #29
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उसमें आगे एक शून्य नक्षत्र था सो महाशून्य था जहाँ पृथ्वी, जल आदिक तत्त्व कोई न था, एक शून्य आकाश है जहाँ न कोई स्थावर पदार्थ है, न कोई जंगम पदार्थ है, न कोई उपजे है, न कभी मिटे है उसको भी उन्होंने देखा | इसी प्रकार सम्पूर्ण भूगोल को उन्होंने देखा | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! भूगोल क्या है, किसके आश्रय है और उसके ऊपर क्या है? वसिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे गेंद होता है, तैसे भूगोल है और संकल्प के आश्रय है | सब ओर उसके आकाश है और सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र सहित चक्र फिरता है | हे राम जी! यह कोई वस्तु बुद्धि से नहीं बनी संकल्प से बनी है जो वस्तु बुद्धि से बनी होती है सो क्रम से स्थित होती है और यह तो विपर्ययरूप से स्थित है | पृथ्वी के चहुँफेर दशगुण जल है उससे परे दशगुणी अग्नि है, उसके उपरान्त दशगुणा वायु है और फिर ब्रह्माण्ड खप्पर है | वह खप्पर एक अधः को और एक ऊर्ध्व को गया है और उसके मध्य में जो पोल है वह आकाश है जो वज्रसार की नाईं है और अनन्तकोटि योजन का उसका विस्तार है |
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उस ब्रह्माण्ड का उसमें भूगोल है, उसके उत्तर दिशा में सुमेरु पर्वत है, पश्चिम दिशा में लोकालोक पर्वत है और ऊपर नक्षत्रचक्र फिरता है | जहाँ वह जाता है वहाँ प्रकाश होता है और जहाँ वह नहीं होता वहाँ तमरूप भासता है सो सब संकल्परचना है | जैसे बालक संकल्प से पत्थर का बट्टा रचे, तैसे ही चैतन्यरूपी बालक ने यह संकल्परूपी भूगोल रचा है | हे रामजी! जैसे-जैसे उस समय उसमें निश्चय हुआ है तैसे ही स्थित हुआ है | जहाँ पृथ्वी स्थित रची है वहाँ ही स्थित है और जहाँ खात रची है वहाँ खात ही है परन्तु जैसे स्वप्ने में अविद्यमान प्रतिभा होती है तैसे ही भूगोल है | हे रामजी! जिनको ऐसा ज्ञान है कि सुमेरु में देवता और पूर्वादि दिशाओं में मनुष्य आदि जीव रहते हैं व पण्डित हैं तो भी मूर्ख हैं, क्योंकि ये तो भ्रममात्र हैं कुछ बने नहीं | जो हमसे आदि लेकर तत्त्ववेत्ता हैं उनको ज्ञाननेत्र से आत्म सत्ता ज्यों की त्यों भासती है और जो मन सहित षट्इन्द्रियों से अज्ञानी देखते हैं उनको जगत् भासता है |
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