01-12-2012, 06:06 PM | #1161 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 06:06 PM | #1162 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तुम अहं वेदना से रहित हो रहो | संसाररूपी वृक्ष का बीज अहं ही है | वासना से शुभ अशुभरूप कर्म का सुख दुःख फल है और वासना ही से प्रफुल्लित होता है, इससे अहंभाव को निवृत्त करो | जब अहं फुरता है तब आगे जगत् भासता है, जब अहंता से रहित होगे तब जगत््भ्रम मिट जावेगा | अहंता आत्मबोध से नष्ट होता है | आत्मबोधरूपी खंभारी से उड़ाया अहंतारूपी पाषाण न जानोगे कि कहाँ गया और सुवर्ण पाषाणतुल्य तुमको हो जावेगा | शरीररूपी पत्र पर अहंतारूपी अणु स्थित है, जब बोधरूपी वायु चलेगी तब न जानोगे कि कहाँ गया |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 06:07 PM | #1163 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
शरीररूपी पत्र पर अहंतारूपी बरफ का कारण स्थित है ,बोधरूपी सूर्य के उदय हुए न जानोगे कि वह कहाँ गया बोध बिना अहंता नष्ट नहीं होती चाहे कीचड़ में रहे और चाहे पहाड़ में जावे, चाहे घर में रहे और चाहे स्थल में रहे, चाहे स्थूल हो और चाहे सूक्ष्म हो चाहे निराकार हो और चाहे रूपान्तर को प्राप्त हो, चाहे भस्म हो और चाहे मृतक हो, चाहे दूर हो अथवा निकट हो जहाँ रहेगा वहीं अहंता इसके साथ है | हे रामजी! संसाररूपी वट का बीज अहंता है उसी से सब शाखा फैली है सब अर्थों का कारण अहंता है, जबतक अहंता है तबतक दुःख नहीं मिटता और जब अहंभाव नष्ट हो तब परमसिद्धि की प्राप्ति हो | हे रामजी! जो कुछ मैंने उपदेश किया है उसको भली प्रकार विचारकर उसका अभ्यास करो तब संसाररूपी वृक्ष का बीज जल जावेगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी |
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01-12-2012, 06:07 PM | #1164 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! संसार संकल्पमात्र सिद्ध है और भ्रम से उदय हुआ है | आत्मस्वरूप में अनेक सृष्टि बसती हैं, कोई लीन होती है कोई उत्पन्न होती हैं और कोई उड़ती हैं, कहीं इकट्ठी होती हैं और कहीं भिन्न भिन्न उड़ती हैं सो सब मुझको प्रत्यक्ष भासती हैं | देखो वे उड़ती जाती हैं सो ये सब आकाशरूप हैं और आकाश ही से मिलती हैं | जैसे केले का वृक्ष देखनेमात्र सुन्दर होता है पर उसमें कुछ सार नहीं होता तैसे ही विश्व देखनेमात्र सुन्दर है पर आकाशरूप है | जैसे जल में पहाड़ का प्रतिबिम्ब पड़ता है और हिलता भासता है तैसे ही यह जगत् है | रामजी ने पूछा, हे भगवन् आप कहते हैं कि सृष्टि मुझे प्रत्यक्ष उड़ती भासती हैं- तुम भी देखो, यह तो मैंने कुछ नहीं समझा कि आप क्या कहते हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अनेक सृष्टि उड़ती हैं सो सुनो | पञ्चभौतिक शरीर में प्राण में चित्त स्थित है और उस चित्त में अपनी-अपनी सृष्टि है |
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01-12-2012, 06:07 PM | #1165 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जब यह पुरुष शरीर का त्याग करता है तब लिंगशरीर जो वासना और प्राण हैं वे उड़ते हैं | उस लिंग शरीर में जो विश्व है सो सूक्ष्मदृष्टि से मुझको भासता है | हे रामजी! आकाश में जो वायु है जिसका रूपरंग कुछ नहीं वही वायु प्राणों से मिलकर मुझे प्रत्यक्ष दिखाई देती है-इसी का नाम जीव है | स्वरूप से न कोई आता है न जाता है परन्तु लिंगशरीर के संयोग से आता-जाता और जन्मता-मरता दीखता है और अपनी वासना के अनुसार आत्मामें विश्व देखता है और कुछ नहीं बना | यह वासनामात्र सृष्टि है, जैसी वासना होती है तैसा विश्व भासता है | हे रामजी! यह पुरुष आत्म स्वरूप है परन्तु लिंगशरीर के मिलने से इसका नाम जीव हुआ है और आपको प्रच्छन्न जानता है, वास्तव में ब्रह्मस्वरूप है |
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01-12-2012, 06:08 PM | #1166 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जब शरीर का त्याग करता है तब आकाश में उड़ता है और प्राणवायु उड़कर जो आकाश में शून्यरूप वायु है उससे जा मिलता है | वहाँसबको अपनी-अपनी वासना के अनुसार सृष्टि भासि आती है और अपनी सृष्टि लेकर इस प्रकार उड़ते हैं जैसे वायु गन्ध को ले जाती है सो ही मुझको सूक्ष्मदृष्टि से उड़ते भासते है | हे रामजी! स्थूलदृष्टि से लिंगशरीर नहीं भासता, सूक्ष्मदृष्टि से दीखता है | जिस पुरुष को सूक्ष्मदृष्टि से लिंगशरीर देखने की शक्ति है और ज्ञान से रहित है वह भी मेरे मत में मूर्ख और पशु है | हे रामजी! जब मनुष्य वासना का त्याग करता है-अर्थात् इस अहंकार को कि मैं हूँ त्याग करता है तो आगे विश्व नहीं देता केवल निर्विकल्प ब्रह्म भासता है और उसके प्राण नहीं उड़ते वहीं लीन हो जाते हैं, क्योंकि उसका चित्त अचित्त हो जाता है | जबतक अहंकार का संयोग है तबतक विश्व भी चित्त में स्थित है | जैसे बीज में वृक्ष और तिलों में तेल स्थित होता है तैसे ही उसके हृदय में विश्व स्थित है | जैसे मृत्तिका में बड़े छोटे बासन, लोहे में सुई और खड़ग और बीज में वृक्षभाव स्थित है चैतन्य अथवा जड़ हो तैसे ही यह
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01-12-2012, 06:08 PM | #1167 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
संकल्पकलना में भेद है, स्वरूप से कुछ नहीं और वैसे ही यह जगत् भी है | हे रामजी! विश्व संकल्पमात्र है, क्योंकि दूसरी अवस्था में नाश हो जाता है | यह जाग्रत जो तुमको भासती है सो मिथ्या है | जब स्वप्न आता है तब जाग्रत नहीं रहती और जब जाग्रत् आती है तब स्वप्न नष्ट हो जाता है,जब मृत्यु आती है तब सृष्टि का अत्यन्त अभाव हो जाता है और देश, काल, पदार्थ सहित वासना के अनुसार और सृष्टि भासती है | हे रामजी!यह विश्व ऐसा है जैसे स्वप्न नगर | जैसे संकल्पपुर होते हैं तैसे ही ये सब संकल्प उड़ते फिरते हैं | कई सृष्टि परस्पर मिलती हैं, कई नहीं मिलतीं परन्तु सब संकल्परूप हैं और भ्रम से और का और भासता है |
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01-12-2012, 06:08 PM | #1168 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे कोई पुरुष बड़ा होता है और कोई छोटा भासता है तो छोटे को बड़ा भासता है और जैसे हाथी के निकट और पशु तुच्छ भासते हैं और चींटी के निकट और बड़े भासते हैं तैसे ही जो ज्ञानवान् पुरुष है उसको बड़े पदार्थ देश, काल संयुक्त विश्व तुच्छ भासता है और वह उन्हें असत्य जानता और जो अज्ञानी है उसको संकल्पसृष्टि बड़ी होकर भासती है | जैसे पहाड़ बड़ा भी होता है परन्तु जिसकी दृष्टि से दूर है उस को महालघु और तुच्छसा भासता है और चींटी की निकट तुच्छ मृत्तिका का ढेला भी पहाड़ के समान है तैसे ही ज्ञानी की दृष्टि में जगत् नहीं, इससे बड़ा जगत् भी उसको तुच्छ रूप भासता है और अज्ञानी को तुच्छरूप भी बड़ा भासता है | हे रामजी! यह विश्वभ्रम से सिद्ध हुआ है | जैसे भ्रम से सीपी में रूपा और रस्सी में सर्प भासता है तैसे ही आत्मा के प्रमाद से यह भासता है पर आत्मा से यह विश्व भासता है पर आत्मा से भिन्न नहीं | जैसे निद्रादोष से जीव अपने अंग भूल जाते हैं और जागे हुए सब अंग भासते हैं तैसे ही अविद्यारूपी निद्रा में सोया हुआ जब जागता है तब उसे सब विश्व अपना आप दिखाई देता है | जैसे स्वप्न से जगा हुआ स्वप्न के विश्व को अपना आपही देखता है तैसे ही यह विश्व अपना आपही भासेगा |
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01-12-2012, 06:09 PM | #1169 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे रामजी! जब मनुष्य निद्रा में होता है तब उसे शुभ अशुभ विश्व में राग कुछ नहीं होता और जब जागता है तब इष्ट में राग और अनिष्ट में द्वेष होता है इसी प्रकार जबतक विश्व में हेयोपादेय बुद्धि है तबतक जो सर्वज्ञ भी हो तो भी मूर्ख है | हे रामजी! जब जड़ हो जावे तब कल्याण हो | जड़ होना यही है कि दृश्य से रहित आत्मा में स्थित हो वह आत्मा चिन्मात्र है | जबतक आत्मा से भिन्न जो कुछ सत्य अथवा असत्य जानता है तबतक स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती और जब संवित् फुरने से रहित हो तब स्वरूप का साक्षात्कार हो | इससे फुरने का त्याग करो | यह स्थावर-जंगम जगत् जो तुमको भासता है सो सर्व ब्रह्मरूप है | जब तुम ऐसे निश्चय करोगे तबसर्व विवर्त्त का अभाव हो जावेगा और आत्मपद ही शेष रहेगा | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह जीव आपने कहा सो जीव का स्वरूप क्या है, वह आकार को कैसे ग्रहण करता है, उसका अधिष्ठान परमात्मा कैसे है और उसके रहने का स्थान कौन है सो कहिये |
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01-12-2012, 06:09 PM | #1170 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी,! यह जो शुद्ध परमात्मतत्त्व निर्विकल्प चिन्मात्र है, उसमें चैत्योन्मुखत्व हुआ कि `मैं हूँ' ऐसे चित्कला अज्ञानरूप फुरी है और उसको देह का सम-बन्ध हुआ है उसी का नाम जीव है | वह जीव न सूक्ष्म है, न स्थूल है, न शून्य है, न अशून्य है, न थोड़ा है, न बहुत है, केवल शुद्ध आत्मत्व मात्र है | वह न अणु है, न स्थूल है, अनन्त चैतन्य आकाशरुप है उसी को जीव कहते हैं स्थूल से स्थूल वही है और सूक्ष्म से सूक्ष्म वही है | अनुभव चैतन्य सर्वगत जीव है, उसमें वास्तव शब्द कोई नहीं और जो कोई शब्द है सो प्रतियोगी से मिलकर हुआ है | जीव अद्वैत है उसका प्रतियोगी कैसे हो यही जीव का स्वरूप है | चैत्य के संयोग से जीव हुआ है और उसका अधिष्ठान चैतन्य आकाश, निर्विकल्प, चैत्य से रहित, शुद्ध, चैतन्य परमात्मतत्त्व है, उसमें जो संवित फुरी है उसी का नाम जीव है वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल और सबका बीज है |
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