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Old 11-01-2011, 06:09 AM   #231
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

मेहता ने सारा वृत्तान्त सुनकर उन्हें बनाना शुरू किया। गम्भीर मुँह बनाकर बोले — यह तो आपकी प्रतिष्ठा का सवाल है।

राय साहब भाँप न सके। उछलकर बोले — जी हाँ, केवल प्रतिष्ठा का। राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो आप जानते हैं?

‘ मैंने उनकी लड़की को भी देखा है। सरोज उसके पाँव की धूल भी नहीं है। ‘

‘ मगर इस लौंडे की अक्ल पर पत्थर पड़ गया है। ‘

‘ तो मारिये गोली, आपको क्या करना है। वही पछतायेगा। ‘

‘ आह! यही तो नहीं देखा जाता मेहताजी? मिलती हुई प्रतिष्ठा नहीं छोड़ी जाती। मैं इस प्रतिष्ठा पर अपनी आधी रियासत क़ुर्बान करने को तैयार हूँ। आप मालती देवी को समझा दें, तो काम बन जाय। इधर से इनकार हो जाय, तो रुद्रपाल सिर पीटकर रह जायगा और यह नशा दस-पाँच दिन में आप उतर जायगा। यह प्रेम-रोग कुछ नहीं, केवल सनक है। ‘

‘ लेकिन मालती बिना कुछ रिश्वत लिए मानेगी नहीं। ‘

‘ आप जो कुछ कहिए, मैं उसे दूँगा। वह चाहे तो में उसे यहाँ के डफ़रिन हास्पिटल का इनचार्ज बना दूँ। ‘

‘ मान लीजिए, वह आपको चाहे तो आप राज़ी होंगे। जब से आपको मिनिस्टरी मिली है, आपको विषय में उसकी राय ज़रूर बदल गयी होगी। ‘

राय साहब ने मेहता के चेहरे की तरफ़ देखा। उस पर मुस्कराहट की रेखा नज़र आयी। समझ गये। व्यथित स्वर में बोले — आपको भी मुझसे मज़ाक़ करने का यही अवसर मिला। मैं आपके पास इसलिए आया था कि मुझे यक़ीन था कि आप मेरी हालत पर विचार करेंगे, मुझे उचित राय देंगे। और आप मुझे बनाने लगे। जिसके दाँत नहीं दुखे, वह दाँतों का दर्द क्या जाने।

मेहता ने गम्भीर स्वर से कहा — क्षमा कीजिएगा, आप ऐसा प्रश्न ही लेकर आये हैं कि उस पर गम्भीर विचार करना मैं हास्यास्पद समझता हूँ। आप अपनी शादी के ज़िम्मेदार हो सकते हैं। लड़के की शादी का दायित्व आप क्यों अपने ऊपर लेते हैं, ख़ास कर जब आपका लड़का बालिग़ है और अपना नफ़ा-नुक़सान समझता है। कम-से-कम मैं तो शादी-जैसे महत्व के मुआमले में प्रतिष्ठा का कोई स्थान नहीं समझता। प्रतिष्ठा धन से होती तो राजा साहब उस नंगे बाबा के सामने घंटों ग़ुलामों की तरह हाथ बाँधे न खड़े रहते। मालूम नहीं कहाँ तक सही है; पर राजा साहब अपने इलाक़े के दारोग़ा तक को सलाम करते हैं; इसे आप प्रतिष्ठा कहते हैं? लखनऊ में आप किसी दूकानदार, किसी अहलकार, किसी राहगीर से पूछिए, उनका नाम सुनकर गालियाँ ही देगा। इसी को आप प्रतिष्ठा कहते हैं? जाकर आराम से बैठिए। सरोज से अच्छी वधू आपको बड़ी मुश्किल से मिलेगी।
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Old 11-01-2011, 06:10 AM   #232
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

राय साहब ने आपत्ति के भाव से कहा — बहन तो मालती ही की है।

मेहता ने गर्म होकर कहा — मालती की बहन होना क्या अपमान की बात है? मालती को आपने जाना नहीं, और न जानने की परवाह की। मैंने भी यही समझा था; लेकिन अब मालूम हुआ कि वह आग में पड़कर चमकनेवाली सच्ची धातु है। वह उन वीरों में है जो अवसर पड़ने पर अपने जौहर दिखाते हैं, तलवार घुमाते नहीं चलते। आपको मालूम है खन्ना की आजकल क्या दशा है?

राय साहब ने सहानुभूति के भाव से सिर हिलाकर कहा — सुन चुका हूँ, और बार-बार इच्छा हुई कि उनसे मिलूँ; लेकिन फ़ुरसत न मिली। उस मिल में आग लगना उनके सर्वनाश का कारण हो गया।

‘ जी हाँ। अब वह एक तरह से दोस्तों की दया पर अपना निवार्ह कर रहे हैं। उस पर गोविन्दी महीनों से बीमार है। उसने खन्ना पर अपने को बलिदान कर दिया, उस पशु पर जिसने हमेशा उसे जलाया; अब वह मर रही है। और मालती रात की रात उसके सिरहाने बैठी रह जाती है, वही मालती जो किसी राजा रईस से पाँच सौ फ़ीस पाकर भी रात-भर न बैठेगी। खन्ना के छोटे बच्चों को पालने का भार भी मालती पर है। यह मातृत्व उसमें कहाँ सोया हुआ था, मालूम नहीं। मुझे तो मालती का यह स्वरूप देखकर अपने भीतर श्रद्धा का अनुभव होने लगा, हालाँकि आप जानते हैं, मैं घोर जड़वादी हूँ। और भीतर के परिष्कार के साथ उसकी छवि में भी देवत्व की झलक आने लगी है। मानवता इतनी बहुरंगी और इतनी समर्थ है, इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। आप उनसे मिलना चाहें तो चलिए, इसी बहाने मैं भी चला चलूँगा। ‘

राय साहब ने स्निग्ध भाव से कहा — जब आप ही मेरे दर्द को नहीं समझ सके, तो मालती देवी क्या समझेंगी, मुफ़्त में शर्मिन्दगी होगी; मगर आपको पास जाने के लिए किसी बहाने की ज़रूरत क्यों! मैं तो समझता था, आपने उनके ऊपर अपना जादू डाल दिया है।

मेहता ने हसरत भरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया — वह बात अब स्वप्न हो गयी। अब तो कभी उनके दर्शन भी नहीं होते। उन्हें अब फ़ुरसत भी नहीं रहती। दो-चार बार गया। मगर मुझे मालूम हुआ, मुझसे मिलकर वह कुछ ख़ुश नहीं हुईं, तब से जाते झेंपता हूँ। हाँ, ख़ूब याद आया, आज महिला-व्यायामशाला का जलसा है, आप चलेंगे?

राय साहब ने बेदिली के साथ कहा — जी नहीं, मुझे फ़ुरसत नहीं है। मुझे तो यह चिन्ता सवार है कि राजा साहब को क्या जवाब दूँगा। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ।
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Old 11-01-2011, 06:10 AM   #233
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए और मन्दगति से द्वार की ओर चले। जिस गुत्थी को सुलझाने आये थे, वह और भी जटिल हो गयी। अन्धकार और भी असूझ हो गया। मेहता ने कार तक आकर उन्हें बिदा किया। राय साहब सीधे अपने बँगले पर आये और दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का कार्ड मिला। तंखा से उन्हें घृणा थी, और उनका मुँह भी न देखना चाहते थे; लेकिन इस वक़्त मन की दुर्बल दशा में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थी, जो और कुछ न कर सके, पर उनके मनोभावों से सहानुभूति तो करे। तुरन्त बुला लिया।

तंखा पाँव दबाते हुए, रोनी सूरत लिये कमरे में दाख़िल हुए और ज़मीन पर झुककर सलाम करते हुए बोले — मैं तो हुज़ूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गये! हुज़ूर का मिज़ाज तो अच्छा है।

इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा में, और अपने पिछले व्यवहार को बिल्कुल भूलकर, राय साहब का यशोगान आरम्भ किया — ऐसी होम-मेम्बरी कोई क्या करेगा, जिधर देखिये हुज़ूर ही के चर्चे हैं। यह पद हुज़ूर ही को शोभा देता है।

राय साहब मन में सोच रहे थे, यह आदमी भी कितना बड़ा धूर्त है, अपनी ग़रज़ पड़ने पर गधे को दादा कहनेवाला, पहले सिरे का बेवफ़ा और निर्लज्ज; मगर उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आयी। पूछा — आजकल आप क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं हुज़ूर, बेकार बैठा हूँ। इसी उम्मीद से आपकी ख़िदमत में हाज़िर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूँ हुज़ूर। राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो हुज़ूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक दिन आपकी निन्दा करने लगे। मुझसे न सुना गया। मैंने कहा, बस कीजिए महाराज, राय साहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निन्दा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गये। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। मैंने साफ़ कह दिया, आप कितना ही ठाट-बाट दिखायें; पर राय साहब की जो इज़्ज़त है; वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज़्ज़त ठाट से नहीं होती, लियाक़त से होती है। आप में जो लियाक़त है वह तो दुनिया जानती है।

राय साहब ने अभिनय किया — आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।

तंखा ने अकड़कर कहा — मैं तो हुज़ूर साफ़ कहता हूँ, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जब हुज़ूर के क़दमों को पकड़े हुए हूँ, तो किसी से क्यों डरूँ। हुज़ूर के तो नाम से जलते हैं। जब देखिए हुज़ूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैं, उनकी छाती पर साँप लोट रहा है। मेरी सारी-की-सारी मज़दूरी साफ़ डकार गये। देना तो जानते नहीं हुज़ूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते हैं कि कुछ न पूछिए। किसी की आबरू सलामत नहीं। दिन दहाड़े औरतों को …

कार की आवाज़ आयी और राजा सूर्यप्रतापसिंह उतरे। राय साहब ने कमरे से निकलकर उनका स्वागत किया और इस सम्मान के बोझ से नत होकर बोले — मैं तो आपकी सेवा में आनेवाला ही था।

यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रतापसिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य! मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने बैठे हुए थे। राजा साहब यहाँ! क्या इधर इन दोनों महोदयों में दोस्ती हो गयी है? उन्होंने राय साहब की ईर्ष्याग्नि को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना चाहा था; मगर नहीं, राजा साहब यहाँ मिलने के लिए आ भले ही गये हों, मगर दिलों में जो जलन है वह तो कुम्हार के आँवे की तरह इस ऊपर की लेप-थोप से बुझनेवाली नहीं। राजा साहब ने सिगार जलाते हुए तंखा की ओर कठोर आँखों से देखकर कहा — तुमने तो सूरत ही नहीं दिखाई मिस्टर तंखा। मुझसे उस दावत के सारे रुपए वसूल कर लिये और होटलवालों को एक पाई न दी, वह मेरा सिर खा रहे हैं। मैं इसे विश्वास घात समझता हूँ। मैं चाहूँ तो अभी तुम्हें पुलीस में दे सकता हूँ।
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Old 11-01-2011, 06:11 AM   #234
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

यह कहते हुए उन्होंने राय साहब को सम्बोधित करके कहा — ऐसा बेईमान आदमी मैंने नहीं देखा राय साहब। मैं सत्य कहता हूँ, मैं कभी आपके मुक़ाबले में न खड़ा होता। मगर इसी शैतान ने मुझे बहकाया और मेरे एक लाख रुपए बरबाद कर दिये। बँगला ख़रीद लिया साहब, कार रख ली। एक वेश्या से आशनाई भी कर रखी है। पूरे रईस बन गये और अब दग़ाबाज़ी शुरू की है। रईसों की शान निभाने के लिए रियासत चाहिए। आपकी रियासत अपने दोस्तों की आँखों में धूल झोंकना है।

राय साहब ने तंखा की ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। और बोले — आप चुप क्यों हैं मिस्टर तंखा, कुछ जवाब दीजिए। राजा साहब ने तो आपका सारा मेहनताना दबा लिया। है इसका कोई जवाब आपके पास? अब कृपा करके यहाँ से चले जाइए और ख़बरदार फिर अपनी सूरत न दिखाइएगा। दो भले आदमियों में लड़ाई लगाकर अपना उल्लू सीधा करना बेपूँजी का रोज़गार है; मगर इसका घाटा और नफ़ा दोनों ही जान-जोख़िम है समझ लीजिए।

तंखा ने ऐसा सिर गड़ाया कि फिर न उठाया। धीरे से चले गये। जैसे कोई चोर कुत्ता मालिक के अन्दर आ जाने पर दबकर निकल जाय। जब वह चले गये, तो राजा साहब ने पूछा — मेरी बुराई करता होगा?

‘ जी हाँ; मगर मैंने भी ख़ूब बनाया। ‘

‘ शैतान है। ‘

‘ पूरा। ‘

‘ बाप-बेटे में लड़ाई करवा दे, मियाँ-बीबी में लड़ाई करवा दे। इस फ़न में उस्ताद है। ख़ैर, आज बचा को अच्छा सबक़ मिल गया। ‘

इसके बाद रुद्रपाल के विवाह की बातचीत शुरू हुई। राय साहब के प्राण सूखे जा रहे थे। मानो उन पर कोई निशाना बाँधा जा रहा हो। कहाँ छिप जायँ। कैसे कहें कि रुद्रपाल पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा; मगर राजा साहब को परिस्थिति का ज्ञान हो चुका था। राय साहब को अपनी तरफ़ से कुछ न कहना पड़ा। जान बच गयी। उन्होंने पूछा — आपको इसकी क्योंकर ख़बर हुई?

‘ अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा है जो उसने मुझे दे दिया। ‘

‘ आजकल के लड़कों में और तो कोई ख़ूबी नज़र नहीं आती, बस स्वच्छन्दता की सनक सवार है। ‘

‘ सनक तो है ही; मगर इसकी दवा मेरे पास है। मैं उस छोकरी को ऐसा ग़ायब कर दूँ कि कहीं पता न लगेगा। दस-पाँच दिन में यह सनक ठंडी हो जायगी। समझाने से कोई नतीजा नहीं। ‘
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Old 11-01-2011, 06:13 AM   #235
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राय साहब काँप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आयी थी; लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक-से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। राय साहब ने उसे ऊपर वस्त्रों से ढँक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर को राय साहब छोड़ न सके। जैसे लज्जित होकर बोले — लेकिन यह बीसवीं सदी है, बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, मैं नहीं कह सकता; लेकिन मानवता की दृष्टि से ….

राजा साहब ने बात काटकर कहा — आप मानवता लिये फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहीं, राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों होतीं? पंचायतों से मामले न तय हो जाते? जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।

छोटी-मोटी बहस छिड़ गयी और विवाह के रूप में आकर अन्त में वितंडा बन गयी और राजा साहब नाराज़ होकर चले गये। दूसरे दिन राय साहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंगलैंड की राह ली। अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था। प्रतिद्वन्द्वी हो गये थे। मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ़ से राय साहब पर हिसाब-फ़हमी का दावा किया। राय साहब पर दस लाख की डिग्री हो गयी। उन्हें डिग्री का इतना दुःख न हुआ जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़कर दुःख था जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दुःख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दग़ा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।

मगर अभी शायद उनके दुःख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थी, वह लड़की और दामाद के सम्बन्ध-विच्छेद ने पूरी कर दी। साधारण हिन्दू बालिकाओं की तरह मीनाक्षी भी बेज़बान थी। बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दिया, उसके साथ चली गयी; लेकिन स्त्री-पुरुष में प्रेम न था। दिग्विजयसिंह ऐयाश भी थे, शराबी भी। मीनाक्षी भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती थी। पुस्तकों और पत्रिकाओं से मन बहलाया करती थी। दिग्विजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़ा-लिखा भी था; मगर बड़ा मग़रूर, अपनी कुल-प्रतिष्ठा की डींग मारनेवाला, स्वभाव का निर्दयी और कृपण। गाँव की नीच जाति की बहू-बेटियों पर डोरे डाला करता था। सोहबत भी नीचों की थी, जिनकी ख़ुशामदों ने उसे और भी ख़ुशामदपसन्द बना दिया था। मीनाक्षी ऐसे व्यक्ति का सम्मान दिल से न कर सकती थी। फिर पत्रों में स्त्रियों के अधिकारों की चर्चा पढ़-पढ़कर उसकी आँखें खुलने लगी थीं। वह ज़नाना क्लब में आने-जाने लगी। वहाँ कितनी ही शिक्षित ऊँचे कुल की महिलाएँ आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वाधीनता और नारी-जागृति की ख़ूब चर्चा होती थी, जैसे पुरुषों के विरुद्ध कोई षडयन्त्र रचा जा रहा हो। अधिकतर वही देवियाँ थीं जिनकी अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नयी शिक्षा पाने के कारण पुरानी मयार्दाओं को तोड़ डालना चाहती थीं। कई युवतियाँ भी थीं, जो डिग्रियाँ ले चुकी थीं और विवाहित जीवन को आत्मसम्मान के लिए घातक समझकर नौकरियों की तलाश में थीं। उन्हीं में एक मिस सुलतान थीं, जो विलायत से बार-ऐट-ला होकर आयी थीं और यहाँ परदानशीन महिलाओं को क़ानूनी सलाह देने का व्यवसाय करती थीं। उन्हीं की सलाह से मीनाक्षी ने पति
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Old 11-01-2011, 06:14 AM   #236
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पर गुज़ारे का दावा किया। वह अब उसके घर में न रहना चाहती थी। गुज़ारे की मीनाक्षी को ज़रूरत न थी। मैके में वह बड़े आराम से रह सकती थी; मगर वह दिग्विजयसिंह के मुख में कालिख लगाकर यहाँ से जाना चाहती थी। दिग्विजयसिंह ने उस पर उलटा बदचलनी का आक्षेप लगाया। राय साहब ने इस कलह को शान्त करने की भरसक बहुत चेष्टा की; पर मीनाक्षी अब पति की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी। यद्यपि दिग्विजयसिंह का दावा ख़ारिज हो गया और मीनाक्षी ने उस पर गुज़ारे की डिग्री पायी; मगर यह अपमान उसके जिगर में चुभता रहा। वह अलग एक कोठी में रहती थी, और समिष्टवादी आन्दोलन में प्रमुख भाग लेती थी, पर वह जलन शान्त न होती थी।

एक दिन वह क्रोध में आकर हंटर लिये दिग्विजयसिंह के बँगले पर पहुँची। शोहदे जमा थे और वेश्या का नाच हो रहा था। उसने रणचंडी की भाँति पिशाचों की इस चंडाल चौकड़ी में पहुँचकर तहलका मचा दिया। हंटर खा-खाकर लोग इधर-उधर भागने लगे। उसके तेज के सामने वह नीच शोहदे क्या टिकते; जब दिग्विजयसिंह अकेले रह गये, तो उसने उन पर सड़ासड़ हंटर जमाने शुरू किये और इतना मारा कि कुँवर साहब बेदम हो गये। वेश्या अभी तक कोने में दबकी खड़ी थी। अब उसका नम्बर आया। मीनाक्षी हंटर तानकर जमाना ही चाहती थी कि वेश्या उसके पैरों पर गिर पड़ी और रोकर बोली — दुलहिनजी, आज आप मेरी जान बख़्श दें। मैं फिर कभी यहाँ न आऊँगी। मैं निरपराध हूँ।

मीनाक्षी ने उसकी ओर घृणा से देखकर कहा — हाँ, तू निरपराध है। जानती है न, मैं कौन हूँ! चली जा। अब कभी यहाँ न आना। हम स्त्रियाँ भोग-विलास की चीज़ें हैं ही, तेरा कोई दोष नहीं!

वेश्या ने उसके चरणों पर सिर रखकर आवेश में कहा — परमात्मा आपको सुखी रखे। जैसा आपका नाम सुनती थी, वैसा ही पाया।

‘ सुखी रहने से तुम्हारा क्या आशय है? ‘

‘ आप जो समझें महारानीजी! ‘

‘ नहीं, तुम बताओ। ‘

वेश्या के प्राण नखों में समा गये। कहाँ से कहाँ आशीर्वाद देने चली। जान बच गयी थी, चुपके से अपनी राह लेनी चाहिए थी, दुआ देने की सनक सवार हुई। अब कैसे जान बचे। डरती-डरती बोली — हुज़ूर का एक़बाल बढ़े, नाम बढ़े।

मीनाक्षी मुस्करायी — हाँ, ठीक है।

वह आकर अपनी कार में बैठी, हाकिम-ज़िला के बँगले पर पहुँचकर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आयी। तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे के ख़ून के प्यासे थे। दिग्विजयसिंह रिवालवर लिये उसकी ताक में फिरा करते और वह भी अपनी रक्षा के लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने साथ लिये रहती थी। और राय साहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी ज़िन्दगी से ही ध्वंस होते देख रहे थे। और अब संसार से निराश होकर उनकी आत्मा अन्तमुर्खी होती जाती थी। अब तक अभिलाषाओं से जीवन के लिए प्रेरणा मिलती रहती थी। उधर का रास्ता बन्द हो जाने पर उनका मन आप ही आप भक्ति की ओर झुका, जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़कर सत्य था। जिस नयी जायदाद के आसरे
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क़रज़ लिये थे, वह जायदाद क़रज़ की पुरौती किये बिना ही हाथ से निकल गयी थी और वह बोझ सिर पर लदा हुआ था। मिनिस्टरी से ज़रूर अच्छी रक़म मिलती थी; मगर वह सारी की सारी उस मर्यादा का पालन करने में ही उड़ जाती थी और राय साहब को अपना राजसी ठाट निभाने के लिए वही असामियों पर इज़ाफ़ा और बेदख़ली और नज़राना करना और लेना पड़ता था, जिससे उन्हें घृणा थी। वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते थे। उनकी दशा पर उन्हें दया आती थी; लेकिन अपनी ज़रूरतों से हैरान थे। मुश्किल यह थी कि उपासना और भक्ति में भी उन्हें शान्ति न मिलती थी। वह मोह को छोड़ना चाहते थे; पर मोह उन्हें न छोड़ता था और इस खींच-तान में उन्हें अपमान, ग्लानि और अशान्ति से छुटकारा न मिलता था। और जब आत्मा में शान्ति नहीं, तो देह कैसे स्वस्थ रहती? निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी। रसोई में सभी तरह के पकवान बनते थे; पर उनके लिए वही मूँग की दाल और फुलके थे। अपने और भाइयों को देखते थे जो उनसे भी ज़्यादा मक़रूज, अपमानित और शोकग्रस्त थे, जिनके भोग-विलास में, ठाट-बाट में किसी तरह की कमी न थी; मगर इस तरह की बेहयाई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊँचे संस्कारों का ध्वंस न हुआ था। पर-पीड़ा, मक्कारी, निर्लज्जता और अत्याचार को वह ताल्लुक़ेदारी की शोभा और रोब-दाब का नाम देकर अपनी आत्मा को सन्तुष्ट न कर सकते थे, और यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।

मिरज़ा खुर्शेद ने अस्पताल से निकलकर एक नया काम शुरू कर दिया था। निश्चिन्त बैठना उनके स्वभाव में न था। यह काम क्या था? नगर की वेश्याओं की एक नाटक-मंडली बनाना। अपने अच्छे दिनों में उन्होंने ख़ूब ऐयाशी की थी और इन दिनों अस्पताल के एकान्त में घावों की पीड़ाएँ सहते-सहते उनकी आत्मा निष्ठावान् हो गयी थी। उस जीवन की याद करके उन्हें गहरी मनोव्यथा होती थी। उस वक़्त अगर उन्हें समझ होती, तो वह प्राणियों का कितना उपकार कर सकते थे; कितनों के शोक और दरिद्रता का भार हलका कर सकते थे; मगर वह धन उन्होंने ऐयाशी में उड़ाया। यह कोई नया आविष्कार नहीं है कि संकटों में ही हमारी आत्मा को जागृति मिलती है। बुढ़ापे में कौन अपनी जवानी की भूलों पर दुखी नहीं होता। काश, वह समय ज्ञान या शक्ति के संचय में लगाया होता, सुकृतियों का कोष भर लिया होता, तो आज चित्त को कितनी शान्ति मिलती। वही उन्हें इसका वेदनामय अनुभव हुआ कि संसार में कोई अपना नहीं, कोई उनकी मौत आँसू बहानेवाला नहीं। उन्हें रह-रहकर जीवन की एक पुरानी घटना याद आती थी। बसरे के एक गाँव में जब वह कैम्प में मलेरिया से ग्रस्त पड़े थे, एक ग्रामीण बाला ने उनकी तीमारदारी कितने आत्म-समर्पण से की थी। अच्छे हो जाने पर जब उन्होंने रुपए और आभूषणों से उसके एहसानों का बदला देना चाहा था, तो उसने किस तरह आँखों में आँसू भरकर सिर नीचा कर लिया था और उन उपहारों को लेने से इनकार कर दिया था। इन नसों की सुश्रूषा में नियम है, व्यवस्था है, सच्चाई है, मगर वह प्रेम कहाँ, वह तन्मयता कहाँ जो उस बाला की अभ्यासहीन, अल्हड़ सेवाओं में थी? वह अनुराग-मूर्ति कब की उनके दिल से मिट चुकी थी। वह उससे फिर आने का वादा करके कभी उसके पास न गये। विलास के उन्माद में कभी उसकी याद ही न आयी। आयी भी तो उसमें केवल दया थी, प्रेम न था। मालूम नहीं, उस बाला पर क्या गुज़री? मगर आजकल उसकी वह आतुर, नम्र, शान्त, सरल मुद्रा बराबर उनकी आँखों के सामने फिरा करती थी। काश उससे विवाह कर लिया होता आज जीवन में कितना रह होता। और उसके प्रति अन्याय के दुःख ने उस सम्पूर्ण वर्ग को उनकी सेवा और सहानुभूति का पात्र बना दिया। जब तक नदी बाढ़ पर थी उसके गन्दले, तेज, फेनिल प्रवाह में प्रकाश की किरणें बिखरकर रह जाती थीं। अब प्रवाह स्थिर और शान्त हो गया था और रश्मियाँ उसकी तह तक पहुँच रही थीं।
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मिरज़ा साहब वसन्त की इस शीतल सन्ध्या में अपने झोंपड़े के बरामदे में दो वाराँगनाओं के साथ बैठे कुछ बातचीत कर रहे थे कि मिस्टर मेहता पहुँचे। मिरज़ा ने बड़े तपाक से हाथ मिलाया और बोले — मैं तो आपकी ख़ातिरदारी का सामान लिये आपकी राह देख रहा हूँ।

दोनों सुन्दरियाँ मुस्करायीं। मेहता कट गये। मिरज़ा ने दोनों औरतों को वहाँ से चले जाने का संकेत किया और मेहता को मसनद पर बैठाते हुए बोले — मैं तो ख़ुद आपके पास आनेवाला था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मैं जो काम करने जा रहा हूँ, वह आपकी मदद के बग़ैर पूरा न होगा। आप सिर्फ़ मेरी पीठ पर हाथ रख दीजिए और ललकारते जाइये — हाँ मिरज़ा, बढ़े चल पट्ठे।

मेहता ने हँसकर कहा — आप जिस काम में हाथ लगायेंगे, उसमें हम-जैसे किताबी कीड़ों की मदद की ज़रूरत न होगी। आपकी उम्र मुझसे ज़्यादा है दुनिया भी आपने ख़ूब देखी है और छोटे-से-छोटे आदमियों पर अपना असर डाल सकने की जो शक्ति आप में है, वह मुझमें होती, तो मैंने ख़ुदा जाने क्या किया होता। मिरज़ा साहब ने थोड़े-से शब्दों में अपनी नयी स्कीम उनसे बयान की। उनकी धारणा थी कि रूप के बाज़ार में वही स्त्रियाँ आती हैं, जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मान-पूर्ण आश्रय नहीं मिलता, या जो आर्थिक कष्टों से मज़बूर हो जाती हैं, और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिये जायँ, तो बहुत कम औरतें इस भाँति पतित हों।

मेहता ने अन्य विचारवान् सज्जनों की भाँति इस प्रश्न पर काफ़ी विचार किया था और उनका ख़याल था कि मुख्यतः मन के संस्कार और भोग-लालसा ही औरतों को इस ओर खींचती है। इसी बात पर दोनों मित्रों में बहस छिड़ गयी। दोनों अपने-अपने पक्ष पर अड़ गये। मेहता ने मुट्ठी बाँधकर हवा में पटकते हुए कहा — आपने इस प्रश्न पर ठंडे दिल से ग़ौर नहीं किया। रोज़ी के लिए और बहुत से ज़रिये हैं। मगर ऐश की भूख रोटियों से नहीं जाती। उसके लिए दुनिया के अच्छे-से-अच्छे पदार्थ चाहिए। जब तक समाज की व्यवस्था ऊपर से नीचे तक बदल न डाली जाय, इस तरह की मंडली से कोई फ़ायदा न होगा।

मिरज़ा ने मूँछें खड़ी कीं — और मैं कहता हूँ कि वह महज़ रोज़ी का सवाल है। हाँ, यह सवाल सभी आदमियों के लिए एक-सा नहीं है। मज़दूर के लिए वह महज़ आटे-दाल और एक फूस की झोपड़ी का सवाल है। एक वकील के लिए वह एक कार और बँगले और ख़िदमतगारों का सवाल है। आदमी महज़ रोटी नहीं चाहता, और भी बहुत-सी चीज़ें चाहता है। अगर औरतों के सामने भी वह प्रश्न तरह-तरह की सूरतों में आता है तो उनका क्या क़ुसूर है?
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डाक्टर मेहता अगर ज़रा गौर करते, तो उन्हें मालूम होता कि उनमें और मिरज़ा में कोई भेद नहीं, केवल शब्दों का हेर-फेर है; पर बहस की गर्मी में ग़ौर करने का धैर्य कहाँ? गर्म होकर बोले — मुआफ़ कीजिए, मिरज़ा साहब, जब तक दुनिया में दौलतवाले रहेंगे, वेश्याएँ भी रहेंगी। मंडली अगर सफल भी हो जाय, हालाँकि मुझे उसमें बहुत सन्देह है, तो आप दस-पाँच औरतों से ज़्यादा उसमें कभी न ले सकेंगे, और वह भी थोड़े दिनों के लिए। सभी औरतों में नाट्य करने की शक्ति नहीं होती, उसी तरह जैसे सभी आदमी कवि नहीं हो सकते। और यह भी मान लें कि वेश्याएँ आपकी मंडली में स्थायी रूप से टिक जायँगी, तो भी बाज़ार में उनकी जगह ख़ाली न रहेगी। जड़ पर जब तक कुल्हाड़े न चलेंगे, पत्तियाँ तोड़ने से कोई नतीजा नहीं। दौलतवालों में कभी-कभी ऐसे लोग निकल आते हैं, जो सब कुछ त्याग कर ख़ुदा की याद में जा बैठते हैं; मगर दौलत का राज्य बदस्तूर क़ायम है। उसमें ज़रा भी कमज़ोरी नहीं आने पाई।

मिरज़ा को मेहता की हठधर्मी पर दुःख हुआ। इतना पढ़ा-लिखा विचारवान् आदमी इस तरह की बातें करे! समाज की व्यवस्था क्या आसानी से बदल जायगी? वह तो सदियों का मुआमला है। तब तक क्या यह अनर्थ होने दिया जाय? उसकी रोक-थाम न की जाय, इन अबलाओं को मदों की लिप्सा का शिकार होने दिया जाय? क्यों न शेर को पिंजरे में बन्द कर दिया जाय कि वह दाँत और नाख़ून होते हुए भी किसी को हानि न पहुँचा सके। क्यों उस वक़्त तक चुपचाप बैठा रहा जाय, जब तक शेर अहिंसा का व्रत न ले ले? दौलतवाले और जिस तरह चाहें अपनी दौलत उड़ायें, मिरज़ाजी को ग़म नहीं। शराब में डूब जायँ, कारों की माला गले में डाल लें, क़िले बनवायें धर्मशालायें और मसज़िदें खड़ी करें, उन्हें कोई परवाह नहीं। अबलाओं की ज़िन्दगी न ख़राब करें। यह मिरज़ाजी नहीं देख सकते। वह रूप के बाज़ार को ऐसा ख़ाली कर देंगे कि दौलतवालों की अशफ़िर्यों पर कोई थूकनेवाला भी न मिले। क्या जिन दिनों शराब की दूकानों की पिकेटिंग होती थी, अच्छे-अच्छे शराबी पानी पी-पीकर दिल की आग नहीं बुझाते थे?

मेहता ने मिरज़ा की बेवक़ूफ़ी पर हँसकर कहा — आपको मालूम होना चाहिए कि दुनिया में ऐसे मुल्क भी हैं जहाँ वेश्याएँ नहीं हैं। मगर अमीरों की दौलत वहाँ भी दिलचस्पियों के सामान पैदा कर लेती है।

मिरज़ाजी भी मेहता की जड़ता पर हँसे — जानता हूँ मेहरबान, जानता हूँ। आपकी दुआ से दुनिया देख चुका हूँ; मगर यह हिन्दुस्तान है, यूरोप नहीं है।

‘ इंसान का स्वभाव सारी दुनिया में एक-सा है। ‘
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मगर यह भी मालूम रहे कि हर-एक क़ौम में एक ऐसी चीज़ होती है, जिसे उसकी आत्मा कह सकते हैं। असमत (सतीत्व) हिन्दुस्तानी तहज़ीब की आत्मा है। ‘

‘ अपने मुँह मियाँ-मिट्ठू बन लीजिए। ‘

‘ दौलत की आप इतनी बुराई करते हैं, फिर भी खन्ना की हिमायत करते नहीं थकते। न कहिएगा। ‘

मेहता का तेज बिदा हो गया। नम्र भाव से बोले — मैंने खन्ना की हिमायत उस वक़्त की है, जब वह दौलत के पंजे से छूट गये हैं, और आजकल उसकी हालत आप देखें, तो आपको दया आयेगी। और मैं क्या हिमायत करूँगा, जिसे अपनी किताबों और विद्यालय से छुट्टी नहीं; ज़्यादा-से-ज़्यादा सूखी हमदर्दी ही तो कर सकता हूँ। हिमायत की है मिस मालती ने कि खन्ना को बचा लिया। इंसान के दिल की गहराइयों में त्याग और क़ुबार्नी की कितनी ताक़त छिपी होती है, इसका मुझे अब तक तजरबा न हुआ था। आप भी एक दिन खन्ना से मिल आइए। फूला न समाइएगा। इस वक़्त उसे जिस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वह हमदर्दी है।

मिरज़ा ने जैसे अपनी इच्छा के विरुद्ध कहा — आप कहते हैं, तो जाऊँगा। आपके साथ जहन्नुम में जाने में भी मुझे उर्जा नहीं; मगर मिस मालती से तो आपकी शादी होनेवाली थी। बड़ी गर्म ख़बर थी।

मेहता ने झेंपते हुए कहा — तपस्या कर रहा हूँ। देखिए कब वरदान मिले।

‘ अजी वह तो आप पर मरती थी। ‘

‘ मुझे भी यही वहम हुआ था; मगर जब मैंने हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ना चाहा, तो देखा। वह आसमान में जा बैठी है। उस ऊँचाई तक तो क्या मैं पहुँचूँगा, आरज़ू-मिन्नत कर रहा हूँ कि नीचे आ जाय। आजकल तो वह मुझसे बोलती भी नहीं। ‘

यह कहते हुए मेहता ज़ोर से रोती हुई हँसी हँसे और उठ खड़े हुए।

मिरज़ा ने पूछा — अब फिर कब मुलाक़ात होगी?

‘ अबकी आपको तकलीफ़ करनी पड़ेगी। खन्ना के पास जाइएगा ज़रूर!
‘ जाऊँगा। ‘

मिरज़ा ने खिड़की से मेहता को जाते देखा। चाल में वह तेज़ी न थी, जैसे किसी चिन्ता में डूबे हुए हों।
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